सौरभ और रितिका के बीच की सारी दूरियाँ उनकी डिनर डेट पर ही खत्म हो जाती हैं। एक बार फिर वो अपने चार्म में लड़की को फंसा ही लेता है।
रात में बने मोमेंट्स के बाद, रितिका की सारी लॉयल्टी और सारा डेडिकेशन उसके और सौरभ के रिश्ते के लिए हो जाता है।
रितिका को सोता देख, सौरभ के मन में एक मिनट के लिए यह खयाल आता है कि वह रितिका को अपनी अँधेरी दुनिया का शिकार न बनाए।
रितिका ने उसके मन में बदलाव का बीज डाल दिया था।
इस बीज को पानी देना है या नहीं, यह सौरभ का फैसला था और उसका फैसला बदलाव का नहीं, बल्कि औरतों से बदला लेने का था।
उन्हें ईमोशनली, मेंटली और फाइनैन्शियली कमजोर बनाना था।
सौरभ का ध्यान जैसे ही उसकी डेढ़ लाख की घड़ी पर जाता है, उसकी कॉन मैन वाली पर्सनालिटी उस पर हावी होने लगती है।
मगर कहीं न कहीं, वह रितिका के कोशिशों और उसकी केयर से प्रभावित हो रहा था।
अपने इमोशन्स को काबू करने के लिए, उसने साइड में रखे सिगरेट के पैकेट से सिगरेट निकाली और बालकनी में खड़े होकर पीने लगा।
धीरे-धीरे जब उसके इमोशन्स कंट्रोल हुए, तो वह किचन में जाकर अपने और रितिका के लिए कॉफी बनाने लगा।
सौरभ कॉफी बना ही रहा था कि रितिका आई और उसने पीछे से सौरभ को गले लगाते हुए कहा, ‘’थैंक यू, इतनी अच्छी मेमोरी बनाने के लिए। तुम सच में बहुत अच्छे हो।''
सौरभ: इन दैट केस, आई शुड से थैंक यू... मुझे अपने घर बुलाने के लिए। अब तुमने इतना ट्रस्ट किया है तो मैं कैसे इसे स्पेशल नहीं बनाता।
रितिका: मैं सोच रही हूँ आज ऑफिस से ऑफ ले लूँ। थोड़ा टायर्ड हूँ और मानसी भी आने वाली है।
सौरभ: ओह, गर्ल्स डे आउट! वैसे, तुम मेरे लोगों से तो मिल चुकी हो। मुझे अपने लोगों से कब मिलवा रही हो?
रितिका (खुश होकर): तुम सच में मानसी से मिलना चाहते हो? मैं तो कब से तुम्हें उससे मिलाना चाहती थी, पर थोड़ा हिचक रही थी कि पता नहीं तुम कैसे रिऐक्ट करोगे। मना कर दिया तो? इसलिए कभी पूछा नहीं।
सौरभ: अरे इसमें हिचकिचाने वाली क्या बात है?
रितिका: मुझे लगा शायद तुम कम्फर्टेबल न हो। अब जब तुम खुद कह रहे हो, तो मैं करती हूँ कुछ प्लान। नॉव आई एम एक्साइटेड।
सौरभ अपने मिशन के हर कदम में कामयाब होता नजर आ रहा था।
सौरभ समझ चुका था कि अगर उसे रितिका पर कंट्रोल चाहिए, तो उसकी बेस्ट फ्रेंड को रास्ते से हटाना होगा।
अब देखना यह था कि रितिका मानसी और सौरभ की मुलाकात कब कराती है।
रितिका के साथ मॉर्निंग कॉफी पीने के बाद, सौरभ अपने फ्लैट वापस आ गया।
सौरभ ने जैसे ही दरवाजा खोला, उसके घर में फैली खामोशी ने उसके मन की आवाज़ों को बढ़ा दिया।
सौरभ इतना ज्यादा थका महसूस कर रहा था कि उसने अपने फ्लैट की लाइट्स ऑन नहीं कीं और अँधेरे में ही काउच पर बैठ गया।
थकान की वजह से उसकी आँखें बंद हो गईं और उसकी आँखों के सामने रितिका के हॉल में लगी फैमिली पिक्चर्स आ गईं।
उन तस्वीरों की मुस्कुराहट देखकर ही पता चल रहा था कि सभी के बीच कितना आपसी प्रेम होगा, कितना अपनापन होगा।
रितिका ने अपने भीतर आज भी सिलीगुड़ी को जिंदा रखा था।
तभी तो उसने सौरभ के फरेब में सच्चा प्यार ढूँढ लिया।
रितिका की अपने भाई-बहनों के साथ फोटो देखकर, सौरभ को अपना और श्रुति का बचपन याद आ गया और सौरभ एक बार फिर अपने अतीत में चला गया।
सौरभ और श्रुति भाई-बहन होने के साथ-साथ अच्छे दोस्त भी थे।
एक बार, सौरभ ने श्रुति के दोस्तों को कठपुतलियों से खेलते देखा।
उसने श्रुति से पूछा कि वह क्यों नहीं खेलती उन कठपुतलियों से?
