“तुमने कहा था…कि तुम दोनों के बीच कुछ भी नहीं है।” आरव की आवाज़ काँप रही थी—गुस्से से नहीं, उसकी आवाज़ में दिल टूटने की खनक थी। वो अब पूरी तरह सुहानी के सामने आकर खड़ा था, उसकी आँखें अंधेरे में भी चमक रही थीं—आक्रोश से नहीं, दर्द से।
“और सच बताऊं तो…” उसने हल्की हँसी में खुद को भी कटाक्ष किया, “मैंने तुम्हारी बातों पर भरोसा भी कर लिया था। सचमुच... मैंने मान लिया था तुम्हारी कही हर बात को। तुम्हारे हर शब्द पर, हर आंसू पर यकीन कर लिया था मैंने।”
सुहानी अब भी चुप थी, मगर उसका चेहरा कसने लगा था। आरव की आवाज़ भारी होती जा रही थी।
“मगर देखो ना...”
उसने एक लंबी साँस ली, जैसे खुद को रोक रहा हो और टूटने से, “मैं ही बेवकूफ बन गया। बिलकुल किसी बच्चे की तरह, जो झूठ को भी सच्चाई समझ बैठता है।”
उसने नज़रें मोड़ लीं, एक पल के लिए आसमान की ओर देखा जैसे खुद को संभाल रहा हो, फिर वापस सुहानी की ओर मुड़ा—
“बेवकूफों की तरह मैं यहाँ पिछले एक घंटे से इधर-उधर भटकता रहा। इस फ़िक्र में… कि तुम ठीक तो हो ना? तुम्हें कोई तकलीफ़ तो नहीं हो रही? तुम्हारी फ़िक्र…मुझे तब से खाए जा रही थी जब से तुम उस ऑफिस में गई थी, माँ, चाचू, और ताऊ जी के साथ। हर मिनट, हर सेकंड… बस यही सोचता रहा कि तुम कैसी हो, किस हाल में हो।”
वो कुछ कदम पीछे हटा, फिर खुद पर काबू पाकर आगे बढ़ा।
“और यहाँ तुम क्या कर रही हो, सुहानी? उस विक्रम के साथ… अँधेरी रात को… इन सुनसान गलियों में… अकेली घूम रही थी। वो भी ऐसे वक्त में, जब तुम्हें मेरी किसी भी बात का जवाब देना तक गवारा नहीं।”
सुहानी की पलकों में नमी तैरने लगी थी, लेकिन आरव का आघात अभी खत्म नहीं हुआ था।
“मैं दो बार तो गलत नहीं हो सकता, सुहानी…” उसने लगभग फुसफुसाते हुए कहा, मगर हर शब्द अब तलवार बन चुका था।
“एक बार भरोसा किया था, और तब टूटा था। अब दूसरी बार... मैं टूटना नहीं चाहता। पर तुमने शायद इस बार कोई कसर नहीं छोड़ी।”
और आरव की वो बिखरी हुई आवाज़… जैसे हर लफ़्ज़ एक टूटी हुई सांस में तब्दील हो गया हो— सुहानी का दिल उसी पल टूट कर बिखर गया था। उसकी पलकों की कोरों पर ठहरी नमी अब बहने लगी थी। वो चाहती थी… हाँ, पूरे दिल से चाहती थी कि दौड़ कर आरव को गले से लगा ले। उसे थाम ले, उसे महसूस कराए कि वो अकेला नहीं है, कि उसकी हर चिंता, हर डर, हर टूटा हुआ यकीन…वो सब सुहानी अपने सीने में समेट ले।
वो उसे बताना चाहती थी कि….“तुम जो सोच रहे हो, वैसा कुछ भी नहीं है आरव…”
पर शब्द जैसे गले में ही फँस कर रह गए। क्योंकि हक़ तो बहुत दूर की बात थी, वक़्त भी शायद उसके पास नहीं था इस सफाई के लिए। उसे लग रहा था कि अगर उसने अभी आरव को छू भी लिया, तो शायद उसका दर्द और ज़्यादा बढ़ जाएगा। वो जानती थी…वो चाहकर भी उसे इस वक़्त समझा नहीं सकती। और सच कहें तो…सुहानी हर जगह, हर किसी से जीत सकती थी। पर जब बात आरव की आती थी…तो वो हार जाती थी।
क्योंकि आरव की आँखों में सिर्फ शक नहीं था, बल्कि उसमें वो टूटा हुआ भरोसा भी था जो सुहानी की आत्मा को अंदर तक झकझोर देता था। और बस…उसे वहीं खड़े-खड़े खुद से लड़ते हुए अपने ही आंसुओं को पीना पड़ रहा था।
आरव की भूली हुई यादें…हर पल, हर सांस, जैसे सुहानी को घेर लेती थीं। वो बीते लम्हे जो अब सिर्फ साये बन कर रह गए थे, हर बार सुहानी को यही एहसास दिलाते थे—कि उन के बीच अब भी कितनी गहरी दूरियाँ बाकी हैं।
शब्दों से कहीं ज़्यादा, चुप्पियाँ बोलती थीं उनके बीच और इन चुप्पियों में सब से ज़्यादा तकलीफ़देह था आरव का मौन—वो मौन जो कभी प्यार से भरा होता था, अब अनकहे इल्ज़ामों से लिपटा हुआ था।
सुहानी ने धीमे से गर्दन घुमाई, और आरव की ओर देखा—जैसे उसकी नज़रों से माफ़ी मांग रही हो, जैसे वो चाहती हो कि आरव बस एक बार उसकी आँखों में झाँक ले और सच्चाई को खुद पढ़ ले। मगर वो जानती थी…ये आसान नहीं था।
उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती अब सच नहीं, विश्वास था। वो नहीं जानती थी कि कैसे समझाए आरव को उस स्थिति को जिसे उसने अपनी आँखों से देखा—सुहानी और विक्रम को एक साथ, इस अंधेरी, रहस्यमयी रात में, अकेले।
कैसे समझाए कि जो देखा गया, वो अधूरा सच था?
