सावित्री शर्मा, एक झुकी कमर और लड़खड़ाते क़दमों वाली एक बूढ़ी औरत, सुहानी का हाथ पकड़कर उसे घर के भीतर ले जाती है। घर का पुराना लकड़ी का दरवाज़ा चरमराते हुए खुलता है, और एक ठंडी, धूल से भरी हवा का झोंका सुहानी के चेहरे से टकराता है। 

वो अपना चेहरा साफ़ करते हुए घर के अंदर कदम रखती है तो उसकी चाल धीमी हो जाती है, और उसकी आंखें इधर-उधर घूमने लगती हैं—हर कोना, हर दरार, जैसे कोई अधूरा किस्सा सुना रहा हो।

दीवारें सीलन से भरी हुई थीं, जगह-जगह प्लास्टर उखड़ा था। फर्श पर धूल की मोटी परत थी और लकड़ी के फर्नीचर पर जाले जमे थे। खिड़कियों से धूप अंदर आ तो रही थी, मगर वो भी बेजान लग रही थी। एक पुरानी, कांपती सी घड़ी की टिकटिक पूरे घर की खामोशी में गूंज रही थी।

 

“इधर बैठो बेटा...” सावित्री ने कांपती उंगलियों से एक टूटी हुई कुर्सी की ओर इशारा किया।

सुहानी धीमे से उस कुर्सी पर बैठ गई, लेकिन उसकी नज़रें अब भी कमरे के कोनों में भटक रही थीं। उस पुराने घर की हर दीवार में जैसे वो अपनी माँ की कोई याद ढूंढने की कोशिश कर रही थी।

कुछ ही पल में, सावित्री एक लकड़ी के संदूक से एक पीला मुड़ा हुआ लिफाफा निकालकर लाती है। उसके हाथ काँप रहे होते हैं, और आँखों में डर और अफ़सोस एक साथ झलकता है। उसने वो खत सुहानी की ओर बढ़ाया।

“ये... तुम्हारे लिए है। शायद तुम्हें, तुम्हारे जवाब इन में मिल जाए।”

 

लिफाफे पर काले अक्षरों में लिखा था—"काजल"।

सुहानी की साँसें रुक सी गईं। उसने धीरे से खत को पकड़ते हुए उसकी तहें खोलनी शुरू की ही थी, कि…

ठक... ठक... ठक…

दरवाज़े पर अचानक ज़ोरदार दस्तक हुई। सुहानी का हाथ वहीं रुक जाता है, उसकी नज़रें सावित्री से टकराती हैं। दोनों औरतें एक-दूसरे की आंखों में झांकती हैं—डर, और सवाल से भरे हुए।

 

"कौन हो सकता है इस वीरान जगह पर?" सुहानी का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता है।

फिर एक बार और…

ठक... ठक... ठक…

इस बार की आवाज़ और भी ज़्यादा गूंजती है। ऐसा लग रहा था जैसे दरवाज़े को तोड़ने की कोशिश हो रही हो।

सावित्री डरते हुए आगे बढ़ती हैं, लेकिन तभी सुहानी उठ खड़ी हुई।

“एक मिनट रुकिए!” वो सावित्री को रुकने का इशारा करती है, फिर झट से भीतर की ओर दौड़ जाती है।

 

उस पुरानी रसोई का दरवाज़ा चरमराता हुआ खुलता है। अंदर वही हाल—जगह-जगह जाले, टूटी हुई अलमारियाँ, और बिखरा हुआ सामान। गैस चूल्हा भी ज़ंग खा चुका था। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि कोई इस जगह में जी रहा है।

“ये अकेली यहाँ कैसे रहती हैं...?” सुहानी के मन में विचार उठता है। उसकी आंखें जल्दी-जल्दी चारों ओर कुछ ढूंढती हैं।

आखिरकार, एक पुराने टीन के डिब्बे में उसे एक छोटा, लेकिन तेज़ चाकू मिल जाता है। वो उसे कसकर पकड़ती है, अपने डर पर काबू करने की कोशिश करती है।

