शाश्वत नक्शे में खोया रहता है, उसे खिड़की के पास बैठे दो लोग उसे दिखाई देते हैं। उनकी आवाज़ें उसके मन में गूंजने लगती हैं। वह उनकी बातें ध्यान से सुनना चाहता है, लेकिन तभी परीता उसे आवाज़ लगाती है। परीता एक वास्तु कंसलटेंट और ज्योतिषी है, जो शाश्वत को उसके एंटीक क्युरेशन के काम में असिस्ट करने वाली है।
नक्शे वाले इस हादसे के बाद शाश्वत को अब यकीन होने लगा था कि उसके साथ हो रही घटनाएँ महज़ इत्तेफाक नहीं हैं। ये घटनाएँ कहीं न कहीं उसकी ज़िंदगी से जुड़ी हैं। शाश्वत का ध्यान जब नक्शे से हटा, तो उसने एक लंबी, गहरी सांस ली और उसे छोड़ते हुए खुद को शांत किया, तभी ऑफिस का प्यून सबके लिए कड़क अदरक वाली चाय लेकर आया।
शाश्वत, चाय का कप पकड़े सोच ही रहा था कि वहाँ परीता आई और बोली,
परीता: “ऑल वेल?”
शाश्वत: “यस, बस बॉस को मेल कर रहा था।”
परीता: “ग्रेट! अच्छा, ये बताओ कि साईट विज़िट पर कब चलना है?”
शाश्वत: “एक्चुअली, मुझे आज जाना था, लेकिन थोड़ा थका हुआ महसूस कर रहा हूँ।”
परीता: “नो इश्यूज, कल सुबह चलते हैं। आज शाम कहीं घूम आइए।”
शाश्वत: “आप में से बनारस महकता है, आप ही कोई जगह सजेस्ट कर दीजिए।”
परीता: “हमारा बनारस घाटों का शहर है। क्यों न आप अस्सी घाट से घूमना शुरू करें। वहाँ का नज़ारा देखिए, लोगों की भक्ति देखिए और बनारस का अनोखा रंग देखिए।”
शाश्वत: “अगर आपको ऑकवर्ड न लगे, तो क्या आप साथ चल सकती हैं?”
शाश्वत के इस सवाल से परीता थोड़ी असहज हो गई। कुछ सेकंड्स शांत रहने के बाद उसने हामी भर दी। अंजान शहर में पहली बार शाश्वत को किसी का साथ मिला। ये साथ प्यार में बदलेगा या दोस्ती में, ये तो वक़्त ही बताएगा।
ऑफिस में परीता से बात करने के बाद शाश्वत अपने होटल में लौट आया। उसने कपड़े बदले, फोन पर अलार्म लगाया और सो गया। जैसे ही उसने आँखें बंद की, नक्शे वाला दृश्य उसकी आँखों के सामने आ गया। थोड़ी देर करवटें बदलने के बाद वह सो गया।
एक घंटे बाद अलार्म बजा। वह उठकर तैयार हुआ और लॉबी में परीता का इंतज़ार करने लगा। ठीक पाँच मिनट बाद परीता भी आ गई। अपनी ब्लू रंग की स्कूटी से।
ऑफिस में फॉर्मल्स पहने रहने वाली परीता शाम की परीता से बिल्कुल अलग लग रही थी—गुलाबी कुर्ती, सफेद सलवार, सफेद दुपट्टा, और माथे पर छोटी लाल बिंदी। ये सब उसे और भी सरल और सुंदर बना रहे थे।
शाश्वत कुछ सेकंड्स तक उसे देखता रहा। जब परीता ने उसे देखा खुद को देखते हुए पकड़ा, तो वह थोड़ा हड़बड़ा गया।
परीता: “चलो, आज तुम्हें हमारे बनारस की गंगा आरती दिखाते हैं।”
शाश्वत: “चलो फिर।”
परीता: “घाट पहुँचने से पहले तुम्हें कुछ बातें जाननी ज़रूरी हैं।”
शाश्वत: “जैसे कि...?”
परीता: “जैसे कि अपने पर्स और फोन सामने वाली जेब में रखना। घाट पर भक्ति के नाम पर कोई पैसे माँगे, तो 'हर हर महादेव' बोलकर आगे बढ़ जाना।”
शाश्वत: “जी मैडम!”
