लेकिन फिर…फैसला तो हो चुका था। और जब शादी हुई — उसके चेहरे की वो मुस्कान जैसे हमेशा के लिए बुझ गई थी। अब जब अतीत की तस्वीरें आरव की आँखों में उभर रही थीं, तो हर मुस्कान एक सिसकी बन गई थी, हर झूला बेड़ियाँ…हर हँसी, उसके अपने गुनाह की गूंज।

आरव की साँसे भारी हो गई थीं। उसकी आत्मा उसे माफ़ नहीं कर पा रही थी। कभी वो खुद को घरवालों का साज़िश का शिकार मानता था, तो कभी खुद को ही जल्लाद।

“मैंने उसकी ज़िंदगी उससे छीन ली…”

वो बुदबुदाया — “सिर्फ़ इसलिए, क्योंकि मैं चुप रहा… क्योंकि मैंने इंकार करना बंद कर दिया…”

ये पूरा फ्लैशबैक आरव की आँखों के सामने ऐसे कौंधा…जैसे वो बीता हुआ कल नहीं, बल्कि आज का जीवंत सच हो। हर शब्द, हर चेहरा, हर खामोशी…जैसे अभी उसी कमरे में घट रही हो। सुहानी की मुस्कान…उसका मासूम चेहरा…फिर वो शादी का दिन…और फिर— मीरा की वो साज़िशी बातें।

आरव के भीतर कुछ टूट गया था। एक फौलादी परत, जो बरसों से उसके मन पर चढ़ा दी गई थी — भरोसे की, नफरत की, सच और झूठ की जाली परत। और अब…मीरा के सामने खड़ा आरव, उसे देख रहा था, जैसे वो कोई अजनबी हो…नहीं, कोई दुश्मन। मीरा उसके कंधे पर हाथ रख कर उसे सँभालने की कोशिश कर रही थी। 

मगर अगले ही पल, आरव ने उसके हाथ को एक झटके से खुद से दूर झटक दिया, जैसे उसका छूना अब उसे जलाने लगा हो।

“मुझ से दूर रहो… तुम…” उसकी आवाज़ में ना चीख थी, ना ठंडक — बल्कि वो दाँतों के बीच से निकली हुई एक ऐसी आग थी, जो मीरा की आत्मा को भी जला सकती थी। उसका सिर अब भी दर्द से फटा जा रहा था, मगर उस दर्द से ज़्यादा तेज़ उसकी आत्मा में उठ रही नफ़रत की लपटें थीं।

मीरा कुछ पल के लिए स्तब्ध खड़ी रह गई। उसे पहली बार आरव की आँखों में वो नफ़रत दिखी, जो उसने कभी किसी और के लिए नहीं देखी थी, मगर आज… वो उसी के लिए ये नफरत उजागर हुई थी।

आरव ने एक कदम पीछे हटते हुए कहा, "तुम्हारी साजिशों ने मुझे अंधा कर दिया था मीरा… पर अब… अब और नहीं।"

मगर आरव…अभी तक पूरा खेल समझ ही कहाँ पाया था। उसके सामने कुछ टुकड़े बिखर चुके थे, मगर उस जाल की पूरी तस्वीर — जो सालों से उसके चारों ओर बुना गया था — अब भी अधूरी थी।

मीरा जानती थी कि अब जो समय आ रहा है, वो सिर्फ़ सच का नहीं, नफ़रत का भी होगा। और उस नफ़रत में, वो खुद भी जलने वाली थी। आरव की आँखों में जो बदलाव था, जो अनदेखा तूफ़ान उमड़ पड़ा था, वो धीरे-धीरे मीरा की ओर बढ़ रहा था।

उसे एहसास था — एक बार आरव को सब कुछ याद आ जाएगा, जब सच उसकी आँखों से परदा हटा देगा, तो वो मीरा को भी उसी झूठ की ज़िम्मेदार मानेगा, जिसने उसकी ज़िंदगी को छलनी कर दिया। और वो ये भी जानती थी कि उस दिन आरव की आँखों में प्यार का एक कतरा भी नहीं बचेगा। बस… एक नफ़रत होगी….निर्मम, ठंडी, स्थायी।

