वह पेंटिंग के सामने खड़ी थी, जैसे पेंटिंग उसे किसी गहरे रहस्य की ओर खींच रही हो। यह पेंटिंग उसके लिए सिर्फ़ एक पोट्रेट नहीं थी, बल्कि इसमें कुछ ऐसा था जिसे वह समझ नहीं पा रही थी।

सोचते हुए उसने वसुंधरा की पोट्रेट की दाहिनी आँख को देखा, जो एक टूक नीना को देख रही थी। अब उसे यकीन होने लगा था जैसे कोई जीवित व्यक्ति उसे इन आँखों के ज़रिये घूर रहा हो। उसका मन ऐसे उलझे प्रश्नों का जाला तेज़ी से बुन रहा था। बेचेनी से उसकी अपनी धड़कनें तेज़ हो गईं, और उसके मन में एक अनजाना भय समाने लगा।

नीना ने गहरी सांस ली और खुद को संभालते हुए अपने ब्रश को उठाया। “ऐसा कुछ भी नहीं है”, बुदबुदाते हुए नीना अपने मन को झूठी तसल्ली दे रही थी। अपने होंठो को दाँतो से काटते हुए आगे की रूपरेखा का ब्यौरा लिया। उसके हाथ में हल्की कंपकंपी थी, जो उसने पहले भी महसूस की थी। रोज उसे अपने हाथो में कुछ नया एहसास होता। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि वह एक साधारण पेंटिंग बना रही है या कुछ ऐसा जो उससे परे है। उसने वसुंधरा के होंठों के आउटलाइन को बनाना शुरू किया। आउटलाइन पर काम करते वक्त वह बेहद ध्यान से अपने हर स्ट्रोक को देख रही थी, ताकि वह कुछ गलती न कर बैठे। जैसे ही उसने पहला स्ट्रोक पूरा किया, अचानक उसे किसी की नरम लेकिन कर्कश आवाज़ सुनाई दी।

“नीना… ऐ नीना…”

वह आवाज़ धीमी थी, लेकिन उसमें एक अजीब सी थरथराहट थी जो उसके दिल को बेचैन कर रही थी। नीना का हाथ रुक गया। उसने ब्रश को कसकर पकड़ा, और पेंटिंग से हटकर आसपास देखा। 

स्टूडियो में सिवाए नीना और उसकी दिल की धड़कनों के अलावा और कोई नहीं था। कमरे में सन्नाटा था, बस, उसे अपनी साँसों की आवाज़ सुनाई दे रही थी। यह आवाज़ असल में थी, या फिर उसका भ्रम था, नीना को समझ में नहीं आ रहा था। अब वो उसका अंतर नहीं कर पा रही थी। उसका दिल तेज़़ी से धड़क रहा था, और उसके माथे पर पसीना चमकने लगा। उसने फिर से अपनी नज़रें पेंटिंग पर टिकाईं - वह आँख उसे घूर रही थी - और उसके पीछे मानों कोई खड़ा हो। 

नीना ने खुद को समझाने की कोशिश की कि यह सब उसका भ्रम है। लेकिन वह फिर से आवाज़ सुनने लगी। इस बार आवाज़ और भी साफ थी। " नीना… ऐ नीना…”  

वह घबरा गई लेकिन खुद को संभालना जरूरी थी।  पेंटिंग   से उसका लगाव गहराता जा रहा था। वो अपने ब्रश को  पेंटिंग   के करीब ले गई। 

तभी अचानक कमरे की lights झपकने लगीं। नीना का दिल धड़कने लगा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। वह और घबरा गई। अंधेरे में  पेंटिंग  की आँख चमक रही थी मानों अपने में पूरा ब्रह्मांड समेटे हो। ये उसके paint और pigment का कमाल था , नीना में दिमाग का एक हिस्सा उससे यह कह रहा था, पर दूसरा घबराया हुआ हिस्सा, अपने आपे से बाहर जा रहा था! नीना ने घबराहट में कमरे से बाहर जाने का फैसला किया, लेकिन उसके पैर जैसे ज़मीन पर जम गए थे। वह हिल भी नहीं पा रही थी।

“नीना… ऐ नीना…” फिर से वही आवाज़ आई। इस बार वह बेहद करीब से सुनाई दी। मानों उसके कानो में किसी ने आ कर उसका नाम पुकारा और वो भी बेहद ड़रवाने अंदाज़ में.. नीना ने डर के मारे अपनी आँखें बंद कर लीं। वह चाहती थी कि यह सब खत्म हो जाए, लेकिन यह सब इतना आसानी से खत्म होने वाला कहाँ था?

