​​देविका इस उधेड़बुन में है कि आखिर शिवम अब क्या करेगा? तभी उसकी मम्मी के फोन पर शिवम का फोन आता है। घबराई हुई देविका जैसे ही फोन उठाती है, उसे किसी तरह की कोई आवाज नहीं आती। थोड़ी देर तक "हैलो" कहने के बाद जब सामने से कोई जवाब नहीं आता, तब वह फोन कट कर देती है और उसी नंबर पर फोन लगाती है।​

​​देविका: कमाल है, फोन किया तो बात नहीं की, अब मैं उसे फोन कर रही हूँ तो उठा ही नहीं रहा है।​

​​देविका जैसे धीरे-धीरे बड़बड़ाते हुए ऐसा कहती है, सामने बैठी उसकी माँ देविका से कहती है: क्या हुआ बेटा, क्या बोले चली जा रही हो? किसने फोन किया था और बात नहीं की? और तुम किसको फोन लगा रही हो, जो उठा नहीं रहा?​

​​देविका: शिवम।​

​​एक झटके में शिवम का नाम लेकर देविका अपनी माँ को देखती है और उनके हाथों में उनका फोन देते हुए वहां से चली जाती है। यहाँ शिवम बाइक लगाकर सामने खड़े शख्स से कहता है: तो तू मानव है! सामने खड़ा शख्स उससे हाँ में सिर हिलाते हुए कहता है: क्या मैं तुझे जानवर दिख रहा हूँ? इस पर शिवम को गुस्सा आ जाता है और वह उससे कहता है: तुझसे जितना पूछा है, बस उसका जवाब दे! सामने खड़े शख्स को अब शिवम का उससे ऐसे बात करना अच्छा नहीं लगता, तब वह उससे कहता है: ओए! नज़रें घुमा कर देख, यहाँ सिर्फ मैं ही नहीं, बल्कि हर कोई मानव है। यह बेहद अटपटी सी बात सुनकर शिवम जो मानव समझ रहे शख्स के करीब आ रहा था, रुक जाता है और उसके चेहरे पर आए भाव से साफ है कि वह उस शख्स की इस बात को नहीं समझा है। जिसे देखते ही वह नौजवान जोर से हँसता है और कहता है: अबे मुंह देख तेरा! जैसे किसी बिच्छू ने डंक मारा हो। यह सुनकर शिवम जैसे ही उस शख्स का कॉलर पकड़ता है, वह शख्स एक ही झटके में कहता है:  ज-ज-ज-जीत! जीत नाम है मेरा!​

​​शिवम उसका कॉलर छोड़ते हुए उससे कहता है : हर चीज़ पर और हर समय पर मजाक अच्छा नहीं लगता। जीत, जो कि शिवम के गुस्से को देखकर सच में डर जाता है, वह उसे माफी मांगते हुए कहता है:​

​​जीत: सॉरी यार! मैं खुद ज़िंदगी की इतनी कशमकश में हूँ कि हंसी-मजाक के बहाने ढूंढ लेता हूँ! सॉरी!​

​​जीत के ऐसा कहते ही, शिवम अपनी बाइक पर जा बैठता है। वह जैसे ही बाइक स्टार्ट करने लगता है, कि जीत को रियलाइज होता है कि यह किसी मानव को ढूंढ रहा है, तब वह उसे रोकते हुए पूछता है:​

​​जीत: यार तुम किसे ढूंढ रहे हो?​

​​मैं मानव नाम के लड़के को ढूंढ रहा हूँ! शिवम अपनी बात पर बहुत क्लियर है। इस समय जैसे ही जीत शिवम को देखता है, उसे कुछ ठीक नहीं लगता, तब वह कंफर्म करने के लिए उससे पूछता है:​

​​जीत: तुम कौन से मानव को ढूंढ रहे हो? मेरा मतलब है यहाँ तो बहुत सारे मानव होंगे न?​

