हवेली की वो कोठरी…जहाँ ना सूरज की रोशनी पहुंचती है, ना उम्मीद की किरण। हर दीवार जैसे किसी अनकही साजिश की गवाह थी।

बीच कमरे में — सफेद चादरों से ढका एक बिस्तर और उस पर लेटा हुआ था, आरव — एक नाज़ुक शरीर, ज़िंदगी और मौत के बीच झूलता हुआ। साँसे चल तो रही थीं…मगर जैसे किसी मशीन के भरोसे। चेहरे पर शांति थी, मगर वो शांति सुकून की नहीं…खामोश जंग की थी। आँखें अब भी बंद थीं — जैसे आत्मा किसी और लोक में भटक रही हो।

कमरे की हवा भारी थी, सिर्फ़ एक धीमी बीप…और मीरा की निगाहें। वो बेंच पर बैठी थी — पीठ सीधी, चेहरे पर थकान, मगर आँखों में इंतज़ार। आरव के चेहरे को एकटक देखती जा रही थी, जैसे उसकी हर धड़कन को पकड़ लेना चाहती हो।

उसके हाथों में वो पुराना रुमाल था — जो कभी आरव ने उसे दिया था।

“मीरा, जब कभी डर लगे… इसे अपने पास रखना…” अब वही रुमाल उसकी हथेलियों में भींचा हुआ था। पर इस बार डर कोई साया नहीं… एक हकीकत थी — डर था कि कहीं आरव को वो हमेशा के लिए खो ना दे। 

अगर आरव को कुछ भी हुआ, तो मैं खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाउंगी। क्या जवाब दूंगी मैं सुहानी को?

मीरा की आँखों से एक आँसू टपका, मगर उसने जल्दी से उसे पोंछ लिया — जैसे खुद को कमज़ोर पड़ने की इजाज़त नहीं देना चाहती हो। और अगर उसे आरव के लिए कोई आंसू बहाते देख लेता, तो लोगों को उस पर शक हो जाता।

“मैं जानती हूं सुहानी तुम्हारे लिए क्या मायने रखती है। वो कभी तुम्हारे खिलाफ नहीं थी, आरव। तुम्हारे साथ खड़े होने के लिए ही तो वो सब कुछ छोड़ आई — अपनी पहचान, अपना डर, और अपने सारे सवाल।”

मीरा की आँखें भर आईं, मगर इस बार आँसू बह गए। “मुझे माफ़ कर देना… अगर हो सके तो। मैं अपने हिस्से की सज़ा भुगतने के लिए तैयार हूं। बस तुम लौट आओ…” उसकी आवाज़ थरथरा गई, और वो आरव की उंगलियों को हल्के से सहलाने लगी — जैसे हर छूअन में वो अपनी सारे पश्चाताप, सारी दुआएं भर देना चाहती हो।

बाहर हवेली की गलियों में रात और साज़िशें साथ-साथ चल रही थीं। मगर उस कमरे के भीतर — एक औरत की पश्चाताप से भरी प्रार्थना और एक अधूरी कहानी, नए मोड़ की ओर बढ़ रही थी।

शायद सुबह सिर्फ रोशनी नहीं… जवाब भी लेकर आए।

 

बाहर कोई हलचल नहीं थी…लेकिन उस कमरे के भीतर, ज़िंदगी और नियति की एक लड़ाई चल रही थी। और उसी कोठरी में, किसी कोने में छुपा बैठा था — आरव का अंतर्मन।

जो चीख रहा था… पुकार रहा था…“माँ… सच बताओ ना… कौन हूँ मैं?”

 

दूसरी तरफ़…गहरे, बहुत गहरे अंधकार में डूबा आरव…उसके ज़हन में एक अलग ही दुनिया चल रही थी — ना डॉक्टर, ना मीरा, ना मशीनें… बस एक सपना।

लेकिन वो सपना, किसी हकीकत से कम नहीं था। वो खुद को एक पुराने, परिचित से बरामदे में खड़ा पाता है — उस घर का बरामदा, जहाँ बचपन की कई धुंधली यादें बसी थीं। ठंडी हवा चल रही थी, और सामने… उसकी माँ पूर्वी। सफ़ेद साड़ी में, शांत मुस्कान लिए वो उसकी तरफ़ बढ़ीं।

“आरव…” उनकी आवाज़ में एक ऐसा सुकून था, जो बरसों से आरव ने महसूस नहीं किया था।

“माँ…?” आरव की आवाज़ काँपी।

“तू जानना चाहता है ना, तेरा सच?

