“मुझे जीने का हक़ नहीं…” — एक टूटे मन का विलाप और प्रेम की सब से पवित्र अभिव्यक्ति। आरव अब पूरी तरह सुहानी के सीने से लगा हुआ था —एक योद्धा, जो आज पहली बार इस तरह से टूटा था।
“मैं भी उन लोगों की तरह ही एक राक्षस बन गया था सुहानी…” उसकी आवाज़ काँप रही थी, गला भर आया था।
"मैंने… तुम्हें हर पल सज़ा दी… उस जुर्म के लिए… जो तुमने कभी किया ही नहीं था…"
सुहानी बस उस की बात सुन रही थी — आरव की हर बात उस की रूह को चीर रही थी।
"मैंने तुम से नफ़रत की…और तुम ने मुझे भरोसा दिया, "मैंने तुम्हारी आँखों में आँसू दिए… और तुम ने मेरी आँखों में प्यार देखा। क्यों किया तुम ने ऐसा? क्यों तुम ने मुझे नहीं छोड़ा?”
अब वो खुद पे चीख रहा था, "मैंने तुम से… हर वो बात कही…जो तुम्हारे दिल को तोड़ सकती थी, मैंने तुम से शादी की ताकि तुम्हें बर्बाद कर सकूँ। तुम मेरी ज़िंदगी का बदला थी…पर तूम… मेरी ज़िंदगी बन गई। मुझे जीने का हक़ नहीं है, सुहानी… नहीं है…”
और तभी उसने खुद को एक ज़ोर का थप्पड़ मारा इतनी ज़ोर से कि सुहानी चीख पड़ी, “आरव!!! मत करो ये!! प्लीज!!” उसने झट से उसका हाथ पकड़ लिया और अपने हाथों में बाँध लिया।
“मत कहो ऐसा… मत सोचो ऐसा…जो आरव आज मेरे सामने है…वो वो नहीं है, जिसने मुझे दुख दिए हैं। सच कहूं तो तुम कभी भी ऐसा नहीं करना चाहते थे। तुम्हें बस मजबूर किया गया था। और ये आरव… तो वो है…जो अपने हर गुनाह को समझ रहा है, जो अपने हर झूठ को स्वीकार कर रहा है।और जो इंसान सच्चाई के आगे झुक जाए…वो राक्षस नहीं होता, आरव…वो एक अच्छा इंसान होता है… क्योंकि इंसानियत ही रो सकती है… जैसे तुम रो रहे हो।
आरव सुबक रहा था। अब वो खुद को रोक नहीं पा रहा था। सुहानी ने उसे अपने गले से फिर से लगा लिया। इस बार वो आरव का सिर अपने सीने से लगाए, धीरे-धीरे उसके बालों में उंगलियाँ फेरती रही।
“तुम्हें जीने का हक़ सब से ज़्यादा है, आरव…क्योंकि तुम ने अपनी सच्चाई को पहचाना है और उस पर शर्मिंदगी जताई है, ये सब से बड़ी बहादुरी होती है। मैं यहीं हूँ, आरव तुम्हारे साथ, जब तक तुम खुद को माफ़ नहीं कर लेते…मैं तुम्हें हर बार माफ़ करती रहूँगी।"
आरव ने पहली बार सुहानी को इस तरह देखा — जैसे वो कोई इंसान नहीं, एक रोशनी हो। जिसने उसे अंधेरे से खींच कर बाहर निकाला था। सुबह की किरणें पर्दों के पीछे से झाँक रही थीं, मगर कमरे के भीतर एक और उजाला हो चुका था — आरव के मन का अंधेरा पहली बार कुछ हल्का हुआ था।
सुहानी अभी भी उसके पास बैठी थी। उसने रात भर उसे एक पल के लिए अकेला नहीं छोड़ा। आरव ने करवट ली और सुहानी की तरफ देखा। सुहानी की आँखें नींद से भरी थीं, मगर वो जागती रही।
उसने मुस्कुरा कर कहा — “अब बेहतर लग रहा है?”
