विक्रम उस कॉरिडोर के मोड़ पर खड़ा था, जहाँ से वह सीधा उस ऑफिस का दरवाज़ा देख सकता था। उसके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान थी—कभी-कभी नफरत और जलन से पैदा हुई मुस्कान, जो तब आती है जब कोई अपने दुश्मन को टूटते हुए देखता है।

उसकी आँखों ने देखा था—कैसे दिग्विजय और गौरवी लड़खड़ाते हुए, एक-दूसरे को सहारा देते हुए, कमरे से बाहर निकले थे। उनके चेहरे पर खौफ था, आँखों में डर और शरीर में थरथराहट। वो इतना घबराए हुए थे कि दरवाज़ा भी बंद करना भूल गए थे।

दरवाज़ा खुला ही रह गया था। और उस दरवाज़े के ज़रिए अब विक्रम को कमरे के भीतर की हर आवाज़, हर लहज़ा साफ़-साफ़ सुनाई दे रहा था। वो वहीं एक किनारे, परछाईं में खड़ा था — चुपचाप, बिना कोई हलचल किए।

“वहीं रुक जाओ, सोचना भी मत।”

सुहानी की वो ठंडी, कड़कती हुई आवाज़ — जो बिल्कुल किसी को भी भीतर तक हिला कर रख दे, ऐसी लगी — उसकी रगों में भी सिहरन दौड़ा गई।वो सुहानी को देख नहीं पा रहा था, लेकिन उसे अंदाज़ा था कि वो किस अंदाज़ में खड़ी होगी — सीना ताने, आंखों में आग, और लहज़े में ऐसी हिम्मत लिए, जो पत्थरों को भी पिघला दे।

वो आवाज़, वो तेवर… रणवीर को रोकने की हिम्मत…

“मैं काजल की बेटी हूं।”

यह वाक्य जैसे विक्रम के सीने में खुशी की लहर बन कर दौड़ गया था। उसकी मुस्कान और गहरी हो गई थी। "वाह, क्या तमाशा है," उसने मन ही मन सोचा।

आज रणवीर को किसी ने चुप करवा दिया था, वो भी उसकी आंखों के सामने। उसके भीतर एक अजीब-सी संतुष्टि थी, जैसे वर्षों से भरा कोई बदला, बिना हाथ उठाए पूरा हो गया हो।

"काजल की बेटी... सही कहा इसने," उसने धीमे से बुदबुदाया। “और ये भी काजल आंटी जैसी ही निकली… तेज़, बेहिचक, और निडर।”

वो अब सुहानी को एक नए नज़रिए से देखने लगा था। न सिर्फ़ काजल की बेटी, बल्कि रणवीर की बराबरी पर खड़ी एक अकेली योद्धा। आज विक्रम की आँखों ने कुछ ऐसा देखा था, जो बहुत सालों पहले कहीं पीछे छूट चुका था। सुहानी की आवाज़ में वही तेज़ी, वही गरज थी—जो उसने स्कूल के दिनों में पहली बार सुनी थी।

जब एक नन्ही सी लड़की, क्लासरूम में सबके सामने खड़ी होकर, एक सीनियर लड़के को उसके बदतमीज़ी के लिए डांट लगा रही थी। उस दिन भी उसकी आँखों में वही आग थी, जो आज है। और आज, इतने सालों बाद, फिर वही आवाज़, वही तेवर — मानो वक़्त ठहर गया हो। विक्रम की मुस्कान थोड़ी और गहरी होने लगी थी।

"अब पहचान में आ रही हो, सुहानी…" वो मन ही मन सोच रहा था।

वो उसे देखता रहा—उसके चेहरे पर आई संतोष भरी मुस्कान, वो आत्मविश्वास… सब कुछ उसे किसी अधूरी कहानी के पूरे होने जैसा लग रहा था।सुहानी अब उस लड़की से कहीं आगे बढ़ चुकी थी। अब वो एक औरत थी—जो आग भी थी और आईना भी।

“वो रिकॉर्डर लाई हो तुम?”

