मित्रों और हमारी पोटेंशियल गर्लफ्रेंडों!
जिंदगी एक सफर है सुहाना, पर ये सफर कौन किस में ट्रैवल करेगा किसने जाना! पहले हमें लगता था कि गाँव से शहर का सफर बहुत मुश्किल होता है...अब शहर आके हमको पता चला कि शहर के अंदर सफर करना तो और भी मुश्किल है क्योंकि सड़क पे आप चल नहीं सकते.. सड़कों पे या तो गड्ढे हैं या सड़कें खुदी पड़ी हैं। ना जाने कौनसे स्काईस्क्रैपर बना रहे हैं जो सालों से बन ही नहीं रहे। मेट्रो में आप चढ़ नहीं सकते क्योंकि आप कुचले जाओगे और लोकल ट्रेन में चढ़ गए तो उतर नहीं पाओगे क्योंकि सामने से सवारीयों का सैलाब आ जाता है और ऑटोवाले तो कहीं चलने के लिए मानते ही नहीं। ऊपर से अगर आप बंगलौर जैसे शहर में हैं तो ऑटो वाला तो आके मुँह पर थूकेगा भी नहीं अगर आपको उनकी प्रेफर्ड लैंग्वेज नहीं आती। गिन चुन के आपके पास महंगी कैब बुक करने के अलावा कोई ऑप्शन नहीं बचता और एंड मोमेंट पे कैब ड्राइवर भी आपकी गर्लफ्रेंड की तरह आपको धोखा दे जाता है। इससे अच्छा ट्रांसपोर्ट सिस्टम तो मेरे गाँव बखेड़ा में है.. पैदल चलना। ना तो मोटर गाड़ी का पॉल्यूशन और ना ही स्टेप्स पूरा करने की चिंता। सारा दिन चल चल के अपने आप सेहत बन जाती है। इसके और भी बहुत सारे बेनिफिट्स हैं। पैदल चलने वाले इंसान को ना तो हेलमेट पहनना पड़ता है और ना ही उसपे कभी हिट एंड रन का केस हो सकता है। हाँ पर वो हिट एंड रन का विक्टिम जरूर बन सकता है। अब दोस्तों हर चीज़ के प्रोस होते हैं तो कॉन्स भी तो होते ही हैं न। इस समय शौर्य को गाँव के सिर्फ कॉन्स ही कॉन्स नजर आ रहे हैं क्योंकि सुबह ही हरिश दद्दा ने उसपर ठंडा ठंडा पानी मारके उसे नींद से उठा दिया। और उसे पैदल चला चला कर गाँव के बाहर हाइवे तक ले आये। आज हरिश दद्दा किसी खास काम से शौर्य को दूसरे गाँव लेकर जा रहे हैं और शौर्य को कोई आइडिया नहीं है कि शहर में जिस टाइम पर वो सोने जाया करता था.. गाँव में वो उस टाइम पे नहा धोके किसी दूसरे गाँव क्यों जा रहा है!
शौर्य: दादा जी अब तो बता दो हम ये दूसरे गाँव क्यों जा रहे हैं?
हरीश: जब बताने का सही वक्त आई.. बता दिया जाई। अब चुप्पे चलो।
शौर्य: कम से कम इस दूसरे गाँव का नाम तो बता दीजिए।
हरीश: नाम जानके का करोगे? इशटेटस डालोगे कि चिलिंग ऐट अ न्यू गाँव! पुलिस को पता चल जाई तुम्हरी लोकेशन। जितना कम जानो उतना ही अच्छा है तुम्हरे लिए बाउआ।
शौर्य को हरिश दद्दा का ये बर्ताव बड़ा ही अजीब लगा। ना जाने क्यों हरिश दद्दा इस दूसरे गाँव के बारे में इतना सस्पेंस बांधे हुए थे! शौर्य के पास ऑप्शन ही क्या था। वो हरिश दद्दा के साथ गाँव के बाहर मेन रोड पर खड़ा रहा, पर जब बहुत देर तक कोई गाड़ी नहीं आई तो उसने हरिश दद्दा से पूछा…
शौर्य: दादा जी ड्राइवर को कॉल कीजिए। कहाँ मर गया वो?
हरीश: ड्राइवर? कौन ड्राइवर? और ऊ जहाँ मरजी मरे हमको उससे का? भगवान ओखी आत्मा का शांति दे!
शौर्य, दद्दा जी को कंफ्यूज्ड नजरों से देखने लगा।
शौर्य: दादा जी आपने कैब बुक नहीं की है?
हरीश: कैब? बउआ ई गाँव है ईहाँ, कैब वैब ना ही चलत है!
शौर्य: तो हम दूसरे गाँव कैसे जाएंगे?