मगर मीरा अब इसके लिए भी तैयार थी। उसने खुद को इस दिन के लिए बहुत पहले से मानसिक रूप से तोड़ना शुरू कर दिया था। उसने अपना दर्द अपने झूठ के नीचे दबा दिया था, अपनी बेबसी को चुप्पियों में बंद कर दिया था। क्योंकि वो जानती थी — जब ये तूफ़ान उठेगा, तो वो भी उसकी चपेट में आएगी और शायद, बर्बाद हो जाएगी।

यही उसकी सज़ा थी…और अब, वो इस सज़ा से भागना नहीं चाहती थी। मगर उस पल में आरव को संभालना बहुत ज़रूरी था। उसकी साँसें अनियमित हो चुकी थीं, चेहरा पसीने से तरबतर हो गया था, और माथे की नसें जैसे फट पड़ने को तैयार थीं। उसका शरीर काँप रहा था, और उसकी आँखें — जैसे किसी अंधेरे में डूबती जा रही थीं।

मीरा जानती थी कि आरव के लिए दवाई लेना अभी सबसे ज़रूरी था। मगर अब…आरव मीरा के हाथों से दवा नहीं लेता, वो अब उस पर विश्वास नहीं करता। उसका छूना तक उसे असहज कर दे रहा था, वो उसे अब एक धोखा समझ चुका था। ऐसे में मीरा के लिए एक-एक पल काँटों की तरह चुभ रहा था।

वो चाहती थी सुहानी को कॉल करे — क्योंकि इस वक़्त सिर्फ़ वही आरव को संभाल सकती थी। सुहानी की उपस्थिति, उसकी आवाज़, उसकी मासूम मगर साहसी आँखें — शायद वही इस लड़खड़ाते इंसान को वापस ज़िन्दगी की ओर खींच सकती थीं।

अगर उसने सुहानी को कॉल किया, तो फिर…पूरे घर की नज़र उन पर पड़ सकती थी। गौरवी…दिग्विजय…और सब से ख़तरनाक, इस खेल का मास्टरमाइंड — रणवीर राठौर। इन तीनों में से कोई भी अगर आ गया, और आरव — इस हालत में कुछ अनजाने में बोल गया, तो ये सिर्फ़ आरव के लिए नहीं, सुहानी के लिए भी जानलेवा हो सकता था।

मीरा का दिल जैसे हथौड़े की तरह धड़क रहा था। वो समझ गई थी — अब गलती की कोई गुंजाइश नहीं थी। उसे किसी भी हाल में आरव को इस हालत से वापस निकलना होगा, बिना किसी आवाज़ के, बिना किसी की नज़र में आए। क्योंकि यहाँ सिर्फ़ आरव की हालत नहीं बिगड़ रही थी…यहाँ दो जानें दांव पर थीं — आरव और सुहानी की।

मीरा ने तुरंत ही अपना फोन निकाला। उसके हाथ काँप रहे थे, मगर उस ने जैसे-तैसे विक्रम का नंबर खोला और जल्दी से एक मैसेज टाइप किया, “उसे बोलो कि मेरे कमरे में जल्दी आए, it’s urgent. No questions. Just send her.”

