हवेली की दीवारों के बीच पसरा सन्नाटा जैसे अब बोझिल होने लगा था। सुहानी की बातों और गौरवी के चेहरे के बदलते रंगों के बीच, एक और सवाल अचानक उभर कर सामने आ गया।
गौरवी की आवाज़, जो अब तक आक्रोश और घमंड से भरी होती थी, इस बार कहीं ज़्यादा डरी हुई और डामाडोल सी सुनाई दी।
“तुम्हें लगता है, दिग्विजय भाई साहब को रणवीर ने किडनैप किया होगा?” उसने सीधे सुहानी से पूछा, लेकिन उसकी आँखों में जैसे जवाब की भीख माँगती एक बेचैनी थी।
सुहानी ने एक गहरी सांस ली, फिर गौर से गौरवी की आँखों में देखा….“किडनैप या फिर…” उसकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन उस में छिपे संकेत ने जैसे कमरे की हवा जमा दी थी।
वो अपनी बात को अधूरी छोड़ देती है, लेकिन गौरवी समझ जाती है, कि अधूरा शब्द कौन सा था — “या फिर मर्डर…?”
गौरवी की आँखें फैल जाती हैं….“नहीं!”
वो लगभग चीखते हुए कहती है। उसकी आवाज़ में इस बार न क्रोध था, न धमकी — बस एक अस्वीकार, एक डर, और खुद को समझाने की कोशिश।
“नहीं... वो ऐसा नहीं कर सकता। वो अपने बड़े भाई के साथ ऐसा नहीं कर सकता।”
उसका चेहरा फक पड़ जाता है, और उसके शब्द जैसे केवल सुहानी को नहीं, खुद उसे भी यकीन दिलाने की कोशिश कर रहे होते हैं। मगर सुहानी चुप थी। उसका मौन, अब गौरवी की आवाज़ से कहीं ज़्यादा असरदार था।
गौरवी की साँसें अब भी बेतरतीब थीं, और उसकी आँखों में डर के साथ एक बेबस उम्मीद तैर रही थी — शायद अभी भी रणवीर उसके साथ खड़ा होगा, शायद अभी भी सब संभल जाएगा। लेकिन सुहानी की आँखों में अब एक ठहराव था। वह गौरवी के बेहद करीब आकर, नज़रों में नज़रे डाल कर बोलती है — उसकी आवाज़ में चुभन थी, पर हर शब्द नपे-तुले हथियार जैसा असर छोड़ रहा था।
“Are you sure?” सुहानी की आवाज़ में तंज था — एक सधा हुआ व्यंग्य जो गौरवी के भीतर सीधा उतरता गया।
“लगता है आपको रणवीर को लेकर बहुत बड़ी गलतफहमी है, गौरवी जी।” उसने "गौरवी जी" शब्दों पर हल्का ज़ोर दिया, जैसे किसी नकली सम्मान से लपेट कर, कड़वे सच परोस रही हो।
“आप चाहे उनसे कितना भी प्यार करें — अगर आप इस पागलपन को प्यार कहें तो — जो भी हो, वो आपसे कभी प्यार नहीं करेंगे।”
गौरवी की आँखें अब डर और क्रोध के मिले-जुले भाव से फैल गई थीं, लेकिन सुहानी रुकी नहीं।
“और जानती हैं क्यों?” उसने कुछ सेकंड का विराम लिया — जैसे अगले शब्द उसके लिए नहीं, सिर्फ गौरवी के लिए हों।
“क्योंकि वो आज तक मेरी माँ को भूल नहीं पाए हैं। वरना क्यों, उनके ज़िंदा होने की खबर मिलते ही, उन्होंने मेरी माँ को फिर से किडनैप कर लिया?”
