नीना स्टूडियो के सामने खड़ी दरवाजे को घूर रही थी। मन में सैंकड़ों सवाल थे, जो कि होना ज़ाहिर सी बात थी। 

सबसे पहला विचार ये आया कि कहीं अंदर जाते ही उसके ऊपर कल की तरह वसुंधरा हावी न हो जाए। उसने अपनी गर्दन के पीछे छुआ, उसके हाथ लगते ही उसे गर्म लगा और जलन की वजह से उसका हाथ छिटक कर दूर हो गया।

"आह!" उसके मुंह से निकला।

नीना आसंजस में थी - स्वाभाविक था। जब भी हम किसी ऐसी स्थिति में फंसते हैं तो हम वो चुनते हैं जो हमारा मन करता है। यहाँ सही-गलत कुछ नहीं होता, सब खेल मन का होता है। Instinct कह लो। और नीना का मन अंदर जाने की गवाही नहीं दे रहा था। उसने सोचा, क्यों न U-turn मार कर कमरे में वापस जाया जाए। वह पलटी, लेकिन कमरे में भी बोर हो जाएगी, सोचते हुए वह बरामदे की दीवार से सटकर नीचे बने हवेली के दरवाजे को ताकने लगी। हवेली की दीवारों पर धूल और पुराने पेंट की पपड़ियाँ झलक रही थी , लेकिन उसके ध्यान का केंद्र बार-बार केवल उस दरवाजे पर जा रहा था। अचानक, उसकी नज़र एक आदमी पर पड़ी, जिसकी शक्ल जानी-पहचानी लग रही थी। यह आदमी हवेली के अंदर आया, उसे देख, नीना के मन में एक हलचल सी मच गई।

उस आदमी ने अपने मोबाइल को कान पर लगाया, और नीना की यादों में एक click हुआ। 

नीना (धीमी स्वर में): “ये आदमी!!!! इसे मैंने दिल्ली में देखा था!!!” 

उसे याद आया कि जब वह कोलकाता आने से पहले shopping पर गई थी, तब उसने इस आदमी को देखा था। वह आदमी उसी दिन उसके आसपास था, उसकी गतिविधियों पर नजर रख रहा था।

वह उसे देखकर क्यों परेशान हो रही थी? क्या यह सिर्फ़ एक संयोग था या फिर इस आदमी का हवेली से कोई संबंध था? ये सवाल उसके मन में तेजी से चलने लगे। जैसे-जैसे वह उस आदमी को देख रही थी, उसे गुस्सा आ रहा था। 

नीना: “लगता है की यह सत्यजीत का spy है। क्या मुझे इसकी ओर जाना चाहिए? इसको confront करून क्या?”

नीना दबे कदमों से नीचे उतरी और उस आदमी को छिपकर देखने लगी। वह फोन पर किसी से बात कर रहा था। उसने सोचा, ऐसे तो आवाज़ आने से रही, क्यों न पास जाकर सुना जाए, आखिर माजरा क्या है।

उस आदमी ने अपनी नज़रें आस-पास घुमाईं, और उसकी आंखें ठीक नीना की ओर आकर रुक गईं। नीना ने झट से अपना चेहरा पीछे कर लिया, लेकिन उसकी आँखों के कोने से उसने देखा कि वह आदमी अब भी उसे देख रहा था।

नीना (दबी आवाज़ में): "पहचान गया क्या? कम्बख़्त!"  
नीना ने देखा कि सत्यजीत के मैनेजर उससे मिलने आए।

नीना: "ये इससे मिलने क्यों आया है?" 
वो तहकीकात कर ही रही थी कि उसे पीछे से किसी ने टच किया। उसकी आत्मा मुँह तक आकर वापस शरीर में लौट गई। वो पलटी। पीछे वही लड़की, नंदिता खड़ी थी, जो उसका ध्यान रखती थी।

इस बार नंदिता को देख, नीना को गुस्सा आ गया. नंदिता ने पूछा की क्या उसे कुछ चाहिए?  

नीना का मन तो हुआ कि कह दे, "हाँ, एक हथौड़ा दे, तेरा ही सिर फोड़ दूं," लेकिन उसने खुद को संभाला और फेक स्माइल देते हुए बोली, 

नीना: "नहीं नंदिता... मुझे क्या चाहिए?"

ऐसा कहकर, नीना  जैसे ही दोबारा उस आदमी को देखने लगी, वह वहाँ से गायब था। फिर वो पलटी तो देखा कि नंदिता भी गायब थी। 

नीना: "क्या नाटक है यार? इस घर में सभी जासूस हैं, लगता है. और इस लड़की को मेरी देखभाल के लिए कहा गया था या मेरी जासूसी के लिए? जब देखो टपक जाती है और वो भी गलत वक़्त पर..."