वो जानती थी, विक्रम समझ जाएगा कि "वो" कौन है….सुहानी। जिसकी अभी इस वक़्त आरव को सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। बिना किसी शोर के, बिना किसी शक के — वही अकेली आरव को बचा सकती थी।

मैसेज भेजते ही मीरा ने गहरी साँस ली, और काँपते क़दमों से फिर से आरव की ओर बढ़ी। आरव ज़मीन पर बैठ चुका था, पीठ दीवार से लगी हुई, उसके दोनों हाथ अब भी सिर के दोनों तरफ़ जकड़े हुए थे, जैसे वो दर्द को इन हथेलियों के बीच ही कैद कर देना चाहता हो। उसका चेहरा — सुनहरा नहीं, स्याह हो चला था। साँसें तेज़ थीं, और आँखें जैसे किसी और ही दुनिया में भटक रही थीं।

उसने धीरे से आगे बढ़ने की कोशिश की — "आरव..." उसकी आवाज़ काँपी। मगर आरव ने, सिर दर्द से फटा जा रहा था फिर भी, उसके पास आने से मना कर दिया। उसने एक हाथ आगे बढ़ा दिया, जैसे कोई दिवार खींच रहा हो मीरा और अपने बीच।

“दूर रहो... मत छुओ मुझे।” उसकी आवाज़ टूटी हुई थी, मगर आदेश जैसा स्पष्ट।

मीरा एक पल को वहीं ठिठक गई। उसका दिल, उसका भय, उसका अपराधबोध — सब एक साथ उसे भीतर से खा रहे थे। मगर फिर भी, वो वहीं खड़ी रही — क्योंकि वो जानती थी कि अब बस कुछ ही क्षणों की बात है, जब सुहानी वहाँ होगी... और फिर सब सँभाल लेगी। मीरा की आँखें आरव की हालत देख कर और भी डबडबा गईं। वो जानती थी कि आरव उस पर अब कभी भी यकीन नहीं करेगा, पर आज जो उसके सामने था — वो कोई रौबदार राठौर नहीं, बल्कि एक टूटा हुआ दोस्त, एक उलझा हुआ इंसान था जो अपने दर्द से लड़ रहा था।

मीरा ने अपने आँसू निगले, फिर धीमे और काँपती आवाज़ में बोली — “ठीक है... मैं तुम्हारे पास नहीं आउंगी...”

उसने खुद को पीछे खींचते हुए कहा, “मगर तुम प्लीज एक बार बैठ जाओ आरव... इस तरह से खड़े रहोगे तो गिर जाओगे... चोट लग जाएगी...”

उसकी आवाज़ में नर्मी थी, पर दर्द भी। उसकी चिंता सच्ची थी…जो भी हो — उसने आरव को एक दोस्त की तरह चाहा था। मगर आरव की आँखों में अब उसके लिए सिर्फ़ झूठ का साया था।

“चुप हो जा... ओ...” आरव की आवाज़ भर्रा गई, उसकी आँखें जल रही थीं, उसकी साँसों की गति और तेज हो गई थी।

"तुम्हारी आवाज़ भी मुझ से बर्दाश्त नहीं हो रही…चुप हो जाओ... दूर चली जाओ मुझ से..." उसके होंठ काँप रहे थे, और शब्द जैसे किसी ज़ख़्म की तरह बाहर आ रहे थे। वो दीवार की ओर झुक गया, अपना सिर एक हाथ से पकड़े हुए, दूसरे हाथ से जैसे किसी अदृश्य जाल को परे धकेलने की कोशिश कर रहा था।

मीरा वहीं खड़ी रही। उसके पाँव जैसे ज़मीन में धँस गए थे, दिल में टीस थी, मगर आवाज़ नहीं। कमरे में चुप्पी फैल गई — बस आरव की टूटती हुई साँसें, और मीरा की बेजान ख़ामोशी। कमरे में घुटती हुई खामोशी को दरवाज़े के ज़ोरदार खुलने की आवाज़ ने तोड़ा।

“धड़ाम!” दरवाज़ा तेजी से खुला और सुहानी और विक्रम हड़बड़ाते हुए कमरे में दाखिल हुए। सुहानी की नज़रें जैसे ही आरव पर पड़ी — उसके चेहरे का रंग उड़ गया। आरव ज़मीन पर लगभग लड़खड़ाता हुआ बैठा था, चेहरे पर दर्द, माथे पर शिकन, और आंखों में ग़ुस्से और टूटन की मिली-जुली परछाई।

वो बिना कुछ कहे, झटके से उसके सामने घुटनों के बल बैठ गई। उसके हाथ काँप रहे थे, मगर उसकी आँखों में सिर्फ़ फिक्र और ममता थी। उधर विक्रम, आरव की हालत देख कर पल भर को सन्न रह गया। वो समझ गया था कि हालात सामान्य नहीं हैं।

उसकी आवाज़ धीमी थी लेकिन सख्त, “मैं बाहर जाकर नज़र रखता हूं... कोई इधर आ तो नहीं रहा...”