बनारस की सड़कों को कार से नहीं, बल्कि स्कूटी पर घूमते हुए देखने में शाश्वत को आज़ाद महसूस हो रहा था। वह चाहता था कि बनारस की हवा को कैद कर ले, लेकिन यह मुमकिन नहीं था। इसलिए चुपचाप परीता के पीछे बैठकर बनारस की गलियों और दुकानों को देखता रहा।
थोड़ी देर बाद, जब स्कूटी सिग्नल पर रुकी, तो उसने सिग्नल पर भीख माँगती एक बच्ची को देखा। उसके मन में विचार आया—ऋषि-मुनियों के श्राप एक तरफ और भूखमरी एक तरफ। मजबूरी कभी कभी इतनी बड़ी हो जाती है कि नन्हे हाथों को इसका बोझ उठाना पड़ता है।
शाश्वत ने फ़ौरन कुछ पैसे निकाले और बच्ची को दे दिए। पैसे पाकर बच्ची खुश हो गई और वह अपनी माँ को देने भागी, जो एक छोटे बच्चे को गोद में लिए बैठी थी।
कुछ देर बाद स्कूटी दशाश्वमेध घाट पर रुकी।
शाश्वत: “तुमने तो कहा था कि हम अस्सी घाट जाएँगे।”
परीता: “उससे पहले गंगा आरती देख लो।”
शाश्वत: “लेकिन यहाँ कितना शोर है!”
परीता: “इसी शोर में तुम्हें शांति मिलेगी। शायद उस उलझन का हल भी मिल जाए, जिसमें तुम फँसे हुए हो।”
परीता और शाश्वत दोनों घाट पर पहुँचते हैं, जहाँ एक तरफ गंगा नदी में सजी नावें और उनमें बैठे लोग दिखाई देते हैं, वहीं दूसरी तरफ हज़ारों की भीड़ उमड़ी हुई है। इस भीड़ को देखकर शाश्वत के मन में सवाल उठता है—क्या भक्ति में सच में इतनी ताकत होती है कि हज़ारों लोगों को एक साथ जोड़ सके?
इस ख्याल पर ज्यादा सोच-विचार किए बिना, शाश्वत घाट का नज़ारा देखने लगता है। लोग अपनी आँखों से कम और फोन के कैमरा एंगल से ज्यादा देख रहे थे। कलियुग में भक्ति भी ट्रेंडिंग हो जाएगी, इस बात का अंदाज़ा शायद ही किसी को था। यह इंसानों की अपनी खुशी का तरीका है। अच्छी बात यह है कि लोग अब भक्ति की ताकत को समझने लगे हैं।
लेकिन शाश्वत? उसकी अपनी भक्ति है, जिसमें थोड़ी नाराज़गी और कुछ शिकायतें हैं। यह उसकी अपनी मरज़ी है कि वह इन्हें बनाए रखे।
शाश्वत घाट के लोगों को देख ही रहा था कि अचानक उसे एक मंत्र सुनाई देता है— "ॐ नमः पार्वती पतये"। इसके बाद भीड़ ज़ोर से बोलती है—"हर हर महादेव"।
इस शोर को सुनते ही शाश्वत की आँखें अपने आप बंद हो जाती हैं। शंख की गूंज, घंटियों की आवाज़, आरती की लौ, और तालियों की ध्वनि, ये सब उसके मन में घर करने लगते हैं। इन आवाज़ों के बीच उसे फिर से बाँसुरी की धुन सुनाई देती है, जिसे सुनकर उसकी आँखें नम हो जाती हैं। उसका दिमाग अब तक जितना शोर मचा रहा था, अब वो शून्य हो गया था।
इन सब ध्वनियों का उसके कानों तक पहुँचना, शाश्वत के लिए उम्मीद की किरण जैसा था। उसने तब तक अपनी आँखें नहीं खोलीं, जब तक आरती समाप्त नहीं हुई। आरती का समापन होते ही भीड़ अलग-अलग दिशाओं में बँटने लगी।
शाश्वत: “इस घाट की कहानी क्या है?”
परीता: "अस्सी घाट पर बैठकर सुनोगे?"
शाश्वत: “जैसा आप कहें!”
