रणवीर के भीतर जैसे वर्षों से दबी हुई ज्वाला भड़क उठी थी। उसने आगे बढ़कर दिग्विजय की गर्दन ज़ोर से पकड़ ली और उसे धक्का देते हुए दीवार से चिपका दिया।
“मुझ से सवाल करोगे?” उसकी आवाज़ अब डरावनी हो चुकी थी, आंखों में लहू उतर आया था। “इतने दिनों से अपने असली रूप को काबू में रखा हुआ है, तो क्या अब तुम दोनों के पर निकल आए हैं?”
गौरवी चीख पड़ी, “रणवीर! छोड़ो उन्हें… पागल हो गए हो क्या!”
लेकिन रणवीर ने एक बार भी उसकी तरफ देखा तक नहीं। “बीते दिनों में कितनी भूल-चूक माफ की है मैंने। याद दिलाऊं तुम्हें?”
वो अब सीधे दिग्विजय की आंखों में आंखें डाल कर दांत पीसते हुए बोल रहा था। दिग्विजय अब छटपटा रहा था, उसकी सांसें फंसी हुई थीं। रणवीर ने उसके और करीब जाते हुए कहा, “तुम्हारी उन सारी गंदी साजिश पर मैंने पर्दा दाल दिया, क्योंकि मुझे लगा था, भाई हो… परिवार हो। पर तुम तो एहसान फरामोश निकले!”
“और तुम गौरवी…” अब उसकी गर्दन घूमी, उसकी निगाहें गौरवी पर जा टिकीं, “तुम्हारी ही बहन को प्यार करता था मेरा भाई…और तुमने उसकी जगह खुद को बैठा दिया, उसकी मौत के बाद उसकी सारी निशानियां मिटा दीं। क्यों? ताकि तुम्हारा झूठा रिश्ता सच्चा लगे?”
गौरवी अब कांप रही थी, उसकी आंखों से आंसू बहने लगे थे।
“तुम दोनों ने केवल षड्यंत्र रचे, और मैं सालों से भाईचारे को निभाता रहा… क्यों? क्योंकि मुझे भरोसा था कि एक दिन तुम लोग अपने घुटनों पर आ जाओगे। पर अब नहीं!” रणवीर ने कहा।
दिग्विजय की आँखें अब रक्तवर्णी हो चुकी थीं। जैसे ही रणवीर की उंगलियाँ उसकी गर्दन पर कसती चली गईं, उसकी सांसें थमने लगीं। चेहरा नीला पड़ने लगा था, आँखों में दहशत, पछतावा और डर सब एक साथ उमड़ रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो रणवीर ने उसकी साँसों की नली ही जकड़ ली हो, जैसे हर साँस को उसके गुनाहों की सज़ा मिल रही हो। गौरवी अब पूरी तरह हिल चुकी थी। उसके घुटनों में जान नहीं बची थी। वो काँपते हुए, घुटनों के बल रणवीर के पास जा गिरी।
“रणवीर… छोड़ दो उन्हें… गलती हो गई है हम लोगों से। हम दोबारा कभी तुम पर शक नहीं करेंगे… कभी कुछ नहीं पूछेंगे… बस छोड़ दो उन्हें… देखो उनकी हालत… मर जाएंगे वो…”
गौरवी की आवाज़ अब भारी हो चुकी थी, लेकिन रणवीर की आँखों में अब भी आग जल रही थी। उसने दिग्विजय की आँखों में देखा — वो आँखें जो कभी सत्ता के गर्व से भरी रहती थीं, अब मौत के डर से नम थीं।
“मर ही जाना चाहिए शायद इन्हें…” रणवीर के शब्द ऐसे थे जैसे कोई गहरी चोट।
लेकिन एक पल में, जैसे अंदर से कोई उसे रोक गया। शायद भाई होने की अंतिम डोर, या किसी अतीत की याद। उसने दिग्विजय की गर्दन से धीरे-धीरे अपनी पकड़ ढीली कर दी। रणवीर ने दिग्विजय की गर्दन से हाथ हटाया, और उसे एक जोरदार धक्का दिया। दिग्विजय लड़खड़ा कर नीचे गिर पड़ा, हांफते हुए।
दिग्विजय ज़मीन पर ढेर हो गया, जैसे ज़िंदगी फिर से अंदर लौट आयी हो। रणवीर ने कमरे में नज़र घुमाई। एक सन्नाटा, एक सिहरन, एक डर।