वो खीजते हुए वहाँ से चली गई।

**

सत्यजीत अपने ऑफिस में बैठे थे, लैपटॉप पर उसकी उँगलियाँ smoothly चल रही थीं। अचानक आए कॉल की वजह से वो रुक गई। उसने मोबाइल स्क्रीन पर "Unknown Caller" देखा, लेकिन यह नंबर उसे जाना-पहचाना लगा। वह ठिठक सा गया और कुछ पल के लिए सोच में पड़ गया। फिर उसने कॉल कट करके, एक चाबी निकाली और अपनी डेस्क के ड्रॉअर के अंदर बने एक और ड्रॉअर को चाबी से खोला। उसने अंदर से एक पुराना फोन निकालकर, दरवाज़ा लॉक किया और उसी नंबर को डायल किया।
 

सत्यजीत: “हैलो?”
दूसरी ओर से एक गहरी, रहस्यमयी आवाज़ सुनाई दी जिसने पूछा, सत्यजीत, कैसे हो? सत्यजीत ने थोड़ी देर चुप्पी साधी। 

सत्यजीत (सख्ती से): “कितनी बार कहा है, इस नंबर पर कॉल किया कीजिए। दूसरी वाली पे नहीं।” 

दूसरी ओर से आवाज आई की "मैंने चार बार कॉल किया था, लेकिन तुमने उठाया नहीं। तो मजबूरन इस नंबर पर कॉल करना पड़ा।"
सत्यजीत: “ऐसा क्या हुआ जो कॉल करना पड़ा?” 
उसकी आवाज़ में अब भी सख्ती थी।
सामने से गहरी आवाज़ में पूछा की अब उसकी तबियत कैसी है?
 

सत्यजीत: “सिर्फ यह पूछने के लिए तो कॉल नहीं किया होगा।”  
उसकी आँखों में थोड़ी झिझक थी।
दूसरी ओर से आवाज़ ने पूछा की काम हितना हुआ? 
सत्यजीत: “उम्मीद से काफी slow है, लेकिन कोशिश जारी है। कर रहा हूँ कि जल्द हो जाए, आगे से मुझे इसी नंबर पर कॉल कीजिए।” 
ऐसा कहते हुए सत्यजीत ने कॉल कट कर दिया।


सत्यजीत थोड़ा विचलित दिखाई दिए। उन्होंने अपने shirt  के बटन खोलकर उसे हटाया और अपनी छाती पर बने पुराने जख्मों के निशान को छुआ। वह निशान उसे उसकी कमजोरियों की याद दिला रहा था।
उन्होंने एक गहरी सांस ली और अपने मन को शांत करने की कोशिश की।

**

रात हो चुकी थी, और नीना का दिन यूं ही गुजर गया था। उसने अपने कमरे में बिस्तर पर औंधी लेटी जामिनी रॉय की किताब में खोई हुई थी, जो उसे सत्यजीत ने दी थी।
अचानक, उसे एहसास हुआ कि उसकी किताब पर तेज रोशनी आने लगी है। वह चौंकी और ऊपर देखा, तो पाया कि उसके छत पर लगा लैम्प नीचे आकर उसके सिर के बेहद करीब झूल रहा था। वो देखने को पलटी तो चींख कर बिस्तर पर चित पड़ गई। लैंप धीरे-धीरे नीचे आया और अचानक हवा के झोंके से दूर छिटक कर दीवार पर जा लगा, जिससे वह चकनाचूर हो गया। नीना सहमी हुई सी उसे देख रही थी, उसकी सांसें तेज हो गईं।

उसे कानों के पीछे से आवाज आई, "खौतुम कौर। मुझे ख़त्म करो।" वह सहम गई। वह बिस्तर पर चिपकी हुई थी। उसने खुद को ढकने के लिए blanket लिया और मुंह से लेकर पैर तक ढककर खुद को सुरक्षित करने की कोशिश की। उसने blanket को इतनी मजबूती से दबा लिया कि उसकी उंगलियां सफेद पड़ गईं।

एक पल के लिए कमरे में अंधेरा फैल गया। वह ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाकर नंदिनी और शंभू को बुलाने लगी, 
नीना: "नंदिनी....  शंभू-दा…  कोई है.. यहाँ की लाइट बंद हो गई है।" 
लेकिन कोई नहीं आया।