विक्रम ने चुप्पी तोड़ते हुए हल्के से मुस्कुराते हुए पूछा, और अपनी हथेली आगे बढ़ा दी। सुहानी ने एक पल के लिए उसे देखा—जैसे उसकी नज़रों से उसकी नीयत टटोल रही हो। फिर बिना कुछ कहे, उसने अपने पर्स से एक छोटा-सा रिकॉर्डर निकाला और उसके हाथ में रख दिया। दोनों की उंगलियाँ एक पल को छुईं। विक्रम ने उसे थामते हुए हल्के से सिर झुकाया—शायद आभार था, या फिर किसी अनकहे वादे की शुरुआत।

"अब असली खेल शुरू होगा…" उसने धीमे से कहा, और रिकॉर्डर को अपनी जेब में डाल लिया।

सुहानी कुछ नहीं बोली, बस हल्के से मुस्कुराई। उस मुस्कान में बहुत कुछ छिपा था—भरोसा, हिम्मत, और शायद… बदले की शुरुआत। रिकॉर्डर उसके हाथ में थमाने के बाद सुहानी ने एक पल रुक कर कुछ सोचते हुए पूछा— “आरव… वो ठीक हैं ना?”

उसके लहजे में कोई शिकायत नहीं थी, कोई आरोप नहीं था… बस एक सादी-सी चिंता थी, जो हर तूफान के बावजूद भी उसके स्वभाव में छिपी रहती थी। विक्रम ठिठक गया। एक पल के लिए उसने सुहानी को ऐसे देखा जैसे पहली बार देख रहा हो। फिर वो हल्के से हँस पड़ा।

"क्या हुआ?" सुहानी ने थोड़ी हैरानी से पूछा।

विक्रम ने सर झटकते हुए धीमे से कहा, “टिपिकल सुहानी…”

"क्या?" सुहानी ने उसकी ओर थोड़ा झुकते हुए पूछा, “क्या कहा तुमने?”

मगर विक्रम ने कुछ नहीं दोहराया। बस उसकी ओर देख कर हल्के से मुस्कुराया—वो मुस्कान जो सुकून और सच्चाई से भरी होती है—और फिर मुड़ कर चल पड़ा।

सुहानी चुपचाप उसकी पीठ देखती रही। कुछ पल बाद, वो भी बिना कुछ बोले उसके पीछे चल दी। सड़क के किनारे लगे पेड़ों की छाया में दोनों आगे बढ़ रहे थे…बिना शोर के, बिना सवाल के… पर एक अजीब सी समझदारी के साथ। जैसे हर दर्द के बावजूद, रिश्ता अभी भी अपनी जगह पर खड़ा हो।और जैसे हर जवाब को, अब शब्दों की ज़रूरत नहीं—सिर्फ़ साथ की ज़रूरत थी।

“अरे बताओ तो, आरव कैसे हैं, विक्रम? विक्रम!”

सुहानी की आवाज़ में बेचैनी और थोड़ी नादानी झलक रही थी। वह विक्रम के पीछे-पीछे फुसफुसाते हुए हवेली के गार्डन एरिया की पुरानी, पत्थरों से बनी दीवारों तक आ पहुँची थी।

विक्रम ने अचानक ही कदम रोक दिया। सुहानी, जो अपनी जल्दबाज़ी में गुस्से से भर कर उसका नाम ले रही थी, अचानक से विक्रम से टकरा कर रुक गई। उन दोनों की निगाहें कुछ देर के लिए एक-दूसरे में उलझ गईं….सुहानी की आँखों में सवाल, चिंता और उम्मीद थी। विक्रम की आँखों में छुपा एक अनकहा दर्द और हल्की सी परेशानी। वह पल जैसे थम सा गया था, जहाँ सब कुछ बोल रहा था, पर कोई कुछ कह नहीं पा रहा था।

राठौर हवेली का पिछला बाग़, रात की ठंडी हवा में भीग रहा था। चाँद की रोशनी घास पर दूधिया चमक फैला रही थी। पेड़ों की परछाइयाँ ज़मीन पर लहरों सी डोल रही थीं। और दूर, गार्डन के कोने में खड़ा था आरव। उसकी आंखें शून्य में टिकी थीं, मगर चेहरे पर तनाव की परछाईं साफ़ झलक रही थी।

तभी हल्के कदमों की आहट पर आरव का ध्यान टूटा। विक्रम सामने से चला आ रहा था। उसने चलते-चलते आरव को देखा और कुछ पल के लिए ठिठक गया। जैसे कोई पुरानी टीस उसे रोकने लगी हो, मगर वो रुका नहीं। एक क्षण के ठहराव के बाद उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान उभरी और वह धीरे-धीरे आगे बढ़ गया।

फिर उसकी नज़र अचानक सुहानी पर पड़ी—जो पास की झाड़ी के पास खड़ी थी, जैसे कुछ खोज रही हो। चाँदनी में उसका चेहरा शांत था, मगर आंखों में एक गहरी उलझन थी। उसकी भूरी आँखें विक्रम की ओर उठीं और फिर वो कुछ पल के लिए स्तब्ध रह गई।