ठक... ठक... ठक... ठक…

अब तो दस्तक की रफ्तार बढ़ चुकी थी—लगातार, बिना रुके, जैसे दरवाज़ा बस अगले ही पल टूटने वाला हो।

 

सुहानी जल्दी से हॉल में लौटती है, सावित्री को पीछे हटने का इशारा करती है, और खुद दरवाज़े की ओर बढ़ती है। उसके हाथ में चाकू है, लेकिन उसकी आँखों में डर नहीं, एक अजीब सा हौसला है।

वो दरवाज़े के पास पहुँचती है। हल्की सांसें लेती है, चिटकनी के पास हाथ ले जाते हुए उसका गला सूख जाता है।

वो मन ही मन तीन तक गिनती है… 

“एक...”

उसने चाकू कसकर पकड़ा।

“दो...”

उसका हाथ चिटकनी पर पहुंच गया।

“तीन!”

चिटकनी खट से खुलती है।

फिर वो दरवाज़ा एक झटके से खोलती है और चाकू को सामने बढ़ा देती है—उसकी आँखों में एक अनकही चेतावनी चमक रही थी।

 

“वो लम्हा जब सब थम गया...”

दरवाज़ा जैसे ही खुलता है, चाकू थामे सुहानी की नज़र सामने खड़े इंसान से टकराती है….आरव।

 

वो वहीं खड़ा था। साँसें तेज़, माथे पर हलकी शिकन, और आँखों में सवालों का सैलाब। एक पल के लिए वक़्त जैसे ठहर सा जाता है। न हवा चली, न पंखा घूमा, न घड़ी की सुइयाँ चलीं। सिर्फ़ उनकी धड़कनें…जो अब एक ही रफ़्तार में धड़क रही थीं।

मगर सुहानी का हाथ, जो चाकू लिए उसकी ओर बढ़ा था—वो नहीं रुका।

आरव की नज़रें उसके चेहरे से होते हुए उस चाकू तक पहुँचीं।

और अगले ही पल—“सुहानी!”

 

उसने फुर्ती से उसका हाथ पकड़ लिया, उसी पल जब चाकू कुछ सेंटीमीटर ही दूर था। सुहानी की आँखें चौड़ी हो गईं। उसके चेहरे पर घबराहट और डर साफ झलक रहा था।

“आ… आप?” उसकी आवाज़ काँपती है।

आरव के चेहरे पर गुस्सा और ताज्जुब का अजीब सा मिश्रण था।

“तुम मुझे चाक़ू से मारने वाली थी?” वो लगभग गुर्राया।

“मैं... मैंने तो सोचा कोई—”

“कोई बदमाश है? तुमने एक बार देखना भी ज़रूरी नहीं समझा?” उसने ताना मारा, और उसके हाथ से चाकू धीरे से निकाल लिया।

सुहानी ने एक झटके में हाथ पीछे खींचा, चाकू नीचे गिर गया, और वो एक कदम पीछे हटी।

“तुम यहाँ क्या कर रही हो इस… इस खंडहर जैसे घर में?” आरव ने चारों ओर नज़र दौड़ाई—फर्श पर फैली धूल, टूटे फर्नीचर, झूलते बल्ब, और उस उदासी की परत, जो दीवारों से लिपटी थी।

“मुझे शांति चाहिए थी… और जवाब भी,” सुहानी ने सधी हुई आवाज़ में कहा, मगर उसकी आवाज़ में दर्द साफ़ झलक रहा था।

 

आरव ने उसकी ओर एक कदम और बढ़ाया, “और उसके लिए तुम्हें घर छोड़कर यूं भागना ज़रूरी था?”

