इतना कहकर सुहानी पलटी और तेज़ क़दमों से जाने लगी। उसकी आँखों में आंसू थे, मगर उन्होंने बाहर निकलने की इजाज़त नहीं मांगी। उसने अपनी पीठ सीधी रखी, चेहरे पर कठोरता ओढ़ ली—क्योंकि अगर वो टूटी, तो फिर खुद को समेट नहीं पाएगी।
आरव ने एक पल उसे जाते हुए देखा। जैसे उसकी दुनिया उसके सामने से खिसक रही हो। वो चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा था। उसके भीतर की बेचैनी ने उसके शरीर को बेकाबू कर दिया और उसने बिना सोचे समझे झटके से सुहानी का हाथ पकड़ लिया।
"रुको…" उसकी आवाज़ टूटी हुई थी, काँपती हुई, जैसे उसे खुद यक़ीन न हो रहा हो कि उसने ऐसा किया।
सुहानी ठिठकी, मगर बिना मुड़े। उसकी साँसें तेज़ थीं, और आंखें भर आई थीं। उसने धीरे से अपनी कलाई झटक कर आरव की पकड़ से छुड़ा ली, जैसे कोई आग की लपटों से निकलता है। उसके चेहरे पर झिझक, दुख, और आहत आत्म-सम्मान की परछाइयाँ थीं।
"कृपया कर के… अब और मत रोकिये मुझे," उसने धीमे मगर दृढ़ स्वर में कहा।
फिर बिना उसकी ओर देखे, वो हवेली के भारी दरवाज़े की ओर बढ़ गई। हर क़दम भारी था, जैसे कोई अपना ही सपना दफ़न कर रही हो। वो दरवाज़ा खोल कर अंदर चली गई, मगर उसने पीछे मुड़ कर एक बार भी नहीं देखा—क्योंकि अगर देख लिया होता, तो शायद दिल फिर से पिघल जाता।
सुहानी के झटके से हाथ छुड़ाने और तेज़ क़दमों से हवेली के अंदर चले जाने के बाद, आरव वहीं ठिठका खड़ा रह गया। उसका हाथ अब भी अधूरी पकड़ की गर्माहट समेटे हुए था, लेकिन दिल... वो जैसे बिल्कुल ठंडा और खाली हो चुका था।
उसकी आँखें सुहानी के जाते हुए कदमों को देखती रहीं, मगर अब उसमें कोई आक्रोश नहीं था। सिर्फ़ एक खालीपन था। एक गूंजती हुई ख़ामोशी, जो उस पर यह ज़ाहिर कर रही थी कि वो बहुत कुछ खो चुका है — शायद हमेशा के लिए।
उसके भीतर एक अजीब सी बेचैनी उठी—एक असहनीय अपराधबोध। उसका दिमाग़ गुज़रते लम्हों की कतरनों को जोड़ने लगा। वो हर पल याद करने लगा जब उसने सुहानी पर शक किया, जब बिना सुने उसने फ़ैसले सुना दिए, जब उसने अपने घर वालों की बातों को बिना तर्क के सच मान लिया।
अब उसे एहसास हो रहा था कि उसे सब कुछ नहीं बताया गया था….बहुत कुछ उससे छुपाया गया था। उसे याद आया, कैसे बार-बार उसे यह यक़ीन दिलाया गया था कि सुहानी एक लालची, चालाक, और धोखेबाज़ लड़की है—मगर आज, सुहानी की आँखों में जो सच्चाई थी, वो किसी भी कहानी से ज़्यादा प्रबल थी।
आरव का दिल भारी हो गया था। हवेली के दरवाज़े के उस पार जा चुकी वो लड़की, अब उसे खुद से बहुत दूर महसूस हो रही थी। और शायद, अब वाक़ई बहुत देर हो चुकी थी…आरव का अंतर्मंथन शुरू हो चुका था।
उसने खुद से सवाल करना शुरू कर दिया —
“क्या मैं गलत था?”
“क्या वो वाकई वैसी नहीं है, जैसी मुझे बताया गया था?”
“कहीं ऐसा तो नहीं कि मैंने उसकी आंखों की सच्चाई से ज़्यादा दूसरों की बातों पर भरोसा किया?”
