गौरवी की आँखों में एक पल को हल्की सी घबराहट तैर गई। उसका चेहरा, जो अभी तक आक्रोश और अधिकार से भरा हुआ था, अचानक हल्का पीला पड़ गया। सुहानी की आँखों की गंभीर चमक, उसके भीतर उठते डर को जैसे साफ़ उधेड़ रही थी।

गौरवी ने अपना गला साफ़ किया, जैसे गले में अटकती हुई कोई सच्चाई जबरदस्ती नीचे धकेली हो।  फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद — उसके लफ्ज़ धीरे-धीरे, लड़खड़ाते हुए निकले, जैसे हर शब्द उसके अपने ही डर के कांटों से होकर गुज़र रहा हो।

“भाई... भाई साहब ने... और... और क्या बताया था तुम्हें?” उसने कहा, “उन ठिकानों के... अलाव़ा?”

ये सवाल नहीं था…ये एक स्वीकारोक्ति थी। इसमें छिपी थी बेचैनी, कि कहीं सुहानी को उससे ज़्यादा कुछ तो नहीं पता चल गया। गौरवी की आवाज़ में अब वो ठहराव नहीं था, अब वो कोई साम्राज्ञी नहीं, बल्कि एक डर से जूझती महिला लग रही थी, जो अपनी ही बनाई हुई साज़िश में उलझ गई थी।

सुहानी ने जवाब नहीं दिया। उसने सिर्फ गौरवी की आँखों में झाँकते हुए, एक धीमी, रहस्यमयी मुस्कान भर दी। और यही मुस्कान — गौरवी के भीतर की हलचल को और भी गहरा कर गई। सुहानी की आँखों में अब कोई डर नहीं था, सिर्फ़ एक तीखा व्यंग्य और गहरा आत्मविश्वास था।

गौरवी का सवाल अभी हवा में तैर ही रहा था, कि सुहानी ने दो क़दम उसकी ओर बढ़ाते हुए, धीरे लेकिन ठोस लहजे में कहा — "क्यों... कुछ और भी था, जो नहीं पता चलना चाहिए था?"

उसकी आवाज़ में शहद की मिठास थी, पर उसमें ज़हर छिपा हुआ था। ये सवाल नहीं था — ये चुनौती थी। गौरवी एक पल के लिए सन्न रह गई, उसके चेहरे पर जैसे ज़ोर से तमाचा पड़ा हो। वो अपनी जगह से थोड़ी आगे झुकी, उसकी आँखों की लपटें अब पूरी तरह से धधक चुकी थीं।

“सुन, लड़की!” वो गुर्राई — उसकी आवाज़ अब संयम की सारी सीमाएँ लांघ चुकी थी, "ज़्यादा स्मार्ट एक्ट करने की कोशिश मत कर। तूने अगर अपना ये सब ड्रामा अभी बंद नहीं किया ना…तो तू देख लेना — बहुत बुरा होगा तेरे साथ!"

उसका चेहरा लाल पड़ चुका था, हाथों की मुट्ठियाँ कस चुकी थीं, और उसके भीतर की घबराहट अब गुस्से के मुखौटे में फटने को तैयार थी। लेकिन सुहानी? वो एक पल को भी नहीं हिली। गौरवी की धमकी सुनकर अचानक सुहानी का चेहरा बदलने लगा। अब उसमें डर नहीं था, बल्कि आग थी।

वो आग, जो बरसों से भीतर दबी पड़ी थी — अब फटने को तैयार थी। वो एक क़दम आगे बढ़ी, और गौरवी की आँखों में सीधे झाँकते हुए गरज उठी — "जैसे कि क्या? मेरी माँ को फिर से मरवा दोगी? फिर से मेरे बाउजी के साथ सौदा करोगी? उन्हें जेल भिजवा दोगी? आरव को मेरे खिलाफ और ज़्यादा भड़काओगी?" 

हर सवाल में एक घाव था — हर शब्द में एक चीख।

“या फिर...” उसकी आवाज़ काँपी नहीं — और कड़ा हो गया था उसका लहजा। "या फिर मुझे मार डालोगी? बोलो ना! क्या करोगी तुम, अगर मैं तुम्हारे जैसे दरिंदों से मासूम बच्चों को बचाना नहीं छोड़ूंगी?"