“जाओ यहां से, सब के सब!” वो चीखा — इतनी तीव्रता से की दीवारें तक कांप उठीं।
पीछे बैठी सुहानी अब शांत थी, लेकिन उसकी आँखों में एक चमक थी — “अब बस तमाशा शुरू हुआ है…”
सुहानी के होंठों पर अब एक गहरी मुस्कान थी। ‘आग तो मैंने लगाई थी, पर अब ये राख नहीं, तूफ़ान बनेगी।’
दिग्विजय अब भी हाँफ रहा था। उसके फेफड़े जैसे हवा के लिए तरस रहे थे, और चेहरा पसीने से तर-ब-तर था। उसकी आँखों में अब कोई रौब नहीं बचा था, बस डर और हार का अक्स था। वो ज़मीन पर घुटनों के बल गिर पड़ा था। गला सूख चुका था, और शरीर काँप रहा था।
गौरवी ने तुरंत उसके कांपते कंधों को थामा। उसकी हालत देख कर उसकी आँखों में भी आँसू आ गए। "चलो… चलो यहां से," उसने कांपती आवाज़ में कहा, जैसे जानती हो कि अब एक पल की देरी भी भारी पड़ सकती है।
दिग्विजय ने जैसे-तैसे अपने पैरों को ज़मीन पर संभाला और गौरवी के सहारे उठ खड़ा हुआ। उसके कदम लड़खड़ा रहे थे, मगर डर इतना हावी था कि उसने पीछे मुड़कर देखना भी जरूरी नहीं समझा।
दरवाज़े की ओर भागते हुए, दोनों का हर कदम जैसे रणवीर के गुस्से से दूर जाने की कोशिश कर रहा था।
गौरवी ने हिचकते हुए दिग्विजय को सहारा दिया और दोनों लड़खड़ाते हुए बाहर की ओर बढ़े। लेकिन रणवीर की आँखें अब भी पीछा कर रही थीं — जैसे वो कह रही हों, “यह अभी अंत नहीं है… अभी हिसाब पूरा नहीं हुआ।”
रणवीर अब भी गुस्से से आग उगलती नज़रों से उन्हें देख रहा था, लेकिन उसने कोई हरकत नहीं की। शायद जानता था कि उसका डर ही अब उन्हें तोड़ने के लिए काफी है। जैसे ही उन्होंने कमरे से बाहर कदम रखा, रणवीर ने एक गहरी साँस ली और पीछे पलटते हुए फर्श की ओर देखा। उसकी मुट्ठियाँ अब भी भींची हुई थीं।
कमरे में अब सिर्फ रणवीर और सुहानी रह गए थे। और उस कमरे में फैला सन्नाटा, रणवीर के अंदर ज्वालामुखी की तरह धधकते गुस्से का प्रमाण था। सुहानी अब भी उसी कुर्सी पर बैठी थी, मगर उसकी आँखों में अब पहले जैसा असमंजस या भय नहीं था — वहाँ अब बस खामोश समझ और भीतर तक उतरती सच्चाई थी। वो रणवीर को देख रही थी—एक ऐसे रूप में, जो शायद बहुत कम लोगों ने देखा होगा, और जो देखने के बाद कोई भी चैन की नींद नहीं सो सकता।
रणवीर की साँसें अभी भी तेज़ थीं। उसकी आँखों में अब भी आग सुलग रही थी। गुस्से से लाल चेहरा, भींचे हुए जबड़े, और मुठ्ठियाँ — जैसे अभी भी उसके अंदर का राक्षस पूरी तरह शांत नहीं हुआ था। और अब... सुहानी को समझ आने लगा था।
अब समझ आया था उसे कि क्यों दिग्विजय और गौरवी रणवीर के सामने कांपते थे। क्यों उनके चेहरे पर उसकी मौजूदगी ही सिहरन ला देती थी। उसे अब समझ आने लगा था कि उसकी माँ, काजल — एक बहादुर, दृढ़ नारी — रणवीर का कौन-सा चेहरा देख कर विशाल भाई और उनकी असली माँ मंदिरा को लेकर रातों-रात भाग गई थीं। क्यों छुपी हुयी थीं। क्यों काजल ने कभी पलट कर रणवीर का सामना नहीं किया।