नीना ने डरते हुए अपने mobile की flashlight को on किया। On करते ही उसे अपने चेहरे के बेहद करीब वसुंधरा दिखाई दी। उसने डरते हुए लाइट बंद की, थार-थार काँप रही थी, मुँह से सांस ले रही थी और ऊपर वाले को याद करने लगी। वसुंधरा की उपस्थिति वह भी उसके बिस्तर पर, blanket के अंदर भी महसूस कर सकती थी।

कुछ देर में शंभू और नंदिनी दोनों दौड़कर उसके कमरे में आए और light on की। नीना ने उनके आने की आहट पाकर खुद को संभालते हुए आंखें खोलीं। वह अभी भी उस भयानक मंज़र की गिरफ्त में थी, और उसके दिल की धड़कनें तेज हो रही थीं।

शंभू ने चिंतित स्वर में पूछा की क्या हुआ था? इतनी ज़ोर से क्यों चिल्लाई नीना? 

उसकी आँखों में सवाल थे, और नीना ने एक पल के लिए सोचते हुए अपने टूटे हुए लैंप की तरफ़ उंगली करके कहा, 
नीना: "वो … टूटा हुआ lamp साफ़ कर दीजिए।"

शंभू ने देखा कि वहाँ सामने तो कुछ टूटा हुआ ही नहीं था, लैंप तो बाकायदा छत से लटककर कमरे की सुंदरता बढ़ा रहा था। वो धीरे से बोलै की lamp तो सलामत है! और यहां तो कुछ भी नहीं टूटा!  

नीना ने घबराकर ऊपर देखा फिर संभलते हुए कहा, 
नीना: "Ohh… अच्छा, मुझे लगा शायद लैंप टूट गया, तभी कमरे में अंधेरा हो गया।"

लाइट बंद थी, इसलिए अंधेरा हुआ था, शम्भू ने समझते हुए कहा। अब नीना उसे क्या समझाती कि उसने लाइट बंद नहीं की; वो तो अपने आप हो गई थी। लेकिन यह सब भी उसे बताने से क्या फ़ायदा?

नंदिनी चुपचाप उसे देख रही थी और उसके चारों ओर कमरे को भी। वह उसकी बेचैनी को समझ रही थी, लेकिन कुछ नहीं बोली। नीना को लगा कि नंदिनी शायद कुछ जानती है, लेकिन वो ये भी जानती थी कि वो सत्यजीत की वफ़ादार है, वो कुछ नहीं कहेगी।

कमरे से जाते हुए शंभू ने पूछा की क्या वो light को बंद कर दे, या… 

नीना: "नहीं नहीं, रहने दो, मैं कर दूँगी," 
नीना की आवाज़ में एक अनजानी दहशत थी।

ठीक है, कहते हुए शंभू और नंदिनी दोनों वहाँ से शुभ रात्रि कहकर चले गए। लेकिन नीना की रात्री तो शुभ होने से रही।

कमरे में फिर से सन्नाटा छा गया। नीना खुद को कोसने लगी, 
नीना: “क्यों मैं उस पेंटिंग से दूर नहीं रह पाई? क्यों मैं अपनी curiosity को मार नहीं पाई? मेरे अंदर का कीड़ा मेरी जान ले कर मानेगा,”

वह बहुत देर तक बिस्तर पर बैठी रही, अपने आप को शांत करने की कोशिश करती रही। वह दोबारा blanket ओढ़ कर लेट गई।
लेकिन उसे नींद तो आने से रही। उसने धीरे से blanket हटा कर देखा तो आँखों की पुतलियाँ बाहर आने लगीं। सामने वसुंधरा खड़ी थी, उसके चारों ओर आग की तेज लपटें उठ रही थीं। उसका चेहरा दर्द और गुस्से से तड़प रहा था।

वसुंधरा ने जलते हुए हाथ से नीना की बाँह पकड़ी और उसे आग की लपटों में खींचते हुए बोली, “यहाँ आराम करने आई हो? मुझे खत्म करो...”
उसकी आवाज़ में जोरदार गर्जना थी। 
वसुंधरा यह भी चाहती थी कि उसका portrait पूरा हो।

नीना चिल्लाना चाहती थी, लेकिन उसकी आवाज़ गले में ही फंस गई। आग की लपटें उसे घेरने लगीं, और वह खुद को बचाने की कोशिश कर रही थी। लेकिन वह भाग नहीं पा रही थी।
उसका हाथ दर्द कर रहा था, उसने देखा कि उसके हाथ पर एक ताज़ा जलने का निशान है, ठीक उसी जगह जहाँ वसुंधरा ने उसे पकड़ा था।

क्या वसुंधरा की शक्ति portrait के आगे बढ़ने से बढ़ रही थी? क्या वह सच में नीना को छूँ पा रही थी? 

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