उसका सीना चौड़ा था, आँखें नम पर चमकती हुईं।

"क्या करोगी तुम, गौरवी राठौर? ऐसा क्या करोगी, जिससे मैं कमज़ोर पड़ जाऊं? टूट जाऊं? मेरे इरादे धुंधले पड़ जाएं?"

अब उसकी आवाज़ गूंज रही थी — कमरे की हर दीवार पर, गौरवी के चेहरे पर, और पूरे सिस्टम पर एक तमाचा बन कर।

"जिन बच्चों की माँओं ने उनकी आबरू खो दी तुम्हारे लालच में, उनकी सिसकियों की आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूंजती है। और जब तक मेरे शरीर में साँस है — मैं लड़ती रहूँगी। हर उस मासूम के लिए, जिन्हें तुमने अपने लालच का शिकार बना लिया।"

कमरे में सन्नाटा छा गया था। गौरवी की साँसें तेज़ हो रही थीं, और वो खुद को सँभाल नहीं पा रही थी। सुहानी खड़ी रही — बिल्कुल अडिग। एक तूफ़ान की तरह, जो चुपचाप हर दीवार हिला रहा था। उसके होंठों पर एक हल्की, शांत मुस्कान बनी रही। वो मुस्कान जो गौरवी के तमाम डर और गुस्से पर भारी पड़ रही थी।

उसने सिर्फ़ धीरे से कहा, “आपका गुस्सा साफ़ बता रहा है, कि चोट कहाँ लगी है।”

गौरवी की आँखों में अब गुस्सा नहीं, ज्वाला थी। वो अपनी सीट से उठ खड़ी हुई। उसके चेहरे की नसें तन गईं थीं, गर्दन की रेखाओं में खीझ और बौखलाहट साफ झलक रही थी। उसने दाँत पीसते हुए, बेहद कड़े और बर्फ जैसे ठंडे स्वर में कहा— “चुप हो जा, लड़की… नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।”

लेकिन सुहानी, जो अब डर के स्तर से बहुत आगे निकल चुकी थी, वो ज़रा भी पीछे नहीं हटी। उसके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान उभरी — वो मुस्कान, जो डराने के लिए नहीं, बल्कि गौरवी की सच्चाई को चिराग़ की तरह जला कर राख कर देने के लिए थी।

“हम्म…” वो धीमे से बोली, जैसे हर शब्द को चख रही हो। “इसमें तो कोई दो राय नहीं है।”

उसकी आँखें गौरवी की आँखों में गड़ी हुई थीं।

“तुमसे बुरा… सच में कोई नहीं है।” अब उसके लहज़े में व्यंग्य था, ललकार थी, और एक ऐसी सच्चाई थी, जिसे गौरवी चाहकर भी झुठला नहीं सकती थी। गौरवी झुंझला उठी। उसके हाथ मेज़ पर जा टिके, जैसे अपने आप को काबू में रखने की आख़िरी कोशिश कर रही हो। लेकिन सुहानी अब उठ खड़ी हो चुकी थी — वो ना झुकी, ना डरी, और ना ही पीछे हटने वाली थी।

गौरवी की साँसें तेज़ थीं। उसका सीना ऊपर-नीचे हो रहा था — जैसे किसी अंदरूनी तूफ़ान को बाहर निकलने से रोक रही हो। वो धीरे-धीरे अपनी कुर्सी से उठ खड़ी हुई। उसके कदमों की आहट इतनी भारी थी कि कमरे की दीवारें भी कुछ पल को सिहर गईं हों।

वो सुहानी के बिलकुल सामने आकर खड़ी हो गई — आँखों में सीधा, बेरहम नज़रों से घूरती हुई। दोनों की नज़रें टकराईं — और कमरे में वक़्त जैसे थम सा गया। गौरवी की साँसें अब भी तेज़ थीं, लेकिन… कुछ ही सेकंडों में, वो साँसें धीमी होने लगीं….बहुत धीमी। और जैसे ही उसकी साँसों ने रफ्तार छोड़ी — उसके चेहरे पर एक भयावह मुस्कान उभर आई।

वो मुस्कान, जो चेहरे पर नहीं — जैसे उसकी रूह पर बैठी हो। एक ऐसी मुस्कान जो ना सिर्फ़ नफ़रत की भाषा बोलती थी, बल्कि क्रूरता, चालाकी और पागलपन की हदों को भी पार कर चुकी थी। सुहानी की पलकें थोड़ नीचे झुकी, लेकिन डर से नहीं, बल्कि ये समझने के लिए कि उसके सामने जो खड़ी है — वो औरत इंसान नहीं, एक चालाक शिकारी है, जो अपने शिकार के हर डर को सूंघ सकती थी।