इससे पहले हरिश दद्दा कुछ बोल पाते शौर्य को बस का हॉर्न सुनाई दिया और सामने से आती हुई बस को देखकर वो घबराया।
शौर्य: नो वे! दादा जी मैं बस में ट्रैवल नहीं करूंगा। मैंने तो कभी शहर में एसी वाली मेट्रो में ट्रैवल नहीं किया.. गाँव की ये धूल मिट्टी और गर्मी से भरी हुई बस में ट्रैवल करना.. नो चांस!
हरीश: अरे ई वो बस नहीं है..
शौर्य: नहीं दादा जी। आप मुझे बेवकूफ नहीं बना सकते। आई नो गाँव की सारी बसें सेम होती हैं। इनकी सीटों पर पान थुका हुआ होता है.. बस के कंडक्टर से गंदी बदबू आती है और बस ड्राइवर तो इतनी रैश ड्राइविंग करता है..
हरीश: अरे पर…
शौर्य: दादा जी ओवर माय डेड बॉडी! आपको इस बस में जहाँ जाना है जाइए मैं इस बस में नहीं बैठूंगा। माय डिसिज़न इस फाइनल!
हरीश: मारेंगे लप्पड़ बस के पहिये से तेज घूमते हुए जाओगे.. बिना टिकट ही दूसरे गाँव पहुँच जाओगे। कब से सुन रहे हैं.. चाबी वाले बंदर की तरह ठाँ-ठाँ-ठाँ किए जा रहे हो। तनिक सांस ले लो। हमरी भी बात सुन लो। पहिली बात तो ई कि बस दूसरे गाँव जाती ही नहीं है और हम बस मा सफर नहीं करने वाले हैं।
यह सुनते ही शौर्य ने चैन की सांस ली। क्योंकि उस लोकल बस में चढ़ने का सोचते ही उसकी रूह कांप गई थी। पर तभी उसके मन में सवाल आया..
शौर्य: तो फिर दादा जी हम किस में ट्रैवल करने वाले हैं?
तभी एक छोटा सा हॉर्न सुनाई दिया और हरिश दद्दा के मुंह पर एक स्माइल आ गई। बस के निकलते ही उसके पीछे से एक भूँड आया। आप शहर वालों की जानकारी के लिए बता दूं कि गांव में जो बड़ी सवारी वाला ऑटो चलता है न, उसे भूँड यानी कि बड़ी मधुमखी के नाम से बुलाया जाता है। भूँड 10 रुपए में आपको एक गांव से दूसरे गांव छोड़ देता है और इसमें लगभग 10 लोगों को बैठाने की कैपेसिटी होती है, इसलिए भूँड का ड्राइवर इसमें आराम से 50 लोगों को बैठा लेता है क्योंकि हम गांव वाले हमेशा अपनी क्षमता से ऊपर ही काम करते हैं। उस आते हुए भूँड को देखकर शौर्य की आंखें फटी की फटी रह गईं और उसकी हवा टाइट हो गई क्योंकि वो भूँड सवारीयों से खचाखच भरा हुआ था। ड्राइवर के दोनों तरफ 4-4 सवारियां बैठी हुई थीं और छत पर भी 10 सवारियां थीं। उस भूँड की डिक्की में लोगों ने बकरियां, साइकिल यहां तक कि अपनी भैंस भी बांध रखी थी। जब वो भूँड आके रुका तो शौर्य को उसमें बैठने की कहीं भी जगह नहीं दिखाई दी।
हरीश: ई मा जाएंगे हम दूसरे गांव। आओ बैठ जाओ।
शौर्य: बैठ जाओ? कहां बैठेंगे दादा जी इसमें हम? ये तो पहले ही ओवरलोडेड है।
शौर्य की बात सुनकर भूँड का ड्राइवर बोला.. “अरे कहां भरा हुआ है? सुबह-सुबह का टाइम है अभी तो आधी सवारियां ही भरी हैं बस।”
ये सुनके तो शौर्य की चीख ही निकल गई।
शौर्य: आधी सवारियां! अरे अंदर सांस लेने की जगह नहीं है। लोग छत पर बैठा रखे हैं और तुम कह रहे हो कि ये अभी आधी ही सवारियां हैं!
ड्राइवर बिगड़ते हुए बोला, “सांस लेने के लिए जगह नहीं नाक चाहिए होता है बाबू। तुम बोलो तो अंदर ऑक्सीजन सिलेंडर रखवा दें तोहार खातिर। बैठना है तो बैठो नहीं तो बोनी का बखत है। टाइम मत बर्बाद करो।”
इससे पहले शौर्य कुछ कह पाता उसने देखा कि उसके दादा जी तो भीड़ भरे भूँड में बैठने भी लग गए।
शौर्य: दादा जी, यू काँट बी सीरियस। हम इस चीज में ट्रैवल नहीं कर सकते। ये तो बस से भी बदतर है।
हरीश: ऐसा है दूसरे गांव जाने का ई अकेला साधन है। अगर तुमका ई मा नहीं बैठना है तो तुम्हरी मर्जी। दूसरा गांव 40 किलोमीटर दूर है ,चलके आ जाओ। हम तो ई मा जा रहे हैं!
