“अगली बार अगर हम उनके हाथ लगे, तो वो लोग बिना किसी झिझक के हमें मौत के घाट उतार देंगे।”

विक्रम की आवाज़ में एक अजीब सी सख्ती थी। उसके जबड़े भींच गए थे, और दाँत पीसते हुए वह किसी ज्वालामुखी की तरह भीतर ही भीतर धधक रहा था। उसकी आँखों में डर नहीं, बल्कि गुस्से और ज़िद का मिला-जुला तूफान साफ झलक रहा था।

कमरे की शांति में उसकी बात गूँज उठी, और सुहानी एक पल को कंप गई। उसने विक्रम को इस तरह से कभी नहीं देखा था—इतना आक्रामक, इतना बेबस। विक्रम ने सुहानी की ओर एक कदम बढ़ाया। उसके भारी-भारी कदमों की आवाज़, कमरे के सन्नाटे को चीरती हुई, सुहानी के दिल की धड़कनों से टकराई।

“और तुम्हें क्या लगता है, मर्डर करना मेरी हॉबी है?” 

उसकी आवाज़ में कड़वाहट घुली थी। वह इतना करीब आ गया था कि सुहानी को उसकी गर्म, उखड़ी हुई साँसें अपने चेहरे पर महसूस होने लगीं। सुहानी ने खुद को पीछे हटाने की कोशिश की, लेकिन उसके पाँव जैसे ज़मीन में धँस गए थे।

"मगर हाँ," विक्रम ने कहा, उसकी आँखों में एक बर्फीली बेरहमी चमक उठी, “अगर मेरे जीने-मरने की बात आएगी, तो किसी को अपने रास्ते से हटाना मेरे लिए इतना मुश्किल नहीं होगा।”

उसकी आँखें सुहानी की आँखों में गड़ी थीं—गुस्से से, चुनौती से, जैसे वह अपनी सच्चाई से उसे हिला देना चाहता हो। सुहानी का दिल बैठने लगा….वह उस विक्रम को नहीं पहचान पा रही थी, जो आज उसके सामने खड़ा था। 

कँपकँपाती आवाज़ में वह फुसफुसाई, “मर्डर? मैं तुम्हें पहचान नहीं पा रही हूँ विक्रम...” उसके शब्द जैसे हवा में बिखर गए। उसकी आवाज़ में दर्द था, अविश्वास था, और एक अनकही दहशत भी।

विक्रम का चेहरा एक पल को सख्त हुआ, फिर उसकी नजरें झुक गईं, जैसे उसके भीतर भी कोई लड़ाई चल रही हो—अपने उस चेहरे से जिसे वह खुद भी शायद नापसंद करता था। उसकी आँखों में अब नफरत नहीं थी, बल्कि एक थकान थी—जैसे वह इस दुनिया से, इन हालातों से लड़ते-लड़ते टूट चुका हो। लेकिन अगले ही क्षण उसके चेहरे पर फिर वही कठोरता लौट आई।

"तुम्हें जो समझना है, समझ लो सुहानी," उसने गहरी, काँपती आवाज़ में कहा। “कभी-कभी हालात इंसान को वो बना देते हैं, जो वो खुद भी नहीं बनना चाहता।”

विक्रम की आँखें सुहानी की आँखों से टकराईं—दोनों में दर्द, दोनों में नाराजगी, और कहीं गहरी एक अधूरी पुकार थी।

सुहानी की आँखें भर आईं। उसने अपने होंठ भींच लिए, पर उसकी कंपकंपी को वह रोक नहीं सकी। सामने खड़ा विक्रम वही था जिसे वह कभी अपना समझती थी, जानती थी—लेकिन आज, वह अजनबी लग रहा था। कमरे का माहौल भारी हो चुका था। हवा में तना हुआ सन्नाटा इतना गंभीर हो चुका था, कि उसे महसूस किया जा सकता था। बाहर कहीं दूर बिजली कड़कने की आवाज़ आई, जैसे आसमान भी इस टूटते रिश्ते का गवाह बन रहा हो।

 

"इस एक शब्द ने... हमारी ज़िंदगी को कितना बदल कर रख दिया है, विक्रम," सुहानी की आवाज़ में दर्द की टीस थी, “ये तुम शायद भूल गए हो।” 

