शेखर और अंकिता का रिश्ता ऐसे मोड़ पर था, जहाँ दोनों को पता था कि आगे रास्ता बंद है, पर भावनाओं में बहते मन को आज तक कौन रोक पाया है! उस को भूलने की ज़िद में अंकिता उसके और करीब आ गई थी। वह उसकी कमज़ोरी बनता जा रहा था। वापस जाने से पहले वह ख़ुद को इतना संभालना चाहती थी कि अगर कभी उस से सामना हो जाए तो वह ख़ुद को संभाल पाए।

भले उस के गले लगकर उसे पूरी दुनिया की खुशी मिल जाती थी पर उस ख़ुशी से वह अपनी दुनिया नहीं सजा सकती थी, बल्कि अपनी दुनिया बचाने के लिए उसे सबसे पहले उसको ही छोड़ना था। वह  फ़ैसला भी कर चुकी थी कि अब उस से दूर रहेगी मग़र अपने फ़ैसले पर कायम नहीं रह पाई। उसकी बहती आँखें देखकर, वह उसके दिल का हाल समझ गया था। उसका हौसला बढ़ाने उसने फिर एक फ़ैसला करने को कहा।

शेखर : - ( अंकिता के आँसू पोंछकर ) मैं तुम्हारी हालत समझता हूँ अंकिता। मैं जानता हूँ, तुम्हारी ख़ुद की एक दुनिया है जिसे तुम नहीं छोड़ सकतीं, और मैं तो तुम्हें खुश देखना चाहता हूँ। जो अंकिता इंडिया से आई थी, उसे यहीं शिकागो में ही छोड़ दो और जो यहाँ शिकागो में मिली, उसे अपने साथ ले जाओ। शिकागो वाली, अपनी ज़िंदगी जीना नहीं भूलती, सब को संभालने में ख़ुद को नज़र अंदाज़ नहीं करती। बेशक तुम अपने शेखर को भूल जाओ मग़र ख़ुद को कभी मत भूलना, किसी के लिए भी।

वह जो कुछ कहना चाहती थी, शेखर ख़ुद ही समझ गया। वह इतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी कि उसे साफ़ साफ़ कह पाए, कि अब वह उससे नहीं मिल पाएगी, पर उस ने फ़ैसला उसी के हाथ में छोड़ दिया था। अब वह जो भी कहेगी, वह मान लेगा। मन ही मन वह घबराया, कहीं अंकिता ऐसा कोई फ़ैसला न कर ले कि वह उसे देख भी न पाए। अपनी-अपनी सोच में डूबे दोनों अपनी अपनी सीट पर बैठ गए थे। वापसी का सफ़र शुरू हो गया था, वह मन ही मन रिक्वेस्ट कर रहा था।

शेखर : - ( मन में ) अपने फ़ैसले में मेरे लिए भी जगह रखना प्लीज। ऐसा कुछ मत कहना कि मैं तुम्हें देखने के लिए भी तरसता रहूँ। हफ्ते में, महीने में, साल भर में, या दो-चार साल में, जैसा तुम चाहो, पर एक बार मिलने के लिए जगह ज़रूर रखना, ताकि मैं उस दिन का इंतज़ार करते अपना बाकी समय आसानी से काट लूँ।

अंकिता : - ( मन में ) तुमने तो कह दिया, सख़्ती से फ़ैसला कर लो पर मैं सख़्ती कैसे करूं । तुम कहते हो ख़ुद को नज़र अंदाज़ न करूँ, और तुम्हारे बिना तो मैं ख़ुद को कहीं नज़र ही नहीं आती। अपनी दुनिया बचाने के लिए मुझे तुम्हें छोड़ना है और तुम्हें छोड़कर जो दुनिया बचती है , उसमें मैं कहाँ हूँ !!!

चौदह पंद्रह घंटे के सफ़र में दोनों मौन थे। उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ था पर दोनों एक ही दर्द से लड़ रहे थे। अंकिता ने भावनाओं को एक तरफ़ रखकर, ज़िंदगी की ज़रूरतों के हिसाब से फ़ैसला कर लिया। फ्लाइट लैंड होने के साथ शेखर की धड़कनें तेज़ हो रही थीं, और जब वह अपना सामान लेने अकेली चली गई तो उसका फ़ैसला भी उस को समझ आ गया था।

उस की हालत समझकर उस ने रोका भी नहीं, अपना आगे का सफर उसे अकेले ही तय करना था। वह अपना सामान लेकर एअरपोर्ट से बाहर आ गया। एक टैक्सी रोकी, तभी भागते हुए अंकिता भी उसी टैक्सी के लिए पहुँच गई पर उस को उधर आते देखकर पीछे हट गई। वह भी फिर उससे कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर पाया। उसे पीछे हटते देखकर उस ने अपना बैग आगे बढ़ा दिया और जैसे ही बैठने लगा, वह रो पड़ी।

अंकिता ; - ( रोते हुए ) मेरा फ़ैसला समझकर मुंह फेर रहे हो या अपना फ़ैसला मुझे समझाकर जा रहे हो? क्या हमारी आख़िरी मुलाक़ात इतनी रूखी होनी चाहिए? हम एक दूसरे से कभी न मिलने की कसम खा सकते हैं, पर एक दूसरे को छोड़ने का नहीं सोच सकते। ऐसा ही कुछ कहा था न तुमने???

