नीना को फिर से लाइब्रेरी से आती मद्धम संगीत की आवाज़ सुनाई दी। नीना ने उस धुन का पीछा किया और लाइब्रेरी पहुँच गई। उसने धीरे-धीरे लाइब्रेरी का दरवाजा खोला। उसके हाथ अभी भी हाल ही में आए सपने की वजह से काँप रहे थे। उस सपने का डर और चिंता उसके मन में बसी हुई थी, और उस सपने ने उसे अजीब सी उलझन में डाल दिया था। आखिर वह झूठी कैसे हो सकती है? वसुंधरा ने उसे झूठी क्यों कहा?
उसने देखा, सामने सत्यजीत अपनी भव्य बर्मा टीक वुड की मेज़ के पीछे बड़ी सी कुर्सी पर बैठे थे। नीना उनके अंदर एक अजीब सा कॉन्फिडेंस देख सकती थी। इन गहरी आँखों में, क्या उन्होंने किसी गहरे रहस्य को छुपा रखा था? कैसे वह नीना की जान को खतरे में डालकर इतनी शांति से जी पा रहे हैं? आराम से गाने सुन रहे हैं? उनका अंजान बनने का दिखावा नीना को और भी बेचैन कर रहा था। “क्या उन्हें सच में नहीं पता कि मेरे साथ क्या हो रहा है?”
उसकी आँखें सत्यजीत की ओर थीं, लेकिन उसका मन उस सपने में पूरी तरह डूबा हुआ था। क्या वसुंधरा ने सच में मुझे झूठी कहा? और क्यों? यह सवाल उसके दिमाग में कबड्डी खेल रहा था।
सत्यजीत ने चाय की चुस्की लेते हुए बिना किसी झिझक के नीना की ओर देखा। उसे इस हालात में खड़ा देख, उन्होंने पूछा,
'नीना, क्या आप ठीक हैं?'
उनकी आवाज़ में चिंता की एक हल्की लहर थी।
सत्यजीत के सामने वह कहाँ कुछ कह पाती थी, लेकिन हवेली में होने वाली अजीब घटनाएँ उसे इन्सिक्योरिटी की भावना दे रही थीं। खाली गलियारों में धीमी फुसफुसाहटें, खेलती काली परछाइयाँ, और सबसे बुरा वे सपने जो बार-बार उसे बेचैन कर देते थे। हर रात वह पसीने में लथपथ उठती। अब इसे वह ठीक होना तो नहीं कह सकती थी। आज उसने ये सब सत्यजीत को बताने का फैसला किया।
नीना: “मिस्टर चौधरी, मुझे आपको कुछ बताना है।”
सत्यजीत: “बैठिए नीना, और बताइए। एक मिनट, पहले आपके लिए चाय मँगवा दू?”
नीना बैठने के बजाय खड़े-खड़े ही कहने लगी,
“मैं यहाँ चाय पीने नहीं आई हूँ।”
उसकी आवाज़ थोड़ी ऊँची थी।
सत्यजीत: “आपकी आवाज़ से आप परेशान लग रहीं हैं, कहिए, क्या कहना चाहती हैं?”
नीना: “मुझे हर रात एक नया डरावना सपना आता है, मुझे वसुंधरा जी हर जगह दिखाई देती हैं। मुझे लगता है मैं पागल हो जाऊँगी। कभी लगता है मानो हवेली मुझे अपने अंदर समेट लेगी। कभी लगता है कोई मुझे धीरे-धीरे मार रहा है। आप मुझे बताइए, वसुंधरा जी के साथ क्या हुआ था?”
