राठौर हवेली के ऊंचे गुंबदों पर चांदनी छलकी हुई थी, लेकिन हवेली के भीतर…सब कुछ घना, गंभीर और काले साये में ढका हुआ था। एकांत रात का सन्नाटा दीवारों से टकरा रहा था, जैसे किसी तूफ़ान से पहले की शांति और उसी सन्नाटे को चीरती एक कराह उठी — हल्की, टूटी हुई, मगर ज़िंदा।
दिग्विजय की स्टडी का दरवाज़ा आधा खुला था। कमरे के भीतर की रोशनी अब पीली पड़ चुकी थी, और फर्श पर…खून के छींटों से लथपथ एक बदन पड़ा था।
आरव, उसका स्याह सूट अब गहरे लाल में रंग चुका था। बिखरे कागज़, उलटे पड़े गिलास, और दीवार से टकराकर गिरा ग्लोब — सब जैसे एक युद्ध के साक्षी थे।
उसकी छाती पर गोली के ज़ख्म थे, सर पर से गोली छू कर निकल गयी थी, और गोली लगने की वजह से गिरते वक़्त भी उसे सर पर गहरी चोट आयी थी, पर उसका सीना धीमे-धीमे उठ-गिर रहा था। धड़कनें चल तो रही थीं... मगर बेहद कमज़ोर।
जूते की हील की आवाज़ कमरे की ओर बढ़ीं और अगले ही पल, दरवाज़ा पूरी तरह खुल गया। मीरा की आँखों में जैसे कोई भूत समा गया हो, पल भर को उसकी साँसें थम गईं। उसने सामने देखा—आरव, खून में डूबा पड़ा था।
"आरव!" एक चीख जैसे उसके भीतर से फट पड़ी। वो बिना सोचे समझे उसकी ओर दौड़ी। उसके घुटने फर्श पर लगे, और वो उसके पास बैठ गई। उसके हाथ काँपते हुए आरव की कलाई पर गए। नब्ज़... बहुत धीमी थी, मगर चल रही थी।
"हे भगवान..." मीरा की आँखों से आँसू निकलने लगे।
उसने जल्दी से आरव के चेहरे को अपनी गोदी में रखा। उसके माथे पर पसीना था, होंठ सूख चुके थे और उसकी पलकें... आधी खुली थीं, जैसे उसे होश और बेहोशी के बीच की दुनिया में कहीं अटका छोड़ा गया हो।
"तुम्हें हिम्मत रखनी होगी, आरव...!" मीरा बुदबुदाई। उसकी आवाज़ काँप रही थी, पर उसमें एक डर भी था। मीरा की चीख और आरव की धीमी साँसों के बीच…हवेली के गलियारों में दो परछाइयाँ तेज़ी से स्टडी की ओर बढ़ रही थीं।
कमरे में बारूद और खून की गंध मिली-जुली थी। दरवाज़े पर अब गौरवी और दिग्विजय खड़े थे, लेकिन उन दो चेहरों पर न कोई डर था, न शोक—बस एक गणना, एक आँकड़ा। गौरवी की निगाह खून में भीगे फर्श से होते हुए सीधी दिग्विजय की ओर गई।
उसके होंठों से निकला एक ठंडा, सधा हुआ वाक्य—“अगर ये मर गया... तो?”
ना घबराहट, ना घुटन। उसके शब्दों में सिर्फ़ साज़िश का स्वाद था….नपा-तुला, स्वार्थ और लालच से भरा हुआ। दिग्विजय ने कुछ नहीं कहा। बस धीरे से आँखें मूँदीं और मन में उस दस्तावेज़ की एक-एक पंक्ति गूंजने लगी—
“यदि आरव या सुहानी को कोई भी क्षति हुई, तो राठौर परिवार की सारी जायदाद, सारी विरासत, एक ट्रस्ट के अंतर्गत चली जाएगी—अविनाशी रूप से।”
उसके माथे पर से एक बूंद पसीना टपका। हवेली में पहली बार, उसे अपने पैरों तले से खिसकती ज़मीन का एहसास हुआ।
“हमने सब कुछ इस दिन के लिए किया था…?” वो बुदबुदाया।
"सालों की साज़िश, झूठ, हत्या, धोखा…" गौरवी धीरे से बोली, “क्या अब ये सब यूँ ही हमारे हाथ से फिसल जाएगा?”
