टेबल की सतह थरथरा उठी, कप-कटोरियाँ खनक गईं, रणवीर की चाय छलक गई, दिग्विजय ने चश्मा उतार कर सीधा आरव को देखा। रणवीर के चेहरे पर हल्की मुस्कान आई — जैसे उसे तसल्ली हुई हो।
“लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। बात समझ में आई?" आरव की आवाज़ इतनी कड़क थी कि दीवारें भी सिहर उठीं।
"आज के आज सारे टेंडर्स वापस लिए जाएंगे। यह मेरा आदेश है, बहस की कोई गुंजाइश नहीं है अब सुहानी।”
ये कोई संवाद नहीं था, ये तो जैसे किसी युद्ध का ऐलान था — जहाँ दुश्मनों को यही दिखाना था कि आरव अब पूरी तरह उनके रंग में रंग चुका है।सुहानी ने अपने चेहरे पर तनाव और डर की लकीरें उभारीं। उसने अपना रुमाल पर्स से निकाल कर हल्के से अपनी आंखें पोंछीं — जैसे आरव की डांट ने उसे भीतर तक तोड़ दिया हो।
“ठीक है… जैसा आप कहें।” उसकी आवाज़ धीमी थी, कांपती हुई — लेकिन भीतर… भीतर वो जानती थी कि यह नाटक ज़रूरी था। उसकी नज़रें झुकी हुई थीं, और चेहरे पर गहरी उदासी की छाया — जैसे अपने आत्म-सम्मान के साथ किया गया यह समझौता उसे अन्दर तक छलनी कर रहा हो।
लेकिन उस झुकी हुई सुहानी की पलकों के पीछे, एक तेज़ चिंगारी जल रही थी। आरव के तीखे शब्दों और सुहानी के डरते हुए चेहरे को देखकर डाइनिंग टेबल पर एक गहरा सन्नाटा छा गया था । पर कुछ ही पल में, उस सन्नाटे को चीरती हुई एक मुस्कान फूट पड़ी।
पहले गौरवी के चेहरे पर, फिर दिग्विजय की मूछों के पीछे छुपे अहंकार पर, और फिर रणवीर के पत्थर जैसे चेहरे पर भी एक हल्की सी तसल्ली की परछाईं उभरी। ये सिर्फ मुस्कानें नहीं थीं — ये अहंकार के जीत के फूल थे, जैसे किसी युद्ध में मिली जीत का इत्र उनके चेहरे पर चढ़ गया हो।
“देखा?” गौरवी ने दिग्विजय की ओर झुक कर धीरे से कहा, “मैंने कहा था ना… आरव हमारे लिए ही वफादार है। कितना भी बदल जाए, लेकिन जब वक्त आता है, तो वही करता है जो हम चाहते हैं।”
दिग्विजय की आंखों में चमक थी। "सुहानी जैसी चालाक लड़की को भी हिला कर रख दिया इसने। लगता है कल रात आरव ने उसे ठीक से समझा दिया होगा। बात तो हमारी ही मानी जा रही है अब।”
रणवीर ने धीरे से अपना कप उठया और एक विजयी घूँट लिया। "जो हम चाह कर भी नहीं कर पाए, वो आरव ने खुद कर दिखाया। अब यह लड़की अपने कदम पीछे खींचेगी ज़रूर, और हमारी राह अपने आप आसान हो जाएगी।”
उन तीनों की नज़रें सुहानी पर जमी थीं — जो अपनी आँखें पोंछती हुई, चुपचाप अपनी सीट से उठ रही थी। कंधे झुके हुए थे, चाल धीमी थी…एकदम वैसी जैसी उन्होंने उम्मीद की थी — डरी हुई, टूटी हुई, और अब शायद काबू में भी।
उन्हें नहीं पता था कि ये "झुकाव" महज़ एक धोखा है, एक प्रस्तावना है उस कहानी का जिसमें असली खेल अब शुरू होना बाकी है। राठौर हवेली की सीढ़ियों से लेकर पोर्टिको तक, हर कदम जैसे लोहे की ज़ंजीर था — सुहानी के लिए वो गाड़ी तक जाना ऐसा था जैसे किसी अदालत की पेशी पर मज़बूरी में चल रही हो।