उसकी आँखों के किनारों पर आंसुओं की एक महीन परत जम गई थी। उसका गला बार-बार रुंध रहा था, लेकिन उसने खुद को संभाले रखा।

"मुझे लगा था..." वह धीमे से बोली, जैसे हर शब्द उसके दिल से खिंच कर बाहर आ रहा हो, “मैं अपने बचपन के दोस्त को उसी दिन खो चुकी थी…जिस दिन मुझे पता चला था कि वो रणवीर जैसे राक्षस से मिला हुआ है।”

विक्रम का चेहरा तन गया। उसके जबड़ा अकड़ गया, पर वह चुपचाप सुहानी की बात सुनता रहा।

"जिस दिन मुझे समझ आया कि तुम भी अपने मतलब के लिए मुझे इस्तेमाल कर रहे हो..." सुहानी की आवाज़ टूटने लगी थी। उसकी पलकों पर ठहरी नमी अब धीरे-धीरे ढलकने लगी थी। उसने होंठ भींच लिए, जैसे रोने की बाढ़ को किसी तरह रोकना चाहती हो।

"मगर..." सुहानी ने एक गहरी साँस ली, जैसे खुद को फिर से संभालने की कोशिश कर रही हो, “मगर मैं ग़लत थी।”

उसके शब्दों के साथ ही उसकी आँखों से एक मोती सा आँसू ढुलक कर गिर पड़ा। कमरे की दीवारें खामोश गवाह बनी रहीं, उस टूटते हुए रिश्ते की जो कभी बचपन की सबसे मासूम दोस्ती से शुरू हुआ था…और आज खून, धोखे, साज़िशों के बीच कहीं खो गया था।

सुहानी के होंठ थरथरा रहे थे, खुद को रोने से रोकने की वजह से, उसकी आँखों से बहते आँसू उसके मासूम दिल और टूटे हुए भरोसे की ओर इशारा कर रहे थे। वह एक पल को रुकी, फिर काँपती आवाज़ में बोली….

“आज... आज मैंने तुम्हारे अंदर अपने बचपन के दोस्त को खो दिया, विक्रम। उस दोस्त को... जो उस दिन टूट गया था जब उसके पापा का मर्डर हुआ था।”

सुहानी का दिल भारी हो गया, आँखों में बीते हुए लम्हों की तस्वीरें तैरने लगीं।

“वो बच्चा, जो जब पहली बार हमारी क्लास में आया था…उसकी आँखों में इतना ग़म भरा था कि वो मुस्कुराना तक भूल गया था। जो किताबों में सिर झुकाए बैठा रहता था, और हँसी की आवाज़ सुनते ही सहम जाता था...”

उसने विक्रम की आँखों में सीधे झाँकते हुए कहा, “किसी की जान ले लेना, क्या इतना आसान होता है?"

वह एक कदम आगे बढ़ी, “तो याद करो विक्रम…जिसने तुम्हारे पापा का मर्डर किया था, उसका क्या हाल हुआ था?”

 

विक्रम का चेहरा पलभर के लिए सफेद पड़ गया। सुहानी की आवाज़ अब एक धार बनकर उसके सीने को चीरती जा रही थी।

"वो और कोई नहीं…तुम्हारी माँ थी, विक्रम।" सुहानी ने धीमे लेकिन बेहद दर्दनाक अंदाज़ में कहा।

“जिन्हें जेल में पागलपन ने घेर लिया। जो हर दिन ये सोच-सोचकर घुटटी रही कि उन्होंने एक इंसान की जान ली है। और आज…आज वो मीलों दूर एक mental asylum में अपना बचा हुआ जीवन गुमनामी में बिता रही हैं।”

सुहानी ने गहरी साँस ली, जैसे अपने भीतर जमे सारे ज़ख्मों को बाहर निकाल रही हो।

“तुमने इस एक 'मर्डर' की वजह से अपने माँ-बाप दोनों को खो दिया, एक ही पल में…अपना पूरा संसार उजाड़ लिया। और फिर भी आज तुम सोचते हो कि मर्डर करना आसान होता है?”