नीना ने एक सांस में इतना कुछ कह दिया।
सत्यजीत ने नीना को परेशान देखते हुए उसे शांत किया और उसे वसुंधरा के बारे में बताने लगे। उसकी हालत देखकर वे समझ चुके थे कि उन्हें सब बताना ज़रूरी हो चुका है। वह गहरी सांस लेते हुए कहा,
सत्यजीत: “वसुंधरा मेरा सब कुछ थी, मेरी ज़िंदगी का सबसे अहम हिस्सा।
हमारे रिश्ते में गहरा प्यार और अपनापन था। मुझे आज भी याद है, मेरी हर बिज़नेस ट्रिप पर जाने से पहले वसु का रूठकर बैठना सामान्य था। वो मुझसे बहुत प्यार करती थी। मेरा ज़्यादा कहीं जाना उन्हें पसंद नहीं था। लेकिन मैं ठहरा बिज़नेसमैन, जाऊँगा नहीं तो बिज़नेस कैसे चलेगा?" कहते हुए सत्यजीत हंसने लगे।
सत्यजीत (समझाते हुए): “और वो थी बेहद इमोशनल मेरे बिना उनका यहाँ जी नहीं लगता था, इसी बात को लेकर मुंह फुला लिया करती थी। वह सोचती थी कि मैं टूअर पर चला गया तो वो किससे बातें करेगी। अब बताओ, उनकी बातें सुनने के लिए मैं काम तो नहीं छोड़ सकता। बच्चों जैसी ज़िद पकड़कर बैठ जाती थी वसुंधरा। फिर तो कितनी भी कोशिशें कर लो, जब तक उनका मन नहीं होता, वो नाराज़गी नहीं छोड़ती। हाँ, उन्होंने यह सब करके मेरे टूअर्स ज़रूर कम करवा दिए थे। मुझे भी करना पड़ा, वो मेरा प्यार थी, उसके लिए जो बन पड़ा, मैंने किया।
सत्यजीत: “हमारे रिश्ते में नोकझोंक थी, प्यार था लेकिन खटास के लिए कोई जगह नहीं थी। पर उसके जाने के कुछ दिन पहले से हालात बिगड़ने लगे थे। वह मानसिक रूप से थोड़ी परेशान थी, और धीरे-धीरे उसकी हालत खराब होती गई।”
नीना: "अचानक से?"
सत्यजीत: "अचानक से कुछ नहीं होता, सब कुछ धीरे-धीरे ही हुआ होगा।
वसुंधरा हमेशा दान पुण्य करती थी, लोगों की मदद करना उसे बेहद पसंद था, और इसके बदले उसे लोगों का असीम प्यार भी मिला। वो थी ही ऐसी, नाज़ुक दिल की इंसान। दूसरों की तकलीफें उसे अपनी लगती थीं। एक वक़्त ऐसा आया जब वह घर से बहुत देर तक बाहर रही, और जब लौटी तो वो बदली हुई नज़र आई। पता चला कि वो शमशान घाट गई थी किसी के अंतिम संस्कार के लिए।
उसके बाद से तो वसुंधरा धीरे-धीरे अजीब बर्ताव करने लगी। उसने हवेली के अंदर खुद को अलग-थलग कर लिया और सबसे मिलना बंद कर दिया। वह हवेली के हर कोने में कुछ देखने और महसूस करने लगी—जैसे कोई उसका पीछा कर रहा हो। वही सब, जो आप अभी बता रही हैं। उसने भी बताया था और फिर डॉक्टरों की टीम ने आकर उनका चेकअप भी किया, कोलकाता के ही नहीं, बाहर के भी अच्छे-अच्छे डॉक्टर का इलाज चला। लेकिन कभी-कभी कुछ चीज़ें हमारे हाथ से निकल जाती हैं, वही वसुंधरा के साथ हुआ।"
नीना की बेचैनी अब बढ़ती जा रही थी। वह सत्यजीत की बातों को सच मान रही थी, लेकिन यह कहानी जितनी इम्पैथेटिक थी, उतनी ही मिस्टीरियस भी लग रही थी।
सत्यजीत ने अपनी कहानी जारी रखते हुए कहा की वसुंधरा ने हमेशा से अपनी भावनाओं से ज़्यादा दूसरों की कद्र की। वो अनाथ आश्रम के बच्चों से बेहद जुड़ी हुई थी और अक्सर उन्हें घर भी ले आती थी। लेकिन उसके अंतिम दिनों में उसका एक अलग ही रूप देखने को मिला; वह एक ऐसे अंधेरे में चली गई, जहाँ से वह वापस नहीं आ सकी। उसने पूरी तरह से खुद को अलग कर लिया था।
सत्यजीत के स्वर में दर्द था, और एक अजीब-सी चुप्पी की गूँज भी, जो नीना को अनकंफर्टेबल कर रही थी। नीना उनका दर्द महसूस कर सकती थी। अच्छे लोगों के साथ ऐसा क्यों होता है, सवाल उसके दिमाग में चल रहा था।
सत्यजीत: “जितनी प्यारी वह थी, अपने अंतिम दिनों में बेहद खतरनाक बन गई थी। पहले हवेली में जहाँ सब उन्हें "बोउदी" कहते थे और उनके आगे-पीछे घूमते थे, वही अब उनके करीब जाने से भी डरते थे। न चाहते हुए भी मुझे यह कहना पड़ रहा है कि वह सबके लिए एक परेशानी बन गई थी।”
कहते हुए, उन्होंने वहाँ ड्रॉर से एक डायरी निकालकर दिखाई। डायरी थोड़ी पुरानी थी और समय की धूल उसे भारी भी बना रही थी।
सत्यजीत: "ये देखिए।"
नीना ने वो डायरी देखना शुरू की। उसमें उन्होंने अजीब तरह के चित्र बना रखे थे। कहीं किसी पिशाच के तो कहीं कुछ अधूरा लिखा छूटा हुआ था। तो कहीं सिर्फ़ लकीरें खींची हुई थीं। एक कब्रिस्तान का अधूरा चित्र, तो कहीं गोलों के अंदर गोले और उसके अंदर और गोले...