आरव ने उसकी आँखों में देखा और सिर हिलाया। “हाँ… क्योंकि अब मैं जानता हूँ… कि मैं अकेला नहीं हूँ।”
फिर वह धीरे से उठा। अब उसके चेहरे पर थकान नहीं थी, बल्कि एक दृढ़ निश्चय था। उसने हल्के से सुहानी का चेहरा अपने हाथों के बीच लिया और बड़े प्यार से कहा।
"मुझे अब डर नहीं लग रहा सुहानी क्योंकि अब मैं जानता हूँ जो कुछ भी हुआ, वो मेरी गलती नहीं थी। मगर जो मैंने तुम्हारे साथ किया…वो मेरा पाप था। और मैं उसे मिटाना चाहता हूँ — अपने प्यार से, अपने सच्चे इरादों से…अगर तुम मेरे साथ हो तो…"
सुहानी की आँखों में आँसू आ गए — मगर इन आँसुओं में कोई दुःख नहीं था। यह सुकून था… उम्मीद थी।
"मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ आरव…हर सच, हर मोड़, हर चोट के साथ।"
उसकी बात सुन कर आरव ने उसका माथा चूम लिया। फिर सुहानी के कहने पर वो रेडी होने के लिए अपने कमरे में चला गया, सुहानी भी अपने कमरे में वापस आ गई थी। वो भी तैयार होकर, अपने बिस्तर पर बैठी हुई थी, और आरव का वेट कर रही थी। उसे नीचे जाने से पहले, आरव से कुछ बातें करनी थीं।
कमरे में धीमी सूरज की रोशनी फर्श पर रेंग रही थी। सुहानी अब खिड़की के पास खड़ी थी, उसकी नज़रें उस चेहरे पर थीं जिसे देख कर अब डर नहीं, बल्कि उम्मीद महसूस होती थी। आरव अब थोड़ी देर पहले की तरह बेचैन नहीं था। वो अपने सूट में सुहानी के बिस्तर पर बैठा था, पीठ तकिये से टिकाए, और उसकी आँखों में कुछ बदला-बदला सा था….शायद वो हल्कापन, जो बरसों के बोझ के बाद पहली बार महसूस हुआ था।
सुहानी पास आई…आरव ने उसका हाथ थामा, और फिर धीरे से उसके माथे को एक बार फिर से चूम लिया। जैसे कहना चाहता हो — "अब तुम ही मेरी दुनिया हो।”
उस ने बहुत सादगी से पूछा — “आज तुम क्या करना चाहती हो, सुहानी?”
सुहानी कुछ देर चुप रही। फिर मुस्कुरा कर बोली, “आज… हमें वो करना है जो सबसे ज़रूरी है — सच को छुपाना।”
आरव थोड़ा चौंक गया। “मतलब?”
"मतलब ये," सुहानी ने गम्भीरता से कहा, “अभी राठौरों को पता नहीं चलना चाहिए कि आप की याददाश्त वापस लौट आई है।”
आरव को पहली बार यह एहसास हुआ कि जिस खेल में वो मोहरा बना था, अब उस में चालें वो और सुहानी चलने वाले थे — पर पूरे होश में।
"और मीरा और विक्रम?" उसने पूछा।
"हमारे साथ हैं," सुहानी ने जवाब दिया, "और बहुत चतुराई से हमारे लिए हर मोड़ पर जाल बुन रहे हैं। मीरा ने गौरवी को भरोसे में ले लिया है — और विक्रम, रणवीर का वफादार बनने का नाटक बखूबी निभा रहा है। पर एक गलती… और सब कुछ टूट सकता है।"
आरव ने उसकी ओर देखा — उसकी आवाज़ में चिंता थी, लेकिन चेहरा शांत था।
“तुम ये सब… अकेले झेल रही थी?” उसके स्वर में अपराधबोध था।
"हाँ," सुहानी ने हौले से कहा, “क्योंकि मेरे पास कोई चारा नहीं था। तुम्हारी हालत… तुम्हारी नफ़रत… और वो सब सच्चाई जो एक-एक कर खुलती जा रही थी…”
"आरव," उसने धीरे से उसका हाथ थामा, "अब जब तुम सच में मेरे साथ हो, तो कुछ बातें हैं जो मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ। पर उसके लिए तुम्हें और मज़बूत होना पड़ेगा। मैं नहीं चाहती कि तुम फिर से बिखर जाओ।"
आरव ने उसकी आँखों में देखा — उस में डर नहीं, बल्कि दृढ़ विश्वास था।
“मैं तैयार हूँ, सुहानी। अब मैं टूटूँगा नहीं।”
सुहानी ने उस का हाथ चूमा। "आज… मैं तुम्हें किसी से मिलाने ले चलूंगी। एक ऐसा इंसान, जिसे देख कर तुम्हारे सवालों के बहुत से जवाब तुम्हें मिल जाएंगे। मगर तुम्हें मुझसे वादा करना होगा कि तुम खुद को संभाले रखोगे, वरना तुम्हें टूटता हुआ देख कर वो भी बिखर जाएंगे। क्योंकि जहाँ हम जा रहे हैं — वहीं से खेल की असली चालें चली गई थीं।"
आरव अब गंभीर था, “वादा करता हूँ। अब मैं हर चाल सोच-समझ कर चलूंगा।”
सुहानी ने एक गहरी सांस ली। अब उसकी आँखों में आँसू नहीं थे — बल्कि वो चमक थी जो सिर्फ एक जंग जीतने से पहले एक सच्चे साथी की आँखों में होती है।
सुहानी ने पूछा — “आप तैयार हैं?”