दिग्विजय की साँसें गहरी हो गईं, उसने एक सख़्त फैसला लिया।
"नहीं… हमें इसे जिंदा रखना ही होगा, चाहे जैसे भी।"
उसने जेब से फोन निकाला, और नंबर डायल किया—घंटी बजी।
रणवीर की एक तेज़, गुस्से से भरी आवाज़ उभरी— "तुम लोगों ने अब तक कुछ किया क्यों नहीं?
क्या तुम लोग सिर्फ़ तमाशा देखने के लिए ज़िंदा हो?
अगर आरव मर गया, तो सब कुछ बर्बाद हो जाएगा… हम सबके हाथ से—वो सब चला जाएगा।"
फोन की आवाज़ में गुस्से और घबराहट का मिला-जुला असर था, जैसे रणवीर का दिल जल रहा हो। उसकी आँखों के सामने वो सभी दृश्य घूम रहे थे, जो अब तक उसने अपने परिवार के लिए या उनके खिलाफ जाकर किए थे—झूठ, साज़िशें, और नफ़रत के रास्ते अपनाकर।
एक पूरी ज़िंदगी, जो उसने इस पल तक आने के लिए बनाई थी। और अब, आरव की हालत में किसी भी हलचल ने उनके पूरी जिंदगियों की क़ीमत पर सवाल खड़ा कर दिया था।
दिग्विजय ने फोन कान से हटाया। उसकी आँखों में एक गहरी चिंता की लकीर थी, लेकिन वो गुस्से से ज़्यादा गहरे शोक में था। उसकी पूरी दुनिया अब एक किनारे पर खड़ी थी, एक कागज़ की तरह जो थोड़ी सी हवा से उड़ सकता था।
गौरवी का चेहरे पर एक साया सा उतर आया था। जो कभी बिना हिचकिचाए अपना रास्ता तय करती थी, अब ऊपर कोई खौफ़ था। एक ऐसा खौफ़, जो चुपके से उसके दिल में उतर चुका था और उसके माथे पर नज़र आ रहा था।
"हमने तो इसे जिंदा रखने की ठान ली है," गौरवी ने बड़बड़ाते हुए कहा, उसकी आवाज़ में हल्की सी घबराहट थी।
"लेकिन ये भी सच है कि अगर आरव को होश आ गया तो ये वैसे भी हमारे सारे प्रयासों पर पानी फेर देगा। खैर इसके बारे में बाद में सोचेंगे, पहले इसे बचाते हैं।”
"हम इसे हॉस्पिटल नहीं ले जा सकते। पुलिस, प्रेस, ट्रस्ट... सब हरकत में आ जाएंगे," दिग्विजय ने धीरे से कहा। उसकी आवाज़ में एक खामोशी थी, जो इस सवाल के ऊपर भारी पड़ रही थी कि क्या अब तक वो जो कुछ भी कर रहे थे, वो सही था या नहीं।
गौरवी ने सवाल किया—"तो फिर?" उसका चेहरा थका हुआ और बुझा-बुझा सा लग रहा था। अब तक की सारी साज़िशें, धोखा, और छल-कपट उन दोनों पर भारी पड़ रहा था। हर कदम पर उन्हें एक नई चुनौती मिल रही थी, और अब ये मामला उनकी सारी मेहनत को ठुकरा देने वाला था।
दिग्विजय ने धीमे से अपनी नज़रें मीरा पर टिका दीं, जो अब भी आरव के पास बैठी थी। उसकी आँखें मानो आरव से चिपकी हुई थीं, और वह सिहरती हुई उस पर से नज़र नहीं हटा पा रही थी। उसके चेहरे पर एक अजीब सी ख़ामोशी थी, जैसे उसने आरव की हालत से हार मान ली हो।