हर वाक्य के साथ, सुहानी जैसे गौरवी की सारी झूठी उम्मीदों की नींव को एक-एक कर गिरा रही थी।
“वो आज भी केवल उन्हीं से प्यार करते हैं।”
कमरे की हवा फिर से भारी हो चुकी थी। गौरवी की आँखों में अब गुस्से की नहीं, एक टूटी हुई आत्मा की परछाईं थी — जैसे सालों से पल रही एक झूठी दुनिया, अब खुद उसके सामने ढह रही हो।
गौरवी की रगों में अब जैसे उबाल आ गया था। सुहानी के शब्दों ने उसके भीतर जो ज्वालामुखी था, उसे उबाल दिया था। उसका चेहरा तमतमाया हुआ था, आँखें आंसू और क्रोध से भरे हुए, और होठ काँपते हुए दिख रहे थे।
“तुम झूठ बोल रही हो!” उसकी चीख़ दीवारों से टकराकर लौटती है — जैसे कोई अंधेरे कमरे में अचानक दरवाज़ा पीटने लगे।
“ये सब झूठ है!” वो एक कदम आगे बढ़ती है, उसकी आवाज़ में अब desperation साफ़ झलक रहा था — एक ऐसा डर जो किसी विश्वास के ढहने से उपजता है।
“ये सब झूठ है!” इस बार उसने जैसे खुद को ही समझाने के लिए दोहराया — और फिर उसकी आँखों में एक पुरानी स्मृति कौंधी।
“तुम्हारी माँ को जब दिग्विजय भाई साहब ने उस दिन...” उसका स्वर थोड़ी देर को धीमा पड़ गया — जैसे दिल से निकली सच्चाई जुबां पर आते ही भारी हो गई हो।
“...खुद उसकी गाड़ी में उड़ा दिया था...” उसका चेहरा अब स्याह हो चुका था, मानो वो उस दृश्य को फिर से अपनी आँखों के सामने होते हुए देख रही हो — धुआँ, आग, और काँच के बिखरे टुकड़े।
“...तो फिर वो ज़िंदा कैसे हो सकती है?” वो अब सुहानी की आँखों में नहीं देख रही थी — बल्कि कहीं अपने भीतर झाँक रही थी। उसकी आवाज़ में अब चीख़ नहीं थी, बल्कि डरी हुई एक फुसफुसाहट थी — जैसे वो खुद से पूछ रही हो, कि अगर ये सच है... तो बाकी सब क्या था?
“क्योंकि वो मेरी माँ थीं ही नहीं...” सुहानी का स्वर ठंडा था — स्थिर, लेकिन उसकी हर बात में एक ऐसा दर्द था जो दिल की गहराई से निकलता है। उसकी आँखों में अब डर नहीं, केवल सच्चाई की आग थी।
गौरवी के चेहरे पर पहले अविश्वास की एक लकीर उभरी — जैसे वो उस वाक्य को पूरी तरह समझ नहीं पाई हो। मगर सुहानी ने रुकने का नाम नहीं लिया। उसने गौरवी की आंखों में देखते हुए कहा — “उसमें कोई और था। कोई ऐसा जो दिग्विजय राठौर के बहुत करीब था...”
अब गौरवी की पलकें काँपने लगीं। जैसे उस अँधेरे में कोई जानी-पहचानी परछाई उभर आई हो, जिसे वो पहचानना नहीं चाहती थी।
"यही जानने के बाद तो..." सुहानी ने एक गहरी साँस ली, जैसे उन क्षणों को वो फिर से जी रही हो।
“...वो रणवीर के पास अपनी रिवॉल्वर लेकर गए थे...” उसकी आवाज़ अब कुछ भारी हो चली थी, मगर हर शब्द सटीक था — जैसे किसी तीर की तरह सीधा दिल में उतरता हुआ।
“...और देखो, वो तब से ही गायब हैं।” उस एक वाक्य के साथ जैसे कमरे की हवा ठहर गई। गौरवी की साँसें अब बेकाबू थीं, आँखें फैली हुई, और चेहरा एक भय और अविश्वास के बीच झूलता हुआ लग रहा था।
रणवीर... दिग्विजय... और वो राज़… सब कुछ अब उसके सामने धीरे-धीरे खुलता जा रहा था, मगर जितना ज़्यादा खुल रहा था — उतना ही गहरा, उतना ही घातक साबित हो रहा था।
गौरवी की आँखों में हैरानी और भय एक साथ कौंध उठे। उसके होठ खुले रह गए जैसे शब्दों ने उसका साथ छोड़ दिया हो। फिर अचानक जैसे भीतर से कुछ टूटा — उसने काँपती आवाज़ में कहा, “तुम्हारे कहने का मतलब... कि उस दिन उस गाड़ी में... तुम्हारी माँ काजल नहीं थीं?”
उसका गला सूखने लगा था, “बल्कि दिग्विजय भाई साहब की... प्रेमिका मंदिर थी?”