​​इस पर शिवम कुछ सोचता है और उसे फोन पर उन आंटी से हुई बात याद आती है, तब वह कहता है: कोई मानव है यहाँ, जिसकी पता नहीं किसी चीज़ की दुकान है, शायद कपड़े या टेंट वेंट की। यह बात सुनते ही जीत समझ जाता है कि हो न हो यह शिवम उसके दोस्त मानव को ही ढूंढ रहा है। तब जीत समझदारी दिखाते हुए शांत रहता है, जिसे देखकर शिवम उससे पूछता है: जानते हो क्या तुम किसी मानव को?​

​​जीत: नहीं।​

​​जीत झट से ना में सिर हिलाते हुए उसे मना कर देता है। जिसे देखकर शिवम कुछ रिएक्ट नहीं करता, मगर उससे कहता है: तुम्हें अगर किसी मानव के बारे में पता चले तो मुझे बताना। मैं यहाँ कल फिर आऊँगा और वहाँ से चला जाता है। उसे जाते ही जीत मानव के घर के लिए निकलता है। यहाँ सुरु के घर पर लोगों का आना-जाना लगा हुआ है, जो शास्त्री जी का हाल पता करने के लिए आ रहे हैं। वहीं जब सुरु के फोन पर दिया का फोन आता है, जिसे वह पिक करने के लिए घर के एक कोने पर जाकर बात करती है:​

​​सुरु: हाँ दिया, बोल!​

​​सुरु की आवाज़ बहुत कम है, जिसे दिया पहचान नहीं पाती और वह सामने से कहती है: हेल्लो, कौन बोल रहा है? यहाँ सुरु थोड़ी आवाज़ निकालते हुए उससे कहती है:​

​​सुरु: मैं सुरु बोल रही हूँ।​

​​मगर दिया को फिर से सामने वाले की आवाज़ नहीं समझ आती, तब वह कहती है: देखिए, जो कोई भी बात कर रहा है, मुझे आपकी कोई भी बात समझ नहीं आ रही है। मैं दिया हूँ! सुरु की स्कूल की दोस्त, प्लीज़ मेरी उससे बात करवा दो...थोड़ा अर्जेंट है! यह सुनते ही सुरु अपना गला साफ करते हुए थोड़ी और ऊँची आवाज़ में कहती है:​

​​सुरु: हेल्लो दिया! मैं सुरु बोल रही हूँ यार!​

​​इस बार उसकी आवाज़ दिया तक पहुँच जाती है और वह उससे कहती है: क्या यार! ऐसे नहीं बात कर सकती थी? मुझे लगा पता नहीं कौन बात कर रहा है। दिया के ऐसा कहने पर सुरु उससे कहती है:​

​​सुरु: अरे वह सब छोड़, मैं ज़्यादा बात नहीं कर सकती! तू बस यह बता, क्या अर्जेंट बात है?​

​​यह सुनते ही दिया समझ जाती है कि शायद सुरु के पापा घर आ गए हैं, इसलिए वह बात नहीं कर पा रही है। तब वह बहुत ही समझदारी के साथ उससे कहती है: ओह, अच्छा ऐसा है क्या! अरे सुरु सुन... वह गेम शुरू होने वाली है। तू तेरा सामान लेकर आना, मैं मेरा सामान लेकर आती हूँ, फिर हम दोनों मिलकर साथ में वह गेम खेलेंगे। उसके कई लेवल्स हैं, तो थोड़ा टाइम लग सकता है। अपने घर पर कह कर आना। दिया के मुंह से यह सुनते ही, सुरु मन ही मन में सोचती है:​

​​सुरु: यह तो कितनी प्रोफेशनल लगती है! कितनी सफाई से कितने बैलेंस करके शब्दों को बोल रही है! जब मैं इस मुकाम तक पहुँच जाऊँगी, तब मैं भी ऐसा ही करूंगी! यह तो कितना सेफ है।​

