“कहाँ अंदर घुसे चले आ रहे हो, रुको, मैं कहता हूँ रुको”
यह आवाज़ Mill के गेट पर खड़े सिक्योरिटी गॉर्ड की थी, उसके ऐसा कहने पर रोहन और बबलू रुक गए । उन्होंने गार्ड से अंदर जाने देने के लिए बहुत रिक्वेस्ट की मगर उस गॉर्ड ने दोनों की एक ना सुनी। रोहन को पहले ही दिन लेट पहुंचने पर बड़ा अफ़सोस हो रहा था। यह सब, जो कुछ भी हुआ था, वह बबलू और उसके पुराने स्कूटर की वजह से हुआ था। रोहन ने गुस्से में उसे कहा, ‘’तुम्हारा क्या है! पिता जी ठहरे पैसे वाले, तुम्हें नौकरी की क्या ज़रुरत…मगर मुझे है।''
बबलू को अपनी ग़लती का अंदर ही अंदर, एहसास था, इसलिए उसने रोहन की बात का कोई जवाब नहीं दिया। वैसे उसकी घड़ी के हिसाब से, वह दोनों सिर्फ आधा घंटा ही लेट थे। बबलू का उस गॉर्ड से बहस करके भी कोई फायदा नहीं हुआ। रूल के हिसाब से सिर्फ पांच मिनट ही देरी से आने की परमिशन थी।
रोहन अपना मुँह लटकाये हुए, बिना उस से कुछ कहे, सीधा दूसरी दिशा में चलने लगा। अपने दोस्त को उदास देख कर बबलू को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। वह पहले तो स्कूटर के पास गया। जब स्टार्ट नहीं हुआ तो उसने उस को वहीं खड़ा किया और रोहन के पीछे दौड़ पड़ा।
उसने खूब आवाज़ दी मगर रोहन ने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। वह बस अपनी धुन में चले जा रहा था। बबलू ने आवाज़ दी, “यार मेरी बात तो सुन, तुम इस तरह उदास रहोगे तो मुझे बुरा लगेगा। आज अंदर जाने नहीं दिया तो कल जाने देगा, कल हम आधे घंटे जल्दी आ जायेगे”।
उसने कुछ जवाब नहीं दिया, ख़ामोशी के साथ चले जा रहा था। बबलू से रहा नहीं गया। उसने तुरंत उस के पास आकर कहा, “ठीक है मेरे दोस्त! मैं सॉरी बोलता हूँ, मुझे माफ़ कर दो”। वह रुका और उस के चेहरे को देखने लगा। इस बार रोहन ने अपनी चुप्पी को तोड़ा और कहा, ‘’तुम्हारे सॉरी बोलने से क्या वह गार्ड हमें अंदर जाने देगा। अगर कल को उन्होंने काम पर रखने से मना कर दिया तो, तो मैं क्या करूंगा। घर परिवार है, उनकी जिम्मेदारी कैसे उठाऊँगा?''