शेखर : - ( पलटकर आते हुए ) मैंने ख़ुद को कोई भी कसम खाने का अधिकार नहीं दिया। तुमने जो फ़ैसला किया, उसे तुम्हारी आँखों में पढ़ा और निकल गया। मैं तुम्हें कमज़ोर नहीं करना चाहता । मुझे जो अंकिता मिली थी, बुझी बुझी सी थी, उदास थी, मग़र बहुत मज़बूत थी। मैंने उस को हँसना तो सिखा दिया पर उसे कमज़ोर बना दिया। आकार के ख़िलाफ़ जाकर शिकागो जाने का फ़ैसला करने वाली, शेखर को अपना फ़ैसला सुनाते डर रही है???

उस के जवाब के बाद अंकिता के पास कोई शब्द नहीं थे। शेखर ने अपना बैग टैक्सी से वापस उतार लिया और उस का सामान चढ़ा कर कहा, “जाओ, तुम्हारे घर में तुम्हारा परिवार इंतज़ार कर रहा होगा। मेरे पास कोई नहीं है, इंतज़ार करने वाला, आराम से चला जाऊँगा।” वह कुछ नहीं कह रही थी, मग़र उसकी आँखें कितनी ही बातें कर रही थीं। नज़र एकटक उसी पर टिकी थी, बोलने की कोशिश भी की तो नहीं बोल पाई।

वह अंकिता का हाथ पकड़ कर टैक्सी के पास लाया और फिर उसे बैठने को कहा। वह अपनी आँखें पोंछते हुए बैठी और एक सेकंड में वापस आकर उसके गले लगकर फूट फूट कर रो पड़ी। उस ने उसके सिर पर हाथ रख दिया और भरे गले से बोला, “अब तुम मुझे भी कमज़ोर बना रही हो,,, जितना जल्दी हो सके, चली जाओ! कहीं ऐसा न हो, फिर मैं जाने ही न दूँ ।” वह रोते हुए टैक्सी में बैठ गई, और शेखर दूर तक टैक्सी को जाते देखता रहा। जब टैक्सी दिखना बंद हुई तो एहसास हुआ कि वह बहुत दूर चली गई । घबरा गया… रोड पर घुटने के बल बैठकर वह चीख उठा, ‘’अंकिताअअअअअअ,,,,,, मैं नहीं रह पाऊँगा तुम्हारे बिना, प्लीज लौट आओ। मैंने तुम्हें जाने की इज़ाजत नहीं दी, दे ही नहीं सकता।  तुम्हारी जिम्मेदारियों ने मुझे मजबूर कर दिया, पर अब मैं खुद को नहीं संभाल सकता। मुझे भी तुम्हारी ज़रूरत है,,, प्लीज़ मेरी ज़िन्दगी से मत जाओ…लौट आओ…!!!''

आते जाते लोग उसे देख रहे थे पर उसे कोई होश नहीं था। उधर टैक्सी में जाती  अंकिता उस की तरह चीख नहीं पाई लेकिन उसके अंदर कितनी ही चीखें घुटकर रह गईं। उसे मौन रहना आता था, दर्द को दबाकर वह मौन बैठी रही। शेखर की बात भी याद आ रही थी “तुम जाओ, तुम्हारा परिवार इंतज़ार कर रहा है।” उसे पता था सुबह सुबह कोई उसका इंतज़ार नहीं कर रहा होगा, क्योंकि बच्चे सोए होंगे और आकार को इंतज़ार होता तो एयरपोर्ट आ जाता।

अपने परिवार को सोचते हुए उस का दर्द और बढ़ गया था। जिन बातों को वह नजर अंदाज़ कर देती थी, उन्हीं के लिए अब उसे बुरा लग रहा था। उसे याद आया, जब उसे यह असाइनमेंट मिला था। अगर वह चुप नहीं रहती, तो घर अच्छा खासा महाभारत हो जाता। आकार ने तो साफ़ कह दिया था, मत जाओ, किसी और का नाम दे दो, पर उस ने उसे कहा भी नहीं और चली भी गई। कितनी मुश्किल से फ्लाइट पकड़ पाई थी। वह भी शेखर की वजह से…!

