गुरु जगदीश जैसे ही आईने की तरह सच्चाई सामने लाते है, महाराजा वर्मा को अपने किये पर पछतावा होता है। उन्होंने तुरंत ही अमर पर लगाए आरोपों को खारिज करते हुए फांसी की सजा वापस लेने का ऐलान भी किया, लेकिन उससे पहले ही अमर को फांसी दे दी गई थी। महाराजा वर्मा को जैसे ही इस बात का संदेश मिला, वे आत्मग्लानी महसूस करने लगे, खुद को लाचार समझने लगे।  जैसे ही ख़बर प्रिया तक पहुंची, वो बेहोश हो गई। महारानी प्रियंवदा, प्रिया की हालत देखकर फूट-फूटकर रोने लगीं, उस बड़े से महल में अब चारों ओर मायूसी ने अपना घर बना लिया थ.  

महल की बड़ी-बड़ी खिडकियों से अब सन्नाटें चींख रहे थे, अमर की मौत की ख़बर से  काशी और इन्द्रप्रस्थ दोनों ही राज्यों में दुःख का पहाड़ गिर पड़ा था| ये एक मौका था जब दोनों राज्यों के बीच सब कुछ ठीक किया जा सकता था, पर वो मौका अब दम तोड़ चुका था।  

समय निकलने के बाद न तो आंसू काम आते हैं, ना हंसी, ना प्यार और ना  ही दोस्ती. अमर के चले जाने के बाद महाराजा वर्मा चाहे कुछ भी कर लें पर एक बेकसूर को सज़ा देने का गुनाह कभी भूल नहीं पायेंगे।  हालांकि काशी तो वो नगर है, जहाँ सभी को अपने पापों से मुक्ति और पश्चाताप करने का मौका मिलता है.  

अब इस नगरी के महाराजा भी आम इंसान बन चुके थें, जो अपनें पापों का पश्चाताप करने का प्रयत्न कर रहे थे और  प्रिया खुद को संभालने की कोशिश कर रही थी। जो उसने खोया था सिर्फ वही जानती थी।  

प्रेमी का बिछड़ जाना, जीते जी रूह से जिस्म का अलग होने जैसा है. प्रिया इस एहसास को लिए घुट रही थी. चारों पहर सातों दिन, प्रिया के लिए एक जैसे ही हो गए थे. प्रिया की उम्मीदों के इतने टुकड़े हो चुके थे कि वो टुकड़े प्रिया को चुभने लगे थे. एक दिन प्रिया शाम के वक़्त अपनी खिड़की के पास आँखें बंद किये बैठी थी कि तभी उसे एक आवाज़ आई ...  

अमर: आज बांसुरी नहीं बजाओगी ?  

ये आवाज़ सुनकर प्रिया की बंद आँखों से आंसू छलक आए। वो जानती थी कि ये आवाज़ सिर्फ और सिर्फ उसके खयालों sए आ रही ही पर फिर भी उसने कहां बात जारी राखी-

प्रिया  (रोते हुए ) : किसे सुनाऊँ?

अमर : मुझे! और किसे सुनाओगी?  

प्रिया : आप तो जा चुके हैं अमर।  

अमर : इतनी जल्दी जाने दे दिया मुझको।  

प्रिया : कैसी बातें कर रहे हैं , भला नदी कब चाहेगी की वो सागर से न मिले ?

अमर : आप हम से रोज़ मिलती तो हैं, प्रिया!  

प्रिया : ख़यालों में मिलने को आप मुलाक़ात कहते हैं?  

अमर : हम तो आपके कमरे में आती सूरज की किरणों को हमारी मुलाक़ात कहते है। जो आपके कमरे में जब भी पड़ती है, तो सारा अँधेरा दूर कर देती है.  

प्रिया : हमें यहाँ से ले चलिए अमर, हमारा  यहाँ दम घुटने लगा है.

अमर : हमने तो प्यार की ख़ातिर ज़िन्दगी की परवाह नहीं की, मगर आपको जीना होगा ताकि आने वाले सभी प्रेमियों के लिए आप प्रेम की मिसाल बन सके.  

प्रिया: क्या आप हमें गले लगा सकते है, अमर?  

