नारायण से अभी चिंतामणि ने जो कुछ भी कहा और उसने जिस तरीके से नारायण के चेहरे पर ही दरवाजा बंद कर दिया, ये सब देख नारायण को काफी तेज झटका लगा था।
उसकी आँखों में उबल रहा गुस्सा अब चिंता में बदल चुका था। तभी उसके पीछे खड़ी राधिका ने उससे कहा, “चिंतामणि ये सब क्या बोल रहा है जी? वो ऐसा क्यों कह रहा है कि आप अभी यही नहीं जानते हैं कि आप कौन हैं? वो ऐसी बहकी बहकी बातें क्यों करने लगा है?”
राधिका की बातों को सुन रहा चिंतामणि वहीं बैठ गया। पहले हाथ पर उभरी प्राचीन आकृति, फिर दीवाल पर लिखी बातें और अब बेटे के ऐसे व्यवहार ने नारायण को पागल सा बना दिया था।
नारायण ने अपनी पत्नी की ओर देखते हुए उससे कहा, “तुम आज इतना चिंता कर रही हो, जबकि ये सब तुम्हें उसी दिन देखना चाहिए था, जब उसे वो किताब मिली थी। तुम्हें उसे वो किताब नहीं पढ़ने देनी चाहिए थी राधिका।”
नारायण को यूँ घबराते देख राधिका को भी डर तो लग रहा था, लेकिन उसने खुद को संभालते हुए नारायण से कहा, “उसवक्त आप भी बिना हमारी बात सुनें बनारस चले गए थे। इस वजह से हमलोग खुद ही इतने परेशान थे, जो हमने इन बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। वैसे उस किताब में ऐसा क्या है, जो आपको इतनी चिंता हो रही है?”
राधिका की बातों को सुनते हुए नारायण अपनी जगह से उठा और अपने ज्योतिष की किताबों के बीच कुछ खोजने लगा। वो उन किताबों को खंगालते हुए ही राधिका से बोला, “ज्योतिष एक विज्ञान है राधिका, जबकि तंत्र मंत्र उससे काफी अलग हैं। ऊपर से आज के दौर में तांत्रिक क्रियाएं अधिकतर वही सीखते और सिखाते हैं, जिन्हें किसी का बुरा करना होता है। ये सब हमारे बेटे को बदल कर रख देगा राधिका।”
नारायण की बातों को सुन अब राधिका की धड़कनें भी तेज होने लगी थी। "हम अब क्या करेंगे जी? अगर आप जो कह रहे हैं, वो सच है, तो फिर हमें चिंतामणि को रोकना होगा। वरना भगवान जाने आगे क्या होगा?" राधिका की बातों से उसकी टेंशन को नारायण भी पहचान सकता था।
उसे यूँ चिंतित होते देख नारायण ने एक लंबी साँस लेते हुए उससे कहा, “तुम इस बारे में इतना मत सोचो राधिका। मैं इसे ठीक करने की कोशिश में जुट गया हूँ। समय के साथ सबकुछ ठीक हो जाएगा।”
राधिका से ये सब कहते हुए नारायण अभी भी अपनी किताबों के बीच कुछ खोज रहा था, लेकिन उसे वो नहीं मिला। इधर उसकी बातों को सुन राधिका के चेहरे से चिंता की लकीरें गायब होने लगी थी। ये देख नारायण ने राहत की साँस ली।
"भगवान का शुक्र है, राधिका ने मेरी बातों को सच मान लिया। वरना मैं उसे कैसे समझाता कि इन सारी घटनाओं के पीछे कहीं न कहीं मेरी कुंडली के सितारें ही हैं। लगता है, कोई जानबूझकर मेरे परिवार को भी परेशान कर रहा है। तुझे इसका पता लगाकर अपने परिवार को बचाना होगा नारायण।" ये सोचकर नारायण ने खुद को भीतर से मजबूत किया।
