विक्रम उसके बचपन का दोस्त था—एक ऐसा दोस्त, जिसके साथ उसने न जाने कितनी गर्मियों की छुट्टियाँ, कितने स्कूल के दिन और कितने मासूम पल बाँटे थे। लेकिन अब वो मासूमियत बहुत पीछे छूट चुकी थी। सामने खड़ा विक्रम न वह पुराना साथी था और न ही सुहानी वही निश्चल बच्ची रही थी। आज दोनों के बीच सिर्फ़ एक बीता हुआ रिश्ता नहीं, बल्कि धोखे और दर्द की एक लंबी दीवार खड़ी थी।

विक्रम ने जब एक बार फिर से उस पर अपना अधिकार जताने की कोशिश की, सुहानी के भीतर दबा हुआ क्रोध एक विस्फोट की तरह बाहर आ गया। उसने आवेश में आकर, बिना एक पल की देरी किए, विक्रम की हथेली पर ज़ोर से दांत गड़ा दिए। विक्रम तड़प उठा। उसके मुँह से एक हल्की, पर तीखी चीख निकल गई और वो झटके से पीछे हट गया। उसके चेहरे पर एकदम से हैरानी फैल गई थी—उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं और भौंहें ऊपर चढ़ गईं। दर्द से ज़्यादा, शायद उसे झटका उस बात का लगा था कि यह वही सुहानी है…वही जिद्दी, निडर और अक्खड़ लड़की, जो बचपन में उसकी चोटी खींचने पर उसे सीधे लात मार देती थी।

उस एक पल में विक्रम को उसकी पुरानी यादें घेरने लगीं। स्कूल की वर्दियों में उलझे झगड़े, लुका-छुपी के खेल, और वो बेधड़क सुहानी, जो किसी की भी रत्ती भर बकवास बर्दाश्त नहीं करती थी। वो सुहानी, जिसके भीतर आग थी—और वो आग आज फिर उसकी आँखों में झलक रही थी।

विक्रम सुहानी की आँखों में झाँकने की कोशिश करता है, पर वहाँ सिर्फ़ क्रोध और अविश्वास दिखाई देता है। वह दो कदम पीछे हट जाता है, मानो उसकी उपस्थिति ही अब भारी लगने लगी हो।

सुहानी की साँसें तेज़ चल रही थीं। उसके दिल की धड़कनें तेज़ थीं, पर चेहरा कठोर और आँखें स्थिर थीं। वो अब भी विक्रम को वैसे ही घूर रही थी, जैसे कोई शिकारी अपने शिकार को देखता है—सावधान, सजग और पूरी तरह से सतर्क।

उस क्षण कमरे में एक सिहरन सी दौड़ जाती है।

“शायद कोई कमरे में है मेरी गुड़िया। तू यहाँ रह, मैं देख कर आती हूँ।”

गौरवी की धीमी, पर सख्त फुसफुसाहट कमरे की ठहरती हवा को चीरती हुई आई। जैसे ही यह शब्द पर्दे के पीछे छिपे सुहानी और विक्रम के कानों में पड़े, उनके भीतर बिजली सी दौड़ गई। दोनों की साँसें एक पल को थम गईं, और फिर उसी पल ज़ोर से चलने लगीं — जैसे शरीर खुद को खतरे से बचाने के लिए तैयार कर रहा हो।

गौरवी अपने भारी बिस्तर से धीरे-धीरे उठी। उसकी चाल में अब एक सधे हुए संदेह की झलक थी। हर कदम संभलकर, धीरे-धीरे पर्दे की ओर बढ़ रहे थे — जैसे कोई शिकारी अपने शिकार के पास चुपचाप पहुँच रहा हो। उसकी चप्पलों की आहट न के बराबर थी, पर सुहानी और विक्रम के लिए हर क़दम किसी धमाके से कम नहीं लग रहा था।

पर्दे के पीछे छुपे दोनों के दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहे थे। सुहानी के माथे पर पसीना छलकने लगा। विक्रम की उंगलियाँ न चाहते हुए भी दीवार से चिपक गईं। उन्हें अब न सिर्फ़ अपनी साँसों की आवाज़ तेज़ लग रही थी, बल्कि एक-दूसरे के दिल की धड़कनें भी सुनाई देने लगी थीं।

“अगर गौरवी ने हमें यहाँ देख लिया, तो...?”