शाश्वत और परीता अस्सी घाट के लिए निकलते हैं और अगले 15 मिनट में वहाँ पहुँच जाते हैं। बनारस के घाटों की अपनी-अपनी कहानियाँ हैं। कहीं अल्हड़ जवानी है, तो कहीं इश्क रूहानी।
अस्सी घाट का नाम असी नामक प्राचीन नदी के गंगा से संगम के स्थल के कारण पड़ा। यह भी माना जाता है कि माँ दुर्गा ने युद्ध के दौरान यहाँ विश्राम किया था और अपनी असि यानी तलवार यहीं छोड़ दी थी, जिसके गिरने से यह नदी उत्पन्न हुई। अस्सी घाट काशी के पाँच प्रमुख तीर्थों में से एक है।
घाट का नज़ारा देखकर शाश्वत खुद को रोक नहीं पाया और उस तरफ चला गया, जहाँ कुछ लड़के-लड़कियाँ गाने गा रहे थे और शायरियाँ पढ़ रहे थे। हर कोई अपना लिखा हुआ सुना रहा था, तभी एक लड़के ने शाश्वत की तरफ इशारा करते हुए उससे कुछ सुनाने को कहा।
शाश्वत थोड़ा झिझका, लेकिन फिर कुछ सोचा और खुद ही बोलने लगा—
शाश्वत:
"भाग्य का लिखा कौन बदल सकता है,
प्रेम जिससे होना है, होकर ही रहता है।
राह में फैला होता है कीचड़,
इसी कीचड़ में कमल खिला करता है।
प्रेम संभल-संभलकर चलता है,
प्रेम कहाँ किसी से डरता है।
प्रेम में तिनका भी तलवार है,
प्रेम वो फूल है, जो सदाबहार खिलता है।"
जैसे ही शाश्वत ने अपनी कविता खत्म की, सभी उसके लिए तालियाँ बजाने लगे। परीता अचंभित होकर उसे देखने लगी, तभी एक लड़के ने पूछा— “भाईसाहब, आप तो ग़ज़ब बोले। ये आपने लिखा है क्या?”
शाश्वत: “नहीं, मुझे नहीं पता ये किसकी है।”
ये पंक्तियाँ शाश्वत के लिए नई थीं, लेकिन अमर के लिए तो प्रेम का आधार थीं। शाश्वत ने अपने दिमाग पर ज़ोर डाला, लेकिन उसे याद नहीं आया कि यह कविता किसकी है और उसे अचानक ये पंक्तियाँ कैसे याद आ गईं।
शाश्वत कुछ देर वहाँ खड़ा उन लड़कों को सुनता रहा, तभी उसका ध्यान भंग करते हुए परीता ने कहा—
परीता: "चलो, बैठते हैं।"
शाश्वत: “हाँ।”
परीता: "श्री राग वैष्णव।"
शाश्वत: "क्या?"
परीता: "आपने जिनकी पंक्तियाँ सुनाईं, वह कवि हैं। सोलहवीं सदी के। आप पुराने कवियों को पढ़ते हैं?"
शाश्वत: "हाँ, पढ़ता हूँ, पर इतने पुराने कवि को कभी नहीं पढ़ा। मेरी रीडिंग में हिन्दी साहित्य इंडिया आने के पहले था भी नहीं। जो भी सीखा माँ से सीखा"
परीता : “ अच्छा! क्या आप लिखने का भी शौक रखते होंगे?”
शाश्वत: “हाँ।”
परीता: “तो कुछ सुनाइए।”
शाश्वत: "आप कहती हैं तो सुनिए—
चंचल दो अखियाँ तेरी, लहरों की याद दिलाती हैं,
देखती हैं जब दूर से ही, तरंग मन में उठ आती हैं।
जब से इनको देखता हूँ, लगता है सब कुछ भूल गया,
सागर में क्या डूबे कोई, मैं इन अखियों में डूब गया।"
परीता: "आपको सुनकर लगता नहीं कि आप लंदन में पले-बढ़े हैं।"
कुछ आदतें और लहज़े हमें किसी ने सिखाए नहीं होते, वे खुद-ब-खुद हमारे भीतर आ जाते हैं। कोई इसे पूर्वजों का आशीर्वाद कहता है, तो कोई ऊपरवाले की मेहरबानी। शाश्वत में कविता के लिए झुकाव उसके पूर्वजन्म, यानी अमर के चलते ही आया था, और इस झुकाव को उसने कभी खुद से अलग नहीं किया।
शाश्वत ने जिन आँखों का ज़िक्र किया, क्या वह उन आँखों के बारे में जान पाएगा? क्या वह अपने इस जन्म के तार अपने पूर्व जन्म से जोड़ पाएगा? और क्या परीता और शाश्वत की नज़दीकियाँ और बढ़ेंगी? जानने के लिए पढ़ते रहिए।
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