सुहानी चुप रही।

“तुमने एक बार भी नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा? एक मौका नहीं दिया मुझे सफाई देने का…” आरव की आवाज़ में अब शिकायत की कसक थी।

“मैंने जो देखा, उसके बाद कुछ सुनने को बचा कहाँ था…” सुहानी का गला भर आया।

आरव ने उसकी बात काटते हुए कहा, “हाँ, मेरी गलती थी। मीरा आई और मुझसे लिपट गई… और मैं… मैं कुछ पल के लिए कुछ समझ नहीं पाया।”

वो रुका, अपनी सांसें नियंत्रित कीं, फिर आगे बढ़ा, “मगर मुझे उसी पल उसे रोक देना चाहिए था। रोकना चाहिए था, सुहानी… और मैं… मैं उसके लिए माफ़ी मांगता हूँ।”

सुहानी की नज़रें झुकी रहीं। उसके मन में हज़ार सवाल थे, मगर कुछ शब्द ज़ुबां तक नहीं पहुँच पा रहे थे।

“हमारे बीच जो कुछ भी हुआ, जो भी पल हमने साथ बिताए…” आरव की आवाज़ टूटने लगी, “वो मेरे लिए सच्चे थे, बहुत ख़ास थे। मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता।”

 

कुछ पलों की ख़ामोशी के बाद, अचानक उसकी नज़र सुहानी के हाथ में पकड़े उस पीले खत पर गई।

“ये क्या है?” उसकी आवाज़ थोड़ी नरम हो जाती है।

वो आगे बढ़ता है, उस चिट्ठी की ओर। लेकिन सुहानी तुरंत सतर्क हो जाती है, वो अपना हाथ झटके से पीछे खींच लेती है।

“ये मेरी माँ की है! आप इसे हाथ नहीं लगाएंगे” उसकी आँखों में अब डर की जगह ग़ुस्सा था।

 

आरव एक पल के लिए उसे घूरता है। फिर उसकी आवाज़ भारी हो जाती है— “सुहानी...”

उसने उसका नाम कुछ इस अंदाज़ में पुकारा कि उसमें चेतावनी भी थी और चिंता भी। लेकिन सुहानी पीछे हटती है। एक, दो, तीन क़दम। आरव उसकी ये दूरी महसूस कर रहा था।

उसकी आँखों में अब झुंझलाहट है “तुम्हें लगता है, मैं तुम्हें नुकसान पहुँचाऊँगा?”

वो एक कदम और आगे बढ़ता है।

सुहानी, जो अब खत को अपने दोनों हाथों में दूर रखे खड़ी थी, दीवार के पास पहुंच चुकी थी।

“वहीं रुक जाइये, आरव!” वो चिल्लाती है।

मगर आरव अब थक चुका है इस खींचातानी से। वो तेज़ी से आगे बढ़ता है और सुहानी को हल्के से कंधों से पकड़कर दीवार से टिका देता है। अब दोनों इतने पास थे कि उनकी साँसें एक-दूसरे से टकरा रही थीं।

 

आरव उसके ठीक सामने, आँखों में झांकते हुए बोला— “अब बताओ, क्या है उस खत में?”

सुहानी की पकड़ अब भी खत पर मज़बूत थी, मगर उसकी आँखें भर आई थीं, दिल की धड़कनें तेज़ थी। दीवार के सहारे उसकी उंगलियाँ हल्की-हल्की काँप रही थीं।

“आप ये नहीं समझेंगे...” उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी, लगभग टूटती हुई।

आरव ने अपना सिर थोड़ा झुकाया, उसकी आँखों में गहराई से झांकते हुए पूछा— “तो मुझे समझाओ। मुझे भी जानना है वो सब… जो छुपाया गया है मुझसे।”

सन्नाटा छा गया।

एक खत।

दो साँसे।

एक दीवार।

और वो लम्हा... जो दोनों को एक ही रहस्य में बांधे हुए था।

 

आरव सुहानी के और क़रीब आता है। उसकी आँखें गंभीर हैं, और उनमें अब ग़ुस्से की जगह एक बेचैन करुणा है। वो झुक कर उसकी आँखों में देखता है, और सुहानी जैसे ठहर जाती है।वक़्त की चाल धीमी हो जाती है, जैसे सब थम गया हो... बस वो नज़रें, जो एक-दूसरे में डूबी हुई हैं।

