नीना कोलकाता पहुँच चुकी थी। वह चौधरी बागान बाड़ी के विशाल गेट के बाहर कार में बैठी थी। गार्ड ने गेट खोला, और कार अंदर गई। कार से उतरकर जैसे ही नीना ने बाहर कदम रखा, वह एक बार फिर, पुरानी यादों में बहने लगा। बाड़ी के staff ने गर्मजोशी से उसका स्वागत किया। क्या यह स्वागत सिर्फ़ सतही था, या इसके पीछे कुछ और छिपा हुआ था? क्या बाड़ी के staff का इतना खुश होना सिर्फ़ दिखावा था, या उनके पास कोई और मकसद था?

उसने आँखें बंद करके वहाँ की खुशबू अपने अंदर समेटी। उस बागान की जानी-पहचानी खुशबू को वह महसूस कर सकती थी—मिट्टी की सोंधी खुशबू और फूलों की महक उसे पहचानी सी लगी। अचानक कानों में गूंजी "स्वागतम" की ध्वनि ने उसकी रीढ़ की हड्डी में एक सिहरन पैदा कर दी और उसे सपनों से हकीकत की दुनिया में लाकर पटक दिया।

नीना को जैसे ही वसुंधरा की मौजूदगी का जाना-पहचाना एहसास हुआ, अंदर की हवा अचानक घनी और कोहरे से ढकी हुई लगने लगी। माहौल में एक अजीब सी घुटन थी, जो उसके अंदर की बेचैनी को बड़ा रही थी। उसने गहरी सांस ली और अपने मन को शांत करने की कोशिश की। तभी शंभू, जो हमेशा उसका स्वागत सबसे पहले करता था, आज थोड़ा पीछे रह गया था। वह दौड़ते हुए आया और बोला, नमस्कार दीदी, आप कैसी हैं? उसकी आवाज़ में एक परिचित का अपनापन था, जिसने नीना को थोड़ी राहत दी।

नीना ने मुस्कुराकर हामी भरी, लेकिन उसके चेहरे की मुस्कान झूठी थी। उसका दिल मुस्कुराने का बिल्कुल नहीं कर रहा था। न जाने क्या था जो उसे बार-बार यहाँ खींच लाता था, जबकि वह यहाँ आना नहीं चाहती थी। हर बार जब वह दिल्ली लौटती, कुछ उसके अंदर कचोटता रहता और उसे वापस कोलकाता आना पड़ता। वह जानती थी कि यह कोई साधारण खिंचाव नहीं था, बल्कि कुछ ऐसा था जिसे वह समझ नहीं पा रही थी।

"ना जाने ये सब कब ठीक होगा," उसने मन में सोचा, और एक झूठी मुस्कान के साथ अपने अंदर की उथल-पुथल को छुपाते हुए बाड़ी के अंदर बढ़ गई।

वह Guest room में पहुंची। कमरे में जाकर उसने खिड़की खोली और पीछे का तालाब देखा, जो उसे हमेशा सुकून देता था। 

नीना विचारों में खोई हुई थी, तभी शंभू ने दरवाज़ा खटखटाया। उसने अंदर आते हुए कहा, बड़े बाबू आपसे मिलना चाहते हैं।

नीना ने पलटकर पूछा, "अच्छा, आज वे यहाँ हैं?"

शंभू ने सिर हिलाते हुए कहा, जी, आज सुबह ही आए हैं। वे आपका इंतजार कर रहे हैं।

नीना ने एक पल सोचा, फिर बोली, "ठीक है, मैं आती हूँ।"

शंभू ने वापसी का रुख किया और नीना उसके साथ ही बड़े बाबू से मिलने निकल गई।

**

सत्यजीत उस वक्त अपने बागान में लगे सोफे पर बैठे वसुंधरा फाउंडेशन के हेड से बात कर रहे थे। उनकी मीटिंग आज पहले से तय थी। वे बात कर ही रहे थे कि नीना वहाँ पहुंची। उसे देखकर सत्यजीत मुस्कुरा दिए।