मीरा के हाथ आरव के माथे पर थे, लेकिन उसकी कलाई की हल्की धड़कन तक उसे महसूस हो रही थी। उसकी आँखों में बेहोशी और डर की लहर थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे, किससे मदद माँगे। आरव की हालत उस पर इस कदर भारी पड़ रही थी कि उसका दिल हर पल काँप रहा था। उसका सिर चकरा रहा था, और वो बुरी तरह से थक चुकी थी। फिर भी, वो उसकी ज़िंदगी को बचाने की कोशिश में थी।
"नहीं… कुछ भी कर के हमें इसे जिंदा रखना ही होगा, चाहे जो हो जाए।"
दिग्विजय की आवाज़ अब और अधिक दृढ़ हो चुकी थी। उसके चेहरे पर एक ठंडी सोच की लकीर थी, जो अब उसके मन में एक सख़्त निर्णय की ओर इशारा कर रही थी। वह किसी भी हालत में हार नहीं मानने वाला था।
उसने अपनी जेब से फोन निकाला, और एक नंबर डायल किया—अब यह बात सिर्फ़ उनके परिवार और पैसों की नहीं रही थी। यह उनका अस्तित्व, उनका सब कुछ था, और वो किसी भी हालत में इसे गंवाने के लिए तैयार नहीं थे।
इसे यहीं ठीक करना होगा….दिग्विजय का चेहरा बेजान था, मगर उसकी आँखों में एक ठंडी और कड़ी निर्णायकता थी।
"एक डॉक्टरों की टीम बुलाओ… लेकिन भरोसेमंद।" उसकी आवाज़ में कोई हलचल नहीं थी, बस आदेश था।
उसने गौरवी की ओर देखा और फिर अपनी आँखें मीरा पर टिका दीं, जो अब भी आरव के पास बैठी थी, उसकी नब्ज़ थामे हुए।
“डॉक्टर ऐसे होने चाहिए जो अपना मुंह बंद रखना जानते हों… और जान बचाने की कीमत भी जानते हों।”
गौरवी का चेहरा सख्त था, लेकिन उसकी आँखों में डर की एक हलकी सी झलक थी।
यह अब सिर्फ आरव की जान नहीं थी... यह उनका पूरा साम्राज्य था, उनकी साज़िशों का हर एक कदम, उनकी पूरी धरोहर और हर एक रहस्य। आरव को हवेली के भीतर एक गुप्त कमरे में ले जाया गया। यह कमरा हवेली के अंदर एक छिपा हुआ, सर्द और गहरा स्थान था, जहाँ कोई बाहर से नहीं आ सकता था।
डॉक्टरों की टीम ने उसे बड़े आराम से उस operation table पर रखा, और फिर सर्जरी शुरू कर दी। 16 घंटे तक लगातार, डॉक्टरों ने आरव की हालत पर काम किया। हर एक डॉक्टर की आँखों में चिंता थी, लेकिन वे एक दूसरे से चुपचाप संकेत कर रहे थे, ताकि कोई भी आवाज़ बाहर न निकल सके।
सर्जरी के दौरान, हवा में गहरी चुप्पी थी।
16 घंटे बाद…आरव की साँसें अब सामान्य हो गई थीं, मगर वह अभी तक होश में नहीं आया था। गौरवी और दिग्विजय कमरे में खड़े थे, और हवेली के हर कोने में घना सन्नाटा छा गया था।
"हवेली का ये हिस्सा... मौत के साये में ढाका हुआ लगता है," दिग्विजय ने धीरे से कहा, और उसकी आवाज़ में एक घबराहट छिपी हुई थी, जिसे वह छिपा नहीं सका।
आरव की साँसों की धीमी आवाज़ ने थोड़ी राहत दी। वह मरा नहीं था, लेकिन उसका होश में आना अब एक सवाल बन गया था।
क्या वह वापस आएगा? और अगर हाँ, तो क्या सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा?