कैसे यकीन दिलाए कि उसका दिल अब भी उसी के नाम पर धड़कता है, भले ही हालात कुछ और बयान कर रहे हों?
उसका दिल काँप रहा था, नज़रें डोल रही थीं…और जुबान पर जैसे ताले लग गए थे। क्योंकि सुहानी जानती थी—आरव को समझाना, शायद इस वक़्त खुद से लड़ने से भी ज़्यादा मुश्किल था। सुहानी ने आरव की तरफ एक नज़र डाली और फिर तुरंत नज़रें फेर लीं।
कहने को बहुत कुछ था, मगर कहे क्या?
वो जानती थी, सच भी उस की मुश्किलें बढ़ा सकता था और झूठ बोलना तो वैसे भी उसकी आदत में नहीं था। उसे ये बताना सही नहीं था कि विक्रम वहाँ क्यों था, क्या कर रहा था। क्योंकि ये बात—ये पूरी सच्चाई—आरव को और ज़्यादा भड़का सकती थी। और अगर वो ये कह देती कि विक्रम उसे परेशान कर रहा था, तो वो झूठ होता। साफ़ झूठ।
क्योंकि अब, इतने सालों बाद, जब विक्रम एक बार फिर उसके सामने आया था, तो उसके व्यवहार में वो छल नहीं था जो पहले हुआ करता था। वो जानती थी—विक्रम अब बदल चुका है या शायद, वो अब उसे पहले से बेहतर समझने लगी थी।
वो झूठ नहीं बोल सकती थी, क्योंकि झूठ आरव और विक्रम के बीच के रिश्तों की बची-कुची राख को भी आग लगा सकता था। और वो ये नहीं चाहती थी। आरव का गुस्सा, विक्रम की चुप मुस्कुराहट, और उसका खुद का बिखरा हुआ दिल—तीनों के बीच फँसी सुहानी बस एक चीज़ चाहती थी…थोड़ा वक़्त…ताकि वो सब कुछ सही कर सके, बिना किसी के दिल को तोड़े। इसलिए जब वो आरव की ओर मुड़ी और हौले से अपनी नज़रें उठाईं, तो एक पल को वक़्त जैसे ठहर गया था।
आरव बस कुछ कदमों की दूरी पर खड़ा था, सफेद कुरते और पायजामे में एक सजीव सपने जैसा। चांदनी उस पर कुछ ऐसे गिर रही थी, जैसे रात ने खुद उसे छू कर कह दिया हो— “की आज तेरी रोशनी से जहां जगमगायेगा।”
उसका चेहरा, जो अभी कुछ मिनट पहले गुस्से और टूटे भरोसे से तमतमाया हुआ था, अब भी गंभीर था—मगर उस में एक अजीब सी थकावट थी, जैसे बरसों का बोझ उसकी पलकों पर उतर आया हो। और सुहानी…वो बस देखती रही।
हर बार, जब उसने अपने सपनों में किसी राजकुमार को देखा था, तो वो कुछ इसी तरह से उस के सामने आया करता था—सफेद कपड़े, सख्त नज़रें, मगर भीतर कहीं बेहद नर्म दिल। आरव इस रात में उस अधूरी उम्मीद की तरह लग रहा था, जिसे उसने कभी खो दिया था, मगर दिल ने अब तक उसे छोड़ा नहीं था।
सुहानी का दिल किया कि वो सबकुछ भुला कर बस उस पल में समा जाए। मगर वक़्त, हालात और सच्चाइयों ने उसे रोक रखा था। उसने कुछ कहने के लिए होंठ खोले, मगर अल्फ़ाज़ गले में ही अटक गए।
कभी-कभी सिर्फ देखना ही काफी होता है, और आरव को इस तरह देखना…सुहानी के लिए एक पूरी उम्र जी लेने जैसा था। आरव को देख कर, सुहानी के चेहरे पर अनजाने में एक हल्की सी मुस्कान तैर गई थी। ना सोच कर, ना चाह कर… बस यूँ ही… जैसे कोई पुरानी याद पलकों के रास्ते उतर आई हो।
आरव ने उस मुस्कान को देखा, और उसकी आँखों में एक झटका सा आया….वो तिलमिला गया।
“तुम मुस्कुरा क्यों रही हो?” उसने अपनी भौंहें सिकोड़ते हुए, संदेह और चुभन के साथ पूछा। सुहानी का चेहरा एक पल में ही बदल गया। मुस्कान गायब हो गई जैसे किसी ने उस पर ताला जड़ दिया हो।
उस ने धीरे से उंगलियाँ अपने होठों पर रखीं—जैसे जांच रही हो कि वो वाकई मुस्कुराई थी या नहीं।
“मैं... मुस्कुरा रही थी?” उसने खुद से धीरे से पूछा, मानो उसका चेहरा और उसका दिल अब दो अलग-अलग दुनिया में जी रहे हों।
"सॉरी..." उसने लगभग बुदबुदाते हुए कहा, “मेरे दिमाग में कुछ और ही चल रहा था शायद।”
उसका लहजा नर्म था, मगर उतना ही बिखरा हुआ। आरव की आँखों में भरोसे की जगह अब गुस्से और चोट की परछाइयाँ थीं। उसने आँखें चौड़ी कीं, गला साफ़ किया, और फिर अपने शब्दों में तंज की धार मिलाते हुए कहा— “मैं यहाँ अपना दिल खोल कर तुम्हारे सामने रख रहा हूँ… और तुम कह रही हो तुम्हारे दिमाग में कुछ और ही चल रहा था, ‘शायद’?”