40 किलोमीटर सुनके शौर्य की सारी हिम्मत जवाब दे गई और उसने अपने कम्फर्ट की पुड़िया बनाकर बगल वाले गटर में फेंक दी और भूँड में बैठने के लिए तैयार हो गया।
शौर्य: ... पर दादा जी हम दोनों इस में फिट कैसे आएंगे? जगह ही कहां है इसमें!
हरीश: बउआ, दुनिया मा जगह कहीं नहीं मिलती। सबको अपनी जगह खुद ही बनानी पड़त है।
बहुत डीप बात बोल गए हरिश दद्दा। इसलिए मुझे गांव की जिंदगी इतनी पसंद है क्योंकि यहां छोटी छोटी चीजों से भी बड़ा बड़ा ज्ञान मिलता है। ये भूँड दुनिया के लिए बहुत बड़ा मेटाफर है। बस अब इससे ज्यादा नहीं समझाऊंगा वरना नैरेशन के नाम पे ज्ञानवानी हो जाएगी और आप लोग तो खुद ही बहुत समझदार हैं। खुद ही समझ जाएंगे। हरिश दद्दा तो सवारियों को आगे पीछे करके एडजस्ट होकर बैठ गए पर शौर्य के लिए भूँड के अंदर कोई जगह नहीं बची थी इसलिए ड्राइवर ने उसे भूँड की छत पर बैठने के लिए कहा। “ऊपर सांस लेने के लिए बहुत जगह है बाबू। गांव का आसमान खुला ऑक्सीजन सिलेंडर है! साफ हवा के मजे लो। शहर में तो वैसे भी अब साफ हवा कहां ही मिलती है!”
ड्राइवर के ताने और शहर की जिंदगी पर व्यंग सुनने के बाद शौर्य भूँड की छत पर बाकी सवारियों के बीच में चढ़ कर बैठ गया और इस तरह शौर्य का दूसरे गांव तक का सफर शुरू हुआ। भूँड गांव की टूटी-फूटी सड़क से.. गड्ढों के बीच से.. ऊपर नीचे आगे पीछे दाएं-बाएं टेढ़े-मेढ़ होकर निकलता रहा और शौर्य को झटके पे झटके लगते रहे। दो तीन बार तो शौर्य हवा में भी उछला पर सवारियों ने उसे पकड़कर बचा लिया। जैसे ही कोई पेड़ आता शौर्य और बाकी सवारियों को टहनी से अपना सिर बचाने के लिए झुकना पड़ता। एक दो सवारी तो पेड़ की टहनी से टकराकर गिर भी गईं। छत पर बैठी सवारी शहर से आए शौर्य को घूर घूर कर देखे जा रही थीं और शौर्य उन्हें देख देखकर हैरान हो रहा था। एक सवारी के नाक के बाल उनकी मूंछों से बड़े थे। चार सवारियां भूँड की छत पर बैठके कैरम खेल रही थीं और कैरम बोर्ड उन्होंने पांचवी सवारी की छाती पर रखा हुआ था.. एक सवारी ने शौर्य को गुटका ऑफर किया पर शौर्य ने मना कर दिया। तो वो आदमी गुस्सा हो गया और बोला, “भप्प! गुटका को कौन मना करता है! गुटका तो हमारा नेशनल नशा है। पक्का एंटी नेशनल हो तुम।”
शौर्य को समझ ही नहीं आया कि वो उस आदमी को क्या जवाब दे। इसलिए उसने चुप रहना ही बेहतर समझा। इस सफर में शौर्य को काफी सफर करना पड़ा। हिन्दी वाला नहीं, इंग्लिश वाला सफर। शहर में रहकर हमारा भी सेंस ऑफ ह्यूमर अर्बन हो गया है। खैर, ये सफर.. हिंदी वाला.. जल्द ही खत्म हो गया और फाइनली हरिश दद्दा और शौर्य उस दूसरे गांव पहुंच ही गए और वहां पहुंचते ही शौर्य को बहुत बड़ा शॉक लगा।
आखिर क्या हुआ उस दूसरे गांव में जो शौर्य को इतना बड़ा शॉक लगा?
क्यों लेकर आए हैं हरिश दद्दा शौर्य को इस दूसरे गांव में?
क्या भूँड की छत पर कबड्डी का भी मैच लगाया जा सकता है?
सब कुछ बताएंगे महाराज.. गांववालों के अगले चैप्टर में!
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