आरव धीरे से उसका हाथ थामता है और अगले ही पल—उसके हाथ से चिट्ठी निकाल लेता है।

"आरव...!" सुहानी हड़बड़ा जाती है, वो खत को छीनने की कोशिश करती है, मगर आरव खत खोल चुका था। उसकी नज़रें उस पीले पन्ने पर जम चुकी हैं।

सुहानी उसकी ओर देखती है, “आरव प्लीज़... वो मेरी—” मगर तभी... आरव का चेहरा बदल जाता है। भावों की लकीरें खिंचने लगती हैं... पहले हैरानी, फिर बेचैनी… और फिर चौंकाने वाली सच्चाई का सन्नाटा।

वो नीचे देखता है—सुहानी की ओर उसकी आंखों में अब एक ही सवाल है…

“ये क्या है, सुहानी?”

 

उसके हाथ कांपने लगते हैं। उसकी पकड़ ढीली पड़ जाती है। सुहानी धीमे से वो खत उसके हाथों से ले लेती है... और पढ़ना शुरू करती है...

सुहानी, 

अगर तुम आज ये खत पढ़ रही हो, तो मतलब तुमने पता लगा लिया है, कि मैं ज़िंदा हूँ या बस ज़िंदा भर हूँ। 

बेटा मैं नहीं जानती थी, की एक ऐसा दिन भी आएगा, जब मेरी बेटी से मुझे एक खत के ज़रिये बात करनी होगी। 
 

सुहानी किसी पर भी भरोसा मत करना बेटा। किसी पर भी नहीं। कुछ तुम्हें शुरुआत से ही धोखा देंगे, कुछ रास्ते में, और कुछ मंज़िल पर पहुंच कर। भरोसे के लायक कोई भी नहीं। कब हालात किसको बदल दे कोई नहीं जानता। 

 

मैंने जिन जिन पर भरोसा किया सबने अपनी सहूलियत के हिसाब से मेरा इस्तेमाल किया। 

मैं उनका नाम इस चिट्ठी में नहीं लिख सकती, क्योंकि मैं नहीं जानती कब और कौन इस खत तक पहुंच जाए। 

तुम्हारी तरह आरव ने भी अपने जीवन में बहुत कुछ झेला है बेटा, मैं एक बात दावे के साथ कह सकती हूँ, वो एक अच्छा इंसान है। क्योंकि वो मेरी सहेली का बेटा है, जो इस दुनिया की सबसे प्यारी, अच्छी भरोसेमंद दोस्त थी। 

 

आने वाले वक़्त में तुम्हें ये समझ आ जाएगा। तुम दोनों एक बहुत बड़े, खेल का मोहरा हो, जिसे सालों से बुना जा रहा है।  

संभल कर… एक दूसरे का साथ बन कर चलना, तभी इस बवंडर से निकल पाओगे।  

मैं उस इंसान के साथ जा रही हूँ, जिसने मेरी ही तरह इस परिवार के कई लोगों से धोखा खाया है। वो भी किसी अपने के लिए ही ज़िंदा है, वरना दुनिया ने तो उसे भी मरा हुआ घोषित कर दिया था। 

 

तुम यहाँ हो, और इसे पढ़ रही हो, तो तुम जानती हो कि मैं किसकी बात कर रही हूँ, और तुम्हें बाकी सब भी मालूम ही होगा।  

मगर ये मत सोचना तुम्हें ये सब बताने वाले तुम्हारे अपने हैं। वो कभी न कभी अपना असली रूप ज़रूर दिखाएंगे….तैयार रहना। 

 

मेरी प्यारी बच्ची, तुम बहुत समझदार हो, बहुत हिम्मतवाली हो। अपना और आरव का ध्यान रखना। 

हम जल्द ही मिलेंगे। 

 

तुम्हारे इंतज़ार में, 

तुम्हारी माँ 

 

आस पास ठंडक और बढ़ जाती है, उस खंडहर जैसे घर में खड़ी सुहानी के चेहरे पर आंसू हैं, पर उनमें आज दर्द नहीं—उम्मीद है… सुकून है।

सुहानी, सिसकती हुई, मुस्कुराते हुए कहती है, "मैं जानती थी... मैं जानती थी..."