नीना ने ब्रश को नीचे रख दिया और  पेंटिंग   से एक कदम पीछे हट गई। उसकी नज़र अब  पेंटिंग  के होंठों पर गई। होंठ की आउटलाइन बनी थी लेकिन लग रहा था मानों वह होंठ हल्के-से हिल रहे थे..... जैसे कि कुछ कहने वाले हों।

"यह क्या हो रहा है?" नीना ने खुद से पूछा।

उसे सपनों और हकीकत के बीच का फर्क समझ आना बंद हो गया।

नीना: “दिस इज़ नॉट हैपनिंग ! मैं बहुत थकी हुई हूँ… मेरा दिमाग यहाँ के माहौल से उलझा हुआ है, बस! आई मीन… आई मस्ट बी इमैजनिंग दिस!” 

लेकिन वह आवाज़ इतनी वास्तविक थी, और  पेंटिंग में जो कुछ हो रहा था वह उसके कंट्रोल से बाहर था। 

क्या यह सपना था? या फिर हक़ीक़त? नीना को ऐसा लग रहा था की अब उसका दिमाग फट जायेगा! उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह जिस चीज़ का सामना कर रही थी, वह उसका मनगढ़न ख़्याल था या फिर कोई सच्चाई..

**

अगली सुबह नीना खुली आँखों से जागी। पूरी रात उसे ठीक से नींद नहीं आई। उसकी आँखों के नीचे के काले धब्बे इस बात की गवाही स्वयं दे रहे थे कि नींद और नीना का रिश्ता काफ़ी अनकंफर्टेबल था। वह सो नहीं पा रही थी।


उस वक़्त उसका मोबाइल बज पड़ा - अंजलि का वीडियो कॉल आ रहा  था। उसने रिसीव किया।
अंजली: "गुड मॉर्निंग मैडम ! अरे, तेरा चेहरा क्यों नहीं दिख रहा है?"
नीना: "लेकिन मैं तो तुझे देख पा रही हूँ।"
अंजली: "अच्छा, रुक दोबारा कॉल करती हूँ।"
नीना: "हाँ।"

अंजली ने दोबारा कॉल किया, लेकिन उसे नीना का चेहरा अभी भी ब्लर दिख रहा था।

अंजली: "जंगल में बैठी है क्या? कनेक्ट ही नहीं कर पा रही थी।"
नीना: "लेकिन मैं तो तुझे ठीक से देख पा रही हूँ…" 
अंजली: "फिर मैं क्यों नहीं देख पा रही?" 
नीना: "पता नहीं…"

नीना खुद भी इस बात से परेशान थी। वह अंजली को देख पा रही थी, लेकिन अंजली उसे क्यों नहीं देख पा रही थी, इसका कोई जवाब उसके पास नहीं था। नीना ने फोन के कैमरे को चेक किया, लेकिन सब कुछ ठीक लग रहा था। उसने देखा अंजली का चेहरा उलझन से भरा था, और उसकी आवाज़ में भी हल्की चिंता झलक रही थी।

अंजली: "अच्छा सुन, मैंने तुझे कल एक मेल किया था... तूने देखा?"

