'नन नहीं।' 

'आप यहीं बैठिए, साढ़े चार तो बज ही चुके हैं- एक घण्टा पलक झपकते में बीत जाएगा और हां, उस टी० सी० का नाम भी मुझे लिखवा दीजिए।' एस० एम० ने थूक निगलकर कहा। 

‘वह टी० सी० रामचन्द कुलकर्णी है ।’

इंस्पेक्टर शिन्दे ने नाम नोट कर लिया। एस० एम० बागले ने नोटों की गड्डी बढ़ाकर कहा- ये नोट सिर्फ पांच हजार ही थे।'

जितने भी होंगे, वैनिटी बैग की मालकिन खुद ही क्लेम करेगी।"

"इन्हें जमा कर लीजिए।" 'जी नहीं, अब इन्हें अपने पास ही रखिए। इस बात का जवाब आपको देना है कि वैनिटी बैग डिब्बे में ही क्यों रह गया? और यह गड्डी आपके पास कै से पहुंच गई ? 

' एस० एम० ने कुछ क्षण रुककर कहा "यह चूक तो टी० सी० और हवलदार की थी। 

इंस्पेक्टर शिन्दे ने मुस्कराकर कहा - 'और आपने इस चूक का सुधार भी बहुत अच्छा किया।"

"एस० एम० ने ठंडी सास ली और बोला 'ये दोनों गधे इन नोटों के बंटवारे के लिए ऐसी जगह खड़े होकर लड़ रहे थे, जहां कोई भी सुन सकता था और मामला तूल पकड़ जाता।'

'लेकिन उसका सुधार क्या इस तरह हो सकता था ?" 

'अब तत्क्षण ही जो समझ में आया- मैंने कर डाला।' इंस्पेक्टर शिन्दे ने कहा- ‘अच्छा, अब अप यह गड्डी यहीं रख दीजिए।’

'अब सुन लीजिए, आप में से किसी ने वह वैनिटी बैग देखा ही नहीं था।'

‘क्या मतलब ?’

'मतलब यह कि टी० सी० कुलकर्णी और हवलदार तुला राम ने बंग देखा ही नहीं था—वैनिटी बैग सीधा श्रीमती शांति वर्मा को ही दिखाई दिया था।' 

‘और ये रुपए ?’

‘किसी भी चोर-उचक्के या मुसाफिर की नऊ पड़ी होगी "उसने गड्डी पार कर दी--वैनिटी बैग छोड़ दिय वैनिटी बैग तो श्रीमती शांति वर्मा को मिला है— इसलिए टी० सी० या हवलदार पर उसका कोई दायित्व ही नहीं आता और आपका तो कोई उल्लेख ही नहीं है।’

फिर उसने पांच हजार के नोटों की गड्डी उठाकर इत्मी जान से अपनी पतलून की जेब में डाली और हवलदार तुलाराम से बोला

'ऐ तुलाराम I एक गरमागरम चाय बोलकर आना।"

‘यस सर !’

फिर वह एस० एम० की अवहेलना करके अपने सामने रखे रजिस्टर पर झुक गया और एस० एम० कुछ देर तक इस तरह खड़ा रहा जैसे अपने किसी रिश्तेदार की लाश के सिर हाने खड़ा हो । फिर पलटकर बाहर निकल गया ।

हवलदार तुलाराम कुछ देर बाद चाय लेकर लौटा तो बहुत खुश होकर बोला- 'चला गया वह मगरमच्छ— बड़ा -अच्छा चक्कर चलाया आपने साहब ।'

इंस्पेक्टर शिन्दे ने उसे डपटकर कहा-

‘चुप रहो, उल्लू के पट्ठे, तुम जैसे गधे के बच्चे कर्मचा रियों के कारण ही डिपार्टमेंट बंदनाम होता है - हरामियों क कुछ करने का शकर तो है नहीं और करने पर तुल जाते हैं अब जीभ पर उन नोटों का नाम भी आया तो अभी खड़े खड़े सस्पेंड कर दूंगा।’