उसकी चाल धीमी थी, हर क़दम भारी, और चेहरे पर वही घबराहट का मुखौटा — जो उसने जानबूझ कर चढ़ा रखा था। पीछे से गौरवी की नज़रें उसका पीछा कर रही थीं…जैसे शिकारी अपने शिकार की हर हरकत नोट करता है। दिग्विजय ने हल्के से रणवीर की तरफ सिर हिलाया, एक साज़िशी संतोष उसके चेहरे पर तैर रहा था।
"देखो उसे, कैसी चुपचाप जा रही है," गौरवी ने फुसफुसा कर कहा, “कल तक जो आंखों में आग थी, आज वही नज़रें झुकी पड़ी हैं। हम ने उसे तोड़ दिया है।”
रणवीर ने कुछ नहीं कहा, बस आँखों से सब देखा — उसकी दृष्टि में एक घमंड था, जैसे ये सब पहले से लिखा हुआ नाटक हो जिसका क्लाइमैक्स उन्होंने तय किया था।
आरव पहले से गाड़ी के पास खड़ा था, उसकी पीठ सीधी थी, आँखों में ठंडक — जो अंदर जलते लावे को बखूबी छिपा रही थी।
“बैठो,” उसने दरवाज़ा खोलते हुए सख्ती से कहा।
सुहानी ने एक झूठी झिझक ओढ़ी, जैसे उसे डर लग रहा हो, जैसे वो खुद को समेटे हुए, बिखरने से बचा रही हो। उसने हल्के से सिर हिलाया, और बिना किसी जवाब के, धीरे-धीरे गाड़ी में बैठ गई — जैसे एक क़ैदी अपनी कोठरी में जा रहा हो। दरवाज़ा बंद हुआ, और बाहर खड़े तीनों चेहरों पर जीत की मुस्कान और गहरी हो गई।
लेकिन उस बंद होती खिड़की के भीतर आरव और सुहानी की आँखों में वो इशारे कौंधे जो इस पूरे खेल का असली रुख तय करने वाले थे। गाड़ी का दरवाज़ा बंद होते ही, जैसे एक पर्दा गिरा — और बाहर के किरदार, भीतर के असली चेहरे बन गए।
आरव ने कार स्टार्ट की, लेकिन उसकी नज़र सुहानी के चेहरे पर थी — जिस पर झूठा डर अब भी तैर रहा था।
आरव (धीरे से, बिना उसकी तरफ देखे), गाड़ी पोर्टिको से बाहर निकलते हुए, “बहुत अच्छा किरदार निभाया तुम ने... एक पल के लिए मैं खुद भी बहक गया था।”
सुहानी ने एक गहरी साँस ली। उसने अब पहली बार आरव की आँखों में देखा। सुहानी (धीमे स्वर में), "हमें हर पल संभल कर चलना होगा, आरव। अभी कुछ भी कहना, कुछ भी करना, बहुत भारी पड़ सकता है। उन सबको लगता है कि तुम अब भी उनके इशारे पर चल रहे हो —और यही हमें चाहिए।"
आरव कहता है, "लेकिन मैं ये सब और कितनी देर झेलूंगा? उनके सामने बैठ कर नाश्ता करना…उन्हीं हाथों से चाय लेना, जिन्होंने मेरी माँ की ज़िन्दगी छीन ली। मुझे यकीन नहीं होता कि मैं अब तक ज़िंदा हूँ।"
सुहानी ने कहा, "तुम्हें ज़िंदा रहना ही था, आरव, इसी दिन के लिए। अभी नहीं तो कभी नहीं। आज हम एक बहुत ज़रूरी इंसान से मिलने जा रहे हैं। लेकिन उससे पहले मैं तुम्हें सब कुछ बता देना चाहती हूँ — एक-एक राज़, एक-एक नाम। हर वो सच्चाई जो तुम्हें अब तक बताई नहीं गई थी।"
आरव की उंगलियाँ स्टीयरिंग व्हील पर कस गईं थी। उसने खुद को काबू में रखते हुए पूछा — "क्या वो सब सच था? जो कल रात मुझे याद आया…मेरे पिता की मौत का सच... मेरी माँ का एक्सीडेंट... मेरा जुड़वाँ भाई?"
