शाम का समय था, जब सुनील स्क्रिप्ट और अपने सपनों के साथ थिएटर स्टूडियो पहुंचा था। वहां पर थिएटर ग्रुप के डायरेक्टर मिस्टर वर्मा एक स्ट्रिक्ट लेकिन अच्छे टीचर थे। उनकी नज़रों में सुनील एक होनहार लेकिन अधूरा एक्टर था, जिसे तराशने की ज़रूरत थी। जैसे ही सुनील ने थिएटर फेस्टिवल की खबर शेयर की, वर्मा जी के चेहरे पर खुशी की झलक आई

मिस्टर वर्मा : सुनील, मुझे पता था कि तुम्हारे लिए ऐसा मौका जरूर आएगा। लेकिन याद रखना, ये रास्ता आसान नहीं होगा। थिएटर का हर फेस्टिवल एक युद्ध है, और तुम्हें इसके लिए हर दिन तैयार होना होगा। तुम्हारे हर डायलॉग, हर मूवमेंट, और हर इमोशन में परफेक्शन होना चाहिए।

सुनील : सर, ये मेरा सपना है। मैं इसे किसी भी हाल में पूरा करूंगा। अगर ‘दिल वाले’ का राज ट्रेन पकड़ सकता है, तो मैं भी इस मौके को नहीं छोड़ूंगा।

मिस्टर वर्मा  : अच्छा है, सुनील। लेकिन सिर्फ बातें करने से कुछ नहीं होगा। अब देखना है कि तुम्हारे अंदर वो जुनून है या नहीं, जो किसी भी किरदार को आत्मा दे सके।

अगले दिन से सुनील ने अपनी प्रैक्टिस की शुरुआत की। अब वो हर सुबह जल्दी उठता और थिएटर जाने के लिए तैयार हो जाता। थिएटर का हॉल उसकी दुनिया बन गया। वहां की लकड़ी की पुरानी कुर्सियां, स्टेज पर लटकते काले पर्दे, और रोशनी के बल्ब—सब उसे याद दिलाते थे कि यहीं उसकी किस्मत बदलेगी।  

पहले दिन, वर्मा जी ने उसे एक गहरे इमोशनल सीन पर काम करने को कहा।  

मिस्टर वर्मा : सुनील, ये सीन एक बेटे का है, जो अपनी मां को खोने के बाद पहली बार अपनी फीलिंग्स को जाहिर कर रहा है। ये दर्द और प्यार का मेल है। इसे सिर्फ शब्दों में नहीं, अपनी आंखों और फीलिंग्स में दिखाना होगा।  

सुनील ने अपनी स्क्रिप्ट ली और ध्यान से पढ़ा। लेकिन जैसे ही उसने सीन पर काम शुरू किया, वर्मा जी ने उसे बीच में रोका

मिस्टर वर्मा : नहीं, सुनील। ये इमोशन सिर्फ जुबान से नहीं आते। तुम अपनी आंखों से सच दिखाओ। जैसे सलीम खान ने ‘कल हो या ना हो’ में नर्सिंग होम वाला सीन किया था। वो सिर्फ एक्टर नहीं, एक एहसास था। तुम्हें भी उसी एहसास को पकड़ना होगा।

शाम के वक्त रिया भी थिएटर आ गई। उसने सुनील की प्रैक्टिस देखी और कुछ देर तक उसे चुपचाप निहारती रही। ब्रेक में उसने

पास आकर कहा,  

रिया : सुनील, तुम अच्छा कर रहे हो। लेकिन तुम्हारी परफॉर्मेंस में वो गहराई नहीं है, जो दर्शकों को अंदर तक छू सके। तुम्हें किरदार को महसूस करना होगा।

सुनील : लेकिन मैं कोशिश तो कर रहा हूं।,  

रिया : किरदार को महसूस करने का मतलब है कि तुम वही बन जाओ। जैसे सलीम खान ने “मेरा स्वदेश” फिल्म में किया था। याद है, जब वो अपने गांव लौटता है और पहली बार ट्रेन में पानी बेचने वाले लड़के को देखता है? वो सिर्फ एक्टिंग नहीं थी, वो सच्चाई थी। अगर तुम अपने किरदार को नहीं जी सकते, तो ऑडियंस भी नहीं जुड़ पाएंगे।