अमर : हमसे गले लगना आपका हक है, प्रिया .

अमर की ये बातें सुनकर प्रिया मुस्कुराने लगती है और अचानक ही अमर से गले मिलने के खड़े हो उठती है, लेकिन दो कदम चलने के बाद उसकी हंसी फिर बेबसी में बदल जाती है।  

प्रिया, जब अपनी सपनों की दुनिया से वापस हकीकत की ओर आती है, तब अपने आपको और भी ज़्यादा तन्हा पाकर अमर की याद में फिर एक बार गुम होने लगती है। उसकी वक्त प्रिया की माँ उसके कक्ष में आती है, और कहती है -  

महारानी प्रियंवदा : आपने 3 तीन दिनों से कुछ भी नहीं खाया हैं प्रिया। आज अपने लिए ना सही तो कम से कम अमर के लिए ही खा लीजिये.  

अमर का नाम सुनते ही प्रिया ने अपना सर ऊपर उठाया और कहां,  

प्रिया : खिला दीजिये माँ ।  

महारानी प्रियंवदा : कब तक खुद को सजा देंगी आप?

प्रिया : जब तक अमर हमें अपने पास नहीं बुला लेते।  

प्रिया का जवाब सुनकर, महारानी प्रियंवदा इतना तो ज़रूर समझ गई की इस वक़्त प्रिया को एकांत की ज़रूरत है. इसलिए थोड़ा बहुत खाना खिलाकर, महारानी प्रियंवदा बिना कुछ कहें कमरे से निकल कर बाहर चली आई . प्रिया को न किसी का आना समझ आ रहा था, और ना किसी का जाना, उसके लिए ये संसार ढोंग बनकर रह गया था और आसपास के लोग उसे ढोंगी दिखाई दे रहे थें.  

प्रिया के अन्दर पीड़ा इतनी ज़्यादा बढ़ चुकी थी कि वो बाहर निकलने के बजाये, उसे मन ही मन खाने लगा। खुद में इतनी बातें रखकर भी प्रिया बिलकुल खोखली हो चुकी थी। वक़्त रहते अगर मन की बात ना  कही जाए, तो ये बातें मुसीबत बनने में ज्यादा वक़्त नहीं लेती। जहाँ एक तरफ प्रिया खुद से लड़ रही थी, वहीँ  दूसरी तरफ महाराजा वर्मा इस सोच में पड़े थे कि वो प्रिया से नज़रे कैसे मिलायेंगे। उसकी एकलौती संतान, जिसकी खुशियां उन्होंने अपने झूठे अहंकार की बलि चढ़ा दी थी।  

महाराजा वर्मा  : हम खुद से नज़रें नहीं मिला पा रहें हैं, महारानी।  

महारानी प्रियंवदा : आप प्रायश्चित कर रहे है। नियति को बदला नहीं जा सकता, पर जो बचा है उसका ध्यान रखा जा सकता है।    

महाराजा वर्मा : नहीं महारानी, हमने जिसे बचपन से लाड़ दिया, आज एक ग़लतफ़हमी के चलते, हमने उससे उसकी इतनी बड़ी ख़ुशी छीन ली.

महारानी प्रियंवदा : फिर इसका एक ही उपाय है कि आप प्रिया से खुद पहल कर के बात करें.  

महाराजा वर्मा : क्या वो हमसे बात करेंगी?  

महारानी प्रियंवदा : आप कोशिश करेंगे तो ज़रूर करेगी. आप उसके पिता है, उसने आपकी सारी बातें निःसंदेह मानी है।  

महारानी प्रियंवदा से सलाह लेने के बाद महाराजा वर्मा प्रिया से बात करने के लिए  कमरे की ओर जाते हैं। 

कमरे को देखकर उनके आँसू कोर पर आ कर रुक गए। अपनी जान से प्रिय बेटी, प्रिया को आँख बंद किये खिड़की से टिक कर बैठे देखा। प्रिया को ऐसे देख महाराजा वर्मा को एक पल के लिए लगा कि प्रिया को अकेले रहने देना चाहिए, पर फिर कुछ देर उन्होंने वहीं इंतज़ार किया। जब आधे घंटे बाद भी प्रिया वहाँ sए नहीं हिली तो उन्होंने प्रिया को आवाज़ दी।  

महाराजा वर्मा : प्रिया! हम क्षमा चाहते  हैं, हालाँकि जो पाप हमसे हुआ है वो क्षमा योग्य तो नहीं है, पर…

प्रिया : इसमें आपकी कोई गलती नहीं है पिता जी , दोष तो भाग्य का है.

