गौरवी के चेहरे पर अब गुस्से के साथ-साथ एक अजीब-सा डर भी उभरा। मगर उसने जैसे उस डर को गले से लगा लिया हो — क्योंकि वो जानती थी, उसकी आखिरी ढाल कौन है।

“रणवीर ऐसा कभी नहीं होने देगा...” उसकी आवाज़ भर्राई हुई थी, लेकिन अब उसमें एक घमंडी विश्वास की कंपन थी।

“...वो हमें बचा लेगा...” उसके शब्दों के साथ उसकी आँखों में आंसू आ गए — मगर वो डर के नहीं थे।

वो आंसू उस अंधे घमंड के थे जो उसे यकीन दिला चुका था कि रणवीर हर हाल में उसकी रक्षा करेगा। जैसे वो कानून से ऊपर है, जैसे उसका पाप कभी पकड़ा ही नहीं जाएगा। सुहानी ने उसकी आँखों की नमी को पढ़ लिया था। वो जान गई थी — इस औरत ने शायद कभी सोचा ही नहीं कि रणवीर कभी इन लोगों का था ही नहीं। या फिर शायद... इसे भी उस पर भी अब भरोसा नहीं है, लेकिन ज़िद ने उसे अंधा बना दिया है।

कुछ पल की चुप्पी रही…और फिर सुहानी ने गौरवी की तरफ एक बार फिर देखा — अब उसकी आँखों में सिर्फ़ साहस नहीं था, बल्कि दया थी। दया उस इंसान के लिए, जो अपने अपराधों से नहीं, अपने भ्रमों से सबसे ज़्यादा बंधा हुआ था।

सुहानी कुछ पल गौरवी की आँखों में देखती रही — उस घमंड की परतों के नीचे छिपे डर को पढ़ती हुई। फिर उसने गर्दन हल्के से उठाई, और ठहराव भरी लेकिन तंज से भरी आवाज़ में कहा, “आपको ऐसा लगता है? क्या ऐसा आपको रणवीर ने कहा है?”

उसके शब्दों में व्यंग्य की धार इतनी पैनी थी कि गौरवी जैसे एक पल को हिल गई….“कि वो आपको बचाएगा?”

गौरवी ने कुछ बोलने के लिए मुँह खोला, पर शब्द जैसे उसके गले में ही अटक गए। सुहानी आगे बढ़ी — अब उसकी आवाज़ न तेज़ थी, न धीमी। मगर उसमें एक तीव्र सच्चाई थी, जो गौरवी के नकली आत्मविश्वास को धीरे-धीरे कुरेद रही थी।

“मैं सोचती हूँ...” उसने हल्का सा सिर हिलाया, मानो खुद से बात कर रही हो, “...कि आखिर कितना और कैसा प्यार रहा होगा आपके मन में उनके लिए, कि इतने सालों से वो आप लोगों को धोखा देते आ रहे हैं, और आप हो कि उनकी हर बात मानती आई हो….वो भी आँखें मूंदे।”

उसके लहज़े में अब करुणा थी।

“आपके पति ने आपको कभी अपनाया नहीं, बेटा आपको कभी मान्यता नहीं देता, और जिसे आपने दिल से प्यार किया... वो ही आपके साथ सबसे ज़्यादा छल करता रहा। फिर भी आप उन्हें भगवान समझ कर पूजती रहीं।”

गौरवी की आँखें अब काँपने लगी थीं। सुहानी का हर शब्द अब उसे कमरे में गूंजता हुआ महसूस हो रहा था — जहाँ सच्चाई दीवारों से टकरा कर उसके भ्रम को तोड़ रही थी।

“कभी सोचा है?”  सुहानी ने धीरे से पूछा, “आप तो दूसरों को कठपुतली समझती थीं, लेकिन असल में, सबसे बड़ी कठपुतली तो आप खुद ही बन गईं — रणवीर के हाथों।”

गौरवी अब एकदम स्थिर खड़ी थी। उसका चेहरा, जिसमें कुछ पल पहले तक सत्ता, क्रोध और घमंड था, अब उसमें एक टुटा हुआ विश्वास नज़र आ रहा था — जैसे किसी ने उसकी आत्मा के आइने पर दरार डाल दी हो।

