“मीरा, प्लीज... मुझे सब सच-सच बता दो, प्लीज,” आरव की आवाज़ अब काँप रही थी — जैसे किसी गहरे अंधेरे में खड़ा इंसान एक टुकड़ा रोशनी का ढूँढ रहा हो। उसकी आँखें मीरा की आँखों में गड़ी हुई थीं — बेचैन, डरी हुई, और प्यास से भरी हुईं।
“क्या वो लोग... मुझ से कुछ छुपा रहे हैं?”
मीरा कुछ पल तक चुप रही। उस के भीतर एक गूंज उठ रही थी — “ये वही आरव है, जिसे मैं जानती थी... लेकिन जिसे खोने के डर से मैंने झूठ का जाल बुन दिया था।”
पर आज, उस आरव की आँखों में जो सच्चाई की प्यास थी — वो मीरा को हिला गई।
आरव की आँखों में वो मासूमियत थी, जो मीरा ने बहुत वक़्त पहले देखी थी — जब वो दोनों कॉलेज में मिला करते थे, जब आरव अपनी माँ की तारीफें करते हुए थमता नहीं था। पर अब... उसी माँ पर सवाल उठ रहा था। उसी परिवार पर, जिसे आरव अपना सब कुछ समझता था।
मीरा ने धीरे से नजरें झुका लीं। "अब वक़्त आ चुका है..." उसने खुद से कहा।
“शायद मैं पूरा सच नहीं बता सकती, लेकिन उसे झूठ की गिरफ्त से बाहर तो निकाल सकती हूं।”
“आरव...” उसकी आवाज़ थरथरा गई।
“मैं तुम्हें ज़्यादा कुछ तो नहीं बता सकती। बस इतना कह सकती हूं कि... तुम्हें उन लोगों की बातों पर आँख मूँद कर भरोसा नहीं करना चाहिए।”
वो धीरे-धीरे आरव के करीब आई, और उसकी आँखों में देख कर कहा — “कभी-कभी, जिन पर हम सबसे ज़्यादा भरोसा कर लेते हैं, वही लोग हमें सबसे ज़्यादा चोट पहुँचा जाते हैं।”
आरव की साँसें गहरी हो चली थीं, उसका चेहरा अब उलझन और यकीन के बीच फँसा हुआ था।
“तुम कुछ जानती हो मीरा और अब तुम भी मुझ से कुछ छुपा रही हो...” उसके चेहरे पर अब निराशा की हल्की लकीर उभर आई थी। “लेकिन अब मैं रुकूंगा नहीं। अब मैं खुद सच्चाई जान कर रहूंगा।”
आरव का ये फैसला सुनकर जैसे मीरा के दिल में कुछ चुभ गया था। वो जानती थी — अगर आरव एक बार उस रास्ते पर चल पड़ा, तो सारे नकाब उतर जाएंगे। और शायद... वो नकाब मीरा का भी हो सकता है। पर अब... बहुत देर हो चुकी थी।
कमरे में एक अजीब-सी खामोशी थी। मीरा की बातों ने आरव के भीतर कुछ तोड़ दिया था — या शायद कुछ जगा दिया था। एक तूफ़ान था, जो बाहर से नहीं, भीतर से उठ रहा था।
“माँ झूठ बोल रही थीं? ताऊ जी... वो जो हमेशा कहते थे कि मैं उनके बेटे जैसा हूं — वो भी मुझसे केवल झूठ बोल रहे थे?”
आरव की सांसें तेज़ हो गई थीं, उसकी छाती किसी भारी बोझ के नीचे दबी जा रही थी, दिल में कुछ बेकाबू-सा मचल रहा था — जैसे बरसों से दबाई गई सच्चाई बाहर निकलने को छटपटा रही हो।
वो खुद को याद दिलाने की कोशिश कर रहा था — “नहीं, वो ऐसे नहीं हो सकते। मेरे अपनों से मैं कैसे सवाल कर सकता हूं?”