“तू पूछता है कि किसने तुझसे तेरी मासूमियत छीन ली? क्यों तुझे बदले की आग में झोंका गया?” पूर्वी ने पूछा।

आरव की आँखें भर आईं — “हाँ माँ… बताओ ना…”

लेकिन उसी पल…पीछे से नन्हें क़दमों की आहट आई। एक छोटा बच्चा — चार या पाँच साल का, खिलखिलाता हुआ उसकी ओर दौड़ता हुआ आया। आरव ठिठक गया।

उसने झुककर उस बच्चे की आँखों में झाँका…और चौंक गया। वो आँखें… उसकी अपनी थीं।

“ये कौन है?” उसने माँ से पूछा।

पूर्वी मुस्कराई— “तेरा दूसरा चेहरा। वो, जो तू भूल चुका है… वो मासूमियत, जो तुझसे छीन ली गई थी।”

आरव का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। वो कुछ और पूछना चाहता था… कुछ और सुनना चाहता था… लेकिन आस-पास की तस्वीरें धुंधलाने लगीं।

माँ की मुस्कान धुंध में गुम हो रही थी। बच्चे की हँसी, गूँज बनकर छूट रही थी।

“नहीं! माँ… मुझे और बताओ!”

आरव चीखा…मगर जवाब में बस एक सन्नाटा मिला।

और तभी…उसके हाथ की उंगलियाँ हल्की सी हिलीं।

अचानक…उस नीरवता में जैसे किसी ने हल्की सी दस्तक दी हो—आरव के हाथ की उंगलियाँ काँपीं।

इतनी धीमी, इतनी नाज़ुक… मगर मीरा की आँखों ने वह हरकत पकड़ ली। मीरा एक झटके से उठी। उसकी आँखें हैरानी से फैल गईं, सांस अटक गई। वो बेंच से ऐसे उठी जैसे खुद को यक़ीन दिलाना चाहती हो कि ये कोई भ्रम नहीं।

“डॉक्टर! उसने… उसने अपनी उंगलियाँ हिलाईं!” उसकी आवाज़ काँपती हुई, तेज़ मगर उम्मीद से भरी। कई कदमों की आहट कमरे की ओर भागी। टीम भीतर दौड़ी— डॉक्टर, नर्सें, मॉनिटर के आसपास हलचल शुरू हो गई।

"Vitals stable हैं... consciousness flicker कर रहा है," एक डॉक्टर ने कहा।

“Prepare करो—वो कभी भी होश में आ सकता है!”

मीरा एक कोने में खड़ी हो गई…उसके हाथ अब भी काँप रहे थे, मगर चेहरा—एक नई उम्मीद से चमक रहा था। उसके मन में बस एक ही दुआ गूंज रही थी — आरव वापस आ जाए… बस एक बार, फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा। मीरा की नज़र आरव के चेहरे पर टिकी हुई थी। एक चेहरा, जिसपर कभी उसने अपने लिए प्यार देखा था…और अब एक आईने जैसा बन चुका था—जिसमें उसे अपनी सारी ग़लतियाँ साफ़ दिखती थीं।

"अगर तुम चले गए, आरव…तो मैं खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाऊंगी। मैंने तुमसे झूठ बोला, तुम्हारी भावनाओं के साथ खेला…मगर कभी नहीं चाहा कि तुम्हें इस हाल में देखूं। जो भी किया… वो डर से किया, मजबूरी में किया। लेकिन अब…अब मैं डर के आगे नहीं झुकूंगी। तुम बस एक बार आंखें खोल दो…मैं सब कुछ ठीक कर दूँगी। सब कुछ…"

मीरा की आँखें भर आईं और तभी, आरव की उंगलियां फिर से हिलीं।

 

उसी वक्त… जंगल में कहीं, धूप की हल्की किरणें पेड़ों की शाखाओं से छनकर नीचे गिर रही थी, लेकिन उस जीप के आसपास अंधेरा ही छाया था — जैसे वक़्त खुद भी छुपा हो किसी साजिश से।

एक पुरानी जीप, धूल और पत्तों से ढकी, एक बड़े पेड़ के नीचे खड़ी थी। ड्राइविंग सीट पर रमेश था—साधारण सा दिखने वाला वार्डबॉय, लेकिन आँखों में एक अलग ही चमक थी—जैसे वो खुद को किसी युद्ध के सिपाही की तरह महसूस कर रहा हो।