नारायण थोड़ी देर तक और उन किताबों के बीच कुछ खोजता रहा, लेकिन जब उसे वो नहीं मिला, तो उसने अपने मुंबई वाले गुरु ज्योतिषाचार्य सदाशिव के पास जाने का फैसला किया।
राधिका को इस बारे में बताकर नारायण जब घर से निकलने लगा, तो उसकी नजरें अपने बेटे के कमरे पर जाकर ठहर गई। उस कमरे के भीतर अभी चिंतामणि क्या कर रहा होगा, ये सोचकर नारायण को काफी घबराहट हो रही थी।
नारायण को वहीं खड़ा होकर जब कुछ और नहीं सूझा, तो उसने अपने पास रखी भभूत को उस कमरे के दरवाजे पर लगा दिया और वहाँ से निकल गया। अपने बेटे और परिवार की चिंता नारायण को खाये जा रही थी, लेकिन इसे अपने ऊपर हावी हुए दिए बिना वो खुद को मजबूत कर अपने गुरुजी के घर पर पहुँच गया।
नारायण को इतने दिनों में बाद अपनी आंखों के सामने देख ज्योतिषाचार्य सदाशिव ने उससे मुस्कुराते हुए कहा, “आओ नारायण आओ। बनारस की यात्रा के बारे में जब से तुमने मुझे फोन पर बताया था, तब से मुझे तुमसे मिलने की काफी इच्छा हो रही थी। तुम कितने भाग्यशाली हो नारायण, जो मेरे गुरु पंडित रामनारायण ने तूम्हारी आँखों के सामने अपनी आखिरी सांसे ली।”
सदाशिव की बातों को सुन नारायण ने उससे कहा, “ये सब तो बस आपका आशीर्वाद है गुरुजी। वैसे गुरुजी अभी मुझे यहाँ पर एक दूसरी चिंता खिंच लाई है। आप तो जानते हैं, बनारस में मैं त्रिकालदर्शी से मिला था और उसने मुझे ब्रह्मांड में हो रहे असंतुलन के बारे में बताया था।”
नारायण को इस तरह की बातें करते देख सदाशिव स्थिति की गंभीरता को समझ रहा था। "हाँ नारायण मुझे पता है, वहाँ पर क्या हुआ था और त्रिकालदर्शी ने तुम्हें क्या संदेश दिया था। तुम बताओ, अभी तुम्हें कौन सी बात परेशान कर रही है।" ये कहते हुए सदाशिव भी काफी गंभीर हो गए।
उनकी गंभीरता को देख नारायण ने उनसे कहा, “गुरुजी दरअसल बात ये है कि अब उस ब्रह्मांडीय असंतुलन का सीधा असर मुझे अपने परिवार पर दिखने लगा है। मेरे घरवालों के साथ भी अजीब सी घटनाएं हो रही हैं और मेरे साथ तो काफी अजीब चीजें घट रही हैं।”
सदाशिव से इतना कहते हुए नारायण ने उसे खुद के और अपने परिवार के साथ घटी सारी घटनाओं कर बारे में बता दिया। सदाशिव से सबकुछ कहकर नारायण ने उसके सामने अपनी वो हथेली रख दी, जिसपर वो अजीब आकृति उभर आई थी।
उस आकृति को देख सदाशिव के चेहरे पर भी चिंता की लकीरें उभर आई। वो थोड़ी देर तक नारायण के ही हाथ को घूरते रहे और फिर उन्होंने नारायण से कहा, “नारायण ये आकृति किस चीज से जुड़ी है, मुझे इसका जरा भी अंदाजा नहीं है। इसे देखने से तो ये किसी प्राचीन यंत्र की तरह लगता है, जो शायद ग्रहों से जुड़ा हुआ है। तुम्हारे हाथों पर आखिर खुद ब खुद ये आकृति कैसे उभर सकती है?”