लेकिन मीरा की आँखों में जो झिझक और दर्द था... उसने सब कुछ बदल दिया था।
उसके ज़हन में सुहानी का चेहरा कौंधा — वो मासूम, पर सवालों से भरी आंखें... जो बार-बार उस से जवाब मांगती थीं। जिसे उसने बार-बार ठुकराया था, अपमानित किया था, बिना सच जाने।
“अगर वो सब झूठ था... तो? अगर मैं ही गलत था इस रिश्ते में?”
उसकी हथेलियाँ पसीने से भीगने लगीं, गला सूख गया था, दिल एक अजीब-सी उलझन में धड़क रहा था — पछतावे, शक, और क्रोध के बीच फंसा हुआ। हर वो बात जो उसे अब तक बताई गई थी — अब एक-एक कर के उस के मन में सवाल बन कर खड़ी हो रही थी।
“क्या मेरा इस्तेमाल हुआ?”
“क्या मैं सिर्फ एक मोहरा था किसी बड़े खेल में?”
उसे अब खुद से भी डर लगने लगा था — “अगर मैं इतना कुछ नहीं देख पाया... तो मैं आखिर हूं कौन?”
और इतना कहकर आरव ने एक गहरी साँस ली, लेकिन वह साँस जैसे सीने तक पहुँचते ही बोझ बन गई। उसने बेमन अपने सिर को दोनों हाथों में थाम लिया — जैसे हर विचार, हर बात, हर याद एक-एक कर के उसके दिमाग पर हथौड़े की तरह गिर रही हो। उसके माथे पर बल उभर आए, भौंहें भींच गईं, और उसकी आँखों की पुतलियाँ तेजी से हिलने लगीं — जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने उसकी सोचने-समझने की ताक़त पर हमला बोल दिया हो।
वही दर्द, वही अचानक उठता तूफ़ानी सिर दर्द। वही जो उसे बीती रात बेचैन कर गया था….वही जो सुबह उसे सुहानी के सामने ऑफिस जाते वक़्त हुआ था।
लेकिन इस बार…इस बार सिर्फ शारीरिक नहीं, यह दर्द उसके अंदर के द्वंद्व का, टूटते विश्वास का, और बिखरते आत्म-सम्मान का भी था। वो लड़खड़ाते हुए एक पल के लिए दीवार से टिक गया। उसके चेहरे की रेखाएं तन चुकी थीं। आँखें बंद थीं, और होंठ भींचे हुए — जैसे हर नब्ज़ एक विस्फोट के लिए उलटी गिनती गिन रही हो।
“क्यों... क्यों ऐसा हो रहा है मेरे साथ?”
“क्या ये दर्द मेरे सच से भागने की सज़ा है?”
हर धड़कन उसके अंदर की किसी न किसी सच्चाई को उभार रही थी — सुहानी की वो आँखें, मीरा की झिझक, माँ की बातों की बेरुख़ी, ताऊ जी का निर्देशात्मक व्यवहार…हर दृश्य अब एक शोर बन कर उसके दिमाग में टकरा रहा था।
वो अपने घुटनों के बल ज़मीन पर बैठ गया। उसके हाथ अब सिर को नहीं, ज़मीन को पकड़ने की कोशिश कर रहे थे — जैसे उसका शरीर खुद को टूटने से बचा रहा हो।
कमरे में सिर्फ उसकी तेज़ साँसें, और दर्द में धीमे दबे कराहने की आवाजें थीं। मीरा उसकी ये हालत देख कर शॉक में चली गई थी। “मुझे आरव को कुछ नहीं बताना चाहिए था।” वो बार-बार इसे मंत्र की तरह अपने मन में जप रही थी।
और आरव का मन अंदर ही अंदर चीख रहा था — “कुछ तो ठीक नहीं है... कुछ तो बहुत गलत हुआ है!” पर उस चीख को सुनने वाला वहां कोई नहीं था। मीरा तक उसके मन की आवाज़ नहीं पहुंच रही थी। सिर्फ एक अकेला आरव था, अपने ही विश्वासों की राख में घुटता हुआ। उसने अपनी आँखें कस कर मीच लीं।
