कमरे की हल्की सी परछाई भी अब सुहानी को चौकन्ना कर रही थी। उसकी नज़र बार-बार उस खुली डायरी पर जा रही थी जो वहाँ मेज़ पर यूँ ही खुली छोड़ दी गई थी — जैसे किसी ने उसे पढ़ा हो…और फिर अचानक वहाँ से चला गया हो।

"कोई तो था यहाँ..." उसने धीमे से फुसफुसाया, “जिसने यह डायरी पढ़ी और यहीं छोड़ दी।”

हर नस में एक बेचैनी सी दौड़ गई। सुहानी ने झट से पूरे कमरे का कोना-कोना बारीकी से जाँचा। पर्दों के पीछे, सोफे के नीचे, खिड़की की सिल पर — मगर कहीं कोई नज़र नहीं आया। उसकी साँसे अब तेज़ चल रही थीं….यक़ीनन अभी कोई यहाँ था।

जब वह पूरी तरह से आश्वस्त हो गई कि कमरे में और कोई नहीं है, तो उसने झटपट दरवाज़ा बंद किया और कुंडी चढ़ा दी। उसके हाथ अब भी काँप रहे थे। वह वापस मेज़ की ओर बढ़ी, जहाँ वह डायरी रखी थी।

उसने उसे धीरे से उठाया और पढ़ना शुरू किया। हर शब्द अब भारी लग रहा था। "कोई यहाँ अब भी मेरी माँ के बारे में जानना चाहता है…कि वह कहाँ हैं," वह बुदबुदाई। उसकी नज़रें दूर कहीं अतीत में खो गईं।

रणवीर नहीं हो सकता। उसने तो काजल को खुद अगवा किया था — वो तो सब कुछ पहले से ही जानता है। यानी…यहाँ कोई और था। कोई ऐसा, जिसे अब जाकर यह आभास हुआ है कि काजल की कहानी अभी पूरी नहीं हुई थी।

उस क्षण सुहानी को अपने ही उठाए गए क़दम पर गर्व हुआ — उसने डायरी और संदूक को अलग-अलग छुपाकर बहुत समझदारी दिखाई थी। अगर इस डायरी के चक्कर में वो संदूक भी किसी के हाथ लग जाता, तो हमारा सबसे मज़बूत और एहम हथियार हमारे हाथों से निकल जाता। 

"मुझे जल्दी करना होगा," उसने मन ही मन कहा, उसकी आँखों में एक नई दृढ़ता झलकने लगी।

वो डायरी वहीं, फिर से मेज़ पर वैसी ही रख आई जैसे पहले थी — ताकि अगर वह रहस्यमय व्यक्ति फिर आए, तो उसे कोई शक न हो। फिर उसने फ़ौरन संदूक की तलाश शुरू की।

कमरे के कोने में खड़ी एक पुरानी, धूल से सनी अलमारी की ओर उसकी नज़र गई। नीचे का कालीन कुछ उभरा हुआ सा लग रहा था — वही संकेत, जिसे उसने पहले छिपाते वक्त छोड़ा था।

सुहानी ने अपनी सारी ताकत लगाकर अलमारी को थोड़ा सरकाया, फिर उस भारी कालीन को फुर्ती से हटाया। लकड़ी के फर्श में एक पतली परत थी, जिसे उसने नाखूनों और चाबी की मदद से धीरे-धीरे हटाया। और तभी…उसकी आँखों के सामने वह संदूक आ गया — सही सलामत, छुपा हुआ।

उसने गहरी साँस ली, मानो सीने पर रखा कोई भारी पत्थर अभी-अभी हटा हो।

"अब बस…इसे सुरक्षित रखना है," उसने खुद से कहा, लेकिन उसे पता था — यह सिर्फ़ शुरुआत है। खेल अभी शुरू हुआ है।

 

कमरे की हवा में एक अलग सी बेचैनी घुली हुई थी। धूल भरे वातावरण में धूप की किरणें उस सुनहरी छोटी सूटकेस पर पड़ रही थी, जिसे सुहानी ने धीरे से ज़मीन पर रखा था। उसकी उंगलियाँ कुछ पल के लिए उस सूटकेस की सतह पर ठहर गईं — जैसे वो जानती हो कि अब जो होने वाला है, वो केवल चाल नहीं, बल्कि युद्ध की तैयारी है।