​​दिया से बात करते ही सुरु के चेहरे पर एक बार फिर से एक्साइटमेंट आ जाती है और वह जैसे ही फोन कट करके पलटती है, यह देखकर हैरान हो जाती है कि उसके ठीक सामने मानव खड़ा है। उसका सकपकाया हुआ चेहरा देखकर मानव उससे पूछता है:​

​​मानव: क्या हुआ सुरु?​

​​मानव के ऐसा पूछते ही, सुरु की साँसें ऊपर-नीचे होने लगती हैं और वह मन ही मन वह सब बातें रिपीट करने लगती है, जो उसने अभी-अभी दिया के साथ फोन पर की हैं।​

​​सुरु: क्या यार! यह कहाँ था? क्या यह मेरे पीछे खड़ा सारी बातें सुन रहा था? कहीं मैंने कुछ ऐसा तो नहीं कहा था न कि इसे मुझ पर शक हो गया है! अरे यार सुरु! क्या करती है! तुझे तो पता है तेरा घर कितना छोटा है और फिर आज यहाँ सारे लोग आए हुए हैं! तू यह सब बातें कहीं और जाकर भी तो कर सकती थी न! या कहीं बाहर चली जाती यार! या फिर तुझे फोन ही नहीं उठाना चाहिए था!​

​​सुरु मानव को देखकर यह सब सोच रही होती है कि तभी मानव सुरु से दोबारा से पूछता है:​

​​मानव: क्या हुआ सुरु? कोई प्रॉब्लम है क्या?​

​​यह सुनकर सुरु खुद को सँभालते हुए उससे कहती है:​

​​सुरु: न-न...नहीं तो, मुझे कुछ क्यों होगा! सब ठीक है! उल्टा तुम यह बताओ कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो?​

​​मानव चेहरा बनाते हुए सुरु से कहते हैं:​

​​मानव: घर पर इतने सारे लोग आ जा रहे हैं, तो आंटी ने मुझसे कहा कि कुछ कुर्सियाँ यहाँ इस कोने पर रखी हैं, तो मैं बस इन्हें ही लेने आया था।​

​​मानव के हाथों में कुर्सियों को देखकर वह एक गहरी साँस लेते हुए उससे पूछती है:​

​​सुरु: ओह! तो मतलब तुम अभी-अभी यहाँ आए हो?​

​​इस पर मानव हाँ में सिर हिलाते हुए उससे कहता है:​

​​मानव: हाँ सुरु, मैं बस अभी आया! देखा तो तुम किसी से फोन पर बात कर रही थी, इसलिए चुपचाप यहाँ से जा ही रहा था कि तुम पलट गईं।​

​​यह बात सुनकर उसके चेहरे की चमक लौट आती है और वह मन ही मन सोचती है:​

​​सुरु: बच गई सुरु! आज के बाद ऐसी गलती नहीं करना।​

​​मानव सुरु को मुस्कुराते हुए देखता है, तब वह उससे कहती है:​

​​सुरु: अब तुम क्या चाहते हो, कि इन कुर्सियों पर मैं बैठूँ?​

​​सुरु के ऐसे कहते ही, मानव को रियलाइज होता है कि वह उसे ही देख रहा था। तब थोड़ा शर्माते हुए, मानव सुरु को "नहीं" का इशारा करता है और वहाँ से निकलता है। सुरु भी उसके पीछे अंदर कमरे तक जाती है। यहाँ देविका का दिमाग यह सोचकर खराब है कि जब किस्मत उसे उसके मन मुताबिक इंसान से मिलवा रही है, तो कहीं शिवम इसको खराब न कर दे, वह मन ही मन सोचती है:​

​​देविका: मैं जानती हूँ यह शिवम सब खराब कर देगा, मुझे कैसे भी करके इसे आगे बढ़ने से रोकना होगा! मगर मैं कर क्या सकती हूँ! क्या करूँ यार! मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है।​