गौरवी की वो मुस्कान जैसे कमरे की रोशनी को भी निगलने लगी हो। उसके होंठों के कोनों पर उठी हुई वह स्याह लकीरें, उसके इरादों से कहीं ज़्यादा डरावनी थीं। गौरवी अब अपने पूरे रौब में थी। उसके चेहरे पर आई वो भयावह मुस्कान जैसे किसी पुराने ज़माने की एक राक्षसी रानी की याद दिला रही थी — शांत... लेकिन भीतर ही भीतर जलती हुई।

कमरे की रोशनी थोड़ी धीमी थी, और पर्दों से छनकर आती हल्की सी धूप सिर्फ़ इतनी थी कि चेहरों पर साया पड़ जाए। वो सुहानी की आँखों में आँखें डालकर, अपना चेहरा थोड़ा और पास ले आई। और तब, वो बेहद शांत लहज़े में बोलने को तैयार हुई — मानो शिकार को पहले अपने जाल में उलझाना चाहती हो। अब उसकी आवाज़ में वो तीखी नरमी थी, जो किसी ज़हरीले सांप की सरसराहट में होती है — मोहक लेकिन घातक।

“तुम्हें पता है...” उसने नज़रें झुका कर एक गहरी साँस ली, जैसे कोई वक़्त निकाल कर अपना असली ज्ञान बाँट रहा हो।

“तुम जितना खुद को समझदार समझती हो, उतनी हो नहीं।”

उसने कहा, उसकी आवाज़ में दया की एक नकली परत चढ़ी हुई थी।

“तुम्हें क्या लगा कि तुम दिग्विजय से ठिकानों के नाम ले लोगी — और बस? तुम्हारा काम हो जाएगा, और हमारा काम तमाम?”

वो सीधे खड़ी होकर धीमे-धीमे क़दमों से कमरे में टहलने लगी, उसकी हील्स की आवाज़ मार्बल फ्लोर पर गूंज रही थी — हर आवाज़, एक चेतावनी की तरह।

“तुम्हें क्या लगता है, हमारे केवल इतने ही धंधे हैं?” उसने एक हाथ अपने बालों में फिराया, और हौले से मुस्कराई। "ये तो केवल एक पेड़ है, सुहानी। एक ऐसा पेड़, जो ऊपर से तुम्हें दिख रहा है। लेकिन उसकी जड़ें…वो तो ज़मीन के अंदर बहुत दूर तक फैली हुई हैं। तुम कहाँ-कहाँ और कब-कब खोदती फिरोगी?"

उसने अपनी ऊँगली से हवा में एक लंबी लकीर खींची — जैसे एक अदृश्य मानचित्र बना रही हो। "तुम्हारा पूरा जीवन… हां, तुम्हारा पूरा जीवन निकल जाएगा इन जड़ों को तलाशने में, और फिर भी बहुत कुछ बचा रह जाएगा। क्योंकि हम वो लोग हैं जो सिर्फ़ धंधे नहीं करते — हम वो सोच बन चुके हैं जो मिटाई नहीं जा सकती। हम हवाओं में घुले हुए हैं, और तुम सिर्फ़ दीवारें ढहाने में लगी हो।"

वो रुकी, और सुहानी की तरफ़ एक क़दम और आगे बढ़ाते हुए बोली।

“और अब सोचो...” उसने अपने नाखूनों से टेबल पर धीरे से टैप किया। "वो जड़ें क्या हमेशा जड़ ही रहेंगी? नहीं। धीरे-धीरे उन जड़ों से फिर से नया पौधा निकलेगा, और कुछ सालों में…वो फिर एक विशाल पेड़ बन जाएगा। उसका तना, उसकी शाखाएं, उसकी छांव… सब वापस लौटे आएँगी।"

गौरवी की आवाज़ अब धीमी हो चुकी थी — मगर उसकी आँखें चमक रही थीं। उसमें अहंकार था, अजेय विश्वास था, कि चाहे जो हो, वो और उसका साम्राज्य रुकने वाला नहीं।

"तब क्या करोगी, सुहानी?" उसने सिर को थोड़ा झुकाया, जैसे वाक़ई जवाब चाहती हो।

"क्या तब भी अकेली इन हवाओं से लड़ती रहोगी? या खुद को इन जड़ों के नीचे कुचल जाने दोगी?"