रिया की बातों ने सुनील को सोचने पर मजबूर कर दिया। उस रात उसने अपने घर की छत पर बैठकर आसमान की ओर देखा। उसका मन बेचैन था।  

सुनील (खुद से) : अगर सलीम खान हर फिल्म में अपने किरदार को दिल से जी सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं? मुझे भी हर किरदार को उसी सच्चाई से निभाना होगा। क्योंकि अगर ये फेस्टिवल मेरा सपना है, तो इसमें हर पल मेरा दिल झलकना चाहिए।

अगले दिन से सुनील ने अपनी प्रैक्टिस को पूरी तरह बदल दिया। उसने न सिर्फ डायलॉग्स याद किए, बल्कि उन्हें अपनी जिंदगी से जोड़ने की कोशिश की। वर्मा जी ने उसे ‘प्यार और दर्द’ वाले सीन पर काम दिया।  

सुनील (प्रैक्टिस के दौरान) : सलीम खान की तरह

अगर प्यार किसी से करना है, तो उसे शिद्दत से करो। जैसे ‘कभी हैप्पी कभी गम’ में काजोल से किया था। हर शब्द, हर इमोशन को महसूस करो। और दर्द? दर्द तो वो है, जो ‘कल है या नहीं' में सलीम के दिल में दिखा था। वो दर्द, जो कभी जुबां पर नहीं आया, लेकिन हर आंख में साफ झलक गया।

सुनील ने स्टेज पर कदम रखा। आज उसे एक ऐसा सीन करना था, जहां एक बेटे को अपनी मां की याद में रोते हुए दिखाना था। वह खुद को पूरी तरह किरदार में डुबो चुका था।  

सुनील (स्टेज पर)(कांपती आवाज़ में) : मां, तुम मुझे छोड़कर क्यों चली गईं? मैं कमजोर नहीं था, लेकिन तुम्हारे बिना… मैं टूट गया हूं।

मिस्टर वर्मा : नहीं, सुनील। तुम अपने डायलॉग्स को जी नहीं रहे हो। किरदार को महसूस करो। खुद को इस दुनिया से काट दो।

सुनील ने गहरी सांस ली और अपनी आंखें बंद कर लीं। उसने कल्पना की, जैसे वो सच में अपनी मां से बात कर रहा हो। उसने अपनी आवाज़ को दर्द से भरा और कहा,  

सुनील (फिर से) : मां, अगर तुम सुन सकती हो, तो एक बार वापस आ जाओ। मैं हार गया हूं। मेरे सपने, मेरी उम्मीदें सब अधूरी हैं तुम्हारे बिना।

इस बार उसकी आवाज़ में कुछ ऐसा था, जो पूरे थिएटर में सन्नाटा ले आया। वर्मा जी भी हैरान थे।  

मिस्टर वर्मा : शानदार, सुनील! अब यही इमोशन हर सीन में चाहिए। जैसे सलीम खान ने ‘चक दे' में हर मैच के साथ खुद को बेहतर बनाया था। तुम भी ऐसा ही करो।

अगले कुछ दिनों तक सुनील ने दिन-रात मेहनत की। उसने हर सीन को दिल से जिया, हर डायलॉग को याद किया। रिया और वर्मा जी उसकी प्रैक्टिस का हिस्सा बन गए।

सुनील (खुद से) : अगर उस फिल्म में सलीम खान हारकर भी जीत सकता है, तो मैं क्यों नहीं? मुझे डर नहीं है। मैं अपने सपने को हर हाल में सच करूंगा।  

रिया : तुम्हारा हर सीन अब दिल को छूता है। मुझे यकीन है, इस बार तुम जीतोगे। और शायद तुम्हारा सपना सच हो जाए।

सुनील : शुक्रिया, रिया। तुम्हारे बिना ये मुमकिन नहीं था। लेकिन असली लड़ाई अभी बाकी है। ‘अभी तो पिक्चर बाकी है, मेरे यार।