हवेली के बड़े दरवाजे पर एक कड़क आवाज़ हुई। रणवीर वापस लौट आया था….उसके चेहरे पर गहरी आक्रोश की लकीरें थीं, और उसकी आँखों में जैसे ज्वाला जल रही थी—ग़ुस्सा, जो अब तक उसके भीतर धधक रहा था, वह बाहर फूट पड़ा। वह तेज़ कदमों से हवेली में दाखिल हुआ, और बिना किसी रुकावट के सीधे मीरा की ओर बढ़ा।
उसका गुस्सा इतना तीव्र था कि जैसे ही वह मीरा के पास पहुंचा, उसने बिना कोई शब्द कहे, उसका गला पकड़ लिया। रणवीर ने पूरी ताकत लगाकर मीरा को हवा में उठा लिया। उसकी तनी हुई मांसपेशियों से प्रतीत हो रहा था जैसे वह किसी भी कीमत पर जवाब चाहता था।
मीरा के पैरों ने ज़मीन को छोड़ दिया था, और वह हवा में लटकती जा रही थी। उसकी आँखें भरी हुई थीं, साँसें अटक रही थीं, और चेहरे पर चौंकाने वाली घबराहट थी। उसकी पूरी दुनिया पल भर में घूम चुकी थी।
"सच बता… तूने जानबूझकर उन्हें भागने दिया ना?" रणवीर की आवाज़ में गुस्से का तूफान था। वह मीरा को कसकर पकड़कर और भी ऊँचा उठाता गया, और उसकी आवाज़ में शत्रुता थी, जैसे हर एक शब्द एक वार हो।
“कैसे बच निकले वो? तुझे बस यूँ ही तहखाने में बंद कर दिया गया? ना रस्सी, ना हथकड़ी… कुछ भी नहीं?”
मीरा की आँखों में आँसू थे, लेकिन जुबान पर कोई आवाज़ नहीं आई। उसकी हालत जैसे अपार भय और अपराध बोध से आतंकित थी। गौरवी, जो इस दृश्य से भयंकर रूप से प्रभावित हो रही थी, तेजी से आगे बढ़ी और रणवीर का हाथ छुड़ाने लगी।
"बस करो रणवीर!" गौरवी ने चिल्लाते हुए कहा, उसकी आवाज़ में ऐतराज़ और परेशानी थी, लेकिन रणवीर की आँखों में गुस्सा इस हद तक बढ़ चुका था कि वह कुछ सुनने को तैयार नहीं था। मगर गौरवी ने मीरा की गर्दन पर उसकी पकड़ को हल्का कर दिया।
मीरा धब से ज़मीन पर गिरी, वह हाँफते हुए और कांपते हाथों से पानी की गुहार लगाने लगी, जैसे वह जीवन के लिए संघर्ष कर रही हो। गौरवी ने उसे पानी दिया, और साथ ही मीरा की चालाकी भी लौट आई। पानी पीते हुए, मीरा ने धीरे से अपनी बात शुरू की— "ब… बंदूक थी उनके पास," मीरा की आवाज़ अब नर्म और भावनात्मक थी, जैसे उसने अपनी पूरी ताकत उस पल को शांत करने में लगा दी हो।
“उन्होंने मेरी कनपटी पर रख दी थी। बोले—हिले तो गोली मार देंगे।”
रणवीर की आँखें और भी सिकुड़ गईं। उसे अब भी पूरी तरह से मीरा के शब्दों पर यकीन नहीं था।
"अगर बंदूक थी, तो चलाई क्यों नहीं?" रणवीर ने कठोर स्वर में सवाल किया।
“उनका पीछा किया गया, उन पर गोलियां चली, तो उन्होंने बंदूक चलाई क्यों नहीं?” रणवीर लगभग गुरराते हुए बोला।
मीरा ने अपनी साँसें धीरे-धीरे नियंत्रित कीं, और फिर बहुत हलके स्वर में बोली— “शायद... शायद उनकी इंसानियत तब भी ज़िंदा थी।”
मीरा की आवाज़ अब और भी नरम हो गई, जैसे वह खुद को अपनी बातों पर विश्वास दिलाने की कोशिश कर रही हो। “आप तो जानते हैं ना, ये लोग सच्चाई की राह पर चलते हैं… इनका दिल पत्थर नहीं।”
रणवीर की आँखों में एक ठंडी लहर दौड़ी। मीरा की बातों में भी एक सच्चाई थी, लेकिन क्या वह इतना समझने के लिए तैयार था? उसने गहरी साँस ली और मीरा को अपने सामने खड़े होने को कहा।
"इनकी सच्चाई या इंसानियत का मुद्दा हम बाद में सुलझाएंगे," रणवीर ने ठंडे स्वर में कहा, “मुझे यह जानना है कि आखिर तुमने उन्हें कैसे जाने दिया?”