सत्यजीत ने गर्मजोशी से स्वागत करते हुए सोफे से खड़े होकर कहा, "Welcome, नीना! Good to see you, अब आप काफ़ी दुरुस्त लग रही हैं।” उनकी आवाज़ में खुशी थी।

नीना: "जी, अब अच्छा फील कर रही हूँ।"

तभी सत्यजीत ने एक coffee table book उसकी ओर बढ़ाई। 

सत्यजीत: "यह आपके लिए," 
नीना: “Jamini Roy!!!”
सत्यजीत: “मुझे पता था की आपको बहुत अच्छा लगेगा। Jamini Roy पर यह एक rare coffee table book है। उनके जीवन और उनके paintings को एक साथ एक ही किताब में present किया गया है। Bengali folk traditions में उनका काम अतुलनीय है।"

नीना ने किताब को हाथ में लिया, उसकी आँखों में खुशी की चमक थी। 
नीना: "Ohh! Wow, wonderful! जामिनी रॉय की आर्ट ने मुझे हमेशा motivate किया है।"

सत्यजीत ने अपनी बात जारी रखी, “नीना, आपकी आर्ट में भी उसका असर दिखता है। आपकी पेंटिंग में वही depth और कमाल है, जो जामिनी रॉय की आर्ट में देखने को मिलती है। पहले वो commissioned paintings बनाते थे, फिर वो सब छोड़-छाड़ कर उन्होंने अपने style ईजाद किया। आपको अपनी भावनाओं को इस तरह व्यक्त करने की आवश्यकता है, और मुझे पूरा विश्वास है कि आप जल्द ही वसु का portrait पूरा करोगी।”

सत्यजीत ने घुमा-फिरा कर अपने मतलब की बात कर दी।

लेकिन जैसे ही उन्होंने यह कहा, नीना ने थोड़ी हिचकिचाहट महसूस की। वह जानती थी कि उसे उस portrait को पूरा करने की ज़रूरत है, जो मिस्टर चौधरी ने वसुंधरा की याद में शुरू करवाया था। लेकिन वह portrait अब उसके हाथ में नहीं था। सत्यजीत की नज़रें उसके चेहरे पर टिकी थीं, और वह समझ रहे थे कि नीना की सोच में गहराई है।

उन्हें नीना की हिचकिचाहट साफ़ दिखाई दी, इसलिए उन्होंने उसे और motivate करते हुए कहा, 

सत्यजीत: "नीना, मुझे लगता है कि आप अब पूरी तरह से तैयार हो, और वसु का portrait जल्द ही पूरा करोगी। आप कर सकती हैं, आपको बस अपनी काबिलियत को पहचानना है।"

नीना ने गहरी सांस ली। वह जानती थी कि उसे जल्द ही अपने काम को पूरा करना होगा। गेस्ट रूम की ओर बढ़ते हुए, उसने बुक को देखना जारी रखा।

जैसे ही वह गेस्ट रूम की तरफ़ जा रही थी, उसे अचानक लगा कि कोई उसके साथ चल रहा है। पीछे से आए हवा के झोंके ने उसके शक को और पक्का कर दिया। वह ठिठक गई, उसकी आंखें दाएं-बाएं घूम रही थीं। इस बार उसे महसूस हो रहा था कि वसुंधरा कुछ कहने वाली थी, और उसे यह सुनना था। उसके दाहिने कान के पास हवा घनी हो गई। उसने अपनी आंखों की कोरों से दाईं तरफ़ देखा और ध्यान से सुनने की कोशिश की।

उसे एक फुसफुसाहट सुनाई दी, "उसे खोजो..."

नीना: "लेकिन किसे?

अचानक, किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। वह बुरी तरह चौंक गई। उसने मुड़कर देखा, पीछे वही लड़की, नंदिता खड़ी थी, जो उसकी बीमारी के वक्त उसकी देखभाल के लिए appoint की गई थी।

वह बोली, नमस्कार, दीदी!

