इन चंद दिनों में नीना की ज़िन्दगी में बहुत कुछ बदल चुका था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह जो देख रही है, वह सच है या सपना। सपने हमेशा उसे डराकर जाते थे, या उस पर कोई नया इल्ज़ाम लगा जाते। हकीकत तो यह थी कि यह पोट्रेट में बनी आँख भी उससे कुछ कहना चाहती थीं, पर क्या? वे तो सिर्फ़ उसे देखती रहती थीं, जैसे किसी सवाल का जवाब ढूंढ रही हों।
अगले दिन स्टूडियो में बैठी नीना ने आँख की ऊपर की भौंह बनाकर, दोबारा उसके होंठों का रुख किया।
इन दो दिनों में नीना उसके होंठ को अधूरा छोड़कर सिर्फ़ उसकी दाहिनी भौंह पूरी कर पाई थी। उसकी स्पीड काफ़ी कम हो चुकी थी। वह इस हवेली के मायाजाल में फँसती जा रही थी और काम पर पूरा ध्यान नहीं दे पा रही थी।
नीना पोट्रेट को ताकते हुए एक गहरे ख़्याल में डूबी हुई थी। उसके सामने पानी से भरा हुआ एक ग्लास रखा था, जिसमें उसने लाल रंग से भरा ब्रश डुबोया। वह पानी को धीरे-धीरे लाल होते हुए देख रही थी। कितना साफ़ पानी रंग की एक बूंद से पूरा बदल सा गया, जैसे उसकी ज़िन्दगी में भी वसुंधरा के पोट्रेट के आ जाने से धीरे-धीरे सब बदल रहा है। मानों उसकी एक छोटी सी दुनिया थी, वो भी ख़त्म कर दी गई हो।
उसने देखा, कुछ ही पलों में वह लाल रंग और गाढ़ा हो गया, बिल्कुल खून की तरह, और उसमें थक्का जमने लगा। नीना की आँखें यह सब देखकर थक चुकी थीं। उसने गहरी साँस ली.... उसके अंदर कुछ अजीब सा महसूस हो रहा था। वह नज़रें हटाना चाहती थी, लेकिन नज़रें उस ग्लास पर टिकी रहीं। कुछ क्षणों में वह रंग पूरी तरह से जम गया, मानो किसी चोट से खून निकलने के बाद उस पर रक्त का थक्का जम जाता है। सूखते खून की तरह गाढ़ा और ठोस। नीना ने धीरे से ग्लास को उठाकर उल्टा कर दिया, लेकिन उसमें से कोई तरल नहीं निकला। तभी माँस का लोथड़ा उसके सामने ग्लास से निकल कर ज़मीन पर 'छप्प' की आवाज़ के साथ गिर पड़ा। सामने गंदगी देखकर उसका मन घृणा से भर गया। उसे उल्टी आने लगी, और वह दौड़कर वाशरूम की तरफ़ लपकी।
कुछ ही देर में नीना तौलिए से अपना मुँह साफ़ करती बाहर निकली। उसने कमरे में बनी खिड़की से पीछे फैला तालाब देखा। कितना गहरा, अपने अंदर न जाने कितने राज़ समेटे। सत्यजीत भी कुछ-कुछ ऐसे ही लगते हैं—अंदर से गहरे, कई राज़ छिपाए हुए। वह कभी कह रहे थे कि वसुंधरा बहुत प्यारी थी और फिर अचानक बीमार पड़ गई। कुछ तो हुआ होगा, ऐसे ही तो उन्हें बीमारियों ने नहीं घेर लिया होगा। यूँ ही कोई बीमारी घर नहीं कर जाता।
नीना के मन में सत्यजीत की बातों और अपने सपनों के बीच का अंतर लगातार खटक रहा था। वह उसके द्वारा बताई गई बातें और इस आँख के बीच कुछ ऐसा ढूंढ रही थी कि यह मामला समझ में आ जाए। वह सोचती, लेकिन हर बार उलझन और बढ़ जाती। सपने और हकीकत के बीच की यह खाई उसे बेचैन कर रही थी।
वह दोबारा पोट्रेट के सामने बैठ गई। यह वहीं नीना थी, जो अपना काम जल्दी और समय पर पूरा करने के लिए जानी जाती थी, और आज यह आलम है कि नीना बस बैठे हुए उस आधे-अधूरे पोट्रेट को निहारती रहती थी।
सत्यजीत अपने स्टाफ के साथ ऑफिस के लिए निकल रहे थे। आज उनके पास थोड़ा समय था, तो उन्होंने सोचा कि ऑफिस जाने से पहले पोट्रेट को देख लिया जाए, ताकि उन्हें उसकी प्रोग्रेस के बारे में पता चले। और वह अनुमान लगा सके कि कितने दिनों का काम बचा है।
वह स्टाफ के साथ ही उत्सुकता से पोर्ट्रेट देखने पहुँचे।
वो “गुड मॉर्निंग नीना” बोले ही थे कि पोर्ट्रेट देखकर उनकी उत्सुकता और अधीरता की जगह नाराज़गी ने ले ली।
नीना की धीमी रफ़्तार सत्यजीत को परेशान कर गई। उनकी भौंहें तन गईं और मन में विचार आया कि अगर ऐसे ही काम चलेगा, तो इसे पूरा होने में महीनों लग जाएंगे।
सत्यजीत ने उसे कड़े स्वर में पुकारा : “'नीना! और कितना समय चाहिए तुम्हें?”