सौरभ के ऐसा पूछने पर श्रुति बड़ी मासूमियत से जवाब देती, "बाबा पैसे नहीं होते, दादा, तो वो कहाँ से मुझको कठपुतली लाकर देंगे।"
जब यह इंसिडेंट हुआ, तब श्रुति 12 साल की और सौरभ 15 साल का था।
जैसे ही सौरभ ने श्रुति की आँखों में उदासी देखी, उसने तुरंत अपने गुल्लक के पैसे, जो वह दुर्गा पूजा में नई साइकिल लेने के लिए बचाकर रखे थे, श्रुति के लिए कठपुतली लेने में खर्च कर दिए।
दूसरे ही दिन, श्रुति के आँख खोलते ही उसके सामने कठपुतली थी।
श्रुति देखते ही समझ गई कि यह कठपुतली उसके सौरभ दादा लेकर आए हैं।
श्रुति उठते ही छत पर जाकर अपनी सारी सहेलियों को ज़ोर-ज़ोर से आवाज देकर बताने लगी कि उसके दादा उसके लिए कठपुतली लेकर आए हैं।
सौरभ और श्रुति का बचपन एक-दूसरे को तंग करने, एक-दूसरे की गलतियाँ छुपाने, और कार्टून मैगज़ीन पढ़ने में बीता।
हर रोज़ शाम होते ही, ठाकुमाँ दोनों को पास के दुर्गा मंदिर ले जाया करती।
लौटते वक्त कभी वे फुचका खाते, कभी रसगुल्ला, तो कभी कचौरी।
जैसे ही श्रुति और सौरभ घर आते, वे ठाकुदा के साथ बंगाली फिल्में देखते।
बचपन में मिले प्यार के निशान हमेशा साथ रहते हैं।
इसी तरह, बचपन के घाव के निशान भी जीवनभर साथ रहते हैं।
सौरभ अपने बचपन की यादों में डूब ही रहा था कि श्रुति के कॉल से उसका ध्यान टूटा।
श्रुति (सख्ती से): तुम ये सब क्यों कर रहे हो, दादा? क्या मिलेगा इससे?
सौरभ: क्या कह रही हो, श्रुति?
श्रुति (गुस्से से): और कितनी औरतों के साथ बदसलूकी करोगे?
सौरभ: ज़ुबान संभालकर बात करो, श्रुति। अपने बड़े भाई से बात कर रही हो।
श्रुति (गुस्से में): कौन सा बड़ा भाई? जिसने लड़कियों को अपना खिलौना समझ रखा है।
सौरभ: यह तुमसे किसने कहा?
श्रुति: इसमें किसी के कहने की ज़रूरत नहीं है। बचपन से जानती हूँ।
तुम अपने बनाए नफरत के जाल में कितनी ज़िंदगियों को उलझाकर उनसे उनकी उम्मीदें छीनोगे?
सौरभ (गुस्से में): भूल गई, तुम्हें तुम्हारे डिवोर्स के बाद किसने संभाला था? वो मैं था, जिसने तुम्हारे सिर पर छत दी, खाने को दिया, नौकरी का इंतज़ाम किया। पता नहीं तुमने भी क्या मुँह काला किया होगा, जो तुम्हारे पति ने तुम्हें छोड़ दिया। पता नहीं किसके साथ सो...