वो बेंच पर बैठ गया, गार्डन की उस वीरान चुप्पी में जहाँ कुछ पल पहले विक्रम और सुहानी थे। उसकी आंखें बंद थीं, लेकिन मन में बीते सारे लम्हें दौड़ने लगे। सुहानी से वो पहली मुलाक़ात... जब वो चुपचाप झुकी निगाहों से अपने पिता के दफ़्तर में दाखिल हुई थी। उसकी वो नर्म आवाज़, जब उस ने कहा था, "मैं इस रिश्ते को एक ज़िम्मेदारी मानती हूं।" वो इस रिश्ते से खुश नहीं थी और उसके सामने खड़ा था आरव, इस शादी को उस पर थोपते हुए।
उसकी कोशिशें, उसकी आंखों की बेचैनी, उसकी उस दिन कहीं हुई सारी बात, आरव को एक फालशबैक कि तरह याद आने लगी थी। और उसके साथ ही उसके सर मैं एक ज़ोर की टीस उठी। उसने तुरंत सर अपने दोनों हाथों के बीच रख दिया।
“तो क्या मैं गलत था?” आरव के दिल ने खुद को घेरना शुरू कर दिया। “क्या मैं बस एक कठपुतली बन गया अपने परिवार की बातों का? क्या मैंने कभी खुद उस लड़की की सच्चाई जानने की कोशिश की?”
“नहीं...” उसका मन चुपचाप जवाब दे रहा था।
“मैंने बस वो देखा जो मुझे दिखाया गया….सुना, जो मुझे सुनाया गया। लेकिन महसूस कभी नहीं किया, जो वो खुद ब खुद बयां करती रही अपने हर लम्हे में।”
आरव की आंखें अब गीली थीं। उसका दिल मान चुका था — उसने एक मासूम, सच्चे रिश्ते को अपने शक और उन लोगों की बातों के तले कुचल दिया था, जो लोग उससे यकीनन झूठ बोल रहे थे। और अब... अब जब सुहानी एक फैसला कर चुकी थी — खुद को उससे अलग रखने की, तब आरव को ये रिश्ता सच्चा लगने लगा था। दर्द अब भरोसे का रूप ले रहा था। और अफ़सोस, एक नई समझ की शुरुआत।
"मैंने बहुत देर कर दी," उसने मन ही मन में कहा, “लेकिन अगर उसके दिल में अब भी थोड़ी सी जगह है मेरे लिए... तो मैं इस बार उसे सुनूंगा, समझूंगा, और उसका साथ दूंगा।”
वहीं बैठे-बैठे आरव ने एक फैसला लिया। अब वो सिर्फ़ जवाब नहीं ढूंढेगा, अब वो सच तक खुद जाएगा। अब वो सिर्फ़ अपने परिवार की बातें नहीं सुनेगा — अब वो सुहानी की सच्चाई जानेगा। और अगर वाकई वो सब झूठ था, अगर वाकई सुहानी उस चालाक लड़की की छवि से परे थी, तो वो उसे इस रिश्ते में दोबारा यकीन दिलाएगा। वो उसे फिर से अपनाएगा... मगर इस बार दिल से।
आरव बेंच से उठ खड़ा हुआ। मन भारी था, सीना कस रहा था, और कदमों में वो घबराहट थी जो किसी को खो देने के डर से पैदा होती है। हर कदम पर उसे महसूस हो रहा था कि कुछ टूट चुका है — और वो टूटी हुई चीज़ उसकी अपनी बनाई हुई थी।
हवेली का दरवाज़ा खोलते ही, उसका चेहरा फिर से सख्त हो गया, लेकिन ये सख्ती अब क्रोध की नहीं, जवाब तलाशने की थी। जैसे ही उसने अंदर कदम रखा, उसकी नजर हॉल में बैठी मीरा पर पड़ी — वो पूरे आत्मविश्वास से परिवार के बाकी सदस्यों के साथ बैठी हँस रही थी, मानो कुछ हुआ ही नहीं।