सदाशिव, नारायण से जो सवाल कर रहे थे, वही सवाल नारायण को भी काफी परेशान कर रहा था। उसने गुरुजी की आँखों में आँखें डालते हुए उनसे कहा, “मुझे जरा भी अंदाजा नहीं है गुरुजी की आखिर ये क्या है और ये मेरे ही हथेली पर क्यों उभर आया। कृपया आप मेरी मदद करें और बताएं कि आखिर ये सब किस तरह का इशारा है।”
नारायण की बातों को सुनते हुए सदाशिव चुप थे। उन्होंने अगले ही पल अपनी आँखों को बंद कर लिया और नारायण की ओर देखते हुए बोले, “कई बार जवाब हमारे ही सामने होता है नारायण, लेकिन हम उसे देख नहीं पाते हैं। मुझे थोड़ा समय दो।”
नारायण से इतना कहकर सदाशिव चुपचाप अपनी आंखों को थोड़ी देर तक बंद करके बैठे रहे और नारायण उनका चेहरा देखता रहा। थोड़ी देर के बाद सदाशिव के चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई और उन्होंने अपनी आँखों को खोलते हुए कहा, “तुम्हारे सवालों का मेरे पास कोई सटीक जवाब तो नहीं है नारायण, लेकिन मैं तुम्हें ऐसा कुछ दे रहा हूँ, जिससे तुम्हें कुछ न कुछ मदद तो जरूर मिलेगी।”
सदाशिव से ये सब सुनकर नारायण हैरानी भरी निगाहों से उसे देख रहा था। ये देख सदाशिव ने नारायण से कहा, “जो मैं तुम्हें दे रहा हूँ, ये सब मेरी किताबें नहीं हैं नारायण। दरअसल मेरे गुरु पंडित रामनारायण ने जब तूम्हारी आँखों के सामने दम तोड़ा, तो इसके बाद उनकी बौद्धिक संपत्ति यानी कि किताबों और अन्य रचनाओं को शिष्यों के बीच बाँट दिया गया। ये वही प्राचीन ग्रंथ हैं और मुझे कुछ दिन पहले ही प्राप्त हुए हैं।”
सदाशिव की बातों को सुनकर नारायण के चेहरे पर उम्मीद की किरणें उभर आई। उसे अब लगने लगा कि शायद उसे अपने सवालों का कोई जवाब मिल जाये।
"आपका बहुत बहुत धन्यवाद गुरुजी। इन किताबों से मुझे बहुत सहायता मिलेगी। मैं आपसे बस एक विनती और करूँगा। इस धरती पर जो खतरा मंडरा रहा है, मेरे हिसाब से वो बहुत बड़ा है और उसे रोकने की जिम्मेदारी आपके इस शिष्य के ऊपर है। इसलिए आप सदैव मेरा मार्गदर्शन करते रहें।" सदाशिव से इतना कहकर नारायण उसके कदमों में झुक गया।
ये देख सदाशिव के चेहरे पर मुस्कान आ गई और उन्होंने नारायण से कहा, “मेरे गुरु पंडित रामनारायण जी ने मुझमें जो नहीं देखा, उन्हें वो शायद तुममें दिखा होगा। इसलिए तूम्हारी मदद करना तो मेरा परम कर्तव्य है। चिंता ना करो नारायण, इस लड़ाई में मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।”
अपने गुरु की बातों को सुन नारायण को थोड़ी हिम्मत मिली और वो उनका आशीर्वाद तथा उनके द्वारा दी गई किताबों को लेकर अपने घर जाने के लिए निकल गया। घर पहुँचने के बाद नारायण की नजरें जब चिंतामणि के कमरे पर पड़ी, तो वो अभी भी बंद था।
ये देख नारायण ने राधिका से इस बारे में पूछा, तो राधिका ने उसे बताया कि, "चिंतामणि अपने कमरे से बाहर नहीं निकला है और उसने खाना भी नहीं खाया है।" राधिका की बातों को सुन नारायण को चिंता तो हो रही थी, लेकिन उसने अभी चिंतामणि से कुछ नहीं कहा और अपने कमरे में चला गया।