श्रुति (रोते हुए): रुक क्यों गए, दादा? जहाँ इतनी बड़ी-बड़ी बातें कह दीं, इस बात को भी पूरी करते…
जैसे ही श्रुति ने कॉल काटा, पहली बार सौरभ को अपने कहे शब्दों पर पछतावा हुआ।
उसकी चिढ़ उसकी माँ से थी, मगर इस चिढ़ का शिकार हमेशा से श्रुति ही बनी।
जिसकी वजह से उसकी लाडली बहन के साथ उसके रिश्ते खट्टे होने शुरू हो गए।
सौरभ उस दिन को याद कर रहा था, जब उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई थी।
उसे अच्छे से याद था, उसका सोलहवाँ जन्मदिन, जब वह ठाकुमाँ और ठाकुदा के साथ मंदिर से लौटा था।
सौरभ ने देखा कि उसके बाबा लाचार होकर ज़मीन पर माथा पकड़े बैठे हुए थे।
उसकी माँ अपने ही गुरूर में अपने बेडरूम की चौखट पर खड़ी हुई थी, जिसके कंधे से साड़ी का पल्लू आधा सरक चुका था।
तभी एक अंजान आदमी उस बेडरूम से अपनी शर्ट के बटन लगाते हुए निकलता है और मीता की तरफ देखकर मुस्कुराता हुआ घर से चला जाता है।
सोलह साल की उम्र में अपनी आँखों के सामने यह घिनौना काम देखकर, सौरभ पूरी तरह टूट गया।
वह श्रुति की तरफ देखता है, जिसका रो-रोकर बुरा हाल था।
उसके बाबा खामोश हो गए, इतने कि सदमे से अगले दिन उनकी अर्थी उठ गई।
सौरभ के मन में यह चोट हमेशा-हमेशा के लिए ज़ख्म दे गई।
जिसके निशान अब भी ताज़ा हैं।
सौरभ भी जानता था कि वह जो कर रहा है, वह ग़लत है।
मगर हर बार उसके सामने उसके पिता की मौत का मंजर आ जाता।
यह मंजर वह सोते, उठते, बैठते, खाते-पीते कभी नहीं भूल पाता।
मगर आज जो शब्द उसने श्रुति से कहे, उसके लिए वह बहुत शर्मिंदा था।
सौरभ जानता था कि श्रुति के घर वापस लौटने में उसका कोई कसूर नहीं था। श्रुति के शरीर पर मार के निशान उसने खुद देखे थे।
उसने जब देर रात सौरभ को फोन किया और अपने साथ हुए वॉयलेंस के बारे में बताया, तो सौरभ तुरंत ही फ्लाइट पकड़कर कोलकाता आ गया था और श्रुति के ससुराल वालों पर पुलिस केस करने के बाद, श्रुति को वापस ले आया।
आज उसने मीता के गुस्से में श्रुति से कितनी घटिया बातें कह दीं।
सौरभ की आँखों में पहली बार आँसू थे।
वह पहली बार रितिका को ठगने के बारे में नहीं सोच रहा था।
इसी खयाल में पूरा दिन बीत गया।
रात होते ही, सौरभ अपने कमरे के बिस्तर पर बैठा श्रुति के बारे में ही सोच रहा था,
तभी श्रुति ने उसे कॉल किया।
श्रुति: क्या कर रहे थे, दादा?
सौरभ: कुछ नहीं।
श्रुति: मैं सिर्फ इतना बोलने की कोशिश कर रही हूँ कि धोखा जेंडर देखकर नहीं दिया जाता।
तुम किसी और के किए की सज़ा किसी और को मत दो, दादा। बर्बाद हो जाओगे।
सौरभ: मैं अपने सुबह वाले बर्ताव के लिए तुमसे माफ़ी माँगना चाहता हूँ।
श्रुति: मैं तुमसे नाराज़ होकर कैसे रह सकती हूँ?
एक तुम ही तो हो, जिसके सहारे मैं जी रही हूँ।
श्रुति से माफी मिल जाने के बाद, सौरभ थोड़ा रिलैक्स होने लगा।
मगर बचपन में मिले घाव का दर्द अब भी उसे परेशान कर रहा था।
देखा जाए तो सौरभ के इस किरदार के पीछे उसके बचपन का ही हाथ है।
क्या अपनी बहन की बातों के बाद सौरभ बदल जाएगा?
क्या वह अपनी सच्चाई रितिका को बता पाएगा?
जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।
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