क्योंकि रणवीर के भीतर कोई इंसान नहीं था उस वक़्त — एक खूंखार राक्षस था। ऐसा राक्षस, जो अगर उकसाया जाए, तो किसी का भी सर्वनाश कर सकता था। लेकिन… सुहानी अब वो मासूम, डरी-सहमी हुई लड़की नहीं थी जो इस घर में पहली बार आई थी।
बीते कुछ दिनों में उसने अपनों के मुखौटे उतरते देखे थे। अपनों की छुरियाँ पीठ में चुभती महसूस की थीं। बेवफाई, धोखा, अपमान, और अकेलेपन का ज़हर चख लिया था। और अब, उसे राक्षसों से डर नहीं लगता था। उसने धीमे से सिर उठाया और रणवीर की ओर देखा — बिलकुल निडर, बिना झुके, बिना काँपे।
उसकी आँखों में अब डर नहीं, बल्कि एक अजीब सी निर्भीक मुस्कान थी। जैसे कह रही हो — “मैंने तुम्हारे जैसा राक्षस देखा है… मगर मैं अब तुम्हारी तरह बनना नहीं चाहती। और मैं तुम से डरने वालों में से नहीं हूँ।”
रणवीर की नज़रें भी उससे टकराईं — और पहली बार, उसे ऐसा लगा, जैसे सुहानी अब सिर्फ सवाल नहीं पूछेगी… वो जवाब भी खुद ही ढूंढ लेगी।
सुहानी ने गहराई से साँस ली और धीरे-धीरे अपनी कुर्सी से उठी। उसकी चाल में अब वो घबराहट नहीं थी, जो पहले कभी हुआ करती थी। अब उसकी हर हरकत में ठहराव था, जैसे हर कदम से वो अपने अंदर की शक्ति को और मजबूत कर रही हो।
तभी उसे तेज़ कदमों से अपनी ओर आते हुए रणवीर की आहट सुनाई दी। उसकी आँखों में अब भी क्रोध की लपटें थीं, चेहरा सख्त, और मिज़ाज बेकाबू। लेकिन सुहानी डरी नहीं। उसने झटके से पलट कर रणवीर की तरफ देखा, और उसकी आँखों में सीधे आँखें डालते हुए गरज उठी—“वहीं रुक जाओ! सोचना भी मत!”
रणवीर के कदम वहीं थम गए। उसकी आँखों में पहली बार हैरानी झलकने लगी — क्या यह वही सुहानी है जो एक ज़माने में खुद को संभाल तक नहीं पाती थी?
सुहानी अब पूरी तरह उसके सामने आकर खड़ी हो गयी थी। उसकी आवाज़ में ऐसी दृढ़ता थी, जो किसी तूफान का भी रुख बदल सकती थी।
"मेरे साथ ये सारे पैंतरे नहीं चलने वाले, रणवीर।" उसने ऊँगली उठा कर कहा, उसकी आवाज़ में अब धमकी नहीं, बल्कि सच की चुभन थी।
“अगर तुम्हें ये लगता है कि तुम्हारे इस नाटक, इस गुस्से, इस दिखावे से मैं डर जाऊंगी या टूट जाऊंगी…” वो एक कदम आगे बढ़ी, उसकी आँखें अब रणवीर की आँखों में उतर चुकी थीं।
“तो एक बात याद रखना — मैं काजल की बेटी हूँ।”
ये शब्द किसी हथौड़े की तरह रणवीर पर गिरे। उसका चेहरा एक पल को सन्न पड़ गया… जैसे सुहानी ने उसकी सब से गहरी कमजोरी को पहचान लिया हो। वो सुहानी, जो कभी सिसकियों में सिमट जाया करती थी… आज रणवीर जैसे ज्वालामुखी को रोक दिया था उस ने। उसके शब्द हवा में गूंज रहे थे, जैसे किसी नए युग की दस्तक दे रहे हो।
रणवीर की मुठ्ठियाँ अब भी भींची थीं, लेकिन उसकी आँखों में पहली बार हल्की नरमी की परछाईं आई। जैसे उसे उस पल सुहानी में काजल की झलक दिखाई दी हो — एक नारी, जो टूट कर भी झुकी नहीं, जो बिखर कर भी नफ़रत का जवाब प्यार से देने की हिम्मत रखती थी।
"तुम्हें लगता है कि डरा कर, चिल्ला कर, किसी का गला घोंट कर तुम जीत जाओगे?" सुहानी बोली, “नहीं रणवीर… असली ताकत किसी की साँसें रोकने में नहीं, किसी को ज़िंदा छोड़ कर उसे आइना दिखाने में है।”