महाराजा वर्मा : नहीं प्रिया, केवल हमारा, हम अपने घमंड में इतने जल रहे थे कि उसकी आंच में आपकी खुशियाँ ख़ाक हो गई.

प्रिया : हमने माँ से कहा था पिता जी, आप से भी कहेंगे, हमारा प्यार अमर है.

प्रिया की ये बात सुनकर, महाराजा वर्मा और ज़्यादा खुद को छोटा और हारा हुआ महसूस करने लगे। उन्होंने प्रिया से बात करना जारी रखा.

महाराजा वर्मा : हम जानते है प्रिया! इसलिए तो आपने बांसुरी अपने हाथ में रखी है.

महाराजा वर्मा की ये बात सुनकर प्रिया एकटक महाराजा वर्मा को देखने लगी और फिर महाराजा वर्मा से गले लगकर रो पड़ी.

प्रिया : पिता जी......  

महाराजा वर्मा : रो लो प्रिया.

प्रिया :  पिता जी, हमें अपनी सांसे बोझ लग रही है, हम अपनी सारी उम्मीद खो बैठे हैं। हमें अमर के पास जाना है। हम उनके बिना नहीं जी सकते।    

इतने दिनों बाद प्रिया को खुलकर रोता देख, महाराजा वर्मा ने उसे रोक नहीं। वे संतुष्ट थे कि उनकी बेटी उनसे बात कर रही है, उनके सिने से लग कर अपने दिल का बोझ हल्का कर रही है।  

कितनी अजीब बात है ना कि हम रोने को कमजोरी समझते है,  जबकि दिल का बोझ हल्का करके हमारे मन को मजबूत ये आंसू ही बनाते है.  

प्रिया की सिसकियाँ महाराजा वर्मा सुन रहे थे और खुद भी अपनी बेटी को इतनी पीड़ा में देख कर रोए जा रहे थे। प्रिया जैसे ही शांत हुई उसने कहां  

प्रिया : पिता जी, आज हमारा मन अब थोड़ा शांत हुआ है। हम कोशिश करेंगे इस दर्द से निकलने की, दुबारा जिन्दगी को मौका देने की.  

महाराजा वर्मा : हम आपके साथ है प्रिया।  

प्रिया की बातें सुनकर महाराजा वर्मा को थोड़ी तसल्ली हुई. इतने दिनों से जो महल सन्नाटों से घिरा हुआ था, वहाँ फिर हलचल शुरू होने लगी थी. काफी समय बाद महाराजा वर्मा, महारानी प्रियंवदा और राजकुमारी प्रिया ने एक साथ रात का भोजन किया. उन्होंने प्रिया के लिए वो सभी पकवान बनवाए जो उसे प्रिय थे। भोजन के बाद सभी अपने-अपने कक्ष की ओर बढ़ गए. अगली सुबह महाराजा वर्मा और महारानी प्रियंवदा चेहरे पर खुशी लिए अपनी राजकुमारी के कक्ष में गए।वहां का दृश्य देखा तो उनके होश उड़ गए, वो अपनी ही जगह पर बुत बनकर खड़े रह गए . जब उन्होंने अपनी बेटी के मूंह से सफ़ेद झाग बाहर आते देखा...  महारानी प्रियंवदा रोते हुए चींख पड़ी ।  

महारानी प्रियंवदा : प्रिया........  