पीछे की सीट पर बैठी थी सुहानी। चेहरा थका हुआ, बाल उलझे हुए, होंठ सूखे…मगर उसकी नज़रें अब भी चट्टान जैसी मज़बूत थीं।

"आरव को गोली लगी…इसका मतलब है, अब डर उनके दिल में बैठ गया है," सुहानी ने धीमे से कहा।

रमेश ने पीछे मुड़कर उसकी ओर देखा…"हमारे पास वक़्त बहुत कम है, मैडम। वो USB और वो लकड़ी का संदूक —बस वही हैं हमारे पास, जो इस खेल को पलट सकते हैं। अगर हम इन्हें सही हाथों तक पहुँचा पाए…"

"तो उनकी ये चाल उन पर ही पलट जायेगी," सुहानी ने उसकी बात पूरी की…“और इस बार, मैं पीछे नहीं हटूंगी।”

एक पल के लिए दोनों के बीच सन्नाटा छा गया।

फिर सुहानी ने उस पुराने लकड़ी के संदूक को याद किया—जिसमें अब भी उसकी माँ काजल के दस्तख़त वाले असली वसीयतनामे थे…वो कागज़ जो साबित कर सकते थे कि आरव और सुहानी ही हैं राठौर खानदान की असली विरासत के वारिस।

उसके इरादे पक्के थे, आज वो उस लकड़ी के संदूक और उस USB को ढूंढ़ कर ही रहेगी। और फिर वो धीरे-धीरे हवेली के अंदर जाने की तैयारियीं में लग गई। 

 

"माँ ने कहा था — वो संदूक कभी किसी को मत देखने देना, जब तक तू खुद इसे समझने और जानने लायक ना बन जाये।”

अब सच सामने था। और रणवीर, जो कैफ़े में उस दिन बड़ी मुस्कान से बस ‘वो कागज़ात’ के बारे में पूछ रहा था — उसकी असलियत भी अब बेनक़ाब हो चुकी थी।

 

हवेली की खामोशी में स्याही सी घुली रात उतर आई थी। कमरे की खिड़की से टकराती हल्की हवा पर्दों को डोल रही थी…जैसे किसी अनकही बात को कहने की कोशिश कर रही हो।

मीरा खिड़की के पास खड़ी थी—चुप, स्थिर, मगर अंदर से तूफानों में घिरी हुई।

उसकी नज़रें आसमान पर अटकी थीं, लेकिन मन…आरव के कमरे में बीप करती मशीनों में उलझा था।

पीछे डॉक्टरों की हल्की आवाज़ गूंजी— “Vitals स्टेबल हैं… अगर ऐसे ही रहा, तो अगले 12 घंटे में होश आ सकता है।”

मीरा ने धीरे से आँखें बंद कर लीं, मानो इन शब्दों ने उसके दिल की किसी कड़ी को छू लिया हो। "होश आ जाएगा…" वो फुसफुसाई, फिर पलटी और एक गहरी साँस ली।

 

मीरा आरव के बिस्तर के पास रखे स्टूल पर जाकर बैठ गई। उसका हाथ थाम लिया…और फटी-फटी आँखों से बस उसे देखती रही।

"बस एक बार…एक बार जाग जाओ आरव…ताकि तुम खुद देख सको कि अब भी तुम्हारे अपने लोग हैं तुम्हारे आस पास, और मैं जानती हूं सुहानी भी अपनी पूरी कोशिश कर रही होगी तुम तक पहुंचने की। और फिर तुम लोग उन लोगों के चेहरों पर से वो अच्छाई का मुखौटा हटा सकते हों, जिन्होंने ना जाने कितने ही मासूमों की ज़िंदगी बर्बाद कर दी।

 

रात की नमी हवाओं में तैर रही थी। हवेली के पीछे की तंग और घुमावदार गली, चुप्पी की चादर ओढ़े खड़ी थी। वहीं, वह पुरानी जीप धीमी रफ्तार से रुकी।

“रमेश, यहीं रोक दो...”

