“मुझे माफ़ कर दो सुहानी, प्लीज़...” आरव की आवाज़ भर्राई हुई थी, उसके शब्द कांप रहे थे, और उन शब्दों में एक टूटे हुए इंसान की गहराई से उठती पछतावे की सच्चाई थी।
“मुझ से बहुत बड़ा पाप हो गया...” वो बोलते-बोलते सुबकने लगा, “मैंने तुम्हारे साथ कितना कुछ ग़लत किया। मुझे प्लीज़ माफ़ कर दो।”
सुहानी, अब भी उसकी बाँहों में थी, उसका दिल ज़ोरों से धड़कने लगा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अभी-अभी इतना ठोस, सख़्त और ग़ुस्सैल इंसान अचानक इतने बिखरते शब्दों में कैसे बदल गया। आरव का चेहरा अब सुहानी के कंधे पर था, और उसके आँसू उसकी सलवार पर गिर रहे थे। सुहानी की आँखें हैरानी से बड़ी होती जा रही थीं।
“ये क्या कह रहे हैं आरव...? माफ़ी...? और पाप?” उसके भीतर कहीं एक दबी हुई टीस फिर से जाग गई — वो सारे सवाल, वो सारे ज़ख़्म जो उसने हँसते हुए छुपा रखे थे। मगर उस वक़्त… उसके सामने जो आरव था — वो वही आदमी नहीं था जो उसे बिना बताए, बिना समझे, एक सौदे की तरह इस रिश्ते में बाँध लाया था।
ये आरव... टूटा हुआ था, बिखरा हुआ था और शायद पहली बार सचमुच पश्चाताप कर रहा था। सुहानी की आँखों में नमी उतर आई। मगर उसने बड़ी मुश्किल से ख़ुद को काबू में रखा। उसका गला रुंध चुका था, पर वो जानती थी, अभी कुछ बोलना ठीक नहीं होगा।
उसने सिर्फ़ इतना किया — अपनी हथेली को आरव के सिर पर रखा, धीरे-धीरे उस के बालों में उंगलियाँ फेरते हुए….जैसे किसी बच्चे को संभाल रही हो, उसके दर्द को सहेजना चाहती हो। बिना एक शब्द कहे, वो उसके पछतावे को अपने भीतर समेट रही थी।
कमरे में अब सिर्फ़ आरव की सिसकियाँ और सुहानी की साँसों की गूँज थी। और उन दोनों के बीच — एक नया रिश्ता पछतावे की राख से फिर से जन्म लेने की कोशिश कर रहा था। क्योंकि उस वक़्त सबसे ज़रूरी था — आरव का संभलना। उसका सिर अब भी दर्द से झुका हुआ था, साँसें अनियंत्रित हो रही थीं, और उसकी आँखों में एक डर समाया हुआ था।
सुहानी ने उस की हालत को नज़दीक से महसूस किया — उसकी त्वचा का हल्का कंपन, उसका कांपता हुआ हाथ…और उसकी आँखों में बस एक चीज़ थी — टूटन। उसने अपना एक हाथ उसके कंधे पर मजबूती से टिकाया, जैसे कह रही हो — “मैं हूँ न। आप अकेले नहीं हो।”
फिर वह हल्के से थोड़ा पीछे हटी, और पास रखी दवाइयों की छोटी सी कटोरी को उठाया, जो सुहानी जाने से पहले वहां रख कर गई थी— क्योंकि उसके हाथों से तो आरव ने दवाई ली नहीं थी। लेकिन अब जब सुहानी वहां आ चुकी थी, तो शायद उसके हाँथ से आरव दवाई ले ले। उसने पानी का गिलास उठाया, दवाई की गोली अपनी हथेली पर रखी, और फिर धीमे से आरव के सामने आकर बैठ गई।
“आरव...” उसने उसकी आँखों में देख कर बहुत नर्मी से कहा, “प्लीज़, दवा ले लीजिये। सर का दर्द और बढ़ जाएगा अगर अब टालोगे तो...”