एक क्षण को आरव को लगा जैसे समय थम सा गया हो। वो चुपचाप उसके पास गया, और बिना कुछ कहे, मीरा की कलाई कस कर पकड़ ली। मीरा चौंक गई, उसकी मुस्कान एक झटके में गायब हो गई थी।
"आरव! क्या कर रहे हो तुम?" उसने फुसफुसाते हुए कहा, परिवार की नज़रों से खुद को बचाने की कोशिश करते हुए।
मगर आरव के चेहरे पर अब न कोई शक था, न कोई दुविधा — बस आग थी।
"बहुत हो गया मीरा," उसने गहरे स्वर में कहा। “मुझे तुम से कुछ पूछना है, कमरे में चलो, यहाँ सब के सामने नहीं।”
मीरा ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन आरव की पकड़ मज़बूत थी….पूरे हॉल में सन्नाटा सा छा गया। गौरवी की आंखें फैल गईं, दिग्विजय की भौंहें तन गईं, लेकिन किसी में इतना साहस नहीं था कि आरव को रोक सके। वो मीरा को लगभग घसीटते हुए सीढ़ियों की तरफ ले जा रहा था कि तभी…उसकी नज़र सीढ़ियों के नीचे उस मुस्कान पर पड़ी — जो उस की दुनिया की सबसे मासूम और सच्ची चीज़ थी…सुहानी।
वो ज़मीन पर बैठी थी, दोनों अल्सेशियन डॉग्स — सिम्बा और नेला के साथ। दिन की थकान उसके चेहरे से जैसे मिट चुकी थी। उसका हँसना, खिलखिलाना... एक बच्ची की तरह, न कोई बनावटीपन, न कोई दिखावा।
नेला, हमेशा की तरह उछलती-कूदती, सुहानी की गोदी में चढ़ने की कोशिश कर रही थी, और सिम्बा, वही पुराना आलसी ठाठ — बस वहीं लेटा हुआ, सुहानी की गोद में सिर टिकाए, अपनी आंखें मिचमिचा कर जैसे मुस्कुरा रहा हो।
आरव कुछ पल के लिए वहीं रुक गया। उसकी आंखें सुहानी के उस बेपरवाह, मासूम लम्हे पर टिकी रहीं। एक पल के लिए उसने सोचा — क्या यही वो चालाक लड़की है जिसके खिलाफ मेरे घर वालों ने मुझे भड़काया था?
क्या ऐसी नज़रों में झूठ हो सकता है?
क्या उस हँसी के पीछे कोई स्वार्थ छिपा हो सकता है?
सुहानी ने एक नज़र उठाई और आरव की आंखों से उसकी नज़रें टकरा गईं। वो मुस्कुराई नहीं, न ही चौंकी। बस उसकी आंखों में एक अजीब सी थकावट थी — एक खामोश सवाल, जो पूछ रहा थी, “अब क्या हुआ?”
आरव ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी पकड़ मीरा की कलाई पर और कस गई। अब उसे जवाब चाहिए थे — और सिर्फ मीरा से। उसने सुहानी को नहीं देखा दोबारा, मगर उसके दिल में वो नज़ारा कहीं दर्ज हो चुका था।
कमरे का दरवाज़ा एक ज़ोर की आवाज़ के साथ खुला।
आरव ने मीरा को एक झटके से अंदर की ओर घसीटा, और जैसे ही वो दोनों कमरे के भीतर पहुंचे, उसने गुस्से में उसका हाथ छोड़ दिया। मीरा कुछ लड़खड़ा गई, मगर संभलते हुए खुद को बैलेंस किया।
आरव अब उसकी तरफ पीठ किए खड़ा था। उसकी साँसें तेज़ थीं, भारी थीं — जैसे सीने में ज्वालामुखी उबल रहा हो, लेकिन बाहर निकालने से पहले उसे खुद को ज़बरदस्ती शांत करना पड़ रहा हो। कमरे में कुछ देर सन्नाटा पसरा रहा।
आरव के होंठ काँप रहे थे, मगर आवाज़ दबे स्वर में ही निकली — “क्या चल रहा है इस घर में?”
