नीना studio के दरवाज़े के सामने खड़ी थी। ऐसा लग रहा था जैसे दरवाजे के उस पार कोई भयानक मंजर इंतज़ार कर रहा हो, लेकिन फिर भी वो अंदर जाने को मजबूर थी, मानो एक अनजानी ताकत उसे खींच रही हो। उसने दरवाज़ा खोला। वही जानी पहचानी-सी चरमराती हुई दरवाज़ा खुला। उस चरमराहट में एक अजीब-सी दहशत छिपी हुई थी, जैसे वो दरवाज़ा भी नीना को सावधान कर रहा हो और कह रहा हो 'enter at your own risk'।
अंदर से एक ठंडी हवा का झोंका नीना के चेहरे पर सीधे टकराया। कमरे में प्रवेश करते ही उसे ऐसा लगा, मानो कमरे की हर चीज़ उसे घूर रही हो। ये उसके लिए कोई नई बात नहीं थी।
सामने वसुंधरा का अधूरा पड़ा हुआ portrait उसके लौटने का इंतज़ार कर रहा था। नीना कमरे में धीरे-धीरे कदम बढ़ा रही थी, उसके पैर उसे रुकने की हिदायत दे रहे थे, और उसका दिल जोरों से धड़क रहा था। वो जानती थी कि अंदर कुछ भयानक हो सकता है, लेकिन मुद्दे की जड़ तक जाने के लिए उसे इसका सामना करना था।
वह portrait के करीब आई, और उसकी उंगलियाँ अपने आप ही portrait के किनारे छूने लगीं। रंगों में एक अजीब सी गर्मी थी, जैसे जीवित शरीर में होती है। मानो एक दिल उस portrait में भी धड़क रहा हो।
तभी उसे अपने हाथ पर हल्की जलन महसूस हुई। उसने अपनी कलाई पर नज़र डाली। कल रात को हुआ जलने का निशान अभी भी ताज़ा लग रहा था। ये निशान उसे अच्छी तरह से याद दिला रहा था कि वह इस portrait से जितना दूर भागेगी, उतना ही वह उसे अपनी ओर खींचता जाएगा। और यह portrait ख़ुद, उसी ने ही बनाया था।
वो समझ चुकी थी कि अब इस खेल का अंत तभी होगा जब वह इसे पूरा करेगी, चाहे जो भी हो। दो दिनों की अनदेखी और मन को स्थिर करने की नाकामयाब कोशिशों के बाद, नीना आखिरकार हिम्मत की और portrait के सामने जाकर ब्रश उठाया, और जैसे ही उसकी उंगलियाँ पेंट से टकराईं, वह उसके हाथ को जकड़ कर उसके हाथों पर चढ़ गया और अठखेलियाँ करने लगा।
एक अजीब अवस्था ने उसे जकड़ लिया। उसकी आँखें खुली थीं लेकिन उस पर से नियंत्रण हट चुका था। उसे ऐसा महसूस हुआ कि उसका शरीर उसके नियंत्रण से बाहर जा रहा है। उसके हाथ अपने आप ही ब्रश चलाने लगे।
उसकी साँसें धीमी होने लगीं, और अचानक उसके सामने portrait पर अजीब से दृश्य उभरने लगे। वसुंधरा का जीवन धीरे-धीरे उसकी आँखों के सामने खुलने लगा। मानो वह portrait नहीं बना रही थी; वह वसुंधरा के जीवन के अच्छे और बुरे पलों को देख रही थी या कहें तो जी रही थी, जैसे कोई फ़िल्म उसके सामने चल रही हो।
पहला सीन जो उसके सामने आया, वह था एक बड़ी हवेली का कमरा। वसुंधरा बड़े प्यार से गुनगुनाते हुए अपने घर को सँवार रही थी। हर चीज़ उसकी पसंद की थी—खिड़कियों पर लगे सुंदर से पर्दे, और पास ही रखा खूबसूरत सा नाइट लैम्प, दरवाजे के पास रखे मिट्टी के बर्तन, wooden shelf में सजे मिट्टी के पॉट, जो उसने खुद clay craft सीखते वक्त बनाए थे। दीवारों पर टंगे paintings, और कोनों में सजे छोटे-छोटे पौधे, सभी से वह ऐसे बतिया रही थी मानो वे सभी जीवित हों और उसकी बात सुन रहे हों।
कमरे में हल्की सी खुशबू फैली हुई थी, जो माहौल को और भी सुखद बना रही थी। हर सामान अपनी जगह पर इस तरह रखा था मानो उनके बिना घर अधूरा हो। वसुंधरा के लिए ये बस ईंट और सीमेंट का ढांचा नहीं था, बल्कि यहाँ उसकी जान बसती थी। यहाँ सब कुछ उसका अपना था। उसे यहाँ की हर दीवार से प्यार था।