कमरे की हल्की रोशनी जैसे धुंधली हो गई थी, और हर ओर एक शांति पसर गई थी — एक डरावनी, बेचैन कर देने वाली शांति। पर उस शांति के भीतर ही, उसके ज़हन में एक पुराना मंज़र, एक मीठी सी, मासूम सी हँसी उभरने लगी थी…वही हँसी, वही चेहरा, वही खिलखिलाहट — सुहानी की।
एक मेले का मंज़र था। चारों ओर रोशनी थी, शोर था, रंग-बिरंगे गुब्बारे थे, और बच्चों की चहकती आवाज़ें। वो दूर खड़ा था, और सामने सुहानी हँसती हुई झूले की लाइन में लगी हुई थी। उसकी आँखें चमक रही थीं, और हवा में उड़ते उसके बाल उस मासूमियत को और भी जिंदा कर रहे थे। वो उसे बस देख रहा था — खामोशी से, छिप कर। उसने उस दिन सुहानी को पहली बार सामने से देखा था। बिना किसी कारण, बिना किसी वजह, बस एक खुशी से भरा चेहरा, जिसने एक पल को आरव की आँखों से सारा अंधेरा मिटा दिया था।
मगर तभी उस flashback में दो यादें एक साथ जुड़ गईं। क्योंकि उसी वक्त उसे एहसास हुआ कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा था। और वो जानता था, उस दिन ऐसा तो कुछ नहीं हुआ था, और फिर अचानक जब वो मुड़ा तो….पीछे मुड़ते ही वहां ताऊजी खड़े थे — दिग्विजय राठौर। मगर इस बार वो इस हवेली के स्टडी रूम में था। और मेज़ पर पड़ी थी, सुहानी की एक तस्वीर, जिस में वो दिल से मुस्कुरा रही थी।
दिग्विजय की आँखों में वही सख़्ती, वही नफरत भरी थी।
“देख रहे हो ना उस लड़की को?” उन्होंने धीमे मगर कठोर स्वर में कहा था, “यही है शिव प्रताप की बेटी…वही शिव प्रताप, जिसकी वजह से तुम्हारे पापा — शमशेर राठौर — ने अपनी जान दे दी। उसके चेहरे की ये हँसी तुम्हारे पापा की मौत पर चुटकी ले रही है। क्या तुम उसे ऐसे ही हँसते हुए देखना चाहोगे? या फिर इसे हमेशा के लिए ज़िंदगी भर की उदासी में बदल दोगे?”
ताऊ जी के शब्दों में ज़हर था, और उस ज़हर को आरव के मासूम दिल में उतार दिया गया। उसी दिन के लिए आरव को तैयार किया गया था — सालों-साल, एक बदले की आग में जलाया गया था। उसे सिखाया गया था, कि सच्चाई वही है, जो तुम्हें बताई गई है….कि शिव प्रताप गुनहगार है, कि सुहानी की हँसी एक ताना है।
मगर आज…आज उस झूठ की नींव दरक रही थी। उसने अपनी आँखें खोलने की बहुत कोशिश की। उन आँखों में अब मासूमियत की याद नहीं, बल्कि संदेह की एक चुभन थी, पछतावे की एक चिंगारी थी, और एक टूटते विश्वास की चीख थी।
क्या वाकई वो सब झूठ था? क्या सालों से जिस दुश्मनी को सींचा गया था, वो सिर्फ एक अधूरी कहानी पर आधारित थी?
“अगर वो सच में ऐसी थी जैसी बताया गया... तो उसकी हँसी ने मुझे सुकून क्यों दिया था उस दिन?”