मीरा की आँखों में एक शांति थी, लेकिन उसका चेहरा अब भी डर से बेजान था। मीरा ने आज अपनी अदाकारी का पूरा फायदा उठाया।
मीरा ने धीरे-धीरे अपनी आँखें उठाईं, जैसे उसने किसी मासूमियत की चाशनी में डूबकर अपने शब्दों को तैयार किया हो। उसकी आवाज़ में एक विशेष तरह का नयापन था—नर्म, सरल, और बेहद मासूम।
"मैं क्या कर सकती थी, रणवीर सर?" उसने आवाज़ को हल्का सा ऊंचा किया, मानो वह पूरी तरह से असहाय और मजबूर हो।
रणवीर की आँखों में अभी भी शक की लकीरें थीं। वह हर शब्द को ध्यान से सुन रहा था, उसके भीतर संदेह की एक कड़ी डोरी खिंची हुई थी। लेकिन इस बार गौरवी ने बेतहाशा बीच में कूदते हुए कहा, "ये झूठ नहीं बोल रही, मैं जानती हूँ इसे" गौरवी की आवाज़ साफ़ थी।
"ये सिर्फ़ पैसों की भूखी थी….डरपोक है ये, बंदूक देखकर डर गई होगी।" गौरवी के शब्द जैसे मीरा के दिल पर तीर बनकर लगे। उसकी छाती में एक तेज़ चुभन महसूस हुई, जैसे यह हकीकत उसे थप्पड़ की तरह लग रही हो।
लेकिन मीरा के भीतर एक गहरी शांति थी। उसने धीरे से खुद से कहा, “अब और नहीं…”
वो समझ चुकी थी कि अब वो, वह मीरा नहीं रही, जो पहले पैसे देख कर बिछ जाया करती थी। उसका आत्मविश्वास और उसकी चालाकी अब कहीं अधिक गहरी और मजबूत हो चुकी थी। आज उसमें इंसानियत ने घर कर लिया था। वो इन हैवानों की तरह नहीं थी।
अब वह अपने असली खेल की तैयारी में जुटी हुई थी। मीरा ने मन ही मन एक योजना बनाई—इस बार वह अपनी अदाकारी को एक नए स्तर तक ले गई। उसका उद्देश्य अब केवल बचने का नहीं था, बल्कि उनके बीच रहकर उन्हें दीमक की तरह खा जाने का था।
"जब सुहानी लौटेगी…" मीरा ने खुद से कहा, उसकी आँखों में एक अदृश्य चमक थी। “मैं उसका सामना करने के लिए तैयार रहूंगी। लेकिन इस बार मैं उसकी दुश्मन नहीं बनूंगी… बल्कि उसकी परछाई बनकर इस हवेली को भीतर से खा जाऊंगी।”
उसकी योजना अब सुहानी, आरव का हथियार बनने की थी, जो धीरे-धीरे अपने दुश्मनों को खुद में समाहित कर ले। और यही मीरा की नई चाल थी—अब वह किसी को मालूम नहीं होने देगी कि वो सुहानी और आरव से मिली हुई हैं, बल्कि सबके बीच में घुलकर अपनी जड़े मजबूत करेगी।
वह जानती थी कि आरव की निगरानी का बहाना बनाकर वह हवेली में बनी रह सकती है। और वह हर एक राज़, हर एक गहरी बात, धीरे-धीरे इस हवेली के भीतर से बाहर निकालेगी।
मीरा की नज़र अब राठौर हवेली के हर शख्स पर थी। वह हर चेहरे को बार-बार देखती, उसकी आँखों में सबका हिसाब था।
"हर राज़ धीरे-धीरे सबके सामने खुलेंगे," मीरा ने मन ही मन सोचा। उसकी आँखों में अब एक ठंडी, गहरी साजिश की झलक थी।
सभी की आदतें, कमजोरी, और डर से वो वाकिफ थी। मीरा—अब इस खेल में एक घातक हथियार ठगी, मगर इस बार उसने इंसानियत को चुना था।
क्या रणवीर को मीरा के झूठ पर यकीन होगा?
सुहानी कैसे लौटेगी राठौर हवेली के अंदर?
आरव की जान बच पायेगी और अगर बची तो क्या होगा उसका अगला कदम?
आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, ‘रिश्तों का क़र्ज़।’
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