सुहानी ने एक गहरी सांस ली और गौरवी की डगमगाती आँखों में देखकर, बेहद सधे हुए और साफ शब्दों में कहा, “आपको मालूम है ना... कि जिस दिन बात उसकी जान पर आ गई, उस दिन वो सबसे पहले आप लोगों का नाम लेकर आपको फँसाएगा ताकि उसकी जान बच जाए।”

उसका स्वर न ज़ोरदार था, न फुसफुसाता हुआ। मगर उसमें एक अजीब सी सच्चाई की ठंडक थी, जो सीधे गौरवी की रीढ़ में उतर रही थी।

गौरवी की सांसें अचानक तेज़ हो गईं, उसकी उंगलियाँ काँपने लगीं, चेहरा जैसे सन्न रह गया। लेकिन अगले ही पल वो खुद को समेटती हुई, और सुहानी को फटकार लगा देती है,“अपना मुँह बंद कर, लड़की। वो ऐसा कभी नहीं करेगा!”

लेकिन यह वाक्य उसने जितनी तेज़ी से कहा, उससे ज़्यादा साफ़ था कि वो ये बात सुहानी से कम, और खुद से ज़्यादा कही जा रही थी। उसकी आवाज़ में हकलाहट थी — वो विश्वास नहीं, आशंका को दबाने की कोशिश थी।

सुहानी ने सिर हल्का सा झुका लिया, एक आधे मुस्कान के साथ। उसके होंठों पर व्यंग्य की रेखा साफ झलक रही थी, लेकिन उसकी आँखों में करुणा थी। “अच्छा? वो ऐसा नहीं करेगा…”

सुहानी ने गौरवी की ही बात दोहराई, “...आपने यही सोचा था ना? हर बार यही सोचा था। लेकिन क्या आपने कभी सोचा, कि उसने किया क्या है आपके लिए? सिर्फ अपने लिए जीने वाला आदमी, कभी किसी के लिए नहीं लड़ता... सिर्फ अपने लिए लड़ता है। और जब वक्त आएगा... तो वो पलक झपकते ही आपकी बलि चढ़ा देगा। बिना एक बार भी सोचे।”

गौरवी की आँखें अब नम थीं — मगर वो खुद को कमजोर नहीं दिखाना चाहती थी। उसने मुंह फेर लिया, पर सुहानी जान चुकी थी — सच्चाई ने वार कर दिया है।

सुहानी ने अपनी आँखें थोड़ी संकरी कीं और होंठों पर हल्की-सी व्यंग्यभरी मुस्कान उभर आई। फिर वो बोली, “अगर वो ऐसा नहीं करेगा, तो फिर दिग्विजय राठौर कहाँ हैं?”

गौरवी कुछ पल के लिए सन्न रह गई। उसके चेहरे पर आया संदेह और असहजता, बिल्कुल वैसी थी जैसे किसी ने उसके सबसे छुपे डर का नाम ले लिया हो। सुहानी को अब पूरी तरह यकीन हो गया था — गौरवी केवल उतना ही जानती है, जितना उसे अब तक सुहानी के मूव्स से पता चला है।

दिग्विजय ने शायद उससे कुछ नहीं कहा था। उसे सिर्फ ये अंदाज़ा है कि दिग्विजय ने सुहानी को कुछ बताया है। क्या बताया है? कितना बताया है? कौन-कौन से ठिकानों की बात हुई है — ये सब गौरवी के लिए अभी भी एक अंदाज़ा भर है।

सुहानी ने उस मौके का फायदा उठाते हुए, बात को आगे और भी धीमे, लेकिन सटीक लहजे में बढ़ाया।

“आप सोच रही होंगी... कि मैंने बस एक-आध नाम सुने होंगे, बस एक जगह का ज़िक्र हुआ होगा, है न?”

उसने गौरवी की आंखों में आंखें डालते हुए कहा, “आपको तो ये तक नहीं पता कि वो मेरे पास आये भी थे या नहीं। आपने सब अंदाज़ों पर बात की है तब से, और यही आपकी सबसे बड़ी गलती है।”

गौरवी अब पूरी तरह रक्षात्मक हो चुकी थी। उसकी नजरें बार-बार इधर-उधर भटक रही थीं। वो समझ नहीं पा रही थी कि सुहानी कितना जानती है, और कितना अंदाज़ा लगा रही है।

तभी सुहानी ने आखिरी वार किया, अपनी आवाज़ को थोड़ा और तीखा बनाते हुए, “आपने कभी ये जानने की कोशिश की... कि दिग्विजय आखिरी बार किससे मिले? और कहाँ गए?”

