आदित्य और उसके दोस्त आगे-आगे भाग रहे थे और प्रेत गली के सारे प्रेत उनका पीछा कर रहे थे… किसी प्रेत का चेहरा जला हुआ था… किसी की दोनों आँखें निकली हुई थी… सारे प्रेत एक साथ चीख रहे थे। आदित्य और उसके दोस्तों को भागने के अलावा कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। अगर भूतों ने आज इन्हें पकड़ लिया तो ये सब मारे जायेंगे।  

प्रेत गली के सारे भूत ख़ुद को आज भी ज़िंदा मानते हैं, उन्हें ये यकीन ही नहीं कि वे मर चुके हैं, सो उनकी रफ़्तार भी इंसानों जैसी ही थी… कुछ प्रेत तेज़ तो कुछ धीरे भाग रहे थे और कुछ भूत तो ऐसे भी थे कि ज़रा देर भागने में ही उनकी साँस फूल जा रही थी। शुक्र है वो प्रेतात्माएँ ऐसा कर रहे थे, वरना उन पाँचों का क्या हश्र होता, यह तो सोच के भी बाहर है।  

आपके मन में सवाल ज़रूर उठ रहा होगा की आक्रोश भरे यह प्रेत, क्यों आदित्य, संध्या, काव्या, श्रीधर और रूद्र का पीछा कर रहे हैं?

 

एक बार एक बूढ़े प्रेत ने यही बात, एक जवान प्रेत को बताई थी। जब भी कोई नया बाशिंदा प्रेत गली में आता है तो सारी प्रेतात्माएँ उसे पकड़कर, उसकी परीक्षा लेते हैं। 

इतने लम्बे समय के बाद, ह्रदय गुफ़ा की प्रेत गली में कोई आया है, तो परीक्षा तो होगी! कड़ी परीक्षा! जो परीक्षा को पास  कर जाएगा, उसे छोड़ दिया जायेगा। और जो होंगे फेल , उनकी क़िस्मत में असीम दुर्गति लिखी हुई है… एटर्नल टॉर्चर !... वो फिर यहीं रहेंगे… इसी प्रेत गली में… हमेशा के लिए।   

उधर तेज़ रफ़्तार में दौड़ रहे आदित्य और उसके दोस्तों को ज़रा भी ख़बर नहीं थी कि अगर वे पीछा कर रहे भूतों के हत्थे चढ़ गए तो उन्हें अलग-अलग तरह की परीक्षा देनी होगी। किसी को अँधेरे चैंबर में उसके तमाम डरों के साथ कैद कर दिया जाएगा… क़ैद होने वाला व्यक्ति या तो अपने डरों से जीत जाएगा नहीं तो ख़ुद अपने लिए मौत मांगेगा। आखिरी बार यहाँ आये जिस इक्स्प्लोरर  को इन प्रेतों ने पकड़ा था… उसे बर्फ़ के चैम्बर  में कैद किया गया था और उस पर एक ही पाबंदी थी…  वो सो नहीं सकता था।  आखिर में हारकर उसने अपनी जान ले ली थी।   

 

आगे की दिशा में, कुछ देर और भागने के बाद अचानक ही रुद्र रुक गया। सामने एक बड़ी दीवार थी। वहाँ कोई और रास्ता नहीं था। रुद्र ने चारों तरफ़ देखा लेकिन उसे कोई रास्ता नहीं दिखा। आदित्य और श्रीधर ने दीवार पर बने कुछ चिन्ह देखे। वहाँ एक जगह कुछ नंबर भी लिखे हुए थे लेकिन किसी और भाषा में। ऐसे चिन्ह और नंबर उनमें से किसी ने कभी देखे ही नहीं थे। पर ऐसा अंदेशा हुआ उनको की इन चिन्हों और नम्बरों के सहारे ये दरवाज़ानुमा दीवार खुल सकता है। कुछ कोड  चाहिए।  अगर वो कोड ढूँढ लिया तो वे सब वहाँ से बाहर निकल सकते हैं। कोड ढूँढने का वक़्त भी बहुत ही कम था। श्रीधर और आदित्य ने बिना देर किये दीवार पे बने अलग अलग साइन  और सिंबल्स  को देखना शुरू कर दिया। काव्या भी उनकी मदद करने में लग गयी। तभी संध्या को फिर से अपने पिता की आवाज़ आई… वे बोले - “कितना भी भाग लो संध्या लेकिन तुम… खुद से नहीं भाग पाओगी। उस रोज़ वो एक्सीडेंट , वो सिर्फ़ तुम्हारे कारण हुआ था… अगर तुम इस दुनिया में आती ही नहीं तो आज… आज मैं और मेरी बीवी ज़िंदा होते।”

 

संध्या: चले जाओ, प्लीज़ चले जाओ यहाँ से… 

 

संध्या के पिता ने चिड़ते हुए कहा कि चला जाऊं? इस दुनिया से तो जा चुका हूँ… अब और कहाँ चला जाऊं?... हमें मार कर तुझे अब भी शांति नहीं मिली!!!