आरव ने उसकी तरफ देखा। "हाँ, मैं तैयार हूं, क्योंकि तुम मेरे साथ हो। मेरी माँ की आत्मा, मेरे पिता का सच, और मेरे भाई का सालों से उस कैद मशीन संघर्ष—अब और मैं नहीं सह सकता। और अगर कोई इस रास्ते में आया…तो उसे पहले मुझ से टकराना होगा।”
वो बोलते हुए आगे बढ़ा — अब उसकी चाल में कोई डगमगाहट नहीं थी, बल्कि वो मजबूती थी, जो सिर्फ एक सच का सामना करने वाले इंसान में होती है। सुहानी उसके साथ कदम से कदम मिला कर चलने लगी। वो जानती थी — आज एक युद्ध शुरू होगा, मगर उसके साथी योद्धा ने अब आँखें खोल ली थीं।
सुबह की हल्की रोशनी हवेली के काँच से बनी खिड़कियों से छनकर डाइनिंग हॉल में उतर रही थी। हर कोने में वही रईसी, वही ठहराव — लेकिन आज हवेली के उस आलीशान हॉल में, कुछ बहुत ही असहज था।
नीचे, लंबी डाइनिंग टेबल पर बैठा आरव, चुपचाप नाश्ते की प्लेट में पड़े टोस्ट को देख रहा था। हर बार जब छुरी से मक्खन लगाता, तो जैसे मन में दबी हुई नफ़रत पर भी एक परत चुप्पी की लगाता।
सुबह सुहानी ने उसे कमरे में ही समझाया था, "आरव, हमे अभी कोई हरकत नहीं करनी है। आपको ऐसे पेश आना है, जैसे कुछ भी नहीं बदला है। ना आपकी याददाश्त लौटी है, ना ही आपके मन में कोई शक पैदा हुआ है।"
आरव ने सिर हिलाया था, लेकिन आंखों में जो दर्द और ग़ुस्सा था — वो शायद कोई और देख पाता तो सब बिखर जाता। अब वही आरव, उन्हीं चेहरों के सामने बैठा था — दिग्विजय राठौर, गौरवी राठौर, और रणवीर राठौर। तीनों अपने अंदाज़ में दिखावा कर रहे थे — जैसे वो एक आदर्श परिवार हो…जैसे कोई हादसा कभी हुआ ही नहीं।
दिग्विजय न्यूज़पेपर पलट रहा था, गौरवी अपनी प्लेट में फल खा रही थी, और रणवीर लापरवाही से कॉफी पी रहा था। आरव ने हर एक को देखा —हर मुस्कुराहट, हर निगाह अब उसे धोखे की तरह लग रही थी। उसकी मुठ्ठियाँ टेबल के नीचे भींच चुकी थीं। उसे याद आ रहा था…कैसे इन्हीं लोगों ने उसकी माँ को रास्ते से हटाया। कैसे उसके भाई को मारने की साज़िश की गई। कैसे उसे झूठ से भरा एक जीवन जीने के लिए मजबूर किया गया था।
लेकिन फिर उसकी नज़र सामने की कुर्सी पर पड़ी — जहाँ सुहानी अब आकर बैठ चुकी थी। उसका चेहरा शांत था, पर उसकी चाल में एक तयशुदा ठहराव था। वो मुस्कुराई — हल्की-सी, औपचारिक मुस्कान। जैसे वो भी अब इस नाटक का हिस्सा बन चुकी हो।
"गुड मॉर्निंग," उसने सबको संबोधित किया।
गौरवी ने भी ज़हर में लिपटी निगाहों से उसे देखा, मगर कुछ कहा नहीं।
दिग्विजय ने उसे देखा तो, मगर आज उसकी निगाहों में कुछ और था…शायद सवाल।