कमरे में जाने के साथ ही नारायण ने दरवाजा लगा दिया और अपने गुरु से मिली पंडित रामनारायण की सारी किताबों को वहीं बिस्तर पर फैला दिया। नारायण को उन किताबों के ढेर में कई किताबें ऐसी दिख रही थी, जिन्हें उसने पंडित रामनारायण को बनारस में पढ़ते देखा था।
नारायण ने उन किताबों को अलग किया और एक एक करके बचे हुए ग्रंथो को खंगालना शुरू कर दिया। समय बीतता गया और शाम होने वाली थी, लेकिन नारायण को अभी तक अपने हथेली पर उभरे निशान या ब्रहांड के संतुलन से खिलवाड़ करने वालों से जुड़ी कोई भी जानकारी नहीं मिली थी।
"मैं ये कैसी मुसीबत में फंस गया हूँ, जो मुझे किसी भी किताब में अपनी परेशानी का हल नहीं मिल रहा है। आखिर मैं अब क्या करूं?" अपनी परेशानी का कोई भी हल ना मिलते देख नारायण निराश होकर बैठ गया। थोड़ी देर बाद वो उन किताबों को वापस लौटाने के लिए अपने झोले में रखने लगा।
तभी दो किताबों के बीच से अचानक ही एक डायरी नीचे गिरी। लाल रंग की उस डायरी को देख नारायण को बेहद आश्चर्य भी हुआ, क्योंकि उस डायरी पर धूल जमी हुई थी और वो काफी पुरानी भी लग रही थी।
"इन किताबों के बीच ये डायरी क्या कर रही है और मुझे ये अभी तक क्यों नहीं दिखी।" उस डायरी को देख ये सोचते हुए नारायण ने तुरंत उसे उठाया और उसके पन्नो को पलटने लगा।
उस डायरी के पन्नों को पलटते ही नारायण को ये एहसास हुआ, जैसे उसकी दुनिया भी पलट गई है। “इस डायरी में तो ब्रह्मांड में असंतुलन पैदा करने वाले एक पूरे समूह की जानकारी दी गई है। इसके मुताबिक 'कालांतक मंडल' नामक गुप्त समूह इस दुनिया में बेहद पहले से काम कर रहा है, जो ग्रहों की दिशा बदलकर मानव भाग्य को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है।”
उस डायरी में लिखा गया एक एक शब्द नारायण के लिए उसकी दुनिया बदलने वाला था। उसको पढ़कर नारायण की आँखें आश्चर्य से चौड़ी हो गई, “इसका मतलब ये कालांतक मंडल नामक गुप्त समूह के ही लोग हैं, जिन्होंने ब्रहांड के संतुलन को छेड़ा और इनकी वजह से मेरी कुंडली बदल गई। इनलोगों का मकसद तो इंसानों के भाग्य को नियंत्रित कर पूरी दुनिया को अपने इशारों पर नचाने का है।”
उस गुप्त समूह के बारे में पढ़ते हुए नारायण को ये एहसास होने लगा था कि आखिर उसकी टक्कर कितने ताकतवर लोगों से होने वाली है, "इस डायरी के मुताबिक दुनिया के सबसे शक्तिशाली लोग इस समूह के सदस्य हैं। नारायण तू इनके सामने तो अभी कभी नहीं टिकता, आखिर तू इनसे कैसे लड़ेगा।" ये सोचते हुए नारायण की चिंता बढ़ते जा रही थी।
तभी उसने उस डायरी के अगले पन्ने पर ऐसा कुछ पढा, जिसने उसे और भी तेज झटका दिया, “इस डायरी के मुताबिक तो बहुत पहले ही कालांतक मंडल को खत्म किया जा चुका है। फिर आखिर ये सब अभी कौन कर रहा है?”
नारायण उस डायरी को पढ़कर ये सोच ही रहा था, तभी उसे अपनी खिड़की से एक परछाई नजर आई। वो परछाई नारायण को ही घूर रही थी और उसे देख नारायण का पूरा शरीर भय से काँपने लगा।
आखिर किसने दी है इसवक्त नारायण के खिड़की पर दस्तक?
क्या है कालांतक मंडल और उसके खात्मे का रहस्य?
इस लड़ाई को लड़ने के लिए आखिर क्या करेगा नारायण?
जानने के लिए पढ़ते रहिए STARS OF FATE..
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