वो आगे झुकी, “कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्हें गायब भी कर दिया गया हो... बस इसलिए कि वो बहुत ज़्यादा सच सुना गए थे किसी को?”

गौरवी का चेहरा अब पत्थर जैसा कठोर हो गया था — एक ऐसा पत्थर जो धीरे-धीरे दरकने लगा था।

“ऐसा नहीं हो सकता।” गौरवी केवल इतना ही कहती है। 

"अच्छा? तो फिर दिग्विजय राठौर कहाँ हैं, गौरवी जी?" सुहानी ने फिर से ये सवाल दोहराया।

सुहानी की आवाज़ नर्म थी, मगर उसमें छुपा व्यंग्य चाकू की धार जैसा पैना था। उसके चेहरे पर गहराई से जमी गंभीरता, उसकी आँखों की स्थिरता और लहजे की ठंडी तीव्रता ने कमरे के तापमान को जैसे अचानक गिरा दिया था।

गौरवी का चेहरा एक पल को सख्त हो गया। उसके माथे पर हल्की सिकुड़न उभरी, और होंठों पर दबी हुई बेचैनी। वो जानती थी, सुहानी इस सवाल को यूँ ही नहीं पूछ रही।

“तुम... तुम कहना क्या चाहती हो?” गौरवी ने आवाज़ को सधा हुआ रखने की कोशिश की, मगर उसका स्वर अनजाने डर से थरथरा उठा।

सुहानी ने अपनी कुर्सी की पीठ से सीधा होकर बैठते हुए कहा— "कुछ नहीं। बस ये कि आपके पास बहुत सी जानकारी है, मगर जवाब नहीं।" वो कुछ पल गौरवी की आँखों में देखती रही, फिर धीमे से आगे अपनी बात जोड़ी, “आपके पास बस ऑफिस की CCTV फुटेज है, है न? वही जिसमें आपने देखा कि दिग्विजय राठौर मुझसे मिलने आये थे... और शायद वही आखिरी बार था जब उन्हें साफ़ देखा गया था।”

गौरवी के चेहरे का रंग थोड़ा और उतर गया। सुहानी की नजरें उसके चेहरे पर जमी थीं— हर छोटे भाव, हर क्षणिक हिचकिचाहट, हर धड़कन की गति को वह महसूस कर रही थी।

“आपके पास बस वो फुटेज है, मगर उसके बाद क्या हुआ... ये आपको नहीं पता। आपने उन्हें किडनैप नहीं किया, ये मैं जानती हूँ। वरना आप यहाँ यूँ बैठी न होतीं, बल्कि अपने ही बनाए जाल में उलझ चुकी होतीं।”

गौरवी की आंखें अब फड़कने लगी थीं। उसका गला सूख गया था, मगर वह ज़ाहिर नहीं होने देना चाहती थी।

“तो फिर कौन?” उसने सवाल पूछने की कोशिश की, जैसे खुद को यकीन दिला रही हो कि उसके पास अब भी नियंत्रण है।

“बचा एक ही नाम...” सुहानी की आवाज़ और भी शांत हो गई, मानो किसी अनकहे सच का वज़न उसके शब्दों पर बैठा हो।

“रणवीर राठौर।”

गौरवी का चेहरा अब भावशून्य था। उसकी पलकों ने झपकना कम कर दिया था, साँसें रुक-रुक कर चल रही थीं। उसने कुछ कहने की कोशिश नहीं की। शायद इसलिए कि उसके पास कहने को कुछ अब था ही नहीं।

कमरे में सन्नाटा छा गया, सुहानी अपनी जगह शांत बैठी रही, जैसे वो उस सन्नाटे को ही अपना जवाब मानती हो।

सुहानी ने ऑफिस से दिग्विजय के हर मूवमेंट पर ध्यान दिया हुआ था। मीरा ने उससे घर के CCTV फुटेज का कोड शेयर किया था। सुहानी की नज़रें हवेली के हर कोने-कोने को स्क्रीन पर बारीकी से देख रही थीं। दिग्विजय के हर कदम के साथ उसके दिमाग में एक के बाद एक सवाल दस्तक दे रहे थे। 

उसने सोचा आज रणवीर यहाँ मौजूद था—शांत, संयमित, लेकिन उसके चेहरे पर भी कुछ ऐसा था जो सामान्य नहीं था। पर दिग्विजय? वो, कहाँ गया?