उसकी आवाज़ फूटती जा रही थी, पर शब्दों की चोटें साफ थीं।

"जिस दिन आप किसी का मर्डर करते हो न..." उसने आँखें पोंछते हुए कहा, “उस दिन आप खुद के अंदर का इंसान भी मार देते हो। वो इंसान जो कभी हँसता था, प्यार करता था, भरोसा करता था…सब कुछ एक पल में मर जाता है।”

सुहानी का चेहरा आँसुओं से भीग गया था, मगर उसकी आँखों में एक अनोखी दृढ़ता थी।

"अब ये तुम तय करो, विक्रम," वह फुसफुसाते हुए बोली, “तुम्हें अपनी बाकी की ज़िंदगी कैसे जीनी है — कुछ इंसानियत बचाकर, या फिर एक ज़िंदा लाश बनकर?”

कमरे की खामोशी अब बोझिल हो चुकी थी। दोनों के बीच केवल टूटे हुए रिश्ते की गूँज बची थी…और एक अंधेरे मोड़ पर खड़ा विक्रम, जिसे तय करना था कि वो अंधेरे में डूबेगा या रोशनी की ओर लौटेगा। सुहानी के शब्द जैसे ही खत्म हुए, उसने नज़रें फेर लीं और भारी कदमों से वहाँ से जाने लगी। उसका दिल धड़क रहा था, हर कदम जैसे एक संघर्ष बन गया था। लेकिन तभी, अचानक, विक्रम ने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया।

उसके स्पर्श में न कोई ज़ोर था, न कोई जबरदस्ती — बस एक रुकी हुई पुकार थी, एक टूटी हुई उम्मीद थी।

"तुम मुझसे ये नहीं पूछोगी कि मैं यहाँ क्या कर रहा था?" विक्रम ने धीमे स्वर में, नज़रें झुकाते हुए पूछा। उसकी आवाज़ में एक थकान थी, जैसे वो भी अब लड़ने की ताक़त खो चुका हो।

सुहानी पल भर को ठिठकी। उसके अंदर कहीं पर ये सवाल बहुत देर से गूंज रहा था — क्यों आया था विक्रम? क्या उसे अब भी कोई फर्क पड़ता था?

उसने खुद को सँभालते हुए, टूटती साँसों के बीच कहा, “मैं ये पूछ सकती हूँ?” उसकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन उस धीमेपन में कितनी पीड़ा थी, विक्रम ने साफ महसूस कर ली।

वो सवाल करना चाहती थी, पर डरती भी थी — डरती थी कि कहीं जवाब उसकी बची-कुची उम्मीद को भी न तोड़ दे। अंदर ग़ुस्सा अब भी था, पर सवाल पूछने की जिज्ञासा उस ग़ुस्से के सामने चुप हो गई थी। विक्रम ने हल्के से उसके हाथ पर अपनी पकड़ ढीली करते हुए उसे धीरे से अपनी ओर खींचा, जैसे कोई बिखरते रिश्ते के टुकड़े समेटने की आखिरी कोशिश कर रहा हो।

उसकी आँखों में गहरा पछतावा और एक अनकही माफी तैर रही थी। उसने सुहानी की आँखों में गहराई से झाँकते हुए बेहद नरमी से कहा, “तुम मुझसे कुछ भी पूछ सकती हो, सुहानी।”

सुहानी ने कुछ पल उसे देखा, जैसे उसके शब्दों की सच्चाई को परख रही हो। फिर उसने अपने हाथों को बहुत धीरे से, बड़ी नर्मी से विक्रम के हाथों से छुड़ाया — कोई झटका नहीं, कोई गुस्सा नहीं — बस एक ठंडी उदासी के साथ।

"विक्रम," उसने एक थकी हुई मुस्कान के साथ कहा, “In that case...”

वो अपने शब्दों को चुनते हुए रुकी, फिर बड़ी मुश्किल से खुद को सँभालते हुए आगे बोली, “मैं बस एक बात कहना चाहती हूँ।”

उसकी आवाज़ में अब भी दर्द था, लेकिन उसमें कहीं एक दृढ़ता भी थी — जैसे वो जानती हो कि अब जो कहना है, वो उसके लिए ज़रूरी है…चाहे जवाब जो भी हो। कमरे की हवा भारी हो गई थी, दीवारों ने जैसे उनकी अधूरी बातों को अपने अंदर कैद कर लिया था। दोनों के बीच अब भी एक अनकहा रिश्ता धड़क रहा था — जो अब भी जिंदा था।

सुहानी ने गहरी साँस लेते हुए अपने शब्दों को खुद में समेटा और फिर धीरे से कहा, “मैं चाहती हूँ कि तुम इस बात की इज़्ज़त करो कि मैं एक शादीशुदा लड़की हूँ।”