अंकिता : - ( मन में ) शेखर,,,??? अगर नहीं जाती तो वह भी नहीं मिलता, और आज यह दर्द भी नहीं होता। काश, आकार की बात मान लेती और गुस्से में ही अपना नाम हटा लेती, तो सब कुछ पहले जैसा ही चलता रहता। न सोचने की फुर्सत थी, न ही दर्द होता था। बस ज़िंदगी चल रही थी और रूटीन बना था, पर ज़िंदगी के इस ख़ूबसूरत रूप को भी कभी नहीं देख पाती, जो शेखर ने दिखाया। अब अगर कोई दर्द है तो मुस्कुराने के लिए ढेर सारी यादें हैं और हमेशा से मेरी खुशी की वजह, मेरे बच्चे तो हैं ही

एयरपोर्ट से घर तक, एक घण्टे का रास्ता अंकिता ने खुद को बहलाने में ही निकाल दिया। हमेशा की तरह ख़ुद को हालात के सामने झुकाकर वह तैयार थी, अपनी दुनिया में वापस क़दम रखने। टैक्सी घर के सामने आकर रुकी और घर देखकर ही उस के कानों में बच्चों की बातें चहचहाने लगीं। सामान उतारकर अंदर आई तो काँप गई। घर का दरवाज़ा खुला पड़ा था। सुबह के छः बजे थे, ठीक से उजाला भी नहीं हुआ था, इतने जल्दी घर में किसी के उठने का तो सवाल ही नहीं उठता, फिर दरवाज़ा क्यों खुला है? एक पल में मन हज़ार आशंकाओं से भर गया। उसने सामान बाहर ही छोड़ा और भागती हुई अन्दर पहुँच गई।

घर में पूरी तरह सन्नाटा था। कोई नहीं दिख रहा था, आकार के कमरे की लाइट ऑन थी, हल्की चमक सिर्फ़ वहीं दिख रही थी। उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई “आकार,,, आक …”  दूसरी बार पूरा बोल ही नहीं पाई और लाइट जगमगा गई, पूरे हॉल में फूल बरसने लगे, चारों तरफ़ बैलून उड़ने लगे। वह हैरान थी, क्या हो रहा है। तभी दोनों बच्चे दौड़ते हुए आकर उस से लिपट गए, और वह अपना सारा दर्द भूल गई। बच्चों के वेलकम से उसे पता चल गया कि बच्चे कितनी बेसब्री से उसका इंतज़ार कर रहे थे।

सात दिन अकेले रहकर बच्चे घबरा गए थे। उस से बात करते करते दोनों रो पड़े। रजत से नहीं रहा गया और उस के सामने रोते हुए बोला, “अब कभी इतने दिन के लिए हमें छोड़कर मत जाना मम्मा, हमें आपकी बहुत याद आती थी। दीदी भी रोज़ रोती थी, पर आपको नहीं बताने देती थी। अब आप प्रॉमिस करो, इतने दिन तक कभी नहीं जाओगे।” रजत की बात सुनकर, अंकिता की आँखें डबडबा गईं। दोनों बच्चों को सीने से लगाकर रो पड़ी।

अंकिता : – ( रोते हुए ) मुझे माफ़ दो मेरे बच्चों, मैं नहीं जानती थी तुम लोग रह नहीं पाओगे। सात दिन तक मेरे बच्चे रोते रहे और वहाँ मैं…!

मम्मा अब कभी ऐसी ग़लती नहीं करेगी बेटा, तुम दोनों को छोड़कर कभी भी कहीं नहीं जाएगी। मैं इतनी सेल्फिश कैसे हो सकती हूँ। अपने बच्चों का दर्द नहीं समझ पाई, मेरे सामने वीडियो कॉल करके बच्चे हँस रहे थे और मैंने मान लिया कि बच्चे खुश हैं। उफ़्फ कितने सयाने हो गए मेरे छोटे से बच्चे और मैं इतनी लापरवाह…!!

उसको रोते देख, अश्विनी ने अपने भाई को डाँट दिया और उस के आँसू पोंछकर बोली, “अरे मम्मा, आप गुल्लू की बातों पर रोने लगीं। आपको पता नहीं, कित्ता शैतान है यह। आप इसको साथ लेकर नहीं गए ना, इसलिए झूठ बोल रहा है। मैं बिल्कुल भी नहीं रोई, और इसे भी नहीं रोने दिया।” अश्विनी हँस रही थी। उसके साथ गुल्लू भी हँस पड़ा। तभी पीछे से आकार ने कमर में हाथ डालते हुए कहा, “सॉरी अंकिता,,, बच्चों से प्रॉमिस तो किया था कि तुम्हें लेने एयरपोर्ट जाऊँगा पर सुबह उठ ही नहीं पाया” उसका हाथ झटकते हुए वह बोली, ‘’मैंने ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं की थी कि तुम लेने आओगे। अगर आते तो ज़्यादा अजीब लगता। पिछले सोलह सालों में अकेले चलना, अच्छे से सीख लिया है। गिरते हुए संभलना और संभलकर अपनी गृहस्थी संभालना, सब आने लगा…। अब तुम्हें अपना बिजनेस बड़ा करने के अलावा, कुछ भी करने की जरूरत नहीं है।''

आकार उसके बदले व्यवहार को हैरानी से देख रहा था। उस ने घर के नौकरों से भी कुछ नहीं कहा कि घर बिखर हुआ क्यों है, बल्कि वह खुद भी वहीं सामान फैलाकर बैठ गई और बच्चों को दिखाने लगी।

क्या आकार की हैरानी अंकिता पर शक की वजह बन जाएगी???

या किसी नए तूफ़ान में वह ख़ुद को ही फंसा लेगी???

जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

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