उनकी लिखी कोई भी लाइन पूरी नहीं थी। देखकर समझ आ रहा था कि उन्हें सच और भ्रम के बीच का अंतर समझ में आना बंद हो चुका था। ठीक वैसे ही जैसे नीना को सपने और हकीकत में फर्क समझ आना बंद हो चुका है।
डायरी से अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि वसुंधरा की हालत उस वक्त सही नहीं रही होगी। आज भी वसुंधरा जब भी सपने में आती है, कुछ ऐसा बोल जाती है जो उसे समझ नहीं आता, और आता भी है तो कुछ भी सही नहीं लगता।
डायरी से उनकी हालत साफ़-साफ़ नज़र आ रही थी। उसे उनमें वसुंधरा की हालत के बिगड़ने के संकेत साफ़-साफ़ मिल रहे थे। हर टूटा शब्द मानो वसुंधरा के दिमाग के टूटे कनेक्शन को दिखा रहा था। हर खींची हुई टूटी लाइन मानो उनकी टूटी सेहत की आवाज़ थी।
"वाकई में वह बहुत परेशान थी," नीना ने धीरे से कहा।
जबकि सत्यजीत ने मौन होकर उसकी ओर देखा, जैसे वह उसके कहे शब्दों का इंतज़ार ही कर रहे हों। थोड़ी देर बाद, उसने बोलना शुरू किया।
सत्यजीत: “हाँ, लोगों का मानना था, जब वह स्मशान भूमि गई थी, शायद वहाँ उन्होंने कुछ ऐसा देख लिया जिसकी वजह से उनकी यह हालत हो गई। आपकी बातों में भी वही सब झलक रहा है। मुझे लगता है कि पोट्रेट पूरा करना ही एकमात्र उपाए है जिसके ज़रिए हम वसुंधरा की आत्मा को शांति दिला सकते हैं। और आप भी उसके बाद फ्री हैं।
सत्यजीत आगे याद करते हुए बोले, “मुझे आज भी अच्छे से याद है उनका वह आखिरी दिन। वे बेहद डरा देने वाली हरकतें कर रही थीं, यहाँ तक कि उन्होंने अपने नाखूनों से मेरे हाथों तक को ज़ख्मी कर दिया था।”
कहते हुए उन्होंने अपनी बाँह ऊँची करके नीना को वही नाखूनों के निशान दिखाए। मानो वह निशान नाखूनों के न होकर किसी धारीदार चाकू के हों। उसने उन निशानों को गौर से देखा।
सत्यजीत: ये ज़ख्म मुझे उसकी याद दिलाते हैं। एक प्यारी सी औरत खूंखार दरिंदा बन चुकी थी।
सत्यजीत रुआंसा हो उठा। और नीना को उसके लिए फिर बुरा लगने लगा। आज सुबह तो वो उसे कितना गलत समझ रही थी, मानो उसे उसकी फ़िक्र ही न हो, लेकिन ये तो खुद ही भीतर से ज़ख्मी है। यह अपने आप को जितना मजबूत बना सकता था, बना लिया है।
नीना सत्यजीत की तरफ़ झुकती जा रही थी। उनके लिए सहानुभूति महसूस करने से खुद को रोक नहीं पा रही थी। वो सोचने लगी ‘मिस्टर चौधरी सच में वक्त के मारे हैं, जिन्होंने वसुंधरा की मानसिक हालत भी चुपचाप सहन की।
उसने यह सब सुनते वक्त सत्यजीत की आँखों में दर्द और बेचैनी की एक गहरी लहर महसूस की, जो न चाहते हुए भी उसके दिल को छू गई।
वह सोचने लगी कि कैसे एक समय में प्यार और देखभाल से भरी यह ज़िंदगी अब अंधेरे में बदल गई है। मिस्टर चौधरी भी अपने जीवन के इस कठिन सफर में अकेले हैं।
सत्यजीत फिलहाल अपना एक पूरा काला अतीत जी चुके थे। उनका गला भारी और साँसें असामान्य नज़र आ रही थीं।
ये सब सुनने में ही इतना विचलित कर देने वाला है, तो सोचो मिस्टर चौधरी ने ये सब कैसे झेला होगा?