आरव कुछ नहीं बोला, बस उसे कुछ पल देखता रहा — उसके शब्दों में छिपा प्यार, फिक्र, और वो निस्वार्थ अपनापन उसे फिर एक बार भीतर तक छू गया। फिर धीरे से उसने हाथ बढ़ाया, और सुहानी की हथेली से वो गोली ले ली। सुहानी ने उसे गिलास थमाया। आरव ने चुपचाप दवाई ली, और एक बार में पूरा पानी पी गया।
सुहानी ने राहत की साँस ली, मगर उसके चेहरे पर एक भी मुस्कान नहीं आई। वो जानती थी, अभी लड़ाई बाकी थी — दर्द की, सच्चाई की, और अपनेपन की। लेकिन ये पहला क़दम था…शायद healing की तरफ़। और फिर…आरव ने सुहानी को अपनी बाँहों में भर लिया। जैसे उसके दिल से अपने दिल को जोड़ लेना चाहता हो।
जैसे उस एक लम्हे में सारे अधूरे जवाब, सारे खोए हुए पल और सारा टूटा हुआ विश्वास फिर से एक पूरी तस्वीर बनाना चाहता हो। सुहानी की साँसें अनायास रुक सी गई थीं। वो आरव के इस व्यवहार से हैरान थी — इतना भावुक… इतना टूटा हुआ…जैसे अंदर कोई तूफ़ान फूट पड़ा हो उस के।
उसने धीरे से आरव की पीठ पर हाथ फेरा, उसके काँपते कंधों को सहलाते हुए, और बहुत ही कोमल स्वर में पूछा, "आरव… आप मुझ से माफ़ी क्यों माँग रहे हैं? अभी कुछ हुआ है क्या? क्या किसी ने आप से कुछ कहा है क्या?"
आरव की सांसें तेज़ हो चुकी थीं, और उस की बाँहों का सुहानी को अब और तेज़ कस लिया था। जैसे उसे खोने का डर हो उसे। फिर उसने वो शब्द कहे… “मुझे याद आ गया है…”
बस…इतना सुनना था कि सुहानी के हाथ वहीं ठिठक गए…उसकी साँसें जैसे थम सी गईं। उसके चेहरे पर ठहरी हुई शांति में अचानक हलचल सी आ गई — जैसे किसी शांत झील पर तूफ़ान आ गया हो। उसकी आँखें डबडबा गईं थी…न जाने आरव को क्या-क्या याद आ गया था। न जाने अब उसकी नज़रों में अपने लिए क्या बचा होगा।
उसके मन में एक ही सवाल गूंज रहा था — “अब क्या होगा?”
“मुझे याद आ गया है…” आरव ने जैसे ही ये कहा, उसके भीतर एक सैलाब सा टूट पड़ा था। उसका माथा सुहानी के कंधे पर टिका हुआ था, मगर उसकी आँखें अब उस अंधेरे में नहीं भटक रही थीं जहाँ वो सालों से भटक रहा था। अब सब कुछ साफ़ हो रहा था…हर चेहरा, हर बात… हर झूठ… जैसे किसी दागदार शीशे से धूल हट गई हो।
“माँ… ताऊ जी… मीरा… पापा…” वो बुदबुदाया।