लेकिन नीना को आवाज़ सुनाई नहीं दी। 

नीना: "हैलो अंजली? यार, आवाज़ नहीं आ रही है…" 

कॉल डिस्कनेक्ट हो गया और दोबारा कनेक्ट नहीं हुआ।

अब नीना की अपने दोस्तों से कनेक्टिविटी भी टूटती जा रही थी। आज भी, नीना को अंजली की आवाज़ सुनाई देना बंद हो गई, और बात अधूरी ही रह गई। उसकी सतीश और अंजली से ठीक से बात भी नहीं हो पा रही थी। 

नीना की थकी हुई आँखें बिस्तर पर लेटे हुए छत को ताक रही थीं, और उसके मन में एक अजीब सा खालीपन घर कर रहा था।

सपने और वास्तविकता के बीच की यह दूरी नीना को कंफ्यूज़ कर रही थी। वो रजनीगंधा की ख़ुश्बू, पर्दों से छन्नता सूरज, दार्जीलिंग चाय, कुछ भी नहीं भ रहा था नीना को! 

उसे लग रहा था मानो सामने कोई रील चल रही हो और उसने सिर्फ़ वसुंधरा और इस हवेली को ही फॉलो किया हुआ है। उनके अलावा कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था। इस हवेली के जाल में उलझकर वह अपनी असली ज़िंदगी से दूर होती जा रही थी। मानो इस भूतिया दुनिया के अलावा बाहर की वास्तविक दुनिया का कोई अस्तित्व ही नहीं हो, और वह उसे पूरी तरह से भूलती जा रही थी।

अचानक उसे लगा जैसे किसी लंबे हाथ ने गेस्ट रूम का दरवाजा खोला और उसका हाथ ज़ोर से जकड़ लिया। वो चीख़ी लेकिन उसकी आवाज़ अटक गई। वो खुद को लाचार और असहाय महसूस कर रही थी।

वह हाथ उसे बाहर की तरफ़ खींचने लगा। नीना ने उसे रोकना चाहा, तो उस हाथ ने अपने नुकीले काँटे निकालकर नीना के हाथ की नसों मे गाड़ दिया। नीना छटपटा गई... दर्द की वजह से उसकी आँखों से आँसुओं की बूँदें लुड़क कर गालों पर आ गईं। वो अपना हाथ छुड़ा नहीं पा रही थी… एक अननोन पावर से खिंचती हुई, नीना एक बार फिर  पेंटिंग के सामने आ खड़ी हुई।

नीना ने देखा कि उसके हाथों की आर्टरीज़ और वेन्स लाल और नीली न होकर गाढ़े काले रंग की नज़र आ रही हैं, और वैसी ही रेखाएँ उसकी रंगी हुई हथेलियों पर भी देखी जा सकती थीं। वह painting के सामने खड़ी ही थी कि सत्यजीत ने आकर स्टूडियो के दरवाज़े पर नॉक किया। थकी हुई नीना ने पलट कर देखा।

नीना निस्तेज़ नज़र आ रही थी, लेकिन सत्यजीत ने उसे देखने के बजाय  पेंटिंग  को देखा।

सत्यजीत: "ओह, पोट्रेट का काम काफ़ी स्लो चल रहा है।"
नीना खामोश थी। उसके काम, या पोट्रेट की सजीवात्मकता पर सत्यजीत के मुँह से कुछ भी नहीं निकला। निकला, तो नुक्स निकला। 


सत्यजीत: "मैं आपसे इसे जल्दी पूरा करने की विनती ही कर सकता हूँ। तो हो सके तो इसे जल्द से जल्द पूरा कीजिए।"

नीना: "आपको इसे पूरा करवाने की इतनी जल्दी क्यों है?"

सत्यजीत: "ये मेरी पत्नी का पोट्रेट है, इसे पूरा होने का सबसे ज्यादा इंतज़ार मुझे ही है।"
उनकी आवाज़ में एक कठोरता थी। उन्हें नीना की रत्ती भर भी फ़िक़्र नहीं थी।

 
"सच ही तो है, स्वार्थी लोगों का जमावड़ा है यहाँ...
तू अपना नाज़ुक दिल संभाल और निकल यहाँ से..."