सुहानी की नज़रें एक पल के लिए गौरवी के चेहरे पर टिकी रहीं। वो अब भी शांत थी, मगर उसकी आवाज़ में एक निर्विवाद सच्चाई का बोझ था — एक ऐसा सच जो न केवल गौरवी की दुनिया हिला देने वाला था, बल्कि उस झूठ को भी चीर रहा था, जिसमें वो अब तक जी रही थी।
“और उनका बेटा...” सुहानी का स्वर एक पल के लिए काँपा, लेकिन फिर वो खुद को समेटती है। उसने फिर से अपनी एक्टिंग स्किल्स को बखूबी इस्तेमाल किया।
“ऋत्विक भी उसी गाड़ी में था।”
गौरवी का चेहरा फक पड़ गया। वो दो कदम पीछे हटती है, जैसे ज़मीन उसके पैरों के नीचे से खिसकने लगी हो। उसकी आँखें अब केवल अविश्वास से नहीं, बल्कि भय से भी भरी हुई थीं। उसके दिमाग में जैसे वर्षों पुराना एक विस्फोट हुआ — ऐसा सच, जिसे जानने से बेहतर था कि वो कभी सामने ही न आता।
उसे लगने लगा कि अब वो जिस घर, जिस रिश्ते, जिस सत्ता पर गर्व करती थी — वो सब रेत की तरह उसकी मुट्ठी से फिसलता जा रहा है।
“नहीं... ये झूठ है...” गौरवी की आवाज़ काँप रही थी, और उसके होंठ बेतरतीब ढंग से हिल रहे थे। जैसे उसके भीतर का यकीन अब उसकी साँसों को रोकने लगा हो।
“ये... ये सच नहीं हो सकता...” उसने दोनों हाथों से अपनी छाती को थाम लिया, जैसे दिल की धड़कनों को ज़ोर से पकड़ लेना चाहती हो।
“लेकिन उस दिन तो…” वो एक कदम पीछे हटती है, उसकी आँखें अब धुंधला रही थीं, और शब्दों के पीछे डर छुपा हुआ था।
“…उस गाड़ी में तो बस एक ही बॉडी मिली थी…”
वो उस पल में खो जाती है — वह भयानक रात, जलती हुई गाड़ी, चारों ओर धुआँ और अफरा-तफरी। उसकी यादों में वो शोर आज भी गूंजता था। मगर तब उसे बस यही बताया गया था — एक ही शव मिला, पूरी तरह जल चुका था।
उसे यही यकीन दिलाया गया था कि वही काजल है — सुहानी की माँ, जो राठौरों की दुश्मन थी। मगर अब? अब ये खुलासा उसके पूरे विश्वास को झकझोर रहा था।
"एक ही बॉडी?" सुहानी आगे बढ़कर उसकी आँखों में झांकते हुए कहती है, “कभी सोचा क्यों? कभी जानना चाहा, वो बॉडी किसकी थी? या आप लोगों ने बस मान लिया, जो आपको बताया गया?”
गौरवी अब खुद से लड़ रही थी — अपनी यादों से, अपनी नज़रों से, और उस विश्वास से जिसे उसने सच मानकर पूरी उम्र किसी से नफरत में काट दी थी।
“वो एक बच्चा था...”