आरव का दिल अब युद्ध का मैदान बन चुका था — एक ओर वो भावनाएं जो कभी दबी थीं, अब जाग उठी थीं, और दूसरी ओर वो नफरत, जो कभी सिखाई गई थी, अब झूठ लगने लगी थी। आरव ने सब को मना किया था। हां, कई बार, हर बार — जब भी उससे कहा गया कि वो इस शादी को स्वीकार कर ले, उसने साफ़-साफ़ शब्दों में मना किया था।
“नहीं… मैं ऐसा नहीं कर सकता, ये सब गलत है।”
पर उस दिन, जब सब ने उसके इर्द-गिर्द जाल बुन लिया था, तब मीरा उसके पास आई थी — सबसे ज़्यादा भरोसेमंद, सबसे ज़्यादा करीब थी उसके, मीरा। आरव को लगा था, कि कम से कम वो तो उसे समझेगी।
पर जब मीरा ने उसके सामने वो शब्द कहे — “तुम्हें सुहानी से शादी करनी ही चाहिए आरव… ये तुम्हारे परिवार का फैसला है, और तुम्हारा भी यही फर्ज़ है…”
उसी पल उसके दिल में कुछ दरक गया था। मीरा का चेहरा, जो कभी उसके लिए सुकून का प्रतीक था, अब एक ऐसे दबाव की याद दिलाने लगा था, जिसे उसने कभी स्वीकारा नहीं था। और फिर वो लम्हा…
जब मीरा ने कहा था — “उस लड़की को कुछ पता नहीं… वो तो बस एक मोहरा है।”
आरव के भीतर जैसे कुछ जल उठा था। एक तरफ मीरा की बातों ने उसे शादी के लिए धकेला, दूसरी तरफ उन्हीं बातों में सुहानी के लिए वो हिकारत, वो तिरस्कार, जिसने मीरा की छवि को उसकी नज़रों में एक झटके में बदल दिया।
“क्या ये वही मीरा है, जिसे मैं जानता था?”
उस ने खुद से पूछा था उस दिन। और तभी से लेकर कई दिनों तक…मीरा के लिए जो प्यार उसके दिल में था, वो धीरे-धीरे धुंधला पड़ता गया। ना कोई लड़ाई हुई, ना कोई आरोप — बस एक खामोश दूरी, जो हर बीते दिन के साथ और भी चौड़ी होती गई। अब जब मीरा की आँखों में वो पुराना अपनापन फिर से चमकता है, तो आरव के मन में एक अजीब सा शून्य भर जाता है — वो अपनापन अब लौट नहीं सकता। क्योंकि उसकी जड़ें, सच पर नहीं, एक छल पर टिकी थीं।
आरव का सिर अब भी दोनों हाथों के घेरे में था। दर्द उसकी कनपटियों से उठकर, उसकी आँखों में उतर आया था — वो सिर्फ़ सिर दर्द नहीं था, वो एक टूटते इंसान की चीख थी, जो अब तक चुप थी। उसकी बंद आँखों में बार-बार वही दृश्य घूम रहा था…
वही दिन,
वही बहसें,
वही बेबसी…
“क्यों नहीं समझ रहे आप लोग?”
“वो मासूम है… कोई चालाक, लालची लड़की नहीं…!”
“आप सब एक मासूम लड़की की ज़िंदगी बर्बाद कर देंगे!”
उस ने एक-एक से कहा था…गुस्से में नहीं, विनती में। लेकिन किसी ने नहीं सुनी उसकी आवाज़।
ना माँ ने,
ना ताऊजी ने,
ना मीरा ने।
उसे मजबूर किया गया था। एक ऐसी डोर में बाँधने को, जिसमें उसका मन कभी बंधा ही नहीं था, लेकिन एक और इंसान की पूरी ज़िंदगी — सुहानी की, उस डोर में उलझा दी गई थी।
“एक हँसती-खिलखिलाती लड़की की जिंदगी तुम बर्बाद कर दोगे आरव…”
उसके भीतर की आवाज़ अब भी उसे धिक्कार रही थी। उसे याद था वो दिन जब उसने खुद चंडीगढ़ जा कर देखा था सुहानी को — अपने दोस्तों के साथ…एक मेले में…नीले रंग के सलवार-सूट में, झूले पर बैठी, हँसती, खिलखिलाती, बेपरवाह। उस दिन उस का जन्मदिन था और उस दिन आरव की आत्मा कांप उठी थी।
“क्या मैं सच में इस मुस्कुराते चेहरे को हमेशा के लिए ना भरने वाला दर्द देने वाला हूँ?”
आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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