उसने गहरी साँस लेते हुए सूटकेस को खोला। भीतर बेहद सलीके से कुछ दस्तावेज़ रखे थे — सब नकली, मगर इतने सटीक कि एक पल को कोई भी धोखा खा जाए। उसने एक-एक कर के उन्हें निकाला और सावधानी से ज़मीन पर रख दिया। हर कागज़ को उसने ऐसे संभाला जैसे वो किसी नाटक का एहम प्रॉप हो — और वो था भी।

अब उसकी नज़र संदूक की ओर गई। उस पुराने संदूक की चाबी अब भी उसकी जेब में थी। उसने चाबी निकाली, और उसके भीतर छिपे असली दस्तावेज़ों और तस्वीरों को एक-एक कर के निकाला। उन तस्वीरों को उसने अपने सीने से लगाकर कुछ पल के लिए आँखें बंद कर लीं — हर तस्वीर, एक सच्चाई की चीख़ थी जिसे अब तक दबा कर रखा गया था।

फिर बहुत ही सावधानी से उसने वो असली दस्तावेज़ और तस्वीरें सूटकेस में सलीके से रख दीं — नकली कागज़ों को संदूक में, एक परत बनाकर रख दिया। यह उसका अपना जाल था — राठौरों को भटकाने और समय बर्बाद करवाने वाला शातिर जाल।

"इस बार तुम सब को बेवकूफ़ बनाने में मुझे बहुत मज़ा आएगा..." उसके होंठों पर एक ठंडी मुस्कान उभरी।

उसने संदूक को फिर से वहीं छुपाया — कालीन के नीचे, लकड़ी की परत के नीचे, और अलमारी को वापस उसकी जगह पर खिसका दिया। सबकुछ वैसे ही — जैसे कुछ हुआ ही न हो।

अब उसका ध्यान कमरे की धूलभरी खिड़की की ओर गया। उसने बहुत हल्के हाथों से जंग लगे कब्ज़ों को दबाया और खिड़की खोली। बाहर का नज़ारा उसे साफ़ दिखाई दे रहा था — नीचे गली में रमेश खड़ा था।

 

खिड़की के कोने में उसने एक मजबूत रस्सी बांधी, जो वो साथ लायी थी उसको उसने धीरे-धीरे खींचा और उस रस्सी के सहारे सूटकेस को नीचे सरकाना शुरू किया। हर इंच उतरती हुई रस्सी के साथ उसके दिल की धड़कन भी एक ताल में चल रही थी। नीचे खड़े रमेश ने फुर्ती से सूटकेस को थामा — जैसे वो जानता था कि ये सिर्फ़ सामान नहीं, बल्कि पूरा सच उसके हाथों में आ गया है।

उसने ऊपर नज़र उठाई — उसकी आँखों में भरोसा था और होंठों पर मुस्कान। हल्के से सिर हिलाकर बोला, “अब मैं चलता हूँ, आप अपना ध्यान रखना।”

सुहानी ने सिर झुकाया, उसका दिल जानता था — रमेश अब जल्दी ही लौटकर आने वाला नहीं था। उसके ज़िम्मे शमशेर का एक बेहद संवेदनशील काम था।

 

उसे वो कल की बात याद आई — जब हवेली की पिछली गली में एक बड़े नीम के पेड़ के नीचे वो और रमेश छुपकर हवेली की निगरानी कर रहे थे। तभी उसके नए नंबर पर शमशेर का कॉल आया था। उसकी आवाज़ में हुक्म कम और चिंता ज़्यादा थी।

"कागज़ात अब रमेश को ही देने होंगे," शमशेर ने कहा था, “खिड़की से देना, क्योंकि वहाँ निगरानी कम होती है। जब तक तुम आरव को ढूंढोगी और उस पेनड्राइव का पता लगाओगी, रमेश इन दस्तावेज़ों के ज़रिए हमारी अगली चाल की तैयारी कर लेगा। ये हमारा कवच है…और ज़रूरत पड़ी तो तलवार भी।”