अपने प्यार को उस हालत में देखना क्या किसी के लिए भी आसान होगा? इस सवाल का जवाब नीना बड़ी आसानी से दे सकती थी: नहीं, बिल्कुल नहीं... मौत से भी बदतर होगा और उसके बाद की ज़िंदगी भी।
‘लेकिन मिस्टर चौधरी ने खुद को संभाला हुआ है, वसुंधरा के चैरिटी वाले कामों की देखरेख अब खुद करते हैं। इतनी सहनशक्ति जीवन में लाने के लिए क्या करना पड़ता होगा?’ वह सत्यजीत को देखते हुए सोच ही रही थी कि सत्यजीत ने कहा:
सत्यजीत: "उम्मीद है अब आपके सवालों के जवाब मिल गए होंगे। अगर हाँ, तो क्या मैं थोड़ी देर अकेले रह सकता हूँ? आप हो सके तो बस पोट्रेट पर ध्यान दीजिए।"
नीना ने “हाँ” कहा और वहाँ से बाहर निकल गई। वो जानती थी कि ये सब बताते हुए सत्यजीत का मन भारी हो गया था और रो कर उस गुबार को हल्का करने का हक उन्हें भी है। क्या आज रात वो सो पाएंगे या रोते ही रहेंगे? मैंने क्यों उन्हें ये सब याद करने पर मजबूर किया? नाज़ुक दिल के लोग हर गलती का दोषी खुद को ही मान लेते हैं। नीना का नाज़ुक दिल भी खुद को ही दोषी मानने लगा। वसुंधरा के साथ ऐसा क्या हुआ होगा जो वो अचानक बीमार पड़ गई? यही सवाल लिए वो corridor में आगे बढ़ी। उसे गलियारे में एक हल्की आवाज़ सुनाई दी। मानो उसे यकीन था कि यह आवाज़ वसुंधरा की है।
“छोटो-लोक!" यह आवाज फुसफुसाती हुई उसके कानों में गूंज गई। नीना ने पलटकर देखा, लेकिन गलियारा सुनसान था। दिल की धड़कन तेज हो गई। वह जानती थी कि वसुंधरा की मेंटल स्टेट खराब हो गई थी, लेकिन इस प्रकार की बातें सुनकर उसे डर लग रहा था।
वह खुद को समझाने लगी कि शायद यह उसकी सोच का परिणाम था, कहीं वो भी वसुंधरा की तरह मानसिक रोगी तो नहीं होती जा रही है। नीना ने गहरी सांस ली और आगे बढ़ने की कोशिश की, लेकिन उसके दिमाग में विचारों का ज़ंजीर खड़ा हो गया और कदमों में भारीपन आ गया। कहीं वो भी बीमार तो नहीं होती जा रही?
क्या वसुंधरा ने जो कहा, वह सच था या उसकी मानसिक स्थिति का रिफ्लेक्शन ?
क्या सत्यजीत ने जो कहा, वो सच था, या झूठ का नक़ाब?
क्या नीना की मानसिक स्थिति भी वसुंधरा जैसी होने को थी?
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