मीरा, जो अब तक आरव को पीठ किए खड़ा देख रही थी, घबरा गई। उसने हिचकते हुए पूछा, “क्या मतलब? क्या चल रहा है इस घर में? मुझे समझ नहीं आ रहा, आरव... तुम्हें हो क्या गया है?” उसने धीरे से कदम आगे बढ़ाते हुए पूछा।
आरव ने एक गहरी साँस ली और धीरे से घूम कर मीरा की ओर देखा। उसकी आंखें अब लाल नहीं थीं, मगर उन में एक चुभन सी थी — सवालों की, टूटे हुए भरोसे की, और अधूरी सच्चाइयों की।
“मतलब ये, कि... जो बातें मुझे अब तक बताई गई थीं, वो सब सच थीं या बस किसी की गढ़ी हुई कहानियां? सुहानी के बारे में जो कहा गया था... क्या वो सब भी बस गढ़ा हुआ सच था, मीरा?”
मीरा की आँखें फैल गईं, उसकी साँसें अब लड़खड़ाने लगी थीं। आरव एक कदम और आगे बढ़ा।
“उन लोगों ने कहा था कि वो लालची है, चालाक है, अपनी माँ की तरह, मगर आज... जब मैंने उसे देखा...” उसकी आवाज़ भर्रा गई।
“जब वो नेला और सिम्बा के साथ ज़मीन पर बैठी थी, उस मासूमियत में... मुझे वो लड़की नहीं दिखी जो सब ने मिल कर मुझे दिखाई थी। मुझे वो लड़की दिखी, जो टूटी हुई है, लेकिन फिर भी किसी से कुछ नहीं कहती।”
“तुम बताओ मीरा, क्या मैं सच जानना चाहता हूं... ये मेरी गलती है?”
कमरे में अब बस घड़ी की टिक-टिक और आरव के भीतर की तड़प सुनाई दे रही थी।
मीरा अब तक कुछ बोल नहीं पाई थी। उसका चेहरा फक पड़ गया था और आरव... अब उस झूठ की दीवारों में दरारें देख पा रहा था, जो इतने सालों से उसके चारों तरफ खड़ी की गई थीं। आरव की आँखें अब भी उस पर टिकी हुई थीं, लेकिन उन आँखों में अब वो आक्रोश नहीं था, जो कुछ देर पहले मीरा को डरा रहा था। अब उन में कुछ और था — एक उम्मीद... या शायद एक आख़िरी मौका।
मीरा ने धीरे से अपनी नज़रें झुका लीं। उसकी उंगलियाँ आपस में उलझने लगीं, वो कुछ सोच रही थी। भीतर एक तूफान चल रहा था — एक युद्ध, जिस में एक ओर उसका अपराधबोध था, और दूसरी ओर उस का डर।
“क्या मुझे सब सच बता देना चाहिए?” मीरा ने खुद से पूछा।
वो जानती थी—अगर आज वो चुप रही, तो शायद हमेशा के लिए सब कुछ खत्म हो जाएगा। लेकिन अगर वो बोल पड़ी... तो फिर सारे परदे हट जाएंगे। उसे याद आई—वो शाम जब उसके घरवालों ने उसे बुला कर कहा था, “आरव को उस लड़की से दूर रखना होगा। वरना इस घर की इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी। वो लड़की अपनी माँ जैसी है….वही चालाकी, वही लालच।”
और उसने अपनी... आंखें बंद कर ली थीं उस झूठ पर। क्योंकि तब उसे खुद आरव चाहिए था…किसी भी कीमत पर। पर अब... अब वो बदल चुकी थी। सुहानी उसकी दोस्त थी और वैसे भी आरव की वो आँखें उसे झूठ बोलने नहीं देती।
“अगर मैंने सच बता दिया, तो मुझे ये भी बताना पड़ेगा कि कैसे मैंने जानबूझ कर सुहानी के खिलाफ आरव के दिल में ज़हर भरा... कैसे मैंने उसके साथ उसकी माँ के केहने पर सालों तक प्यार का नाटक किया, वो भी केवल पैसों के लिए।”
“क्या आरव मुझे फिर कभी माफ़ कर पाएगा? क्या वो देख पाएगा कि मैंने ये सब तब किया था जब मुझे इनके खतरनाक मंसूबों का अंदाजा नहीं था... या फिर वो बस मुझे धोखेबाज़ समझेगा?”
उसने धीरे से अपनी आँखें बंद कर लीं। भीतर से एक आवाज़ आई — “कभी-कभी, किसी को खो देना, सच छुपाने से बेहतर होता है।”
आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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