आरव ने उसकी ओर देखा — उसी नज़रों से, जिस में अब मासूमियत नहीं, बल्कि एक जागी हुई आग थी… पर उसने सिर झुकाया और एक बार फिर चम्मच में नाश्ता उठाया, जैसे कुछ बदला नहीं है।
डाइनिंग टेबल पर बातचीत हो रही थी — राजनीति, व्यापार, समाजिक समारोहों की बातें… पर उन सबके बीच आरव और सुहानी की खामोशी सबसे भारी पड़ रही थी। दोनों के चेहरे पर संयम था — पर भीतर युद्ध चल रहा था।
नाश्ते का समय खत्म हो चुका था। सभी लोग कुर्सियों से उठने की तैयारी कर रहे थे। गौरवी, अपने स्टोल को ठीक करते हुए धीरे-धीरे बाहर जाने लगी, और दिग्विजय अखबार तह कर रहा था, जब… आरव ने टेबल पर हाथ पटकते हुए अपनी कुर्सी से उठते हुए ऊँची आवाज़ में कहा — “आज भी तुम मेरी गाड़ी में ही चलोगी, सुहानी!”
एकदम सन्नाटा। गौरवी के कदम वहीं रुक गए, रणवीर ने चाय का कप होठों से नीचे किया, विक्रम और मीरा दोनों भी चौकन्ने हो गए। सुहानी, जो बस उठने ही वाली थी, थोड़ा ठिठक गई।
आरव अब सबकी निगाहों के सामने बोल रहा था — गुस्से में, तेज़ लहजे में, जैसे हर शब्द किसी चुभती हुई तलवार की तरह निकल रहा हो।
"मेरी माँ, मेरे ताऊ जी और मेरे चाचा को तुमने जो कल परेशान करने की साजिश की थी, आज मैं उस पर पूर्ण विराम लगाने जा रहा हूं!"
उसकी आँखें सुहानी पर टिकी थीं — लेकिन हर शब्द, बाकी सबके लिए था। "आज मैं तुम्हारी उन सभी साइट्स पर जाकर खुद देखूंगा, जहाँ के टेंडर तुमने पास कराए हैं। और फिर तुम उन सारे टेंडर्स को तुरंत वापस लोगी — वरना तुम जानती हो कि मैं क्या कर सकता हूं!"
उसकी आवाज़ गरजी — एक गूंज सी फैल गई उस महलनुमा हॉल में। सुहानी ने धीरे से अपने होठ कांपते हुए दिखाए, आँखों में भय की एक झलक लाई जैसे किसी निर्दोष स्त्री पर लगे झूठे आरोप से विचलित हो गई हो। उसके चेहरे पर हल्की सी सफेदी छा गई थी, हाथ कांपे, जैसे सहम गई हो —पर वो सब नाटक था।
एक ऐसी भूमिका, जिसे उसने पहले ही तय कर लिया था। गौरवी ने एक ज़हर भरी मुस्कान दबाई, रणवीर ने भी अपने होंठ डांतों के नीचे दबाये…जैसे सोच रहा हो, “आरव अब वही बन गया है, जैसा हम चाहते थे।”
मीरा ने धीरे से सुहानी की ओर देखा और सुहानी ने पलकें झुका कर सिर हल्का सा हिला दिया — जैसे कह रही हो, “सब ठीक है।”
सुहानी ने कांपती हुई आवाज़ में कहा, “आरव… लेकिन?”
वो कुछ समझाने की कोशिश कर रही थी, या कम से कम ऐसा दिखाने का नाटक कर रही थी। लेकिन आरव, जो अब उस भूमिका में पूरी तरह से उतर चुका था — जहां उसे अपने ही मासूम चेहरे पर कठोरता का नकाब पहनना था, उस ने एक झटके में अपना हाथ टेबल पर दे मारा।
धम्म!!
आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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