उसकी आवाज़ में नम्रता और चुभन दोनों थीं, जो नीना को एकदम चौंका गईं।
नीना ने उसकी तरफ़ देखा, लेकिन कुछ कह नहीं पाई। उसके सामने उसकी बोलती वैसे ही बंद हो जाती थी, और 'कितना समय चाहिए' का उसके पास कोई जवाब नहीं था। वह क्या कहती? उसने अपना मुँह बंद रखने में अपनी भलाई समझी।
वह जानती थी कि उसकी धीमी गति के पीछे कितनी वजहें हैं। लेकिन यह सब तो वह उसे कल रात ही बता चुकी थी। दोबारा वही बातें दोहराएंगी तो शायद उसे डांट पड़ जाए।
सत्यजीत ने पोट्रेट की तरफ़ उंगली दिखाते हुए कहा,
“आपने इन दो दिनों में सिर्फ़ भौंह बनाई है?"
उनके माथे पर उभरी लकीरें उनकी चिंता और नीना की नाकामयाबी दिखा रही थीं।
नीना: जी, वो...
सत्यजीत: ये 'जी वो' क्या होता है, नीना? मुझे आपसे इतनी ढिलाई की उम्मीद नहीं थी।
नीना मुँह नीचे किए पोट्रेट की आँख को देख रही थी। इस वक्त वह सत्यजीत पर टिकी हुई थी। वह क्या कहती, ये आँख आगे बढ़ने ही नहीं देती, दिन भर ताड़ती रहती है।
सत्यजीत: 'क्या मैं आपसे थोड़े प्रोफेशनल बिहेवियर की उम्मीद कर सकता हूँ?'
नीना ने हामी भरी।
सत्यजीत: देखिए, नीना, इतना समय हमारे पास नहीं है। मैं आपसे सिर्फ़ विनती ही कर सकता हूँ कि आपने जो कहा था, वह करें। ये पेंटिंग अब तक ख़त्म हो जानी चाहिए थी। आप यहाँ-वहाँ घूमकर बेफिजूल की बातों में वक्त ज़ाया करती रहती हैं। उस वक्त को कहाँ और कैसे काम पर फोकस करना है, ये आपको अभी सीखने की जरूरत है। और मैं आपको सब कुछ नहीं सिखा सकता।"
उसकी आवाज़ में पहले की तरह नम्रता नहीं थी; उसकी आवाज़ कठोर और चुभने वाली थी।
नीना काफी उदास हो गई। लेकिन उसकी उदासी से यहाँ किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता था।
अच्छी-खासी डांट खाकर नीना के हाथ कांपने लगे, और जी भर गया। सत्यजीत की इस नई इमेज ने उसे असहज कर दिया। उसे महसूस हुआ कि जो शख्स उसके सामने खड़ा है, वह वही सत्यजीत नहीं है जिसे वह जानती थी। वह अब एक अनजान, मिस्टीरियस पर्सन लग रहा था, जो पोट्रेट को पूरा करवाने की जल्दबाज़ी में था। जैसे इसके पूरे होते ही उसे कुछ हासिल हो जाएगा।
नीना ने देखा, वसुंधरा की दाहिनी आँख उसे देख रही थी, और उसने दोबारा सत्यजीत पर अपनी दृष्टि गढ़ा दी। नीना का मुँह खुला का खुला रह गया। आखिर सत्यजीत उस आँख की गतिविधि क्यों नहीं देख पा रहे हैं?