नीना ने महसूस किया कि सत्यजीत की बातें कितनी कठोर थीं, उन्हें नीना के दिल दुखने का रत्ती भर भी ख़्याल न आया।

नीना ख़ामोशी से उस  पेंटिंग   को देख रही थी, और सत्यजीत के सामने उस  पेंटिंग की आँखें कोई हरकत नहीं कर रही थीं। उसे लगा या तो वह पागल है या मानसिक रूप से बीमार हो चुकी थी। सत्यजीत वहाँ से निकल गए। अब उस कमरे में वह और  पेंटिंग दोनों अकेले खामोश खड़े थे।


**

 

रात गहरी थी, और नीना अपने बिस्तर में बेचैन होकर करवटें बदल रही थी। उसे लगा शायद एक बार फिर वही सपना आने वाला है—वसुंधरा का सपना। पिछले कुछ दिनों से, यह सपना नीना के जीवन का एक स्थायी हिस्सा बन गया था। सपने में हमेशा वही मिस्टीरियस और डरावनी सिचुएशन होती थी। उसे नींद आने लगी, पर उस रात कुछ अलग होने वाला था।

आँखें मूँदते ही नीना ने देखा कि वह हवेली की छत से एक रस्सी के सहारे लटकी हुई थी। ठंडी हवा उसके रोंगटे खड़े कर रही थी। वह जानती थी कि जल्द ही उसका वसुंधरा का सामना होगा, और उसने जो सोचा, वही हुआ। वसुंधरा हवा में उड़ती हुई उसके सामने आ खड़ी हुई। उसके लंबे घने काले बाल हवा में आसमान की तरफ़ उड़ रहे थे। वह देखने में बेहद डरावने थे।

वसुंधरा की आँखें पहले जैसी नहीं थीं। आज वसुंधरा की आँखें भरी हुई थीं, और उसमें एक गहरा, अजीब सा क्रोध झलक रहा था। उसकी आँखों का रंग गहरा काला हो गया था, और उसमें एक ऐसी चमक थी जो नीना के दिल में ख़ौफ़  पैदा कर रही थी। 

नीना को लगा जैसे वसुंधरा उसे सिर्फ़ देख नहीं रही, बल्कि उसकी आत्मा के अंदर समा रही हो। उसकी आँखों में एक सवाल था, एक आरोप था, और नीना को यह महसूस होने लगा कि वसुंधरा कुछ कहने वाली है। अचानक, वसुंधरा ने उसके कान के बेहद करीब आकर कहा, “झूठी!” 

उसकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन उसमें एक गूंज थी, जो नीना के कानों में देर तक बजती रही। नीना हक्की-बक्की रह गई। वह समझ नहीं पा रही थी कि वसुंधरा ने उसे 'झूठी' क्यों कहा। उसका मन उलझन में था—कौन सा झूठ? क्या उसने कुछ छिपाया था? या क्या कुछ ऐसा था जो उसने खुद से भी छुपा रखा था? पहले की तरह रहस्यमयी डर अब एक ठोस आरोप में बदल गया था। "झूठी!"—यह एक ऐसा शब्द था जो नीना के भीतर गहराई से गूंज रहा था।

वो सोचने लगी, क्या उसका और वसुंधरा का कोई पुराना कनेक्शन रह चुका है?

वसुंधरा ने दोबारा कहा, “झूठी!” और बड़े से हसिए को हवा में उछालते हुए, उसने वह रस्सी काट दी, जिससे नीना लटकी हुई थी। नीना ज़ोर से चीखती हुई ज़मीन पर धड़ाम की आवाज़ के साथ धराशायी हो गई।

नीना हड़बड़ा कर उठ बैठी, उसका शरीर पसीने से भीगा हुआ था। उसकी सांसें तेज़़ हो गई थीं और दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। वह पलंग पर बैठी, अपने चारों ओर की अंधेरी, शांत रात को महसूस कर रही थी, लेकिन उसके भीतर का शोर थमने का नाम नहीं ले रहा था।
वसुंधरा का "झूठी" कहकर पुकारना नीना के मन में हजारों सवाल छोड़ गया था। 

क्या यह सिर्फ़ एक सपना था, या उसकी ज़िंदगी में कोई गहरा राज़ था जिसे अब सामने आना था?

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