आरव, घबराया हुआ, स्तब्ध खड़ा रहा "इस चिट्ठी में क्या लिखा है, सुहानी?"

सुहानी, धीरे से उसकी ओर देखकर कहती है, "Oh thank God, आप यहाँ हैं आरव।

मैं आपको सब कुछ बताने से पहले कुछ सबूत इकट्ठा करना चाहती थी। मगर... मुझे लगता है कि आपको पहले बैठ जाना चाहिए।"

आरव सख्त लहजे में, पीछे हटते हुए कहता है, "क्या बात है सुहानी? बताओ!"

सुहानी धीरे से उसकी आंखों में देखती हुई कहती है, "आपके पिता, शमशेर राठौर ज़िंदा हैं, आरव।"

आरव को एक झटका सा लगता है… जैसे किसी ने आरव की रगों में बहते लहू को पलभर में जमा दिया हो। वो वहीं ज़मीन पर घुटनों के बल गिर जाता है।

आरव कांपती हुई आवाज़ में कहता है, "क्या मतलब...? कैसे...? उन्होंने तो..."

सुहानी धीरे से उसकी बात पूरी करते हुए कहती है, "आत्महत्या कर ली थी...? नहीं आरव, वो ज़िंदा हैं। और तुम्हारे झूठे अतीत का सबसे बड़ा सच वहीं छिपा है।"

आरव के भीतर जैसे भूचाल सा आ जाता है। वो अचानक खड़ा होता है—उसकी आंखों में उम्मीद की चमक होती है।

आरव उत्साहित होकर कहता है, "हमें माँ को जाकर ये सब बताना चाहिए। वो बहुत खुश हो जाएंगी। शायद वो तुम्हारे बाउजी को भी माफ कर दें…और शायद... शायद हमें भी एक मौका दें…ख़ुशी ख़ुशी रहने का... एक normal couple की तरह।"

आरव की आवाज़ कांप रही होती है, लेकिन उसके शब्दों में पहली बार कोई मासूम ख्वाहिश झलक रही थी और इतना कहकर वो दरवाज़े की ओर मुड़ जाता है। 

 

“आरव राठौर! वहीं रुक जाइये। मेरी बात अभी तक ख़तम नहीं हुई है।”

आरव धीरे धीरे shocked पीछे मुड़कर सुहानी को देखता है, "आरव... ये सच इतना सीधा भी नहीं है। इस सच्चाई के साथ और भी कई राज़ जुड़े हैं। वो आखिरी शख्स हैं जिन्हें इस बात की खबर होनी चाहिए।”

“क्या मतलब है तुम्हारा, सुहानी?” आरव उससे आक्रोश में सवाल करता है।  

 

आरव, सुहानी को देख रहा था—गुस्से में, मगर सहमा हुआ, उलझा हुआ “सुहानी, अचानक से क्या हो गया है, तुम्हें? तुम मुझे रोक क्यों रही हो। तुम नहीं चाहती कि मैं ये बात माँ को बताऊँ।वो फिर से सुहानी से सवाल करता है, मगर इस बार टूटती हुई आवाज़ में। जैसे उससे जवाब की भीख मांग रहा हो। 

 

सुहानी उसे जवाब कैसे दे वो समझ नहीं पाती। मगर अब उसे सब बताने का वक़्त आ चुका था। 

 

तो क्या आरव सच बर्दाश्त कर पायेगा?

क्या दोनों मिलकर, खोये हुए अपनों को ढूंढ पाएंगे?

क्या वो दोनों साथ में मिलकर इस चक्रव्यूह को तोड़ पाएंगे?

जानने के लिए, आगे पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़। 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

   

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