उसकी बात बड़ी गंभीर थी। बिना कुछ सोच विचार के बबलू ने तुरंत कहा, “अब तेरी नौकरी की ज़िम्मेदारी मेरी है, तुम बिल्कुल भी चिंता ना करो”। उसकी बात पर विश्वास, रोहन को ना पहले था और ना ही अब, इसलिए उसने ज़्यादा सीरियस नहीं लिया। उसने बात को टालते हुए कहा, ‘’चलो जो हुआ सो हुआ, अब मेरी किस्मत मेरे साथ। मुझे अब सीधे घर चलना चाहिए।''
बबलू की समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या कहे। वह तुरंत उसके पास दौड़ता हुआ गया और कहा कि “घर चले जाना, मगर पहले मेरे साथ एक कप चाय तो पी लो”। दोनों के बीच दोस्ती के नाते एक commitment हुआ था कि जब भी चाय की बात आएगी तो पीने से मना नहीं करेंगे। यही सोचकर रोहन बोला, ‘’अब तू मुझे इमोशनल कर रहा है।''
सुनने में बड़ा अजीब सा लगता है, मगर सच था। दोनों के बीच टिकी दोस्ती की वजह, चाय थी। कभी भी झगड़ा होता था तो चाय ही उसे हल करती थी। आज भी स्थिति ऐसी ही थी, वह अपने दोस्त को मना ही नहीं कर पाया। उसने तुरंत कहा, ‘’यह मैं तुम्हारे साथ आखिरी बार चाय पी रहा हूँ, इसके बाद तुम मुझे चाय के लिए कभी नहीं बोलोगे।''
दोनों थोड़ी दूरी पर बनी, चाय की टपरी की तरफ चल दिए। उधर अपर्णा निवास में सुरेंद्र के श्राद्ध के दिन रिश्तेदार, हर छोटी छोटी चीज़ को लेकर आलोचना करने से पीछे नहीं हट रहे थे। उन्होंने अपनी बेकार की टिपण्णियों में अपर्णा की साड़ी तक को नहीं छोड़ा था।
भले ही यह उनके अपने व्यक्तिगत विचार थे, मगर यह समय इन विचारों को ज़ाहिर करने का तो बिल्कुल भी नहीं था। वैसे भी उनके विचारों से ना अपर्णा को कोई फर्क पड़ने वाला था और ना ही सुषमा को। अपर्णा तो बड़े आदर के साथ, सबकी सान्तवना को स्वीकार कर रही थी। अपर्णा ने एक रिश्तेदार की तरफ अपने दोनों हाथों को जोड़ते हुए कहा, ‘’आप भगवान से इनकी आत्मा के लिए शांति की प्रार्थना कीजियेगा।''
एक तरफ़ अपर्णा, हर किसी के साथ, आदर के साथ मिल रही थी तो दूसरी तरफ़ लोगों की ज़बान रुकने का नाम नहीं ले रही थी। एक सज्जन जिनका नाम श्यामू था, अपने पड़ोसी रामबाबू के साथ बैठे थे… बोले, “सुरेंद्र भाई के जाने से भाभी के पर निकल आये है”। रामबाबू ने उनकी बात में बात मिलाते हुए कहा, “सुरेंद्र भाई जब ज़िंदा थे, तब भी अपर्णा भाभी की ही चलती थी… अगर मुझ जैसा पति होता तो दो मिनट में सीधा कर देता। भाभी को थोड़ा अपने पति की इज़्ज़त के बारे में सोचना चाहिए”। यह बात सुषमा ने भी सुन ली थी, उसे बहुत गुस्सा आया।
वह जैसे ही गुस्से में उनकी ओर बढ़ी, तुरंत उनकी पत्नी की आवाज़ आयी, उन्हें ही बुला रही थी। अपनी पत्नी की कड़क आवाज़ सुनकर, रामबाबू का दम निकल गया था, एक पल में भीगी बिल्ली बन गए। रामबाबू ने बड़ी ही आहिस्ता से अपनी पत्नी की बात के जवाब में हाँ में सर हिलाया और उनकी ओर चले गए।
उधर सुषमा जैसे ही श्यामू के सामने आकर खड़ी हुयी, वह बुरी तरह डर गया। उसने सुषमा को नीचे से ऊपर ऐसे देखा, मानो वह उसे यमराज लग रही हो। उस को देख कर श्यामू के भाव ही बदल गए, जैसे उसकी कोई चोरी पकड़ी गयी हो। उस ने तुरंत अपने चेहरे पर एक नकली मुस्कान दी। इससे पहले वह अपनी टिप्पणी पर कोई सफाई देते, सुषमा ने तुरंत कहा, ‘’देख रहे हो श्यामू जी, रामबाबू अपनी पत्नी की आवाज़ सुन कर किस तरह दुम हिलाते हुए यहां से चले गए। दूसरों को नसीहत देने से अच्छा है, खुद पर ध्यान दो।''