उसे याद आया — कैसे एक बच्चे को बार-बार यही बताया गया कि उसके पिता की मौत का जिम्मेदार कोई और नहीं, बल्कि शिव प्रताप है। कैसे उसकी मासूमियत को नफरत में बदलने के लिए, हर बार उसे वो तस्वीर दिखाई गई थी — जहाँ शमशेर राठौर की लाश थी…और साथ में माँ की वो आवाज़ — “तेरे पिता को आत्महत्या के लिए मजबूर किया गया था आरव। उन के कातिल की बेटी है सुहानी।”
हर बार जब वह सवाल करता, तो जवाब नहीं, एक नया घाव मिलता। और फिर वो उन चोटों के सहारे ही बड़ा हो गया। फिर उसे याद आया — कैसे मीरा ने उसे समझाया था कि सुहानी से शादी एक सज़ा है, जो शिव प्रताप के परिवार को भुगतनी चाहिए।
“लेकिन तुम्हें तो कुछ पता भी नहीं था, तुम तो एक मासूम लड़की थी…”
आरव की आँखों से अब आंसू बह रहे थे। फिर उसने सुहानी को बताया, उसे याद आया वो दिन… जब उस ने पहली बार चंडीगढ़ में सुहानी को देखा था — अपने दोस्तों संग, हँसती खिलखिलाती — जैसे ज़िन्दगी में कोई बोझ ही ना हो। उस दिन उसका जन्मदिन था।
"तुम्हारी आँखों में मासूमियत थी…तुम्हारी हँसी में कोई चाल नहीं थी…फिर भी मैं… मैंने तुम्हारी ज़िंदगी बर्बाद कर दी।"
उसे याद आया, कैसे कुछ दिन सुहानी के आँसू भी उस पर असर नहीं करते थे, क्योंकि उसके दिमाग में वर्षों की घृणा का ज़हर भरा गया था।
"मुझे तुम से नफरत करना था, मगर मैं हार गया…”
अब यादें झनझनाने लगीं — मीरा की हँसी, दिग्विजय की आँखों की साज़िश, गौरवी की कठोर बातें, और सब से बढ़कर… रणवीर राठौर का नाम…“वो सब कुछ प्लान था… सब कुछ एक खेल था… और मैं मोहरा…”
अब जब आरव टूट चुका था, तो सुहानी की मनःस्थिति देखना ज़रूरी था — उस पल में, जब उसके सामने हारा हुआ इंसान जिसने उसे दर्द दिया, अब खुद टूट कर बिखर चुका था। सुहानी की मनःस्थिति — सन्नाटे में डूबी भावनाओं की ज्वालामुखी जैसी थी। सुहानी की साँसें थम गई थीं।
आरव के मुँह से निकले सिर्फ चार शब्द…मगर इन चार शब्दों ने सुहानी की रूह तक को हिला दिया। आरव के शब्द — सुहानी के लिए जैसे कोई चाकू के वार जैसे थे, जो धीरे-धीरे उसके सीने में उतरते जा रहे थे।
उसका चेहरा पीला पड़ गया था, उसके हाँथ जो अब तक आरव की पीठ सहला रहे थे, काँपने लगे थे। उसकी आँखों की पुतलियाँ स्थिर हो गई थीं — जैसे सामने खड़ा कोई पहाड़ टूटने वाला हो। वो स्तब्ध थी… उसके शरीर में हर हरकत थम सी गई थी… हाथ वहीं के वहीं रुक गए थे… साँसें गहरे सन्नाटे में खो गई थीं। उसके मन में हजारों सवाल एक साथ गूंजने लगे थे,
क्या उन्हें सब कुछ याद आ गया होगा?
इतना सब कुछ एक साथ?