महाराजा वर्मा : अपनी आँखों खोलो प्रिया।  

महारानी प्रियंवदा : जल्द राज्य वैद्य को बुलाइए महाराजा।  

महाराजा वर्मा : हमारी प्रिया हमें छोड़कर जा चुकी है,  महारानी।  

महाराजा वर्मा ने जैसे ही प्रिया के पार्थिव शरीर को उठाया उन्हें, वो प्रिय के जनम का दिन याद आ गया .जब उन्होंने पहली बार उसे गोद में लिया था. कितना पीड़ादायक पल था एक पिता के लिए ये। जिस बेटी की डोली निकालनी थी, अब उस शाही महल की चौखट से उसकी अर्थी निकालने वाली थी।  

प्रिया को उठाते वक़्त एक कागज़ फिसल कर, उसके हाथ से गिर गया. जिसे महारानी प्रियंवदा ने उठाया, उसमें लिखा था। 

प्रिया: हमने बहुत कोशिश की, पर हम असफल हुए। हम जा रहे है इस दुनिया से दूर दूसरी दुनिया में, जहाँ हमें शायद अमर का साथ मिले.

प्रिया का लिखा पढ़कर महाराजा और महारानी दोनों फुट फुटकर रोने लगे। प्रिया की हंसी से गूंजने वाला ये महल, मातम की चिखों से भर गया था. जिस महल में शादी की शहनाई बजनी थी , वहां ख़ामोशी ने अपने पाँव फैला लिए. प्रिया की मौत ने उस महल से सारी खुशियाँ छीन ली, महल अब बेरंग हो चूका था. यहाँ की दीवारें जो कभी अमर और प्रिया के प्यार की साक्षी बनी थी, अब उनकी जुदाई की वजह बन गई थी। प्रिया के जाने की ख़बर गुरु जगदीश तक पहुंचाई गई. वे जैसे ही ये खबर सुनकर महल पहुंचे, उन्होंने महाराजा से कहा, 

गुरु जगदीश : आपने प्रिया  के शरीर का अंतिम संस्कार तो कर दिया, मगर उसकी आत्मा को शान्ति नहीं मिली है।  

महाराजा वर्मा : आप कहना क्या चाहते है गुरुदेव?  

गुरु जगदीश : यहीं की आज अमावस्या की रात है, प्रिया की इच्छाएं अधूरी होने के कारण उसकी आत्मा इस महल में भटकती रहेगी और लोगों को नुकसान पहुंचाएगी। खासकर! उन सभी लोगों को जिन्होंने प्रिया को अमर से दूर करने की कोशिश की थी.  

महाराजा वर्मा : क्या इसका कोई उपाय नहीं गुरुदेव?  

गुरु जगदीश : केवल एक ही उपाय है, और वो है सात ऋषियों द्वाहान पूजन और महायज्ञ।  

महाराजा वर्मा : हम आज ही महामंत्री से कहकर ऋषियों को सूचना देते है ।  

महायज्ञ की तैयारियां आरंभ हुई. राज भवन में पूजा स्थल को महायज्ञ के स्थान बना दिया गया. सात ऋषियों के साथ गुरु जगदीश भी महायज्ञ के मंत्रोच्चार में शामिल हो गए। जैसे ही हवन कुंड की अग्नि  में हवन सामग्री डाली गई, अचानक से तेज़ हवा चलने लगी, जोर-जोर से चीखों की आवाज़ आने लगी, खिड़की दरवाज़े आपस में टकराने लगे. महल के सारे द्वारपाल , सैनिक , दासियाँ सब डर से भागने लगे. महाराजा वर्मा, महारानी प्रियंवदा घबरा कर गुरु जगदीश और ऋषियों के समक्ष जा खड़े हुए.  

महायज्ञ की सारी  सामग्री जलकर नष्ट हो गई और महायज्ञ अधुरा रह गया.  इस हलचल के बाद जब सब शांत हुआ, तो राजभवन की दिवार पर एक चिन्ह उभर के आया, जिसे देख गुरु जगदीश ने कहां कि “अब यहाँ  एक क्षण भी रुकना संकट को गले लगाना है। इस राजमहल को छोड़ तुरंत प्रभाव से छोड़ दो”.  

गुरु जगदीश की बात सुनकर महाराजा वर्मा ने तनिक भी देरी नहीं की महल छोड़ने में. गुरु जगदीश ने सभी से कह दिया की उस चिन्ह को दुबारा न देखें। आखिर क्या था वो चिन्ह क्या था उसका रहस्य?  जानने के लिए सुनिए पढ़ते रहिए। 

 

 

 

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