​​अपने कमरे में चहलकदमी करते हुए देविका ऐसा सोचती है, तब उसे लगता है कि वह हार नहीं कर सकती। वह फिर सोचती है: ​

​​देविका: नहीं, नहीं! मैं हार  नहीं कर सकती! मुझे कुछ तो करना ही होगा! मुझे शिवम को कुछ भी गलत करने से पहले रोकना ही होगा!​

​​ऐसा सोचते हुए देविका शिवम को फोन लगाती है, मगर फिर कुछ सोच कर फोन कट कर देती है। यहाँ शिवम के फोन पर देविका के फोन की एक मिस्ड कॉल दिखाई देती है। यह पहली बार है जब शिवम देविका को इग्नोर करता है। वह सोचता है: मैं जानता हूँ, देविका, तुम मुझे पसंद नहीं करती, इसलिए तुमने किसी और के साथ जिंदगी बिताने का फैसला लिया है! यह बात तुम्हें खुशी दे सकती है, मगर मुझे नहीं। तुम जो चाहे कर लो, पर मैं तुम्हें किसी और की कभी नहीं होने दूँगा। और मैं तुमसे तभी बात करूँगा जब मैं इस मानव नाम के चूज़े को तुम्हारे और मेरे बीच में से बाहर निकाल दूँगा।​

​​यहाँ सुरु के दिमाग में बस यह ही चल रहा है कि उसे अपने घर से निकल कर किसी तरह से दिया के पास जाना है, मगर यह उसके लिए इतना आसान नहीं होने वाला, क्योंकि उसे यहाँ से खाली हाथ नहीं, बल्कि एक भारी भरकम रकम लेकर जाना है। घर पर बीमार शास्त्री जी हैं और लोगों का आना-जाना लगा है। ऐसे में सुरु आखिर कैसे पैसों को लेकर जाएगी? वह जैसे-तैसे उस कमरे में जाती है जहाँ उसके पापा और बाकी के लोग हैं, यहाँ बैठा हर कोई शास्त्री जी से बातें कर रहा है। यह देखकर सुरु का दिमाग काम नहीं करता और वह मन ही मन सोचती है:​

​​सुरु: क्या यार, क्या करूँ मैं! यहाँ पर पापा हैं और सब लोग भी इसी कमरे में आ रहे हैं।​

​​तभी उसकी नज़र बेड के नीचे एक पुराने से झोले पर पड़ती है, जिसके अंदर पुराना सामान है। वहीं सुरु ने उस रकम को छुपाया है, जो उसने सट्टे में जीती थी। इसके साथ ही एक संदूक है, जिस पर ताला लगा हुआ है। सुरु ने इस संदूक में मानव के पैसे को रखा है। यह सब देखते हुए, सुरु के दिमाग में एक आइडिया आता है और वह अपनी माँ के पास जाकर उनके कान में कहती है:​

​​सुरु: मम्मी, मेरे स्कूल का एक प्रोजेक्ट है, जिसमें घर की पुरानी चीज़ों को मिलाकर एक अच्छी और उपयोगी चीज़ को बनाना है।​

​​यह सुनते ही उसकी माँ उससे कहती है: अरे वाह, यह तो बहुत अच्छी बात है बेटा! मुझे पता है, तू इन सब जुगाड़ वाली चीज़ों में बहुत अच्छी है। वैसे भी तेरे पापा की तबियत की वजह से तेरी स्कूल की बहुत छुट्टियाँ हो गई हैं और पढ़ाई का भी नुकसान हुआ है। मुझे लगता है कि अगर तू इस तरह की एक्टिविटी में हिस्सा लेगी तो कम से कम इनमें तुझे अच्छे नंबर मिल जाएंगे। माँ की बातों को बेमन सुनती हुई, सुरु उनसे कहती है:​