सुषमा 25 साल से अपर्णा के परिवार से जुड़ी हुयी थी। वह उनके हर एक रिश्तेदार, हर एक पड़ोसी के बारे में अच्छे से जानती थी। अपर्णा की तरह सुषमा भी बहुत दयालु थी मगर वह अपनी दीदी के बारे में एक भी बुरा शब्द नहीं सुन सकती थी। साथ-साथ, स्वभाव चुलबुला होने के कारण, उससे बातों में कोई जीत नहीं सकता था।
श्यामू ने ऐसे हाँ में सिर हिलाया जैसे वह सुषमा की बात को अच्छे से समझ गया हो। सुषमा ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘’अपने समय को अच्छे कामों में लगाओ। श्राद्ध का खाना खा कर ज़रूर जाना।''
जैसे ही वह आगे की तरफ बढ़ी, दो औरतों की आलोचनाएं सुन कर चौंक गयी। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि दीदी के करीबी हो कर, वह ऐसी उटपटांग बातें करेंगे।
वर्मा जी की पत्नी सरिता ने अपने पास बैठी एक औरत से कहा, “बेटे को ज़्यादा पढ़ा कर भी कोई फायदा नहीं हुआ, बाप को मरे हुए चार साल हो गए, एक बार भी नहीं आया”। उस औरत ने जवाब दिया, “यह सब भाभी के लाड़-प्यार का ही नतीजा है, बेटे को पढ़ाई के साथ साथ थोड़े संस्कार भी सिखाने चाहिए थे”।
सुषमा से अब रहा नहीं गया। वह तुरंत उन दोनों के बीच में जाकर बैठ गयी। उसके बैठने से दोनों चौंक गए। उनके चेहरे बुरी तरह मुरझा गए क्योंकि उन्हें समझ आ गया कि सुषमा ने उन दोनों की बातों को सुन लिया था। अब सुषमा के जवाब देने का समय था, उसने तुरंत कहा, ‘’किस संस्कार की बात कर रही हो भाभी जी, एक बार ज़रा बाहर जाकर देखो, आपकी बेटी कॉलेज जाने के बहाने किसके साथ घूमती है।''
दोनों औरतों को मानो सांप सूंघ गया हो। वह ऐसे खामोश हुयी कि उनके साँस लेने तक की आवाज़ नहीं आ रही थी। सुषमा ने अपनी बात को पूरा करते हुए कहा, ‘’हर बात को हर जगह नहीं कहा जाता। यहाँ आप शोक सभा में आयी हो, इस दुनिया से जाने वाले के लिए प्रार्थना करो, बाकी बातें अपने घर जाकर कर लेना।''
गुस्सा होने के बावजूद सुषमा ने उन्हें बड़े आराम से समझाया था। इस समय अगर दुख में कोई था तो वह थी अपर्णा। एक औरत के लिए उसका पति ही सब कुछ होता है और आज सुरेंद्र ही उनके साथ नहीं थे।
पिछले चार सालों से अपर्णा हर मुश्किल हालातों से लड़ रही थी। वह अपनी ज़िन्दगी के ऐसे पड़ाव पर थी जहाँ सुरेंद की सबसे ज़्यादा ज़रुरत थी। रही बात उनके बेटे राहुल की, वह भी उनके जीवन की एक कड़ी था। इंसान अपनी औलाद को इसलिए पढ़ाता और लिखाता है ताकि मुश्किल समय में वह उनका साथ दे सके, मगर राहुल कुछ ज़्यादा ही खुदगर्ज़ निकला। अपर्णा की किस्मत को शायद कुछ और ही मंजूर था। तभी एक आवाज़ आई, “जितना कुछ भी खर्चा हुआ होगा, वह सब बेटे ने अमरीका से ही पैसा भेजा होगा”
आखिर यह कौन थी जिसने पैसों की बात की थी?
क्या लिखा था अपर्णा की किस्मत में?
आगे क्या मोड़ लेगी अपर्णा की ज़िन्दगी?
उधर रोहन का नौकरी को लेकर अगला कदम क्या होगा?
जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।
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