सुहानी का दिमाग़ तेज़ी से काम करने लगा। ये केवल कोई छुपन-छुपाई का खेल नहीं था। ये उस रहस्य की परतों में से एक था जिसे वह धीरे-धीरे खोलने की कोशिश कर रही थी — और ये पकड़ी जाती, तो पूरा खेल बिगड़ जाता।

वो इधर-उधर देखने लगी — एक रास्ता, एक छेद, एक मौका ढूँढ़ने की उम्मीद में। तभी उसकी नज़र अपने पीछे एक पुरानी खिड़की पर पड़ी। वह जंग लगी हुई थी, शायद सालों से नहीं खुली थी। मगर यही एक रास्ता था।

"अगर हम जल्दी करें..." उसने सोचा, “...तो खिड़की खोल सकते हैं। फिर छज्जे पर चढ़ कर किसी तरह नीचे...”

उसका दिमाग़ इस प्लान को बना तो रहा था, पर दिल जानता था — ये उतना आसान नहीं था जितना सुनने में लग रहा था।

खिड़की तक पहुँचने के लिए भी कुछ हरकत करनी पड़ती, जो गौरवी का ध्यान खींच सकती थी। ऊपर से खिड़की जंग खाई हुई थी, वो बिना आवाज़ के खुलेगी इसकी कोई गारंटी नहीं थी। और सबसे बड़ा डर — वक्त।

गौरवी अब सिर्फ़ कुछ कदमों की दूरी पर थी। पर्दे की छाया अब और भी गहरी हो गई थी।

सुहानी को लगा जैसे वक्त रुक गया है — एक डरावनी, भारी खामोशी में। लेकिन उसका मन चीख रहा था, “कुछ करो... जल्दी!”

उसने धीरे से विक्रम की बाँह को पकड़ा, उसकी आँखों में देखा — वो इशारा कर रही थी खिड़की की ओर।

विक्रम ने उसकी नज़र को समझा, पर उसकी खुद की आँखों में भी संदेह था। क्या इतना वक्त बचा भी है? पर्दा अब हटने ही वाला था…फर्श पर उसकी चप्पलों की धीमी आवाज़ किसी साँप के फुफकार जैसी लग रही थी — धीमी, पर जानलेवा।

“अब कुछ नहीं बचा,” सुहानी ने खुद से कहा।

उसने थक कर अपनी आँखें बंद कर लीं। पलकों पर पसीने की नमी थी और दिल अब थक-हार कर धड़कना भूलने को था।

उसने एक गहरी, धीमी साँस ली — वो साँस जो अक्सर मौत को गले लगाने से पहले ली जाती है।

“यहाँ खेल खत्म,” उसके मन में एक फुसफुसाहट गूंजी।

लेकिन तभी…

“हमें इसे मारना होगा,” विक्रम की फुसफुसाई हुई आवाज़ सुहानी के कानों में एक बम की तरह फटी।

उसके पलकों की दुनिया एक झटके में खुल गई। साँस जो सीने में अटकी हुई थी, जैसे ज़ोर से बाहर निकल आई।

उसने विक्रम की ओर देखा — उसकी आँखों में खौफ था, गुस्सा था, और उससे भी ज़्यादा थी — घृणा।

“क्या?” उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी, लेकिन उसमें कंपकंपी थी — जैसे किसी ने उसकी आत्मा को झकझोर दिया हो।

विक्रम ने कोई जवाब नहीं दिया — केवल एक इशारा किया। अपनी उंगलियों को गर्दन पर चाकू की तरह घुमाया। संकेत साफ़ था — गौरवी को खत्म करने का इरादा।

सुहानी की आँखें फैल गईं। वो उसे ऐसे देख रही थी जैसे वो इंसान ही नहीं, कोई अजनबी हो — एक हैवान।

वो विक्रम जिसे वह कभी अपना दोस्त मानती थी, वो सोच भी नहीं पा रही थी — उसे डर था, लेकिन ये डर गौरवी से ज़्यादा अब विक्रम से था।

और जैसे ही उस घड़ी की सुई पूरी हुई…

ठक… ठक… ठक…

दरवाज़ा खटखटाया गया।

धड़कनें रुक गईं।

“कौन है?”