सुनहरे सूटकेस में कुछ दबाए, सुहानी ने गाड़ी के दरवाज़े पर हाथ रखा। उसकी आँखों में थकान थी, मगर मन में बर्फ की तरह ठंडी एक दृढ़ता।

"क्या आप पक्का तैयार हैं इस बार?" रमेश ने धीमे स्वर में पूछा।

"अब कोई रास्ता नहीं बचा रमेश। मुझे उस हवेली में घुसना ही होगा। एक बार नहीं, कई बार मारा है उन्होंने मुझे—झूठ से, धोखे से, लालच से। अब मेरी बारी है…सच के साथ मैं अब अपना वार करुँगी।" सुहानी की आवाज़ में वो तल्ख़ी थी जो तब आती है जब इंसान सब कुछ खोकर बस खुद से एक वादा करता है…बदला पूरा करने का।

वो झुकी, जीप से बाहर निकली, और अंधेरे की ओट में हवेली की दीवार से सट गई।

 

हवेली की वो दीवार…जिसके अंदर कभी उसकी डोली आई थी, आज वो चुपके से वापस लौट रही थी—न दुल्हन बनकर, न पराई होकर—बल्कि एक ऐसी औरत बनकर, जिसे अब केवल सच्चाई के साथ की ज़रूरत थी, किसी रिश्ते की नहीं।

"पहले आरव को ढूँढना होगा…" सुहानी ने खुद से कहा।

उसे अब पता चल चुका था कि आरव यहीं इस महल में ही है।

 

फ्लैशबैक: (कुछ घंटे पहले, जंगल के उस ठिकाने पर)

जब शमशेर, सुहानी को समझा रहा था। 

"वो काग़ज़… वो वसीयत, मेरे भाई का सबसे बड़ा डर है," शमशेर ने कहा।

"काजल ने उसे इसलिए छुपा रखा था, ताकी कभी वो कागज़त किसी गलत हाँथ में ना आ जाए। इससे पहले की वो किसी के हाथ लगे, उसे जाकर ले आओ।” शमशेर ने कहा। 

 

बस इसी इरादे से सुहानी हवेली के पिछले गेट से दीवार फांदकर अंदर आई। उसे वो कमरा याद था—जहां उसने वो बक्सा छुपाया था।

“वो बक्सा…लकड़ी का…वही आख़िरी चाबी है इस खेल की।”

लेकिन एक और बात अब साफ़ हो चुकी थी—रणवीर। जिसने कैफ़े में हँसते हुए उस दिन पूछा था—"तुमने कहा था कि तुम्हें उस दिन फोटोज के साथ कुछ कागज़त भी मिले थे?"

अब वो सवाल एक सीधा वार लग रहा था।

"वो, ग़ौरवी, दिग्विजय और शायद कोई और भी—सभी इस कागज़ के पीछे थे। और मैं, आरव… मोहरा बन गए इस जाल में," सुहानी ने अपने मन में कहा।

और सबसे बड़ा झटका…विशाल। जिसे वो हमेशा अपना सहारा मानती थी—आज उसकी चुप्पी और मजबूरी सुहानी को किसी दलदल सी लग रही थी।

“सब कुछ टूट रहा है, लेकिन मैं अब नहीं टूटूँगी…”

उसने एक गहरी साँस ली, और हवेली के अंधेरे गलियारों में कदम बढ़ा दिए।

सुहानी के कदम अब लड़खड़ा नहीं रहे थे। हर क़दम के साथ, अंधेरे में छुपे वो सारे राज़ जैसे साँसें ले रहे थे—पुराने दरवाज़ों की चरमराहट, सीढ़ियों की परछाइयाँ, और हवेली की दीवारों में दबी आवाज़ें।

अचानक, उसने वही कमरा देखा—जहाँ उसकी माँ की तस्वीरें थीं। लेकिन आज… दरवाज़ा खुला हुआ था और अंदर जल रही थी एक मोमबत्ती। धीरे से उसने दरवाज़े को धक्का दिया। कमरे में रखी टेबल पर एक पुरानी डायरी खुली हुई थी।

उस पर लिखा था—"काजल की कलम से…"

सुहानी की साँसें थम गईं।

"अब सच्चाई खुद बोलेगी…" उसने बुदबुदाते हुए डायरी उठाई, और दरवाज़ा बंद कर दिया।

बाहर हवेली की हवाओं में सरसराहट थी।

अंदर, एक और तूफ़ान उठने वाला था।

 

 

सुहानी से पहले क्या कोई और उस संदूक तक पहुँच चुका है? 

रणवीर के हाथ कहीं कागज़ात तो नहीं लग गए? 

सुहानी आरव तक क्या पहुँच पायेगी? 

जानने के लिए पढ़ते रहिए… 'रिश्तों का क़र्ज़'!
 

 

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