​​सुरु: वह तो तब होगा न, जब मुझे सारा सामान मिलेगा।​

​​कबाड़ का क्या है बेटा, वह तो तुझे कहीं से भी मिल जाएगा। माँ के ऐसा कहने पर, सुरु उनसे कहती है:​

​​सुरु: अरे नहीं, नहीं माँ! यह सब चीज़ें बाहर से नहीं लेनी हैं। घर का जो सामान काम का नहीं होता, उसे यूज़ करना है।​

​​यह सुनते ही माँ उसे कुछ सोचते हुए कहती है: हम्म... मगर हमारे घर में तो सामान ही कितना है! देख रही है न तू! यहाँ तुझे ऐसा सामान कहाँ से मिलेगा! इस पर सुरु झट से अपनी माँ से कहती है:​

​​सुरु: अरे माँ, आप जब पापा के साथ हॉस्पिटल में थीं, तब मैंने घर का बहुत सारा ऐसा सामान निकाला था, जो काम नहीं आता! आप कहो तो मैं वह ले जाऊँ?​

​​यह सुनते ही माँ उसे कहती है: ओह! हाँ बेटा, अगर सामान काम का नहीं है, तो ले जा न! इसमें पूछने वाली कौन सी बात है! यह सुनते ही, सुरु उनसे बेड के नीचे रखे हुए एक पुराने झोले को दिखाते हुए कहती है:​

​​सुरु: माँ, मैंने वह सामान उस झोले में रखा है।​

​​सुरु जैसे ही अपनी माँ को उस झोले की तरफ इशारा करके बताती है, उसकी माँ तुरंत ही उस झोले को लाने के लिए जाती है। उन्हें वहाँ जाते देख, सुरु उनका हाथ पकड़कर रोकते हुए कहती है: ​

​​सुरु: अरे माँ! सिर्फ वहाँ से ही सामान नहीं लेना, उसके बगल वाली संदूक में भी मैंने एक दो चीज़ें रखी हैं! मुझे उनकी भी ज़रूरत होगी!​

​​यह सुनकर माँ रुक जाती है और खुद ही सुरु से कहती है: एक काम कर बेटा, जो तुझे चाहिए, तू खुद जाकर ले ले। सुरु जैसे अपनी माँ से यही कहना चाहती थी, तब माँ वहाँ बैठे लोगों से शिफ्ट होने के लिए रिक्वेस्ट करती है और सुरु बहुत ही समझदारी और सफाई के साथ उन पैसों को अपने बैग में डालती है और अपनी माँ से कहती है:​

​​सुरु: मम्मी, मुझसे यह प्रोजेक्ट अकेले नहीं होगा, इसके लिए मुझे दिया के घर जाना होगा। उसको और मुझे एक जैसा ही टास्क मिला है।​

​​यह सुनते ही माँ उससे कहती है: दिया! बेटा, उसका घर तो बहुत दूर है। तू वहां कैसे जाएगी? अभी तो मैं तुझे वहां लेकर नहीं जा सकती। तू देख रही है न, यहाँ पापा अकेले हैं और लोग भी बीच-बीच में आ जा रहे हैं। क्या थोड़े दिन...माँ जैसे ही उसे कुछ दिन रुकने के लिए कहती हैं, कि सुरु उनकी बात काटते हुए कहती है कि उसे यह प्रोजेक्ट जल्दी करना होगा और अब वह बड़ी हो गई है, वह दिया के घर अकेले जा सकती है। माँ उसे जाने के लिए मना करती है, कि तभी वह कुछ ऐसा कहती हैं कि सुरु के चेहरे का रंग बदल जाता है।​

​​अब कैसे मैनेज करेगी सुरु? क्या वह इस बार होने वाली इस क्रिकेट की सट्टेबाजी का हिस्सा बन पाएगी? क्या उसकी माँ उसे अकेले जाने की अनुमति देंगी? आखिर क्या कहा सुरु की माँ ने कि उसके चेहरे का रंग ही बदल गया! जानने के लिए पढ़ते रहिए!​ 

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