गौरवी की तेज़ आवाज़ गूंजी — अब उसमें झुंझलाहट थी।

 

“मालकिन, रणवीर साहब आपको बुला रहे थे,” बाहर से एक नौकर की शांत आवाज़ आई।

गौरवी बड़बड़ाई — “यह आदमी मुझे जीने नहीं देगा…” उसके लहजे में खीझ, थकावट और घबराहट का अजीब सा मिश्रण था।

“आ रही हूँ!” वो फिर से चिल्लाई और मुड़ी। लेकिन उसकी चाल अब धीमी थी — जैसे अचानक उस पर सौ सवालों का बोझ गिर पड़ा हो।

और फिर... वो वापस पर्दे की ओर बढ़ने लगी।

सुहानी और विक्रम अब भी वहीं थे — पर अब उनके बीच जो था, वो सिर्फ़ डर नहीं था। वो एक फूट थी,  एक दरार... जो शायद अब कभी नहीं भरेगी। पल भर की राहत मिली ही थी कि फिर से — ठक… ठक… ठक… दरवाज़े पर दोबारा दस्तक हुई। इस बार की आवाज़ पहले से तेज़ और ज्यादा बेसब्र थी।

“अब क्या है!” गौरवी की गूंजती हुई आवाज़ इतनी पास से आई कि पर्दे के पीछे छिपी सुहानी के कान झनझना उठे। सिर में दर्द की एक हल्की लहर दौड़ गई — शायद डर और घबराहट का नतीजा।

“मालकिन…” नौकर की घबराई हुई आवाज़ कमरे में गूंजी, “साहब ने कहा है कि आपको अभी उनके ऑफिस जाना है….फ़ौरन।”

गौरवी ने जैसे किसी अनचाही झुंझलाहट से पैर पटकते हुए करवट बदली, “अरे!” उसने गुस्से में कराहते हुए दरवाज़े की ओर तेज़ क़दम बढ़ाए।

 

पर्दे के पीछे खड़े सुहानी और विक्रम, जिनके शरीर अभी तक तनाव से जकड़े हुए थे, दोनो ने एक साथ राहत की साँस ली। उनके चेहरों पर पसीने की महीन बूँदें थीं और दिल की धड़कन अब जाकर थोड़ी सामान्य हो रही थी। उन्हें शायद एहसास ही नहीं हुआ था कि वो कब से साँस रोके खड़े थे।

गौरवी दरवाज़ा खोल चुकी थी। उसके गुस्सैल स्वर में अब तंज भर आया था।

“तुम इतने सालों से मेरे वफ़ादार रहे हो, उसके आते ही सब भूल गए क्या?” उसने धीमे मगर तीखे लहजे में नौकर से पूछा, जिसकी आँखों में झिझक और बेचैनी साफ़ थी।

सुहानी ने हल्का सा पर्दा सरकाकर झाँका। सामने वही वफ़ादार नौकर था — थोड़ा घबराया, पर अपने काम में मुस्तैद।

उसने हल्का सिर झुकाया और जेब से मोबाइल फोन निकाल कर आगे बढ़ाया। “साहब फोन पर हैं… वो आपकी बातें सुन रहे हैं, मालकिन।”

ये सुनते ही गौरवी का चेहरा पल भर को पीला पड़ गया। उसके हाथ तेज़ी से अपने मुँह पर चले गए — मानो कुछ अनकहा सच उसके होंठों से फिसल गया हो। आँखों में हलचल थी, माथे की लकीरें गहरी हो गई। उसने झट से नौकर के हाथ से फोन लिया। अब तक उसकी चाल धीमी, सधी हुई थी — पर इस वक्त वो घबराई हुई थी।

“हां जी, देवरजी… बोलिए?” उसका स्वर अचानक शहद जैसा मीठा हो गया। 

“क्या काम था?” उसका चेहरा अब बनावटी मुस्कान के पीछे छिपा हुआ तनाव झेल रहा था।

“अरे नहीं-नहीं, आपके बारे में वो बात नहीं कही मैंने… वो तो मैं बस ऐसे ही कह रही थी…”

उसकी आवाज़ में सफाई, भय और बनावटी आत्मविश्वास का अजीब सा मेल था।

“हाँ, हाँ… बस पहुँच ही रही हूँ।”

उसने फोन काटा, नौकर को वापिस थमाया, और बिना पीछे देखे तेज़ी से कमरे से बाहर निकल गई।