तुलाराम किसी चोर की तरह अटेंशन और खामोश खड़ा रह गया। इस तरह जैसे इस बार वह किसी और भी ज्यादा बड़े और खतरनाक मगरमच्छ के पेट में अटक गया हो ।

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सूरज ने अंधेरी से मारे डर के उस आखिरी लोकल ट्रेन की दूसरी श्रेणी भी नहीं पकड़ी थी। वह लपकता हुआ स्टेशन से बाहर निकल आया था । लोकल बसों की सेवा तो वैसे ही बारह बजे रात को बन्द हो जाती है, इसलिए उसे अढ़ाई बजे से चार बजे तक अन्धेरी के एक बस स्टॉप पर रुकना पड़ा।

चार बजे से हालांकि लोकल ट्रेन की सेवा भी फिर से जारी हो गई थी, लेकिन उसने लोकल ट्रेन की बजाय बस में सफर करना ही अधिक उचित समझा ।

अन्धेरी से चार बजे पहली बस भी बिलकुल सीधी माहिम डिपो तक के लिए मिल गई, यह उसका भाग्य था ।

बांद्रा में उसे मेरीना गेस्ट हाउस के सामने ही बस छोड़नी पड़ी। बहराम का पुल पार करके वह तीन सौ सोलह नम्बर की बस पकड़कर कला मन्दिर के स्टॉप तक आया। वहां से पैदल एम० आई० जी० कॉलोनी से निकलकर उसे कलामन्दिर सिनेमा के बाजू की बिल्डिंगों तक पहुंचना था।

एक रूम के फ्लैटों में से एक फ्लैट में उसका बड़ा भाई और उसकी भाभी रहते थे, उसका भाई धीरज मन्त्रालय में डी० ग्रेड का कर्मचारी था। लेकिन निम्न श्रेणी के कर्मचारियों की ही पहुंच बहुत होती है। यह नौकरी भी उसे धीरज ही के माध्यम से मिली थी।

धीरज पांच वर्ष पहले फिल्मों में काम करने के प्रलोभन में अपना घर छोड़कर और अपनी सारी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़कर मुंबई भागा था। फिल्मों में तो क्या काम मिलता। हां, फिल्मों से उसने चिरौरी और चाटुकारी का गुण सीखने में बड़ा कौशल दिखाया था और इसी कौशल ने उसे न केवल मन्त्रालय में काम दिलवाया बल्कि उसे सरकारी कॉलोनी में डी० की बजाय सी० ग्रेड के सरकारी कर्मचारियों का आवास मिल गया था।

सूरज के पिता किसी बड़ी नौकरी पर नहीं थे। रोडवेज की बसों में कण्डक्टरी करते थे। किसी-न-किसी भांति सूरज को उन्होंने उसकी रुचि के अनुकूल पढ़ा लिया था। लेकिन अब वे अवकाश प्राप्त भी थे और श्वास के रोगी भी।

सूरज की मां का देहांत हो चुका था। बस एक बहन थी जो धीरज से भी बड़ी थी और अब उसकी शादी की उम्र भी बीत चुकी थी, क्योंकि सूरज के पिता ने दोनों भाइयों की पढ़ाई के चक्कर में बेटी की शादी की तरफ ध्यान ही नहीं दिया था ।

सूरज ने पिता को बहन के सहारे ही छोड़ा था जो बाप की देखभाल बड़ी बहन की तरह करती थी और अब तो उन पर हुक्म भी चलाने लगी थी, ऐसा हुक्म जिसमें अशिष्टता और अनादर की भावना नहीं होती थी।

जो भी था, धीरज से पत्र व्यवहार तो शुरू हो चुका था। लेकिन वह कभी-कभार सौ पचास से अधिक रुपए अपने पिता को नहीं भेजता था । पढ़ाई खत्म होने के बाद जब सूरज को दो बरस बेरोजगार रहना पड़ा और ट्यूशन करते-करते उसके भेजे में स्थायी दर्द रहने लगा तो उसने धीरज को बड़े अनुरोध से नौकरी के लिए लिखा और धीरज ने कुछ सप्ताह बाद ही उसे बुलाकर सरस्वती स्कूल में लगवा दिया।