सत्यजीत को यह देख कर और गुस्सा आया कि वे उससे कुछ जरूरी बात कर रहे हैं और वह अपने चेहरे पर अजीबोगरीब ऐक्सप्रेशन्स ला रही है।
सत्यजीत: मैं आपको कहानी नहीं सुना रहा हूँ जो आप मुझे ऐसे देखें। मैं आपको याद दिला दूँ कि आपको यहाँ आपकी कुछ क्वालिटी को देखकर अप्वाइंट किया गया था। लेकिन मुझे तो कुछ भी पूरा होता नहीं दिख रहा है। पता नहीं, आपके अंदर इसे पूरी करने की क्षमता है भी या नहीं। यह पेंटिंग अब तक पूरी हो जानी चाहिए थी, नीना। आपको समझ नहीं आ रहा? यह कमीशन आपके लिए एक बड़ा अवसर है।
नीना को सत्यजीत के बात करने का ढंग पसंद नहीं आया। वो महसूस करने लगी कि इस बार सत्यजीत के नाराज़ होने पर वह पहले जैसी डरी नहीं थी। उसके अंदर कुछ बदल रहा था, मानो उसे उस आँख से एक ऊर्जा, या कहें तो आत्मविश्वास मिल रहा था। जैसे उसकी आत्मा का किसी और आत्मा से मिलन होने लगा हो। यह आत्मविश्वास नीना के भीतर एक अजीब सी शांति ला रहा था, और सत्यजीत के गुस्से का उस पर कोई असर नहीं हो रहा था।
सत्यजीत, अपने गुस्से को छिपाने की कोशिश करते रहे, लेकिन उसकी आँखों में बेचैनी साफ़ झलक रही थी। वह वहाँ से अपनी फ़ौज के साथ चले गए।
नीना उनकी नकल करते हुए बुदबुदाई, 'विनती कर रहा हूँ...' फिर आगे बोली, 'और विनती तो ऐसे कर रहे थे, मानों पहले पत्थर मारा फिर खाने को कहा। विनती का स्टाइल थोड़ा अलग है, आपका मिस्टर चौधरी...'
नीना ने उसकी बात सुनी, लेकिन इस बार उसका मन किसी और दिशा में भटक रहा था। वह कन्फ्लिक्टेड महसूस कर रही थी—क्या उसकी धीमी स्पीड सिर्फ़ संयोग थी, या कुछ और? उसे महसूस हो रहा था कि यह पेंटिंग खुद पूरा नहीं होना चाहती, जैसे उसमें छिपी ताकत उसे अधूरा ही रखना चाहती थी। कभी तो उसे लगता कि कोई ताकत उस पर इसे पूरा करने का दबाव बना रही है और कभी कोई और ताकत उसे आगे नहीं बढ़ने देती।"
सत्यजीत के जाने के बाद नीना स्टूडियो में अकेली रह गई थी। सत्यजीत के गर्जन की गूंज अब शांत हो चुकी थी, और चारों ओर गहरी शांति छा गई थी। नीना पेंटिंग के सामने बैठी अधूरे पोट्रेट को देखती रही। सत्यजीत की नाराज़गी के बावजूद, उसे इसे जल्दी खत्म करने की कोई खास इच्छा नहीं थी। बल्कि, वह उस आँख को सिर्फ़ निहारना चाहती थी। ये नई इच्छा आखिर नीना के भीतर क्यों जाग रही थी?
क्या नीना वाकई इसे अधूरा रखना चाहती थी, या वसुंधरा की आत्मा ने इसे अधूरा ही रखने की ठान ली थी? नीना के मन में सवालों का सैलाब उमड़ पड़ा।
स्टूडियो की घड़ी ने धीमे स्वर में डंका बजाकर समय बढ़ने का संकेत दिया। नीना ने गहरी साँस ली और धीरे-धीरे उठने लगी। दिन समाप्त हो चुका था, उसने अपना सामान समेटा, फिर एक आखिरी बार पेंटिंग की ओर नज़र डाली।
लेकिन इस बार, जो उसने देखा, उसने उसकी रीढ़ में सिहरन दौड़ा दी। वसुंधरा के चेहरे पर उसकी नजरें टिक गईं, और अचानक उसे महसूस हुआ कि कुछ अजीब हो रहा है।
वसुंधरा की दाहिनी आँख ने एक बार धीरे से पलक झपकाईं। नीना का दिल इतनी तेज़ी से धड़क रहा था मनो वो उसके मुँह से बाहर ही आ जायेगा। वह स्तब्ध खड़ी रही, कुछ पलों के लिए उसे विश्वास नहीं हुआ कि जो उसने देखा, वह सच था या उसकी कल्पना।
आँख ने पलक झपकाई थी!!! लेकिन फिर तुरंत ही अपनी पुरानी, उसे एकटक देखने वाली स्थिति में लौट आई—बिना पलक झपकाए, जैसे पहले उसे देखती रहती थी। नीना की साँसें फूल गई थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि यह सब क्या हो रहा था।
वह सहमी हुई पीछे हटी, और दरवाजे की ओर बढ़ी। उसके मन में केवल एक ही सवाल गूंज रहा था कि क्या वसुंधरा का पोट्रेट वास्तव में जीवित हो रहा था? क्या इसके पूरे होते ही वसुंधरा उससे बात करेगी?
उसने स्टूडियो का दरवाजा खोला, बाहर से ठंडी हवा का झोंका अंदर आया, और नीना ने धीरे-धीरे कदम बाहर रखे।
सत्यजीत के डाँट से अब उसको फ़र्क़ नहीं पड़ता। पर ऐसा क्यों?
क्या उसको ऐसा लगने लगा की सत्यजीत उससे झूठ बोल रहा है?
उस झूठ की आड़ में कोई तो डरावनी सच्चाई छुपी होगी। पर क्या वो सच अपने-आप नीना का सामने बहार आएगा?
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