पर्दे के पीछे खड़ी सुहानी अब भी सन्न थी। विक्रम की आँखें चौकन्नी थीं।

कमरे में जैसे एक शून्य पसर गया था — लेकिन उस क्षण के निकलते ही, वे दोनों जानते थे — वो बस बाल-बाल बचे हैं।

 

गौरवी की साड़ी की सरसराहट और क़दमों की आवाज़ धीरे-धीरे कमरे से दूर होती चली गई। उसकी तेज़ एड़ियों की खट-खट अब सिर्फ़ दालान में गूंज रही थी।

कमरे का दरवाज़ा खुला ही छूट गया था।

विक्रम ने बिना समय गंवाए, तेजी से पर्दे के पीछे से बाहर छलांग लगाई और दबे पाँव जाकर दरवाज़े को भीतर से बंद कर दिया। दरवाज़ा बंद होते ही कमरे में एक गहरा सन्नाटा पसर गया—जैसे कोई विस्फोट टल गया हो।

लेकिन सन्नाटे में भी बिजली सी गूंज उठी—सुहानी की आवाज़।

“उसको मार देते हैं? हाँ?”

पर्दे से बाहर निकलते हुए, सुहानी ने तेज़ी से कदम बढ़ाए और आकर एक जोरदार धक्का विक्रम के सीने पर मारा। उसकी आँखों में गुस्सा था, लहजे में उबाल और पूरे शरीर में थरथराहट।

“मैं तुम्हें हथियारन लगती हूँ क्या? बस यही हल बचा है तुम्हारे पास? अगर कोई रास्ता नहीं बचेगा, तो लोगों को यूँ ही मार दोगे तुम?”

उसकी आवाज़ तेज़ थी, पर उसमें डर, गुस्सा और घृणा का ऐसा कॉकटेल था जो कमरे की हवा को सुलगा दे। वह रो नहीं रही थी, पर उसकी आँखों में नमी थी—वो आंसू नहीं, भरोसे की मौत थी।

विक्रम ने कुछ कहने के लिए होंठ खोले, लेकिन शब्द गले में अटक कर रह गए।

“मुझे भरोसा नहीं है तुम पर।”

सुहानी की आवाज़ अब थोड़ी धीमी हुई, पर ज़हर और गहराई उसमें और भी बढ़ गई थी।

“क्या पता पहले भी किसी का मर्डर किया हो…जिन लोगों के बीच पले-बढ़े हो, जिनसे मिले हुए हो… उनका असर तो होगा ही न?”

उसने ऐसा कहते हुए विक्रम की आँखों में झाँका — जैसे उसे खुद ही जवाब चाहिए था, या शायद… एक ट्रिक सवाल किया, ताकी जो वो सोच रही है, वो झूठ निकले।

विक्रम बस खड़ा रहा, उसका सीना धड़क रहा था…लेकिन अब किसी रोमांच से नहीं, शर्म से। उसका चेहरा पल भर को कठोर हुआ, फिर कुछ नरम, लेकिन वह चुप ही रहा।

कमरे में सिर्फ़ उनके दिलों की धड़कनें थीं, और एक अनकहा सवाल— “तुम सच में ऐसे आदमी हो?”

कमरे में अब सिर्फ़ सन्नाटा नहीं था—एक टूटे हुए रिश्ते की किरचें ज़मीन पर बिखरी थीं। सुहानी ने अपनी नज़रें फेर लीं, जैसे अब विक्रम को देखना भी उसे बोझ लग रहा हो। वह धीमे कदमों से पीछे हटने लगी, पर उसके भीतर एक जंग जारी थी—भरोसे और धोखे की, दोस्ती और डर की।

विक्रम अब भी चुप था, पर उसकी आँखों में एक बेचैनी तड़प रही थी। वह कुछ कहना चाहता था, पर शब्द अब भी बेमानी कर रहे थे।

सुहानी ने ठंडी आवाज़ में कहा, “इस बार बच गए हम…लेकिन अगली बार?”

उसका सवाल अधूरा नहीं था, पर जवाब किसी के पास नहीं था।

 

क्या विक्रम पहले भी किसी को मार चुका है? 

क्यों मौजुद था वो गौरवी के कमरे में? 

सुहानी कैसे जानेगी इसके पीछे का सच?

आगे की कहानी पढ़ने के लिये, पढ़ते रहिये, ‘रिश्तों का क़र्ज़।’

 

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