धीरज ने मुंबई में ब्याह भी रचा लिया था— लेकिन एक ऐसी जूनियर आर्टिस्ट से जिसे फिल्मों में बहुत कुछ लुटाने पर भी काम नहीं मिला था। तीखे नयन-नक्श और गन्दयी रंगत वाली सीमा ने जब देखा था कि बस अब पांच-पांच रुपए में बिकने की नौबत आने वाली है तो उसने अपने ही जैसे असफल स्ट्रगलर धीरज को ताककर उसे अपने जाल में फांसा और घर बसा डाला। घर बसाते समय दोनों ने एक दूसरे को वचन दिया था कि वे अब फिल्मों की तरफ मुंह नहीं करेंगे जो भी इस अनुबंध को तोड़ेगा, उसके विरोध में दूसरे को कोई भी पग उठाने का अधिकार होगा जिसमें सम्बन्ध विच्छेद करना भी शामिल था।

सूरज ने बिल्डिंग के नीचे पहुंचकर कलाई की घड़ी देखो तो केवल पौने छः ही बजे थे जबकि उसे मालूम था कि धीरज और सीमा सात बजे तक सोते हैं। आठ बजे तक धीरज नहा धोकर कपड़े पहनता है। इस बीच सीमा नाश्ता तयार करती है और नौ बजे धीरज फ्लैट से निकल जाता है।

मन्त्रालय तक जाने के लिए सीधी बस सरकारी कालोनो से ही मिलती है जो वहीं से बनकर भी चलती है। सूरज के साथ धीरज और सीमा का अब तक का जो व्यवहार था। उससे स्पष्ट झलकता था कि नौकरी तो मिल गई है। लेकिन पहली पगार के बाद ही सूरज को अपना बन्दोवस्त करना पड़ेगा। दे लोग सूरज को खाने के लिए भी औपचा रिकतावश पूछ लेते थे जो खुद खा रहे हों और संयोगवश सूरज वहां पहुंच जाए।

सूरज ने सोचा, सात बजे से पहले फ्लैट की घण्टी बजाने का मतलब खतरे की घण्टी बजाना भी हो सकता है। वह बिल्डिंग के नीचे ही एक छोटे-से मद्रासी होटल में नाश्ता करने बैठ गया। पांच रुपए का नोट जेब में था। उसी के हिसाब से उसे नाश्ता भी करना था और फिर दस बजे की शिफ्ट में सरस्वती स्कूल पहुंचने के लिए लोकल का किराया भी रखना था । लोकल के विचार से ही वह लरज उठा। लेकिन बस के द्वारा बोरीवली तक पहुंचने का तात्पर्य नौकरी से हाथ धोना था। अभी नई नई नौकरी लगी थी।

एक चाय ओर खारा बिस्कुट मंगवाकर वह बड़ी बेबसी से अपने हालात के बारे में गौर करने लगा। इस तनख्वाह में किसी कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहकर तो वह अपने पिता से भी पहले बूढा हो जाएगा । कितने पैसे वह पिता और दीदी के खर्च को भेजेगा और कैसे अपने लिए अलग आवास की जुगाड़ करेगा, ऊपर से होटल का ही खाना और नाश्ता भी । लोकल का पास तो बन गया था। लेकिन वह सोच रहा था कि अभी कुछ समय उसे बसों का ही सहारा लेना पड़ेगा। कम-से-कम वापसी में तो बस से आ ही सकता है, बशर्ते कि स्कूल की प्रिंसिपल की तरफ से कोई बेगार नित्यं न लगे ।

स्टील के गिलास में चाय और उसके नीचे एक स्टील की ही कटोरी, स्टील की ही प्लेट में चार खारा बिस्कुट ! नाश्ता देखकर उसका दिल और ज्यादा कुढ़ गया। कुछ क्षण के लिए उसे विचार आया कि क्यों न वह बम्बई से वापस ही चला जाए ? लेकिन फिर ध्यान अथा कि नौकरी कहां मिलेगी ? शायद सरस्वती स्कूल से कुछ उन्नति ही हो जाए ? ‘मगर कैसे ?’