अब हवेली की खामोश दीवारों के पीछे एक साजिश करवट ले चुकी थी। और सुहानी — वो अब सिर्फ़ एक मोहरा नहीं थी…वो अब इस शतरंज की चाल थी….रह गई थी वह पेनड्राइव जो बनेगा वो अस्त्र, जो रणवीर, गौरवी और दिग्विजय — तीनों को उनके पापों की सज़ा दिलवाएगा। जेल की कैद के पीछे ले जाने वाला निर्णायक प्रमाण।

 

सूटकेस रमेश को सौंपने के बाद सुहानी ने खिड़कीयों को धीरे से बंद किया, जैसे कोई सीक्रेट मिशन पूरा कर के अब वह अपने अगले कदम की ओर बढ़ रही हो। फिर उसने जल्दी से स्कार्फ को अपने चेहरे पर ठीक से बाँधा — उसके हर अंदाज़ में अब सतर्कता थी। किसी गुप्तचर की तरह उसने कमरे का दरवाज़ा खोला, इधर-उधर एक नज़र डाली, और फिर बिलकुल चुपचाप बाहर निकल गई।

वो डायरी — जिसकी स्याही अब पुरानी हो चुकी थी, जिसमें रहस्य अब नहीं बचे थे — वहीं छोड़ दी गई। उस डायरी की अब कोई ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि असली लड़ाई अब दस्तावेज़ों और उस पेनड्राइव से लड़ी जानी थी। हाँ उनमे उसकी माँ की यादें थी, मगर कहते हैं ना, किसी बड़ी मंज़िल तक पहुंचने के लिए आपको भी कुछ छोटे बड़े त्याग करने होते हैं।

सुहानी अब हवेली के लंबे गलियारों में एक साया बन चुकी थी — दीवारों से सटकर, गार्ड्स की नज़रों से छिपकर वो चुपचाप आगे बढ़ रही थी। उसके दिमाग में आरव का चेहरा था — घायल, थका हुआ, मगर अब भी ज़िंदा। 

उसे याद था, हवेली के एक कोने में एक कमरा था — जिसे केवल इमरजेंसी मेडिकल असिस्टेंस के लिए इस्तेमाल किया जाता था। वही कमरा उसकी अगली मंज़िल था। वो धीरे-धीरे उसी दिशा में बढ़ने लगी, कि तभी दूर से आते कदमों की आहट ने उसे चौकन्ना कर दिया।

 

रणवीर की चाल, उसकी छाया — सब कुछ पहचानती थी सुहानी। उसका दिल एक पल को ज़ोर से धड़का, मगर अगले ही पल उसने पास के एक कमरे का दरवाज़ा खोला और बिना आवाज़ किए अंदर दाखिल हो गई।

दरवाज़ा बंद करते ही उसने राहत की साँस ली। फिर उसकी नज़र कमरे पर पड़ी — वो गौरवी के कमरे में थी। सुनसान... ठंडा... एक रहस्यमयी महक से भरा। गौरवी वहाँ नहीं थी, और यही सबसे बड़ा संयोग था।

कुछ पल सुहानी ने खुद को शांत रखा, कमरे की हर चीज़ को नज़र से नापा — जैसे हर कोना कोई गवाही देने को तैयार बैठा हो। तभी उसकी नज़र बेड के पास रखे नाइटस्टैंड पर पड़ी, जहाँ एक छोटा सा लॉकेट रखा था।

वो लॉकेट — सुनहरा, चमकता हुआ, मगर उसमें कुछ छुपा हुआ था। सुहानी ने बहुत नज़ाकत से उसे उठाया, जैसे वो कोई टाइम बम हो — नाजुक, मगर जानलेवा। लॉकेट को खोलते हुए उसके हाथ कांपे नहीं, लेकिन उसकी साँसें जरूर तेज़ हो गईं।

और जैसे ही वो खुला…एक पुरानी, हल्के पीले रंग की तस्वीर सामने आई।

एक छोटी बच्ची — मुस्कुराती हुई, मासूम, और शायद उस दौर की जब ज़िंदगी गंदी साज़िशों से दूर थी।

सुहानी की आँखें पल भर को उस तस्वीर पर अटक गईं।

“ये कौन है...?”