नीना ने खुद को संभाला और मुस्कुरा कर अभिवादन का जवाब दिया, ताकि उसे पता न लगे कि अभी उसके साथ क्या हुआ।

नीना जानती थी कि वसुंधरा को उसके आने का एहसास हो चुका है। उसका कोई उद्देश्य है, जो वह नीना का ज़रिया पूरा करवाना चाहती है। लेकिन क्या? वह स्टूडियो की तरफ़ गई और portrait को देखा; वसुंधरा के होंठ मुस्कुरा कर उसका स्वागत कर रहे थे। उसने देखा कि उसका सारा सामान बाहर बिखरा पड़ा था, ब्रश जमीन पर लुढ़क रहे थे। 

मानो किसी ने उसके सामान के साथ छेड़छाड़ की हो। उसने अपना सामान सही जगह पर रखा। ये सब करते हुए वसुंधरा की आंखें उसे देख रही थीं। उसने देखा कि जमीन पर पड़ा एक ब्रश उसे अपनी ओर खींच रहा था। लेकिन पिग्मेंट के हाथ पर लिपटने का खयाल आते ही वह वहाँ भागने की कोशिश करने लगी।

तभी वसुंधरा का दाहिना हाथ, जिसकी सिर्फ़ outline ही बनी थी, धीरे-धीरे पेंटिंग से बाहर निकला। जैसे ही उसने स्टूडियो के दरवाज़े की ओर इशारा किया, दरवाज़ा धड़ाम से बंद हो गया। नीना ने खुद को एक दीवार के सहारे चिपका लिया, उसकी सांसें तेज़ हो रही थीं। वसुंधरा का हाथ, पेंटिंग से बाहर निकला और नीना की ओर बढ़ा। उसकी उंगलियाँ नीना के गले के पीछे गईं और उसे झटके से अपनी ओर खींच लिया।

नीना का दिल जोर से धड़क रहा था, उसके पैर ज़मीन से ऊपर उठ गए, और एक ही खिंचाव में वह वसुंधरा के सामने आ खड़ी हुई। उनकी आँखें मिलते ही नीना को वसुंधरा की आँखों में जलता हुआ क्रोध साफ़ दिखाई दिया। वसुंधरा के होंठ हल्के से हिले, और उसने एक गहरी, कड़वी आवाज़ में कहा, "उसे खोजो।"

नीना को ऐसा महसूस हुआ जैसे वह आवाज़ उसके कानों में नहीं, बल्कि उसके दिमाग में गूंज रही हो।

अचानक, स्टूडियो का दरवाज़ा बाहर से किसी ने खोला। दरवाज़े के खुलते ही वसुंधरा का हाथ, जो नीना को थामे हुए था, पेंटिंग में वापस समा गया। वह धड़ाम से ज़मीन पर गिर पड़ी। उसके घुटने ज़मीन से टकराए और वह दर्द से कराह उठी, लेकिन इससे पहले कि वह कुछ और महसूस कर पाती, उसकी नज़र पेंटिंग पर गई।

वसुंधरा की आँखों में एक अजीब सा संतोष था, जैसे उसने कुछ कह दिया हो जो बहुत ज़रूरी था।

नीना ने अपने गले के पिछले हिस्से पर हाथ रखा, जहां वसुंधरा की उंगलियों के निशान अब भी जल रहे थे। दरवाज़े पर खड़ा व्यक्ति धीरे से स्टूडियो के अंदर आया, उसकी नज़र नीना पर पड़ी, जो अभी भी कांप रही थी।

ये डॉ. दास थे, जो नीना के लौटने की खबर सुनकर उसकी हालत जानने के लिए स्टूडियो आए थे, नीना को ज़मीन पर गिरा हुआ देखकर तुरंत चिंतित हो गए। वह धीरे-धीरे उसके पास आए और झुककर पूछा की नीना ज़मीन पर क्या क्या रही है? उनकी आवाज़ में हल्की सी चिंता झलक रही थी।