सुहानी ने आँखें भींचीं, जैसे अतीत की किसी भयानक स्मृति से उभरने की कोशिश कर रही हो। फिर उसकी आवाज़ में एक काँपता हुआ आक्रोश उभरता है — पर ये गुस्सा उतना असली नहीं था, जितना उसे बनाकर दिखाया गया था।
"...उसका शरीर उस धमाके को झेल नहीं पाया। Evaporate हो गई थी उसकी पूरी बॉडी।”
उसने यह कहते हुए नज़रें नीची कर लीं, जैसे दर्द उसके अपने भीतर समा रहा हो। पर असल में वो गौरवी की आँखों में सच्चाई की हलचल देखने से पहले खुद को संयत कर रही थी।
गौरवी स्तब्ध रह गई। उसकी आँखें फैल गईं — अविश्वास, भय और दर्द सब एक साथ उनमें उभर आया था। वो सुहानी को घूरती रही… न बोल पाई, न सांस ठीक से ले पाई।
“Evaporate?” उसने धीमे से बुदबुदाया। उसकी पलकों की कोर तक गीली हो चुकी थी। मगर वो रो नहीं रही थी — वो टूट रही थी। वो दृश्य जैसे उसकी आँखों के सामने दोबारा जीवित उठा था — जलती हुई गाड़ी, दहशत में भागते लोग, और राख में तब्दील हो चुका सब कुछ।
उसने कभी उस बच्चे के बारे में नहीं सोचा था। कभी किसी ने बताया ही नहीं कि वहाँ एक और जान थी।
और अब जब उसे पता चल रहा था…तो यह सच्चाई न मानी जा रही थी, न अस्वीकार हो रही थी। गौरवी की उंगलियाँ एक-दूसरे में जकड़ गईं। उसका गला सूख चुका था, पर कुछ पूछने की हिम्मत नहीं बची थी।
और सुहानी? वो एक-एक पल गौरवी की भावनाओं को पढ़ रही थी। उसे पता था — उसकी हर बात अब गौरवी के भीतर जाकर गूंज रही है। उसे तोड़ रही है।
कुछ देर बाद…सुहानी के तेज़ कदमों की आवाज़ पूरे कॉरिडोर में गूंज रही थी। चेहरा तना हुआ था, साँसे भारी — आँखों में तनाव और बेचैनी दोनों तरफ झलक रही थी।
पीछे कमरे में गौरवी उस सच की चोट से टूटी बैठी थी, जो राज़ सुहानी ने अभी-अभी उसके सामने खोल कर रख दिया था। मगर सुहानी अब पीछे मुड़ने वालों में से नहीं थी।
“आरव...” उसके होंठों से धीमा, टूटा हुआ स्वर निकला, जो हवेली की दीवारों से टकरा कर कहीं खो गया। वो एक-एक कमरे में झांकती, आवाज़ें लगाती, दौड़ती चली जा रही थी। सीढ़ियाँ, बरामदा, बगीचा, स्टडी रूम — हर कोना खंगाल चुकी थी वो। मगर आरव… कहीं नहीं था।
“कहाँ हो तुम आरव?” वो लगभग चिल्ला पड़ी। आवाज़ में गुस्सा कम, डर ज़्यादा था। हर दरवाज़ा खोलते वक्त उसका दिल बैठता जा रहा था — कहीं कोई खून से लथपथ सच उसका इंतज़ार तो नहीं कर रहा?
एक पल के लिए वो रुकती है, उस जगह जहाँ पहली बार उसकी और आरव की शादी के बाद खामोशी में एक लंबा सामना हुआ था। वही कॉरिडोर, वही दीवारें — मगर आज सब कुछ बदल चुका था।
उसका चेहरा पसीने से भीगा हुआ था, पर वो अपने आँसुओं को रोक रही थी।
“ऐसा मत करना आरव...” उसने हवा में बुदबुदाया — जैसे उसे डर था कि कहीं कुछ अनहोनी न हो चुकी हो।
वो स्टडी रूम की ओर बढ़ी। किताबें बिखरी हुई थीं। कुछ कागज़ ज़मीन पर पड़े थे — एक झलक में उसे एहसास हुआ कि यहाँ हाल ही में किसी ने कुछ ढूंढा है। उसकी नज़र मेज़ पर पड़ी उस तस्वीर पर पड़ी — जो फर्श पर गिरी हुई थी, कांच टूटा हुआ था।
वो तस्वीर आरव और उसकी माँ की थी… और किसी ने उसे गिरा दिया था।
“यहाँ आख़िर हुआ क्या था?” सुहानी का दिल ज़ोर से धड़कने लगा।
उसे अब शक होने लगा था कि आरव कुछ बड़ा कदम उठाने जा रहा है — शायद कोई ऐसा कदम, जो नफरत और सच के बीच उसके अस्तित्व की आख़िरी लड़ाई ना हो।
वो मुड़ी, और एक बार फिर हवेली की ओर देखा — वहाँ अब सब कुछ शांत था। लेकिन ये खामोशी किसी तूफान से पहले की लग रही थी। अब वो डर का सामना करने निकली थी। सुहानी का ये डर जायज़ था….पिछली बार जो हुआ था, उसने सुहानी को हिला कर रख दिया था। आरव को वो फिर से खोना नहीं चाहती थी।
लेकिन ये डर बस ऐसे ही था, कि सच में कोई अनहोनी होने वाली थी या फिर बात कुछ और थी।
आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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