सुहानी की आँखों में आंसू थे, पर आवाज़ में एक सख्त सच्चाई। "हां, आरव। तुम्हारा जुड़वां भाई जीवित था…सालों तक तहखाने में कैद रहा। गौरवी तुम्हारी माँ नहीं हैं, वो तो तुम्हारी माँ की छोटी बहन थीं, जिन्हें उनकी परवाह होनी चाहिए थीं मगर, वो सिर्फ़ तुम्हारे पिता की दूसरी पत्नी बनना चाहती थी — बस राठौर परिवार का हिस्सा बनना चाहती थी, ताकी इन सारी प्रॉपर्टी में अपना हिस्सा भी मांग सके। जिसने दिग्विजय के साथ मिल कर, तुम्हारी असली माँ को रास्ते से हटाया।"
आरव की साँसें तेज़ हो गई थीं। उसने कार को साइड में रोक दिया। आरव ने नज़रें झुका कर कहा, "अगर ये सब सच है, तो मैं अब तक क्या था? क्या मेरी पूरी ज़िंदगी एक झूठ थी?"
सुहानी (धीरे से उस के हाथ पर हाथ रखते हुए) कहती है, "नहीं आरव…आप अब वो हैं जो सच्चाई को जान चुके हैं। और यही आपकी सबसे बड़ी ताक़त है। इस बार हम सब उनके लिए नहीं, उनके खिलाफ़ खेलेंगे।"
एक लंबा सन्नाटा गाड़ी के भीतर पसरा रहा। फिर आरव ने इंजन दोबारा स्टार्ट किया। चेहरे पर ठहराव था, पर आँखों में तूफ़ान।
आरव (धीरे से मुस्कुराते हुए) बोला, "चलो... मुझे उस इंसान से मिलाओ जिसके पास इन सब मेरे सारे सवालों का जवाब है..."
बाहर की हवा में कुछ अजीब-सी बेचैनी थी, जैसे कोई अनदेखा तूफान उनका इंतज़ार कर रहा हो। आरव ने ध्यान से देखा तो उसे याद आया — यह वही SUV थी, जिसमें वो अपनी शादी के बाद पहली बार सुहानी को लेकर हवेली में आया था। पर आज उसकी सीट पर बैठते हुए उसका दिल तेज़ धड़क रहा था।
“हम वैसे कहाँ जा रहे हैं?” उसने पूछा, जैसे मन में कोई पूर्वाभास हो।
"जहाँ सच तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है," सुहानी ने बस इतना ही कहा।
कुछ देर की ड्राइव के बाद गाड़ी रुकती है — एक पुराने, वीरान-से बंगले के सामने। चारों ओर सूखा सन्नाटा, जंग लगी हुई लोहे की ग्रिल, और अंदर कहीं एक हल्की सी पीली रोशनी। आरव जैसे ही गाड़ी से उतरता है, उसके दिल की धड़कनें और तेज़ हो जाती हैं। उसके कदम भारी महसूस हो रहे होते हैं, जैसे उसकी आत्मा ही संदेह से जकड़ गई हो। सुहानी उसका हाथ थामे उसे अंदर ले जाती है। दीवारों पर समय की धूल जमी होती है, और हर कोना जैसे एक अधूरे सच की गवाही देता है।
एक पुराना दरवाज़ा। सुहानी उसे खोलती है — और सामने एक कमज़ोर-सी, झुकी हुई लेकिन तेज़ निगाहों वाली शख़्सियत कुर्सी पर बैठा होता है। वो उठता है। उसकी चाल में थकान होती है, लेकिन आँखों में एक चिंगारी जो सालों की चुप्पी के बाद आज बोलने को तैयार है।
आरव जैसे ही उस चेहरे को देखता है — उसके पैरों तले ज़मीन खिसक जाती है।
“प… पापा…?” उसकी आवाज़ काँप उठती है।
शमशेर राठौर, धीरे-धीरे उसके पास आते हैं। “हाँ आरव… मैं ही हूँ।”
आरव की साँसें जैसे थम सी जाती हैं। उसके पैरों में जान नहीं बचती और वो वहीं फर्श पर घुटनों के बल बैठ जाता है। "त…आप ज़िंदा थे ना? तो इतने साल… कहाँ थे आप? क्यों छुपे रहे? क्यों… हमें मरने के लिए छोड़ दिया वहां?"