उसकी आवाज़ में कंपकंपी थी, मगर फिर भी वह मजबूती से बोलने की कोशिश कर रही थी।

“तुम बार-बार मुझ पर इस तरीके से अपना हक़ नहीं जता सकते।”

वो बोल तो रही थी, मगर विक्रम की आँखों में देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। उसकी नज़रें इधर-उधर भटकती रहीं — दीवारों पर, ज़मीन पर, पर कहीं भी टिक नहीं पाईं। विक्रम की आँखों में, जो कभी उसके सबसे बड़े सहारे की तरह चमकती थीं, अब कुछ और ही उमड़ रहा था — एक तूफान, जो कुछ ही देर में सब कुछ उजाड़ सकता था।

कमरे की हवा कुछ पल के लिए ठंडी हो गई। विक्रम ने बस गहरी नज़रों से उसे देखा, और बिना एक शब्द कहे, तेज़ कदमों से कमरे से बाहर चला गया। जैसे ही विक्रम बाहर निकला, सुहानी के सीने में दबी हुई साँसें एक झटके से बाहर निकल गईं। वो दीवार का सहारा लेकर खड़ी रही, उसकी धड़कनें बेकाबू हो गई थीं। वो हाँफने लगी, जैसे कोई लंबी दौड़ से लौटकर आई हो।

“विक्रम को पता नहीं क्या हो गया है?” उसने खुद से बुदबुदाते हुए कहा, उसकी आवाज़ इतनी धीमी थी कि शायद उसे खुद भी ठीक से सुनाई न दे। उसका दिल अब भी तेज़ी से धड़क रहा था। लेकिन डर और घबराहट के बीच उसके अंदर एक अजीब सी हिम्मत जाग रही थी — एक फैसला लेने की हिम्मत।

 

उसने बिना ज़्यादा सोचे समझे कमरे की खिड़की की ओर देखा। दरवाज़े से निकलना अब उसे ख़तरे से खाली नहीं लग रहा था। उसे पता था कि अगर रणवीर या कोई और उसे दरवाज़े से निकलते देख लेगा, तो सारी मेहनत पर पानी फिर सकता है। इसलिए उसने खिड़की से बाहर निकलने का फ़ैसला किया। 

खिड़की तक पहुँचते हुए उसने जल्दी-जल्दी चारों ओर नज़र दौड़ाई, बाहर का गलियारा लगभग सुनसान था। जिस कमरे में आरव को रखा गया था, वो इसी लाइन में आख़िर में था — दूर, लेकिन धीरे-धीरे संभाल कर वहां पहुँचा जा सकता था।

सुहानी ने एक पल के लिए खुद को कसकर संभाला, और फिर बिना वक़्त गंवाए खिड़की से बाहर फुर्ती से उतरने लगी — जैसे उसके अंदर किसी तूफान से बच निकलने की जिद पल रही हो।

उसका दिल अब एक ही बात पर टिका था — आरव तक पहुँचना। और इससे पहले कि हालात और बिगड़ें, उसे अपनी चाल चलनी थी।

वह खड़ी थी, हाथों में हल्की सी कंपकंपी थी, और दिल की धड़कनें तेज़। लंबे समय से बंद खिड़की को उसने अपनी पूरी ताकत से खोलने की कोशिश की। खिड़की का चौखटा जाम था, जैसे जंग और धूल ने उस पर पूरी तरह से क़ब्ज़ा जमा लिया हो, लेकिन उसने हार नहीं मानी। 

उसने और ज़ोर लगाया, और एक झटके में खिड़की खुली, और हवा ने उसकी चेहरे पर एक गहरी थपकी दी। वह खुद को संभालते हुए बाहर की ओर देखने लगी, इतनी ऊँचाई और चुप्प सी अंधेरी रात उसे और भी डरावनी लगने लगी थी, लेकिन उसका दिल ठान चुका था, उसे रुकना नहीं था।

 

 

विक्रम गौरवी के कमरे में क्यों था? 

क्या वो रणवीर को सुहानी के आने की खबर दे देगा या फिर दोस्ती का मान रखेगा? 

सुहानी कैसे पहुंचेगी आरव तक? 

जानने के लिए पढ़ते रहिये, ‘रिश्तों का क़र्ज़।’

 

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