मीरा, जो अब तक एक कोने में ख़ामोश खड़ी थी, उसने एक नज़र सुहानी और आरव पर डाली….फिर खुद को समेटते हुए धीमे से बोली — “मैं भी चलती हूं तुम्हारे साथ...”

उसे अब समझ आ चुका था, उसकी उपस्थिति अब सिर्फ एक बोझ बन चुकी है। वो कुछ कहे बिना विक्रम के साथ बाहर निकल गई। उन दोनों के कदम कमरे से बाहर जाते वक़्त जैसे एक अधूरी कहानी की गूँज छोड़ गए।

कमरे में अब सिर्फ़ एक टूटा हुआ आरव, और उसके सामने बैठी एक डरी हुई, मगर मज़बूत, सुहानी थी। सुहानी ने बहुत धीरे से, बहुत ही कोमलता से अपने हाथ आरव के पैरों पर रखे। उसके स्पर्श में डर नहीं था, बस बेहद गहरा अपनापन था।

और फिर उसी नरम लेकिन स्थिर आवाज़ में उस का नाम पुकारा, “आरव?”

उस एक शब्द में पूछना भी था, पुकारना भी — जैसे कह रही हो, “मैं यहीं हूं, आप के पास... आप टूटने मत देना खुद को...” सुहानी की आवाज़ जैसे ही आरव के कानों में पड़ी — एक पल को जैसे वक़्त थम सा गया। उसकी मखमली, कांपती हुई आवाज़, और उसके हाथों का नर्म, गर्म स्पर्श जब आरव ने अपने पैरों पर महसूस किया…तो मानो किसी अंधेरे में फंसे इंसान को एक हल्की सी रोशनी की किरण मिल गई हो।

बिना कुछ कहे, आरव ने भी अपने काँपते हुए हाथ धीरे से सुहानी के हाथों पर रख दिए। उसके अंदर चल रहा तूफान थोड़ी देर के लिए थम गया। उसका चेहरा अब भी दर्द से सिकुड़ा हुआ था, मगर आँखों में एक अजनबी सी राहत थी उस के।

कुछ पल वो बस उसके हाथों को थामे बैठा रहा। जैसे अपने टूटते हुए वजूद को सुहानी की हथेलियों की गर्मी से जोड़ना चाहता हो। और फिर — अचानक जैसे कोई बाँध टूट गया हो, आरव ने उसे एक झटके में अपनी ओर खींच लिया।

सुहानी उसकी बाहों में समा गई। उसकी साँसें तेज़ चलने लगी थीं, और उसकी आँखें आश्चर्य से फैली हुईं थी। उसे खुद समझ नहीं आया, कि ये वही आरव है — जो अभी कुछ पल पहले किसी को अपने पास भटकने भी नहीं दे रहा था। मगर अब…वो खुद उसे अपनी बाहों में कस कर थामे बैठा था।

जैसे कह रहा हो, “मैं टूट रहा हूं... मगर सिर्फ़ तुम मुझे जोड़ सकती हो।”

सुहानी का दिल ज़ोरों से धड़क रहा था। वो स्तब्ध थी, मगर उसके हाथ धीरे-धीरे ऊपर उठे, और फिर उसने भी आरव की पीठ पर अपने हाथ रख दिए। उसके स्पर्श में कोई सवाल नहीं था — सिर्फ़ अपनापन, और एक चुप सा सुकून था।

 

आगे की कहानी जानने के लिए, पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।

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