दिग्विजय राठौर, सुहानी के ऑफिस से निकलते वक़्त जैसे आग का गोला बन चुका था। उसके चेहरे पर पसीने की बूंदें और आँखों में भभकता हुआ क्रोध—उसकी चाल तक में बेकाबू गुस्से की झलक थी। उसे किसी ने रोका नहीं, और वो किसी को देख भी नहीं रहा था। वो सीधा अपनी SUV में बैठा, और तेज़ी से हवेली की ओर निकल पड़ा।

लेकिन सवाल ये नहीं था कि वो कहाँ जा रहा था—सवाल ये था कि वो पहले हवेली ही क्यों आया? अगर उसे रणवीर से मिलना था, तो सीधे वहाँ क्यों नहीं गया जहाँ वो मौजूद था? हवेली के मेन गेट से लेकर उसके पुराने स्टडी रूम तक उसकी तेज़ चाल और उखड़ी हुई साँसें बता रही थीं कि ये कोई आम दौरा नहीं था।

वो दरवाज़ा धड़ाम से खोलता है, सीधा अलमारी के उस पुराने लॉकर के पास जाता है, फिर एक चाबी निकालता है—छोटी, लोहे की, थोड़ी ज़ंग लगी हुई। और फिर उसने वह पुरानी लकड़ी की तिजोरी खोली, जो हवेली के सबसे पहले मालिक ने खुद बनवाई थी।

वो उससे कुछ निकाल कर साथ ले गया था। शायद कुछ ऐसा जो रणवीर से मिलने से पहले उसके पास होना ज़रूरी था। कोई सबूत, कोई पुराना समझौता, कोई रिकॉर्ड—या शायद... कोई ऐसा राज़ जो रणवीर को चुप करवाने के लिए ज़रूरी था?

या फिर कोई प्रोटेक्शन शायद? हथियार? बंदूक? सुहानी का मन जैसे भीतर ही भीतर जवाब दे रहा था। 

हाँ... वो अपनी रिवॉल्वर लेने आया था….उसने खुद से कहा, जैसे सारी कड़ियाँ अब जुड़ रही थीं।

लेकिन अब हालात बिल्कुल उलट थे। रणवीर यहाँ था, मगर दिग्विजय नहीं। सुहानी की भौंहें सिमट गईं, उसका दिल आशंका से भर गया। हवेली से निकलते समय, दिग्विजय की चाल थोड़ी कम तेज़ थी, मगर उसकी आँखों में अब एक अलग सी चमक थी—जैसे उसे किसी खेल की आखिरी चाल याद आ गई हो।

दिग्विजय जानता था कि रणवीर उसके इरादों से वाकिफ है। इसलिए वह खाली हाथ नहीं जाना चाहता था।

‘कहीं रणवीर ने उसके साथ कुछ बुरा तो नहीं कर दिया?’

उसने एक झलक दरवाज़े  की तरफ डाली, फिर गौरवी की ओर मुड़ी, जो अभी तक अपनी अकड़ और घमंड के खोल में लिपटी खड़ी थी। पर अब सुहानी ने सीधे, बिलकुल सधे लहजे में उससे पूछा— “दिग्विजय कहाँ हैं, गौरवी जी?” इस बार सुहानी ने सीरियस टोन में पूछा। 

गौरवी की आँखों में एक पल को जैसे धुंध उतर आई। उसका चेहरा कुछ पल के लिए थमा, और नज़रों में एक उलझन तैरने लगी।

“क्यों? वो… वो तो…” उसने कहना चाहा, लेकिन फिर चुप हो गई।

उसकी नज़रें सुहानी से हटकर दरवाज़े की ओर चली गईं। वो साफ़ था—उसे भी नहीं मालूम कि दिग्विजय कहाँ है। और अब, इस सवाल का जवाब दोनों की आँखों में झलक रहा था—एक डर, एक असहज बेचैनी। सुहानी को यकीन हो गया था—कि कुछ तो गड़बड़ है।

 

दिग्विजय जब रणवीर से मिलने उसके ठिकाने पर गया, तो आखिर ऐसा वहां क्या हुआ था, जिस ने रणवीर को कुछ गलत करने पर मजबूर किया?

आखिर रणवीर ने दिग्विजय के साथ क्या किया था?

आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़। 

Continue to next

No reviews available for this chapter.