अगले ही पल सीन बदल गया। कोई व्यक्ति उसके इसी घर को तहस-नहस करने में लगा था। उसके बनाए हुए मिट्टी के पॉट हवा में उछाल कर तोड़ रहा था। उनके बीच किसी बात को लेकर बहस छिड़ी हुई थी। नीना को उनके शब्द साफ़ सुनाई नहीं दे रहे थे, लेकिन चेहरे के हाव-भाव और उनके तन-मन में छिपी बेचैनी साफ़ दिख रही थी। उस व्यक्ति की आँखों में छलकता विश्वासघात और वसुंधरा के चेहरे पर छाई उदासी और घबराहट।
फिर अचानक, scene बदल गया। वसुंधरा एक अंधेरे कमरे में खड़ी थी, और सिसक-सिसक कर किसी चीज़ की भीख मांग रही थी।
अगला scene और भी भयावह था – वसुंधरा एक कमरे में अकेली बैठी थी। वह बार-बार आगे-पीछे हिल रही थी। कभी गर्दन झटकती, कभी खुद के हाथों पर इतनी खुजली करती कि अपने नाखूनों में skin की ऊपरी सतह ही निकाल लाती। फिर खुद से ही कुछ बड़बड़ाने लगती। कभी अपने बालों को हाथों से नोचती और बालों का गुच्छा सिर से तोड़ कर ले आती, फिर उसे देखती। उसकी आँखों के नीचे के काले घेरे उसके ना सोने की गवाही दे रहे थे। सूनी आँखें बंद दरवाज़े को तांक रही थीं, जैसे किसी के इंतज़ार में हों।
उसका चेहरा भय और अविश्वास से भरपूर था। उसके हाथ काँप रहे थे, और उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो उसका सब कुछ किसी ने छीन लिया हो। नीना का दिल तेज़ी से धड़कने लगा, जैसे वह खुद उस दर्द को महसूस कर रही हो।
उसकी उंगलियों में ब्रश की पकड़ अब ढीली हो चुकी थी, लेकिन उसका दिल धड़कता जा रहा था। उसकी साँसें तेज़ हो गईं। वसुंधरा की चीखें, उसके हाथों पर खरोंचने की आवाज़ अभी भी उसकी कानों में गूंज रही थीं। नीना ने अचानक painting से पीछे हटने की कोशिश की, लेकिन वह वहीं जम सी गई थी।
उसकी आँखें अब painting पर नहीं थीं, बल्कि उन सीन पर थीं जो उसे दिख रहे थे। हर दृश्य उसे वसुंधरा की मौत के करीब ले जा रहा था, और उसे ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे वसुंधरा उसे कुछ दिखाना चाहती हो, कुछ ऐसा जो उसने अभी तक नहीं समझा था। नीना को इस बात का एहसास हो गया था कि वह इस painting के माध्यम से वसुंधरा की अधूरी कहानी को पूरा कर रही थी।
जैसे ही वह खुद को उस स्थिति से बाहर खींचने की कोशिश करती, painting का गहरा रंग और उसमें छिपी ताकत उसे और गहराई में खींचने लगती। नीना को समझ नहीं आ रहा था कि वह इस portrait को पूरा करके वसुंधरा की मुक्ति कर रही है या अपनी खुद की बर्बादी की कहानी लिख रही है।
नीना की हालत अचानक तेज़ी से बिगड़ने लगी थी। कमरे की गर्मी ने उसे पूरी तरह घेर लिया था। उसका माथा फड़कने लगा, दिमाग की नसें मानो तन कर फूल चुकी हों। आँखों के सामने धुंधलापन छा रहा था, पर वह अपनी पलकें झपकाकर उसे ठीक करने की कोशिश करते हुए portrait को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही थी। वह रुकने के लिए तैयार नहीं थी।
नीना को महसूस हुआ कि उसका शरीर उसका साथ छोड़ रहा है और उसकी सारी energy canvas में समा रही है। उसकी उँगलियाँ कांपने लगी थीं, लेकिन हाथ रुकने का नाम नहीं ले रहा था।
अचानक नंदिता ने दरवाज़ा खोला और नीना portrait से छिटक कर दूर गिर गई। नंदिता पूरी तरह चौंक गई, और नीना के पास जाकर पूछा की दीदी, आप ठीक तो हो?