विक्रम ने सुहानी की आँखों में देखा—उन आँखों में मासूमियत भी थी, जिज्ञासा भी, और कहीं न कहीं एक अदृश्य भय। और शायद वही क्षण था, जब विक्रम उस नज़रों की गहराई में कहीं खो गया। या... शायद, आरव को फिर से जलाने की कोई नई कोशिश कर रहा था।

उसकी चाल में अब एक अलग आत्मविश्वास था। वो सुहानी के पास पहुँचा, और उसकी उलझन भरी निगाहों को देख कर हल्के से मुस्कुरा दिया।

"इतनी रात को अकेले... क्या किसी को ढूंढ रही हो, या फिर खुद से ही मुलाकात करने निकली हो?" विक्रम ने नर्म मगर अर्थपूर्ण लहज़े में पूछा।

सुहानी चौंक कर उसे देखने लगी। उसके शब्दों में नज़ाकत भी थी, तंज भी। सुहानी को समझ नहीं आया कि वो पलट कर जवाब दे या बस चुपचाप वहाँ से चली जाए। लेकिन उसके दिल में जो सवाल थे, वो अब उभरने लगे थे।

"क्या बक रहे हो तुम...?" सुहानी की आवाज़ धीमी थी, लेकिन उस में हैरानी छुपी हुई थी।

"जहाँ खूबसूरत रात हो और उस में तुम जैसी रहस्यमयी लड़की हो... वहाँ कोई भी खिंचा चला आता है," विक्रम ने नज़रे हटाए बिना कहा।

आरव अब भी कुछ दूरी पर खड़ा था, और विक्रम जानता था कि वह देख रहा है। शायद यही वजह थी कि उसके लहजे में एक दिखावटी गर्मजोशी और तेवर की चुभन भी थी। आरव की मुठ्ठियाँ सख्त हो गईं, जब उसने सुना कि विक्रम सुहानी से ऐसी रोमांटिक बातें कर रहा है। उसकी आँखें आग बरसाने लगीं, मगर वो खुद को रोक रहा था।

सुहानी अब भी उलझी हुई थी—क्योंकि विक्रम की आंखों में एक ऐसी बेचैनी थी, जो शब्दों में नहीं कही जा सकती थी। क्या ये सचमुच अपनापन था या फिर इसकी कोई नई चाल? ये सवाल अब उसके ज़हन में कौंधने लगे थे।

“अरे आरव, तुम यहाँ क्या कर रहे हो? हमें तो मालूम ही नहीं था कि तुम यहाँ मिलोगे।”

विक्रम की आवाज़ हल्की-सी गूँजी, लेकिन उसके शब्दों में एक नपे-तुले व्यंग्य की धार थी—जो सीधे आरव के आत्मसम्मान को छूती है। सुहानी की आँखों में जैसे एक क्षण के लिए बिजली दौड़ गई, उसकी साँसें थम सी गईं। विक्रम की इस बात ने जैसे किसी बवंडर को आमंत्रित कर दिया हो।

उसने धीरे से सिर उठाकर आरव की ओर देखना चाहा—मगर हिम्मत नहीं जुटा सकी। उसके भीतर एक अजीब-सी घबराहट फैल गई थी। वो जानती थी... जानती थी कि अगर उसने आरव की आँखों में झाँक लिया, तो वहाँ वही देखने को मिलेगा—लावा-सा उबलता, आंधियों-सा गूंजता, धधकता हुआ आक्रोश।

उसका दिल ज़ोरों से धड़कने लगा, गला सूखने लग गया था। उस पल, हवेली के बाग़ की ठंडी हवा भी उसके माथे पर पसीने की आती बूँदों को ना रोक पाई। वो आरव की तरफ़ न देख सकी। उसकी नज़रें जमी रहीं—विक्रम पर और फिर, जैसे उसकी आँखों से आग निकलने लगी हो।

वो कोई शब्द नहीं कह सकी, मगर उस की नज़रों की भाषा साफ़ थी— “I will kill you.”