वो 'शायद' उसने ऐसे कहा, जैसे वो सुहानी की बेपरवाही का सबूत हो….सुहानी चुप रही। उसका चेहरा सफेद पड़ने लगा था— जैसे एक सवाल उसके भीतर से उठ रहा हो, जो जवाब माँग रहा था…
“पर क्यों?” उसने धीरे से पूछा।
आरव कुछ पल के लिए ठहर गया। उसके चेहरे पर एक अजीब सी उलझन आ गई थी।
“क्यों, क्या?” उसने ज़ोर दे कर कर पूछा, जैसे उस सवाल ने उसे अंदर से छू लिया हो, मगर वो ये मानने को तैयार नहीं था। उसकी आवाज़ में अब गुस्सा कम था…बस एक बेचैनी सी थी। एक अधूरापन, जो ना सुहानी समझ पा रही थी, ना शायद आरव खुद।
“आप अपना दिल खोल कर मेरे सामने क्यों रख रहे हैं, आरव?” सुहानी ने धीमी आवाज़ में पूछा, उसकी नज़रें अब आरव की आँखों में देख रही थीं। और ये सुन कर आरव की साँसें जैसे थम सी गईं। उसके दिल पर एक झटका सा लगा था… जैसे कोई राज़ अचानक उजागर हो गया हो। उसने कुछ भी नहीं कहा… पहली बार, चुप्पी ने उसे बेबस कर दिया था, शायद।
“जब आप खुद कह चुके हैं कि हमारी ये शादी अगले महीने ख़त्म होने वाली है…” सुहानी की आवाज़ अब काँप रही थी, मगर उस में मजबूती भी थी। "जब आप ने मेरे सामने ही मीरा से शादी करने की बात कही…जब आप ने मुझे अपने कमरे में अकेले देख कर मुझे चालाक, गिरा हुआ तक कह दिया…मेरे चरित्र, मेरे आत्म-सम्मान—सब पर सवाल उठा दिए। तो आज, अचानक आप अपने दिल की बातें क्यों बता रहे हैं मुझे?"
आरव अभी भी कुछ नहीं बोला। शायद उसके पास अब शब्द ही नहीं बचे थे।
"अब मैं आपको अपने और विक्रम के रिश्ते की सफ़ाई नहीं दूंगी। एक बार दे चुकी हूं… बार-बार नहीं। अब मेरा सवाल बस ये है कि जब आपको मुझ से कोई रिश्ता ही नहीं रखना, तो मेरे और किसी के रिश्ते से आप को फर्क क्यों पड़ता है?"
सुहानी की आँखें अब भीगी नहीं थीं, मगर उन में एक चुभती हुई आग थी—एक औरत की जो टूटी नहीं है, बस थक चुकी है।
"आप तो ये मानते हैं ना कि मैं चालाक हूं, लालची हूं? तो जब आपकी याददाश्त गई थी, तब एक बार भी आपने मुझसे नहीं पूछा कि क्या मैं सच में वैसी ही हूं, जैसी आपके घरवाले मुझे कह रहे हैं। आपने एक बार भी मेरी आँखों में झांक कर सच जानने की कोशिश तक नहीं की।"
अब आरव की पलकें झुकी हुई थीं। उसके चेहरे पर पछतावे की परछाइयाँ थीं।
“अब जब ये रिश्ता ख़त्म होने वाला है,” सुहानी ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा, "तो कम से कम इस आख़िरी वक्त में मुझे एक अजनबी की तरह ट्रीट कीजिए…या फिर, अगर आप चाहें—तो एक दुश्मन की तरह। क्योंकि दोस्ती और भरोसे की जगह अब यहाँ बची नहीं है… सिर्फ ख़ामोशी है।"
आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रोशतों का क़र्ज़।
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