क्या ये गौरवी की बेटी है? या... कोई और?

उस तस्वीर में छिपे राज़ का पर्दा अभी उठना बाकी था, मगर सुहानी जानती थी — ये लॉकेट भी अब उस जंग का हिस्सा बन चुका है।

"कौन है ये बच्ची?" सुहानी ने तस्वीर को गौर से देखते हुए मन ही मन सोचा। आँखों की वो गहराई, वो मासूम सी मुस्कान—कुछ तो था इस चेहरे में जो उसे जाना-पहचाना सा लगा।

“क्या... क्या गौरवी की भी कोई नाजायज़ औलाद है?”

उसका दिल एक पल को सन्न रह गया। लेकिन फिर उसने तस्वीर को और पास लाकर देखा। उन मासूम आँखों में कुछ जाना-पहचाना सा था—कुछ ऐसा जो खुद गौरवी की शक्ल से मेल खा रहा था।

"ये कहीं खुद गौरवी की ही बचपन की तस्वीर तो नहीं?" उसने माथे पर बल डालते हुए सोचा।

"पर फिर भी…कौन अपनी बचपन की तस्वीर को लॉकेट में बंद कर के रखता है? क्या अजीब लोग हैं इस हवेली में..." सुहानी की ये बड़बड़ाहट उसकी घबराहट को छुपाने की नाकाम कोशिश थी।

इसी सोच में डूबी वो जैसे ही दरवाज़े की ओर बढ़ी, अचानक— किसी ने पीछे से उसका हाथ पकड़ लिया और बिना आवाज़ किए उसे खींचकर कमरे के एक कोने में टंगे भारी पर्दे के पीछे ले गया।

सुहानी की साँसें थम गईं। जैसे ही उसने सर उठा कर देखा—

“विक्रम?”

"श्श्श्श…" विक्रम ने जल्दी से उंगली होठों पर रखकर उसे चुप रहने का इशारा किया।

उसकी आँखों में गंभीरता थी, मगर डर नहीं।

और तभी—दरवाज़ा खुलने की धीमी सी आवाज़ आई।

“गौरवी।”

सुहानी और विक्रम ने पर्दे की दरार से झाँककर देखा। गौरवी कमरे में दाखिल होते ही गहरी साँस छोड़ती हुई अपनी सफेद साड़ी का पल्लू सिर से हटाकर सीधा बेड पर फैल गई, जैसे उसका शरीर कई राज़ों और साज़िशों के बोझ से थक गया हो।

"शायद षड्यंत्रों की भी कीमत चुकानी पड़ती है..." सुहानी ने मन में व्यंग्य भरे लहजे में सोचा।

मगर तभी, उसके मन में एक और सवाल उठा— “विक्रम? ये यहाँ क्या कर रहा है? रणवीर के साथ मिला हुआ था ये तो…फिर अब चुपचाप इस कमरे में क्या कर रहा है? और मुझे, गौरवी से क्यों बचा रहा है?”

उसने जैसे ही मुड़कर सवाल करने के लिए विक्रम की ओर देखा, विक्रम ने फिर वही इशारा किया—चुप रहो, और देखो।

अब गौरवी करवट बदलकर बेड के किनारे रखे नाइटस्टैंड की ओर झुकी, और वही लॉकेट उठाया—जिसे सुहानी ने अभी कुछ देर पहले अपने हाथों में पकड़ा था।

उसने लॉकेट को बड़े प्यार से खोला। और जैसे ही उसकी नज़र उस तस्वीर पर पड़ी, उसके चेहरे पर एक कोमल सी मुस्कान आ गई। एक अलग ही नज़रिया था उस मुस्कुराहट में—ममता, तड़प, और दर्द की मिली-जुली परछाईं।

फिर उसने वो तस्वीर अपने होंठों से लगाकर चूमी। और उसके बाद जो उसने कहा—उसे सुनकर सुहानी की रूह काँप गई।

"अरे मेरा बच्चा... मेरे बिना अच्छा नहीं लग रहा ना तुझे?" गौरवी की आवाज़ में अचानक ममता घुल गई थी। “सॉरी छुटकी गौरवी, मैं आज तुझे साथ ले जाना भूल गई। क्या करती…जब से ये रणवीर अंकल वापस आए हैं ना, सबका जीना हराम कर रखा है।”