वो आगे बढ़ी — धीमे, लेकिन ठोस कदमों से। उसकी चाल में अब वो लचक नहीं थी जो कभी किसी दुल्हन की पहचान मानी जाती थी। उस में अब सिर्फ एक स्त्री थी — जिस ने अपमान को सहा, पीड़ा को सहा था, और अब हिम्मत को ओढ़ लिया था।
सुहानी ने रणवीर को एक तीखी नज़र से घूरा, और बिना एक शब्द और कहे, पूरी गरिमा के साथ पलटी — और ऑफिस से बाहर निकल गई। रणवीर निःशब्द खड़ा रहा। जैसे शब्द उससे छीन लिए गए हों, उसने पहली बार किसी को, किसी और को… खुद से भी ज़्यादा ताकतवर महसूस किया। और वो ताकत थी सुहानी की निर्भीकता।
उसने सुहानी को देखा — एक स्त्री, जो अब ना केवल अतीत से लड़ रही थी, बल्कि भविष्य को भी अपनी मुट्ठी में लेना जानती थी। उसके कदम अब और भी दृढ़ थे। जैसे वो जानती थी, कि अब जो भी होगा — वो उसकी शर्तों पर होगा।
सुहानी ऑफिस से बाहर निकली, उसकी चाल में अब भी वही आत्मविश्वास था, लेकिन अब उसके भीतर बहुत कुछ उथल-पुथल हो रहा था। आज उसकी माँ का पता मिलते-मिलते रह गया था। बाहर हवाओं में एक अलग ही सन्नाटा पसरा था—जैसे सारे पेड़ पौधे, सब उसकी ओर ही देख रहे हों, लेकिन कोई कुछ कह नहीं पा रहा हो।
जैसे ही वो कोरिडोर के मोड़ पर पहुँची, एक परछाईं उसके पीछे पीछे चलने लगी थी….विक्रम।
वो एक कोने से चुपचाप निकला, अपने भीतर कुछ दबाए हुए, और बिना कोई आवाज़ किए उसके पीछे-पीछे चल पड़ा। उसकी नज़रें सुहानी की पीठ पर थीं, लेकिन वो आँखों से कहीं ज़्यादा उसे उसके हाव-भाव से पढ़ रहा था।
जब वो अकेली नज़र आई, तो उसने हाथ से उसका रास्ता रोक लिया। सुहानी चौंकी नहीं, बस पलटी और उसे घूर कर देखने लगी। विक्रम बिना कुछ कहे, उसे सब की नज़रों से दूर, एक पुराने, विशाल और मोटी जड़ों वाले पेड़ की ओर ले गया। वहाँ पेड़ की घनी छांव और जड़ों की ओट में एक सन्नाटा था — जो सिर्फ़ उनकी साँसों से टूट रहा था।
सुहानी ने कोई विरोध नहीं किया। शायद क्योंकि वो जानती थी, कि विक्रम अब उसका साथ दे रहा है, और अब धीरे धीरे उसे विक्रम पर भरोसा होने लगा था। वो एक पल को उसे देखता रहा। फिर उसकी नज़रें सुहानी के चेहरे के तेज़ पर टिक गईं। उस तेज़ में जो एक उम्मीद की आंच थी, उस तेज़ ने विक्रम को ये साफ़ इशारा दे दिया था — “उस से अब ये पूछने की ज़रूरत नहीं है कि ‘क्या तुम ठीक हो?’”
क्योंकि सुहानी तो बिलकुल ठीक थी। लेकिन ‘वो लोग’ — जो उस कमरे में उसके साथ थे, जिन से वो अकेली भिड़ रही थी — शायद अब वो कभी ठीक नहीं होने वाले।
विक्रम ने कुछ कहने के लिए अपने होठ हिलाए, पर उन से कोई शब्द बाहर नहीं निकले। सुहानी ने उसकी ओर देखा, और जैसे बिना कुछ बोले ही बहुत कुछ कह दिया हो। सुहानी वहां खड़ी थी, और विक्रम भी वहीं खड़ा रह गया — उसके लहराते बालों और आत्मविश्वास की खुशबू में खुद को फिर से खोता हुआ।
अब सुहानी सिर्फ एक किरदार नहीं थी — वो एक नयी शुरुआत थी।
आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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