 

संध्या: तुम मेरे बाबा नहीं हो। मेरे बाबा मुझसे बहुत प्यार करते थे… तुम एक छलावा हो बस… निकल जाओ… अभी के अभी निकल जाओ मेरे दिमाग से… 

 

संध्या ने हिम्मत दिखाई तो उसके पिता की आवाज़ फिर नहीं आई। तभी रुद्र ने प्रेत गली के भूतों को सामने से आते देखा। वो अभी भी एक साथ चीख़ रहे थे।   

संध्या, रुद्र के पास आई और बोली…  

 

संध्या: क्या तुम इन्हें रोक नहीं सकते? बस थोड़ी देर के लिए, तब तक शायद यहाँ से निकलने का रास्ता मिल ही जाए। 

 

रुद्र: एक मंत्र है मेरे पास, उसके प्रयोग से, कुछ देर के लिए इन सब प्रेतों को एक जगह पर  फ्रीज़  किया जा सकता है लेकिन उस मंत्र का असर ज़िंदा लोगों पर भी पड़ता है और मैंने वो मंत्र कभी यूज  नहीं किया तो मुझे नहीं पता कि वो कैसा असर डालेगा और कितनी देर तक इन्हें रोक पायेगा। 

 

संध्या: तुम कोशिश तो करो, जो होगा देखा जायेगा। 

 

संध्या के कहने पर, रुद्र आगे बढ़ा। एक जगह रुक के, मिट्टी के ऊपर, रुद्र ने अपने चारों तरफ़ एक गोला बना लिया। फिर आँखें बंद करके उसने वो मंत्र पढ़ा। फ़ौरन ही मंत्र का असर हुआ… लेकिन सामने से आ रहे भूतों पर नहीं संध्या पर!!!  

संध्या को एक तेज़ झटका लगा, ऐसा जैसे बिजली का झटका। वो एकदम से ज़मीन पर गिरी और बेहोश हो गयी। आँखें खुली तो संध्या ने देखा कि वो एक सफ़ेद रंग के कमरे में है, एक सफ़ेद कुर्सी पर। उसने कपड़े भी सफ़ेद रंग के पहने हुए हैं और उसके हाथ-पाँव बंधे हैं। तभी कमरे का दरवाज़ा खुला और एक नर्स अंदर आई। नर्स को देखते ही, संध्या उसे पहचान गयी। ये वही नर्स थी जो मेंटल असाइलम में उसकी माँ की केयरटेकर  थी। संध्या ने बचपन में उसे अस्पताल में कई बार देखा था… संध्या उसे बिलकुल पसंद नहीं करती क्योंकि कहने को तो वो केयरटेकर थी लेकिन वो संध्या की माँ की ज़रा भी केयर  नहीं करती थी। उस नर्स के हाथ में एक ट्रे थी, उसमें एक इंजेक्शन और कुछ गोलियाँ रखी थी। ट्रे को पास रखी टेबल पे रखकर, नर्स दूसरी कुर्सी पर बैठ गयी। उसने संध्या को गौर से देखा और फिर मुस्कुराते हुए उसे बताने लगी कि संध्या का चेहरा तो बिल्कुल उसकी माँ जैसा ही है। संध्या की माँ जब बीमार थी तब वो भी इसी कमरे में रहा करती थी। बचपन में संध्या अक्सर उनसे मिलने आती थी लेकिन संध्या को वो कमरा याद था।  वो आई तो थी उस कमरे में, सिर्फ़ एक बार। नर्स ने ट्रे से इंजेक्शन उठाया तो संध्या का दिल घबराने लगा।  इतना डर उसे चाकू या तलवार से नहीं लगता जितना इंजेक्शन से लगता है। बचपन में भी ऐसा ही था और आज भी ऐसा है। कुछ डर ऐसे होते हैं जिनसे हम कभी जीत नहीं पाते लेकिन ऐसा भी नहीं है कि जीत नहीं सकते। हिम्मत चाहिए होती है, बस ज़रा सी हिम्मत… ताकि उठा सकें अपने डर के खिलाफ़, अपना पहला कदम लेकिन अभी, अपना वो कदम उठाने के लिए शायद संध्या तैयार नहीं है। उसने घबराते हुए ही उस नर्स से कहा – 

 

संध्या: “मैं ठीक हूँ, मुझे, मुझे इंजेक्शन, नहीं लगवाना।  प्लीज !, मुझे नहीं लगवाना!”

 

तभी वो नर्स बोली कि क्या तुम बच्चों की तरह डर रही हो?... तुम्हारी माँ तो बिल्कुल नहीं डरती थी इंजेक्शन से, तुम्हें डर क्यूँ लग रहा है? और ये तो तुम्हारी भलाई के लिए ही है। जल्दी ठीक होना है या नहीं? 