वो तस्वीर को निहारते हुए लगातार बोलती जा रही थी, जैसे सामने कोई ज़िंदा इंसान हो— “मगर तू चिंता मत कर…मैं हूँ ना। मैं तेरी सुरक्षा करूँगी। तुझे कुछ नहीं होने दूँगी। तू ही तो इकलौती है मेरे पास।”

उसकी आवाज़ अब काँप रही थी।

“इसके बाद तो किसी ने तेरी एक तस्वीर तक नहीं ली…सारा प्यार, सारा अटेंशन उस पूर्वी की बच्ची को दे दिया। और तुझसे सबने मुँह मोड़ लिया।”

सुहानी का दिल जैसे एक पल को बैठ गया।

“छुटकी गौरवी... मतलब... ये तस्वीर...”

वो सोचते-सोचते काँपने लगी।

विक्रम का चेहरा अब सख़्त हो चला था।

साजिशों का मकड़जाल और उलझता जा रहा था। एक मासूम तस्वीर, अब एक क्रूर इतिहास की गवाह बन चुकी थी।

“एक तो तेरा बाप भी गरीब था, और उसका भी सारा ध्यान, लाड़-प्यार केवल उस चुड़ैल पूर्वी को। अरे तेरे माँ-बाप तो तुझसे भी ज़्यादा उसकी उस नकचढ़ी सहेली काजल से प्यार करते थे...”

गौरवी की इन बातों ने सुहानी को जैसे अंदर से झकझोर दिया। उसकी आँखों में गुस्से की एक तेज़ लहर उठी। उसकी माँ को लेकर गौरवी का यह अपमान सुहानी से बर्दाश्त नहीं हुआ।

"इसकी तो..." सुहानी ने मुँह से बड़बड़ाते हुए, परदे के पीछे से बाहर निकलने की कोशिश की, और गौरवी की ओर बढ़ने लगी, जैसे उसकी सारी हदें टूटने वाली हो।

लेकिन ठीक उसी वक्त, विक्रम ने उसकी कमर जोर से पकड़ ली। सुहानी को अपनी पीठ पर विक्रम का हाथ महसूस हुआ, और वह उसे कसकर अपने सीने से चिपकाए हुए था।

"चुप रहो!" विक्रम का गुस्से भरा इशारा और उसकी आँखों में वह खौफनाक चेतावनी थी, जो उसे समझा रही थी कि अगर उसने फिर से कोई हलचल की, तो उसका जीना मुश्किल हो जाएगा।

मगर विक्रम भूल चुका था, सुहानी अब किसी से नहीं डरती थी। उसकी आँखों में बेशक गुस्सा था, मगर अंदर की आग और आत्मविश्वास और भी ज्यादा जलने लगी थी।

विक्रम के सारे पैंतरे और उसकी धमकियाँ देखकर, सुहानी ने खुद को और भी मजबूत महसूस किया। उसने एक तीव्र, और ताबड़तोड़ प्रतिक्रिया दी। अपनी उंगली होठों पर रखकर, उसने विक्रम को पलट कर चुप रहने का इशारा किया। 

“तुम चुप रहो।”

लेकिन विक्रम ने जवाब में तुरंत अपना हाथ सुहानी के मुँह पर रख दिया।

सुहानी की आँखें शॉक से चौड़ी हो गईं। उसे यह यकीन नहीं हो रहा था कि विक्रम ने इतना बुरा कदम उठाया।

उसने सुहानी को इन धोकेबाज़ हाथों से छुआ कैसे? 

 

 

 

गौरवी की असलियत आखिर क्या है - एक लाचार या एक शातिर खिलाड़ी? 

विक्रम का छूना सुहानी बर्दाश्त कर पायेगी या फिर ज़रा सी हलचल उसे मुश्किल में दाल देगी? 

गौरवी लॉकेट को देखकर खुद से बात क्यों कर रही है...क्या उसका मानसिक रोगी है? 

आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, ‘रिश्तों का क़र्ज़।’

 

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