नीना ने ऊपर देखा, उसे साफ़ महसूस हुआ कि पेंटिंग में वसुंधरा की आँखें अब और भी भयानक लग रही थीं, जैसे उनमें अंगारे सुलग रहे हों। वह समझ गई कि वसुंधरा को स्टूडियो में किसी और का आना कतई पसंद नहीं आया। 

नीना ने फौरन खुद को संभाला। 
नीना (थोड़ा हड़बड़ाते हुए): "Yeah. Actually,, ब्रश गिर गया था।
वह खड़ी हुई और हाथ से अपने कपड़े झाड़ते हुए बोली, "आप यहाँ कैसे?"

डॉ. दास ने एक हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया की वो तो सत्यजीत को देखने आये थे। उसका रूटीन चेकअप होता है, और उसे तो अपनी सेहत का रत्ती भर भी खयाल नहीं रहता, तो डॉ दस को ही आकर check करना पड़ता है। 

नीना ने थोड़ी राहत की सांस ली, लेकिन फिर उत्सुकता से पूछा, 
नीना: "उन्हें क्या हुआ है? सब ठीक है न?"

डॉ. दास ने उसकी ओर देखते हुए एक पल रुककर कहा कि वैसे कुछ खास नहीं। लेकिन ध्यान तो रखना ही पड़ता है। उनकी आवाज़ में कुछ ऐसा था, जैसे वो सब कुछ साफ़-साफ़ नहीं बताना चाहते थे। उनके शब्दों में अस्पष्टता थी, जैसे कोई बात छिपा रहे हों।

उसकी नज़र फिर पेंटिंग पर गई। वसुंधरा की आँखें अब भी उसी तरह जल रही थीं, जैसे वो नीना को चेतावनी दे रही हों कि डॉ. दास का यहाँ होना सही नहीं है।

इस बीच डॉ. दास ने नीना की ओर देखते हुए पूछा कि अब उसकी तबियत कैसी है? यह जो नीना लौटकर आई है, इससे उसे कोई परेशानी तो नहीं हो रही?

नीना ने हल्की मुस्कान के साथ सिर हिलाया, 
नीना: "नहीं, सब ठीक है। बस थोड़ा थकान महसूस हो रही है।"

डॉ. दास ने उसकी आँखों में देखा, जैसे वो कुछ और कहना चाह रहे हों, पर खुद को रोक लिया। अगर कोई भी परेशानी हो, तो तुरंत बताना, वह बोले। फिर वो सत्यजीत से मिलने के लिए निकल गए। 

नीना ने सिर हिलाया। डॉ. दास वहाँ से जाने को हुए, तो उसने सोचा कि उनके साथ ही यहाँ से बाहर निकल जाना चाहिए, नहीं तो शायद फिर से दरवाज़ा बंद हो सकता है। 

नीना ने पलट कर देखा स्टूडियो का माहौल अचानक बदल गया। वसुंधरा की पेंटिंग शांत लगने लगी, लेकिन नीना जानती थी कि यह शांति अस्थायी थी। उसने अपनी उंगलियों से गर्दन को छुआ, जहाँ वह अभी भी जलन महसूस कर सकती थी।

वो वहाँ से अपने कमरे की तरफ़ बढ़ गई।

उसके दिमाग में कई सवाल उठ रहे थे। सत्यजीत का स्वास्थ्य, वसुंधरा की पेंटिंग सब कुछ रहस्यमय था। नीना को एहसास हो रहा था कि इस स्टूडियो में कुछ ऐसा था जिसे वह अब तक समझ नहीं पाई थी, और वसुंधरा की पेंटिंग उस रहस्य की कड़ी हो सकती थी। 

कहीं वो इस पेंटिंग को पूरा करके कुछ अनर्थ तो नहीं कर रही? 

क्या उसे पहले तहकीकात करनी चाहिए और कुछ वक्त के लिए काम नहीं बढ़ाना चाहिए?

 

 

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