इस सवाल का कोई जवाब उसके मस्तिष्क में नहीं था। अचानक उसे उस चिट्ठी का ध्यान आया जो उसे उस लड़की ने किसी पते पर पहुंचाने को कहा था जिसने रात उसके सामने ही लोकल ट्रेन से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली। थी।

वह लिफाफा अभी तक उसकी जेब में ही था। बौखलाहट में उसने पता तक नहीं पढ़ा था कि कहां पहुंचाना है । खारा बिस्कुट खत्म करके उसे ध्यान आया कि पता नहीं वह लड़की किस मुसीबत में पड़ी होगी जो उसने आत्महत्या कर ली।

किसके नाम भेजी है यह चिट्ठी ?

'हो सकता है इस चिट्ठी का पहुंचना अनिवार्य हो ? ‘अगर खुद पहुंचाने में खतरा है तो उसे लैटरबक्स में भी डाला जा सकता है।’

'लेकिन शायद ऐसा पता हो कि वह चिट्ठी चुपचाप दर वाजे के नीचे ही सरकाकर खिसक आए - इस प्रकार चिट्ठी तो अपनी मंजिल पर पहुंच जाएगी।

‘हो सकता है वह मरने वाली का कोई रिश्तेदार हो "जिसके नाम उसने वह चिट्ठी लिखी हो— पहुंचाने का कोई साधन न देखकर तत्क्षण उसने सूरज को सामने पाकर उससे ही मदद लेने का निश्चय कर लिया हो।’

सूरज ने इधर-उधर देखकर चाय का घूंट लिया तो उसको होंठों को एक जोरदार चपका-सा लगा और बिलबिलाकर उसने गिलास कटोरी में रख दिया। जी चाहा गिलास फेंककर उसके मुंह पर मार दे जो आधी लुंगी घुटनों पर चढ़ाए अटक्कम चटक्कम जैसी भाषा में वेटर को गालियां दे रहा था।

सूरज ने अपने आंसू पोंछे जो जलन के आधिक्य से आंखों में आ गए थे। फिर उसने जेब से वह चिट्ठी निकाली। लिफाके को मेज और कुर्सी के बीच करके पहले उस पर लिखा पता देखा और उसका ऊपर का सांस ऊपर रह गया नीचे का वीचे पता लिखा था । 'जी० आर० पी० थाना इंचार्ज कोई भी थाना- कोई भी लोकल स्टेशन !

सूरज का गला सूख गया। अब उसके लिए आवश्यक था कि वह चिट्ठी को पढ़ता भी। उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह इस चिट्ठी को किसी भी लोकल स्टेशन के थाने में पहुं चाता। लैटरबक्स में अवश्य डाल सकता था। लेकिन उससे पहले अन्दर की चिट्ठी को पढ़ने की इच्छा उसके दिल में बुरी तरह से मचल रही थी।

उसने इधर-उधर देखा। सुबह का समय था । इसलिए होटल में एक भी सीट खाली नहीं निकली और काउंटर पर खड़ा काला आदमी उसे इस तरह तिरस्कार भरी निगाह से घूर रहा था जैसे कोई फोकट का खाने वाली घुस आया हो, क्योंकि कई बैठने के इच्छुक ग्राहक खड़े थे ।

सूरज ने जल्दी-जल्दी चाय गरम-गरम ही "गले से उतारी और उठकर काउंटर पर पांच रुपए का नोट दिया। दो रुपए दस पैसे वापस मिलने पर उसने गिना भी नहीं। वह चुपचाप होटल से बाहर आ गया।

कलाई की घड़ी देखी, सिर्फ साढ़े छः ही बजे थे। उसे उन लोगों पर गुस्सा आने लगा जो लोग कहते हैं कि आजकल समय पंख लगाकर उड़ता है। यहां तो समय कछवे से भी मद्धिम गति से रेंग रहा था।

क्रमशः 

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