हर लफ्ज़, हर तेवर, हर दृष्टि उसी चेतावनी से भरी थी। विक्रम ने ये देखा, साफ़-साफ़ देखा। और उस पर उसका रिएक्शन? एक हल्की-सी दबाई हुई मुस्कान। जैसे कोई शिकारी अपने जाल में फँसी शिकार की तड़प को देख कर सन्तुष्ट हो रहा हो। वो बिना कुछ बोले, गर्दन झुकाए, धीमे-धीमे कदमों से वहाँ से चला गया। लेकिन जाते-जाते उसकी आँखों में शरारत थी—और जीत की चमक।

अब सिर्फ़ आरव और सुहानी रह गए थे उस चाँदनी रात के तले। और उसके बाद की ख़ामोशी... तूफ़ान से भी ज़्यादा भयावह थी। सुहानी की साँसें अब तक तेज़ चल रही थीं। उसकी नज़रें हर ओर भटक रही थीं—कभी ज़मीन पर, कभी दीवारों पर, कभी उस रास्ते पर जहाँ से अभी-अभी विक्रम गया था।

मगर बस एक तरफ उसकी नज़रें नहीं देख रही थी—आरव। फिर भी... वो उसकी आँखों की तपिश अपनी रूह तक महसूस कर रही थी। वो नज़रों से नहीं, मगर उस दर्दनाक गर्मी से जान रही थी कि आरव उसे घूर रहा है। जैसे उसकी आँखें उसे जला कर राख कर देना चाहती हों। उसका दिल बार-बार काँप रहा था।

वो चीख क्यों नहीं रहा?

क्यों खामोश है?

इस सन्नाटे में भी उसका ग़ुस्सा आंधी-सा क्यों गूंज रहा है?

सुहानी ने खुद को संभाले रखा। वो पलटना नहीं चाहती थी। देखना नहीं चाहती थी वो चेहरा, जहाँ अब शायद मोहब्बत नहीं, सिर्फ़ अविश्वास और आक्रोश की परतें हों। उस ने तय कर लिया…कुछ मत बोलो। चुपचाप निकल जाओ यहाँ से ।

शायद, अगर वो कुछ नहीं बोलेगी… अगर उसे देखेगी भी नहीं… तो आरव भी उसे जाते हुए नहीं देखेगा। शायद वो बस... उसे नज़रअंदाज़ कर देगा। उसने दो धीमे, डरते-डरते कदम दरवाज़े की ओर बढ़ाए ही थे कि— “वहीं रुक जाओ...”

आवाज़ भारी थी। ठंडी, मगर तलवार जैसी धारदार। सुहानी का पूरा शरीर थरथरा गया, उसके पैर उसी पल ज़मीन से जैसे चिपक से गए। वो रुक तो गई... मगर फिर भी नहीं मुड़ी। उसकी पीठ अब आरव की ओर थी, मगर दिल उसके शब्दों के नीचे काँप रहा था। उसके हाथ हल्के से काँपने लगे। साँसें अनियंत्रित सी हो गईं।

आरव की खामोशी अब टूट चुकी थी। और ये सिर्फ़ शुरुआत थी…एक ऐसे तूफ़ान की, जिसका सामना सुहानी को अब हर हाल में करना था।

“जानती हो ना,” आरव की आवाज़ आई—धीमी, मगर भीतर तक चीर देने वाली, “कि नज़रें चुराने का मतलब होता है कि तुम ने कुछ छुपाया है… कुछ चुराया है। कोई गुनाह किया है।”

वो अब उसकी ओर धीरे-धीरे क़दम बढ़ा रहा था। हर कदम के साथ फर्श पर उसकी भारी चाल की गूंज, सुहानी के दिल की धड़कनों से टकरा रही थी।

“क्या तुम ने कुछ गलत किया है, सुहानी?”

“क्या तुम्हारी कोई चोरी पकड़ी गई है, सुहानी?”

सुहानी की आँखें अब भी ज़मीन पर गड़ी थीं, मगर दिल में जैसे एक बवंडर उठ खड़ा हुआ था। उसके होंठ काँपे, मगर उस ने खुद को संभाला। उसका गला रूंधा हुआ था, मगर उस ने शब्दों को किसी तरह धकेला…

“आरव... प्लीज़...” उसकी आवाज़ बमुश्किल फूट सकी।

“मैं फिर से इस बहस में नहीं पड़ना चाहती…”

उसने आरव की तरफ़ अब तक नज़रें नहीं उठाईं थीं। क्योंकि वो जानती थी—अगर उस ने एक बार भी उस की आँखों में देखा, तो वो उस सच्चाई को झुठला नहीं पाएगी जो वहां बसी हुई थी, प्यार भी था, गुस्सा भी... और दिल तोड़ने का दर्द भी।

मगर आरव थमा नहीं। उसका चेहरा अब बस कुछ इंच दूर था। उसके शब्द अब फुसफुसाहट जैसे थे, मगर हर अक्षर बर्फ़ सा चुभ रहा था— “तुम्हारी खामोशी सब कुछ कह रही है, सुहानी…”

 

आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़। 

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