शमशेर उसके सामने आकर झुक कर बैठ जाता है। "मुझे भी जिंदा रहने की इजाज़त नहीं थी, बेटा। जब रणवीर को सच का पता लग गया… तो उसने कई बार मुझे मार डालने की कोशिश की। गौरवी… दिग्विजय… को आज भी नहीं मालूम कि मैं ज़िंदा हूं लेकिन, रणवीर वो मेरी जान के पीछे पड़ा रहा। मैं बच गया — लेकिन मेरे लिए दुनिया मर चुकी थी।"
सुहानी दूर खड़ी सब देख रही थी — उसके चेहरे पर आँसू थे, लेकिन आँखों में राहत।
"माँ…?" आरव ने टूटी हुई आवाज़ में पूछा।
शमशेर की आँखें नम हो गईं। "तुम्हारी माँ खुद को नहीं बचा पाईं, मगर जान देकर भी उसने प्रणव की जान बचा ली।”
आरव अब सिसकने लगा था। "आप जानते हैं, मैंने सुहानी से नफ़रत की… मैंने उसे इतने दुख दिए, सज़ा दी…उसे बेवजह कैद में रखा — क्योंकि मुझे यही बताया गया था कि उसके पिता के कारण आपने अपनी जान दे दी थी…"
शमशेर ने उसका चेहरा अपने हाथों में थाम लिया। "तुम्हें जो बताया गया वो सब झूठ था। अब तुम्हें ये तय करना है कि तुम उस झूठ के साथ जीते रहोगे — या सच के लिए लड़ोगे।"
आरव का चेहरा अब दृढ़ था। वो उठा। उसने सुहानी का हाथ थामा — और फिर शमशेर की ओर देखा। "अब कोई और झूठ मुझे सच से दूर नहीं रख सकता। अब ये लड़ाई हमारी है। मेरे परिवार की, मेरी माँ की…और मेरी सुहानी की न्याय की लड़ाई।"
धूप की किरणें धीरे-धीरे उस छोटे से लकड़ी के बंगले की खिड़की से भीतर आ रही थीं, जहाँ वर्षों से दबी सच्चाई और अधूरी मुलाक़ातें आज मुकम्मलता की ओर बढ़ रही थीं। शमशेर राठौर, एक लंबे अरसे बाद, अपने बेटे आरव के सामने खड़े थे। वो बेटा, जिस से उन्हें बरसों तक दूर रहना पड़ा था। और आरव जिसने सालों तक सिर्फ़ पिता की तस्वीर देखी थी, उनके जीवित होने की कल्पना तक नहीं की थी।
आरव (टूटे स्वर में, भर्राए गले से) कहता है, “बाबा...”
बस यही एक शब्द, और शमशेर का दिल जैसे पिघल गया। उन्होंने बाहें फैलाईं, और आरव किसी बच्चे की तरह उनसे लिपट गया। वो लम्हा जैसे समय को रोक देने वाला था। एक पिता की बाँहों में, एक बेटे की टूटी हुई ज़िन्दगी थोड़ी देर के लिए जुड़ रही थी।
शमशेर सिसकते हुए बोले, "माफ कर देना बेटा... मैं तुम्हारे साथ नहीं था… मगर मेरी रूह हर पल तुम्हारे लिए रोती रही।"
आरव कुछ नहीं बोल पाया, बस और कस के उन्हें बाँहों में भर लिया। पर तभी…भीतर एक कमरे से दरवाज़ा खुलने की हल्की सी आवाज़ आई। आरव ने धीरे से अपने आंसू पोंछे और पलटा।
दरवाज़े की ओट से, एक लम्बा, सुडौल युवक बाहर आया — साफ़-सुथरे कपड़े पहने हुए, चेहरे पर हल्की दाढ़ी, बाल करीने से सेट किए हुए, मगर आँखों में एक जानी पहचानी सी बेचैनी। सुहानी की साँस अटक गई थीं….वो था — प्रणव।
प्रणव को देख कर, आरव की क्या प्रतिक्रिया होगी?
बरसों से बिछड़े हुए भाई, जब सालों बाद एक दूसरे से ठीक से मिलेंगे, तो क्या होगा उनका हाल?
जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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