दोनों हंस पड़े। सुनील के अंदर अब आत्मविश्वास था, और उसकी मेहनत हर किसी को दिख रही थी। उसका सपना अब दूर नहीं लग रहा था।सुनील के लिए फेस्टिवल का दिन नज़दीक आ रहा था। हर दिन जैसे-जैसे बीत रहा था, उसकी धड़कनें तेज होती जा रही थीं। मिस्टर वर्मा के थिएटर ग्रुप में भी गहमागहमी थी। हर कोई अपनी-अपनी परफॉर्मेंस को लेकर गंभीर था, लेकिन सुनील की मेहनत और जुनून को देखकर बाकी कलाकार भी उसकी तारीफ करते नहीं थक रहे थे।  

एक दिन, वर्मा जी ने सुनील को बुलाया  

मिस्टर वर्मा : सुनील, तुम्हारे अंदर वो आग है जो बड़े कलाकारों में होती है। लेकिन इस फेस्टिवल में कुछ ऐसा करना होगा जो तुम्हें बाकी सब से अलग खड़ा कर दे। मेरी सलाह मानो, एक मोनोलॉग तैयार करो। और ये मोनोलॉग तुम्हारी खुद की कहानी होनी चाहिए। इसमें तुम्हारा दर्द, तुम्हारा संघर्ष और तुम्हारा सपना दिखना चाहिए। जब तक दर्शकों को ये महसूस न हो कि वो तुम्हारे साथ जी रहे हैं, तब तक जीत मुश्किल है।

सुनील : लेकिन सर, मैं अपनी कहानी कैसे लिखूं? मुझे शब्द नहीं मिल रहे।  

मिस्टर वर्मा : शब्द तो तुम्हारे दिल में हैं। बस उन्हें कागज पर उतारो। याद करो, बरेली की वो रातें, जब तुम छत पर बैठकर चांद को देखकर अपने सपनों के बारे में सोचते थे। याद करो वो वक्त, जब लोगों ने तुम्हें समझा नहीं। यही सब तुम्हारी परफॉर्मेंस का हिस्सा बनेगा।  

उस रात बरेली की हवाओं में एक अजीब सी ख़ामोशी घुली हुई थी। दूर कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़ और कभी-कभी किसी गुज़रती गाड़ी का हल्का शोर उस सन्नाटे को चीरता, फिर सब कुछ पहले जैसा शांत हो जाता। सुनील अपने छोटे से कमरे में अकेला बैठा था। उसने कमरे की लाइट बंद कर दी थी, जिससे पूरा कमरा एक गहरे साए में डूबा हुआ था। बस कोने में रखे टेबल लैम्प की लाइट चारों ओर फैली हुई थी,

टेबल पर एक खाली कागज और पेन रखा था। सुनील ने धीरे से पेन उठाया, लेकिन हाथ थोड़ा हिचकिचा गया। शायद शब्दों को पन्ने पर उतारने से पहले दिल में हलचल ज़्यादा हो रही थी। वह थोड़ी देर तक बस पेन को घुमाता रहा, जैसे सोच रहा हो कि कहां से शुरू करे।

उसकी आंखें उस कागज से हटकर धीरे-धीरे कमरे की दीवारों पर टिक गईं।जहां धूल उड़ती थी, पर सपनों की कोई हद नहीं थी। उसे याद आया, कैसे वो अपने पिता के "जय माता दी स्टोर" के बाहर बैठकर राहगीरों को निहारा करता था—अजीब-अजीब लोग, उनकी बातें, उनके हावभाव, सबकुछ जैसे एक नाटक का हिस्सा लगता था।

सुनील : मैं उस शहर का लड़का हूं, जहां लोग सपनों की बात कम करते हैं, और रोटियों की फिक्र ज्यादा। जहां एक बच्चे का सपना डॉक्टर या इंजीनियर बनना होता है, लेकिन मैंने एक अलग सपना देखा। मैंने सपने में खुद को बड़े पर्दे पर देखा। उस वक्त लोगों मुझ पर हंसे, लेकिन मुझे अब उनकी हंसी की आदत हो गई थी। क्योंकि….