वो जानती थी — अगर ये सच है, तो आरव… टूट जाएंगे पूरी तरह से। और तभी उसने महसूस किया — आरव की पकड़ उसकी कमर पर कस गई थी। उसका सिर अब सुहानी के कंधे से सरक कर गोद में टिक चुका था। उसकी साँसें अनियमित हो रही थीं — जैसे वो किसी अंधेरी खाई में गिर रहा हो।
“सु… सुहानी…” उसकी आवाज़ काँप रही थी। “मुझे… याद आ रहा है… वो सब कुछ…”
ऐसा लग रहा था जैसे उसकी आँखों में अब कोई एक चेहरा नहीं था — सौ चेहरों की भीड़ थी। उसे याद आ रहा था — कैसे एक आठ साल का मासूम बच्चा रोज़ अपनी माँ के लिए रोता था, और गौरवी, जो उसे "माँ" कहलवाना चाहती थी, हर बार उसकी आँखों में कड़वाहट भर देती थी।
कैसे उसे झूठी कहानियाँ सुनाई गईं — कि गौरवी ही उसकी माँ हैं, कि शिव प्रताप की वजह से ही उसके पिता ने अपनी जान दे दी थी, कि शिव प्रताप ने उसके परिवार को तबाह कर दिया था।
उसे याद आ रहा था वो दिन जिस दिन उसे पता चला था, कि उसकी माँ और उसके भाई का एक्सीडेंट हो गया था, जिस में एक कार में उसकी माँ और जुड़वाँ भाई बैठे थे। मगर किस्मत ने उसे बचा लिया और फिर… उस बच्चे को तैखाने में छुपा दिया गया — ताकि दिग्विजय का बेटा वारिस बन सके।
उसे याद आई — वो सर्द रात, जब दिग्विजय राठौर ने उसे एक पुराने कमरे में ले जाकर एक झूठी कहानी सुनाई थी। कहानी जो सुहानी के ख़िलाफ़ एक ज़हर भरा किस्सा था। उसे याद आया, शमशेर राठौर की असली मौत — जो आत्महत्या नहीं थी….वो एक ‘खेल’ था।
रणवीर, दिग्विजय, गौरवी — सब ने मिल कर उसके साथ खेला था। और फिर उसे याद आया — उसकी शादी… कैसे उसे यकीन दिलाया गया था कि "सुहानी का जीवन बर्बाद कर दो…वो तुम्हारी पिता के हत्यारों की बेटी है…"
आरव काँप रहा था। उसका पूरा शरीर थरथरा रहा था। “मैंने… सब कुछ एक झूठ के लिए किया…” उसकी आवाज़ अब टूट चुकी थी।
"जिस सुहानी ने… सिर्फ मेरी आँखों में अपनापन देखा… उसे मैंने हर बार… सिर्फ दर्द दिया…"
उसका चेहरा अब सुहानी की गोद में था, और आँसू बिना रुके बहे चले जा रहे थे। सुहानी के अंदर एक सुनामी चल रही थी, मगर बाहर से वो शांत बनी रही। क्योंकि अब आरव को किसी सच्चाई से नहीं, किसी सहारे की ज़्यादा ज़रूरत थी।
उसने आरव के बालों में उंगलियाँ फिराईं, उसका सिर सहलाया — जैसे एक माँ अपने बच्चे को बुरे सपने के बाद थामती है। उसके अंदर सवालों का समुंदर था, क्या अब आरव टूट जाएगा? क्या वो खुद से नफ़रत करने लगेगा? क्या वो अब उससे दूर हो जाएगा?
मगर अब ये सब बाद की बातें थीं। अभी सिर्फ एक चीज़ ज़रूरी था — उसे टूटने से रोकना।
“आरव…” उस ने बहुत प्यार से कहा।
“मैं यहीं हूँ। मैं कहीं नहीं जा रही।”
आरव ने धीरे-धीरे अपनी भीगी पलकें ऊपर कीं, और सुहानी की आँखों में देखा। वो आँखें — जिन्हें उसने वर्षों तक नज़रअंदाज़ किया था, आज उन्हीं में उसे माफ़ी, अपनापन, और उम्मीद नज़र आ रही थी। मगर अगले ही पल — सुहानी ने आरव के चेहरे पर आँसू देखे… वो पश्चाताप… वो टूटन…जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा था।
अब सुहानी की आँखें भी नम हो चुकी थीं। मगर उस ने खुद को सँभाला, क्योंकि अभी आरव को उसकी ज़रूरत थी। उसके मन में एक अजीब सी खामोशी थी, जैसे वो खुद को कह रही हो — “अब हम दोनों को सिर्फ एक दूसरे का साथ देना है।"
उसके अंदर की औरत अभी टूटी नहीं थी, मगर एक बार फिर तैयार थी — उस टूटे हुए पति को थामने के लिए,जिस ने कभी उसे अपना दुश्मन मान लिया था।
आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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