ये सुनते ही संध्या ने जैसे ही कहा कि वो ठीक है, वो नर्स मुस्कुराके बोली कि इधर पागलखाने में जितने पागल हैं, वो सब, यही बोलते हैं। मैं ठीक हूँ, मैं ठीक हूँ, मैं पागल नहीं हूँ सिस्टर , मैं ठीक हूँ सिस्टर । मुझे घर जाना है। अरे! घर तो मुझे भी जाना होता है लेकिन नहीं, हमारी तो कोई लाइफ  ही नहीं है जैसे… बस इन पागलों के पीछे दौड़ते रहो। इतना कहकर उस नर्स ने संध्या की तरफ़ इंजेक्शन बढ़ा दिया… 

 

संध्या: पीछे करो, ये इंजेक्शन पीछे करो और हाथ खोलो, हाथ खोलो मेरे, पागल नहीं हूँ मैं। जाने दो मुझे। 

 

संध्या, नर्स के सामने मिन्नतें कर ही रही थी कि तभी संध्या की माँ वहाँ आ गयी। संध्या की माँ के हाथ में भी एक ट्रे थी, एक खाली ट्रे। उन्होंने वो ट्रे, नर्स के सिर पर दे मारी। ट्रे लगते ही नर्स के सिर से खून निकलने लगा और कुछ ही सेकंडस  में, नर्स ने दम तोड़ दिया। उस नर्स के मरते ही संध्या की माँ ने संध्या के हाथ-पाँव खोल दिये और खुश होते हुए बोलीं - “मैं कब से ये करना चाहती थी। क्या शॉट  मारा मैंने, देखा ना तूने, सीधा सिर में। एक ही शॉट  में काम तमाम। सुन, तू अब जा संध्या, मुझे आराम करना है और अगले शिकार को मारने के लिए थोड़ी तैयारी भी करनी है। काम बहुत ज़्यादा है और वक़्त, वक़्त बहुत कम है मेरे पास। 

 

संध्या हैरानी से अपनी माँ को देख रही थी… उसे समझ नहीं आया माँ ये सब क्या बोल रही हैं? उसने पूछा तो माँ ने धीरे से कहा - “मैं बोल रही हूँ?... तू sure है कि ये सब… मैं बोल रही हूँ या ये सब… तेरा सोचा हुआ है और सब कुछ, तू ख़ुद कर रही है। यकीन नहीं आता तो पीछे देख।”

संध्या ने मुड़कर पीछे देखा, वहाँ एक और संध्या खड़ी थी। इस बार खाली ट्रे उसके हाथ में थी और कुर्सी पर थी, संध्या की माँ। नर्स ने जैसे ही इंजेक्शन उठाया, संध्या ने वो खाली ट्रे नर्स के सिर में मार दी और तब तक मारती रही जबतक कि वो नर्स मर नहीं गयी। अपना ऐसा रूप देखकर संध्या फ़ौरन उस कमरे से निकल गयी। कमरे से बाहर पाँव पड़ते ही संध्या को होश आ गया। आदित्य ने उसे उठाया और बताया कि वो उसे काफ़ी देर से होश में लाने की कोशिश कर रहा था। तभी उन भूतों से बचने के लिए मंत्र पढ़ रहे रुद्र ने आदित्य से कहा कि वो इन्हें और नहीं रोक पायेगा। श्रीधर को उस बड़ी दीवार को खोलने का कोड  समझ आ गया। उसने हाथ के एक सिम्बल पर काव्या का हाथ रखा और एक जगह अपना, फिर दीवार पर लिखे नंबर्स में से श्रीधर ने पाँचवाँ नंबर दबाया और ठीक उसी वक़्त रुद्र का बनाया मंत्र जाल टूट गया। सारे प्रेत, चीख़ते हुए उनकी तरफ़ दौड़े। रुद्र और बाकी सब दीवार के पास आ गए। तभी वो हुआ जिसके होने का यकीन वहाँ किसी को नहीं था। उस बड़ी दीवार के बीच से एक रोशनी आई और दीवार दो हिस्सों में अलग हो गयी। उस रोशनी में इतना तेज था, इतनी ऊर्जा थी कि सारे प्रेत एक झटके में वहाँ से गायब हो गए। रुद्र और बाकी सब, अपने घुटनों पर बैठ गए थे। रोशनी इतनी तेज़ थी कि उन सबकी आँखें बंद दी और सिर झुके हुए थे। तभी रुद्र ने हिम्मत करके, नज़र उठाई और सामने देखा। वहाँ उस रोशनी के ठीक पीछे, कोई खड़ा हुआ था। रुद्र को जैसे ही एक झलक दिखी, उसका सिर चकरा गया। वो रोशनी एकदम से गायब हो गयी और रुद्र की ज़बान से केवल एक ही शब्द निकला – 

 

रुद्र: “नारायण”

 

 

कहाँ से आई थी वो रोशनी? 

किसने बचाई आदित्य और उसके दोस्तों की जान?

और रोशनी के गायब होने से ठीक पहले, आख़िर कौन दिखा था रुद्र को? 


 

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