सुबह होने तक सुनील ने अपने मोनोलॉग को पूरा कर लिया। उसने खुद इसे पढ़ा और महसूस किया कि इसमें उसकी आत्मा झलक रही थी।  

अगले दिन रिया ने इसे पढ़ा और कहा,  

रिया : सुनील, ये परफेक्ट है। इसमें वो सब कुछ है जो तुम्हें एक बड़ा कलाकार बना सकता है। ये तुम्हारा हथियार है। बस इसे ऐसे परफॉर्म करना कि हर कोई महसूस करे कि ये उनकी भी कहानी है।  

 फेस्टिवल का दिन आखिरकार आ ही गया। बरेली का सबसे बड़ा थिएटर, जो हमेशा फिल्मों के पोस्टर्स से भरा रहता था, आज थिएटर आर्ट्स के पोस्टर्स से सजा हुआ था। शहर के कोने-कोने से लोग यहां आए थे। मंच के पीछे कलाकार अपनी तैयारियों में जुटे थे।  

सुनील अपने कॉस्टयूम में तैयार खड़ा था। उसकी धड़कनें तेज थीं, और मन में हल्का डर भी था। तभी रिया और धनंजय भी उससे मिलने आए

रिया : सुनील, तुम्हारे पास वो सबकुछ है जो इस फेस्टिवल को जीतने के लिए चाहिए। बस ये याद रखना कि तुम्हारी लड़ाई खुद से है, किसी और से नहीं। जब तुम मंच पर जाओगे, तो खुद को भूल जाना। बस वो लड़का बन जाना जिसने ये सपना देखा था।

धनंजय : भाई, ये तेरी फिल्म है। हारेगा तो घर वापस मत आना। समझा

सुनील : हां, पूरी कोशिश करूंगा।

इसके बाद थिएटर के बाहर जाने के लिए सुनील जब थोड़ा वक्त ले रहा था, तो उसे भीड़ में वही अजनबी इंसान दिखा जो उसे पार्क के पास दिखा था। उस अजनबी की आंखें गहरी और शांत थीं। सुनील ने उसे पहचानने की कोशिश की, लेकिन जब तक वह पास जाता, वो फिर गायब हो चुका था। तभी सुनील ने खुद से कहा,

सुनील (खुद से) : ये कौन हो सकता है? क्यों हर बार मुझे अजीब वक्त पर दिखता है?

रिया : सुनील, वक्त हो गया। चलो, अपनी जगह पर वापस चलो। ये फेस्टिवल तुम्हारे नाम करने का वक्त है।

सुनील मंच के पीछे खड़ा था। एक-एक करके कलाकार अपनी परफॉर्मेंस दे रहे थे। हर बार जब नाम पुकारा जाता, तो उसकी धड़कन तेज हो जाती। अब उसकी बारी थी।  

अनाउंसर - अब मंच पर आ रहे हैं बरेली के जूनियर सलीम खान यानी सुनील। कृपया तालियों से स्वागत करें।

सुनील ने गहरी सांस ली। उसने रिया और धनंजय की तरफ देखा। उनकी आंखों में विश्वास झलक रहा था। वर्मा जी ने उसके कंधे पर हाथ रखा  

मिस्टर वर्मा : याद रखना, सुनील। आज का दिन तुम्हारा है। ये मत सोचो कि तुम किसी के लिए परफॉर्म कर रहे हो। बस अपने सपने को जीओ।

सुनील : सर, ये मेरी फिल्म है। मैं इसे पूरी शिद्दत से जीने वाला हूं।

वो धीरे-धीरे मंच की तरफ बढ़ा। हर कदम के साथ उसका आत्मविश्वास बढ़ रहा था। स्टेज पर पहुंचते ही उसने हल्की रोशनी में बैठे दर्शकों को देखा। उसकी आंखों में एक गहरी चमक थी।  

जैसे ही सुनील ने माइक उठाया और अपनी परफॉर्मेंस शुरू करने को तैयार हुआ, हॉल में सन्नाटा छा गया। सुनील का हर सपना, हर डर, और हर संघर्ष अब उसकी एक्टिंग के जरिए जिंदा होने वाला था। लेकिन इस कहानी का अंत अभी बाकी था—क्योंकि असली लड़ाई अभी शुरू होने वाली थी। क्या सुनील इतने लोगो के बीच परफॉर्म कर पाएगा? आखिर अब आगे क्या होगा ?

जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

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