कमरे में एक अजीब-सी ख़ामोशी छा गई। गौरवी की बातों का हर शब्द, एक नश्तर की तरह सुहानी के आत्मबल पर वार कर रहा था। मगर... सुहानी की आँखों में कोई डर नहीं था। बल्कि उसकी ठंडी नज़रें बता रही थीं — कि शायद गौरवी ने जितना सोचा, सुहानी उससे कहीं ज़्यादा समझ चुकी थी।

गौरवी की बातें पूरी हो चुकी थीं। कमरे में अब भी उसकी आवाज़ की गूंज जैसे दीवारों से टकराकर लौट रही थी। वो अपने विजय भाव में डूबी खड़ी थी — मानो उसने खेल जीत लिया हो। मगर तब भी… सुहानी की नज़रें उसके चेहरे से नहीं हट रही थीं। कुछ पल वह चुप रही — जैसे अपनी हर भावना, हर विचार को समेट कर एक सधी हुई आग में ढाल रही हो। फिर उसने गहरी साँस ली, और उसकी आँखों में एक अटूट दृढ़ता झलकने लगी थी।

वो अपनी जगह से ज़रा भी हिली नहीं, बस हल्के से सिर झुकाकर पलकें भींचीं — जैसे अपनी आत्मा की सब से मजबूत दीवार को भीतर से पकड़ कर खड़ी हो।

"थैंक्यू फॉर द चैलेंज, गौरवी राठौर..." उसकी आवाज़ अब बेहद सधी हुई थी — न तो गुस्से से काँपती हुई, न डर से दबती हुई। बल्कि एक ऐसी आवाज़, जो समर्पण नहीं बल्कि प्रतिज्ञा से जन्मी थी।

“मैं मेक श्योर करूँगी कि आपको निराश ना करूँ।”

उसके लहजे में ताना नहीं था —  बल्कि एक ऐसी शांति थी जो किसी तूफ़ान से पहले की चुप्पी जैसी होती है।

"भले ही मेरा पूरा जीवन… इन मासूमों को इंसाफ दिलाने में निकल जाए..." उसने एक पल के लिए आँखे ऊपर उठाईं — मानो किसी मासूम चेहरे की कल्पना कर रही हो — किसी बच्चे की, किसी बेबस माँ की, किसी खोए हुए इंसान की, जिसे न्याय मिलना अभी बाकी है।

"पर कभी अफ़सोस नहीं करूँगी।" अब उसके शब्दों में आंच थी, जज़्बा था, और वो गहराई थी जो केवल दर्द से तपकर आती है।

"और... खुशी-खुशी…अपना पूरा जीवन इसी में लगा दूंगी। हर शाख, हर जड़, हर ज़हर को ढूंढ़ कर बाहर निकालूंगी। फिर चाहे इस खेल में जीत मेरी हो या हार — कम से कम मैं वो इंसान बन कर जिऊंगी जो अपने ज़मीर के साथ चैन की नींद सो सकती है।"

कमरे में अब हवा जैसे बदल गई थी। गौरवी की वह विजयी मुस्कान कुछ फीकी पड़ती नज़र आई। और सुहानी की मौजूदगी, उसकी आँखों की चमक, किसी सच्चे योद्धा की तरह दमक रही थी। अब सिर्फ़ एक औरत नहीं खड़ी थी गौरवी के सामने — बल्कि एक विचार था, एक वादा था, एक आग थी…जो समय आने पर सब कुछ जला सकती थी।

"वैसे फ़िलहाल, जितना मिला है, आपको अंदर कराने के लिए काफ़ी है..." उसके शब्द धीमे थे, लेकिन उनमें आग थी — वो आग जो अब शांत होकर लपटे बन चुकी थीं। 

गौरवी थोड़ी देर खामोश रही, फिर अपनी आँखें सिकोड़ते हुए तीखे स्वर में बोली, “तुम्हें क्या लगता है, इतना आसान होगा हमें पकड़ना?”

“आपको क्या लगता है, इतना मुश्किल है क्या?” उसकी आवाज़ में तंज नहीं था, मगर एक ऐसी सच्चाई थी जो जाकर सीधे दिल में चुभे।

 

आगे की कहानी जानने के लिए, पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।

Continue to next

No reviews available for this chapter.