नीना ने अपने सूखे गले की तरफ़ इशारा करके इशारों में ही पानी मांगा। वह बोल नहीं पा रही थी।
नंदिता ने तुरंत उसे पानी का ग्लास पकड़ाया। नीना ने उसे, सालों से प्यासे इंसान की तरह, थोड़ा कपड़ों पर गिराते हुए जल्दबाज़ी में पिया। उसने पलक झपकते ही ग्लास खत्म कर लिया और नंदिता की तरफ़ और पानी डालने का इशारा किया। उसने उसे देखते हुए ग्लास में और पानी डाला।
नीना ने तेज़ साँसे लेते हुए वह भी खत्म किया और फिर 2 मिनट मौन बैठी रही।
नंदिता ने आहिस्ते से नीना के हाल पूछे।
नीना (हाँफते हुए): "क्या तुम थोड़ी देर यहाँ रुक सकती हो?"
नंदिता ने बड़ी ही ममता-भरी आँखों से देखती हुई बोली कि वो वहीं नीना के पास ही है। उसका तो काम ही नीना की देखभाल करना था। नीना की नज़र portrait पर जाना चाहती थी लेकिन वह बार-बार अपनी नज़रें चुरा रही थी। वह जानती थी कि नंदिता का इस कमरे में आना उसे पसंद नहीं आया होगा और उसकी आँखों से अंगारे निकल रहे होंगे।
तभी उसका फोन रिंग हुआ। mobile पर आए कॉल से उसका ध्यान हटा। सतीश का कॉल आ रहा था। उसने जल्दी से अपनी आवाज़ संभालने की कोशिश की और हंसते हुए बोली,
नीना (गाला साफ़ करते हुए): "हाँ, अब याद आई है तुझे मेरी?"
सतीश: “Hahahahahaha…. तू इतनी भी important नहीं है। मैं तो बस bore हो रहा था, सोचा तुझसे बात कर लूँ। Entertain भी हो जाऊंगा!"
नीना (मज़ाकिया लहजे में): "सबसे पहले तो तुझे ही ज़हर दे देना चाहिए। ना रहेगा तू, न रहेगी तेरी स्टुपिड बातें।"
सतीश ने हँसते हुए जवाब दिया, "हाँ, पर वो करने के लिए तुझे यहाँ आना पड़ेगा!"
नीना : "अरे यार, दो दिन ही तो हुए हैं। मुझे शांति से काम करने दे। फिर मेरे ही काम में नुक्स निकलेगा, Mr Art Critic!"
सतीश के कॉल से नीना को काफी फ़र्क़ पड़ने लगा। सतीश ने तुरंत माहौल हल्का करते हुए कहा,
सतीश: "अच्छा, अच्छा, वो सब छोड़। तूने दवाई टाइम पर ली कि नहीं?"
नीना: "हां बाबा, ली है। अब डॉक्टर मत बन, और क्या कर रहा था?"
सतीश ने चिढ़ाते हुए कहा, "तेरी यादों में खोया हुआ था।"
नीना (ठहाका लगते हुए): “Hahaha-hahaha हाँ हाँ, नालायक है तू एक नंबर का... जिसे कोई नहीं सुधार सकता।"
सतीश: 'देख, तू अपना ध्यान रखना, नहीं तो मुझे कोलकाता आना पड़ेगा।”
नीना सतीश की बातों से काफ़ी normal feel करने लगी।
कॉल कट करने के बाद, नीना ने डरते हुए portrait की तरफ़ देखा। उसके दाहिने हाथ में पहने 5 carat classic solitaire diamond ring की चमक उसकी आँखों में पड़ी, उसने आँखें बंद कीं। portrait का वो हीरा भी अपने पूरे शबाब पर था।
नीना ने नंदिता से पूछा, "क्या तुम डायमंड रिंग की चमक देख सकती हो?"
नंदिता ने अपनी मासूमियत से कहा की बहुत सुन्दर लग रहा है दीदी!
नंदिता कमरे में मौजूद थी, लेकिन उसकी मौजूदगी का कोई असर नहीं था। वह किसी से कुछ कहती नहीं थी, न ही कुछ देख रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे गांधीजी के तीनों बंदरों उसी के अंदर समाये हुए थे - न कुछ देखना, न कुछ सुनना, और न कुछ कहना। हाँ, ये बात अलग है कि उसने इस बात को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया था। वह न सिर्फ़ बुरी चीज़ों से दूर थी, बल्कि उसने हर चीज़ से खुद को अलग-थलग कर लिया था, मानो दुनिया की हर हलचल से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।
वसुंधरा का दाहिना हाथ पूरी तरह बन चुका था। अचानक नीना को अपने पैरों के आसपास घना कोहरा लिपटते दिखा। वो कोहरा कैनवास के खाली हिस्से में भी देखा जा सकता था। अचानक उसे वसुंधरा की आवाज़ आई, "आमाके पूरो कौर। पूरा करो मुझे।"
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