इस बार नीना ने एक डरावना सपना देखा। और सपनीन से ज़्यादा डरावना। भयावह था वो सपना। इतने डरावने सपने के बाद नीना की नींद उड़ गयी थी और अब उसका सोना मुश्किल हो गया था। किस तरह से मुद्दे की तह तक जाया जाए ये सवाल उसके ज़हन में खलबली मचा रहे थे। आखिर क्या हुआ होगा? उसे ये सब क्यों दिखाई दे रहा है? वो बहुत परेशान हो गयी  थी।

क्या वो यहाँ बंधी बन कर रह जाएगी? या वो यहाँ से बाहर निकल पाएगी? 

सपने से जागकर नीना अपनी थकी हुई आँखें मसलते हुए अपने स्टूडियो में टहल रही थी और वसुंधरा की आँख उसके साथ साथ टहल रही थी। हवेली में इतने लोग थे लेकिन फिर भी अजीब सी डरा देने वाली खामोशी ने उसे परेशान कर दिया था। दूर कहीं से घड़ी की टिक-टिक सुनाई दे रही थी नीना को।

उसने वसुंधरा की आँख को देखा लेकिन अब वो उससे डर नहीं रही थी। उसने मन ही मन सोच लिया कि अब दूसरी आँख पर काम शुरू कर देना चाहिए.. उसने सारे सामान निकाले ।

नीना अब पहले जैसी नहीं रही और यह बदलाव उसके बर्ताव में साफ़-साफ़ दिखाई देने लगा था। पहले की नीना, जो ज़िंदादिल, हंसमुख और अपने दोस्तों के साथ गहरे रिश्ते निभाती थी, अब कहीं खो गई थी। वह सतीश और अंजली को उल्टे मुँह जवाब दे चुकी थी। वे दोस्त जो उसे जान से प्यारे थे, अब उनकी उसे रत्ती भर भी फ़िक्र ना थी।

उसकी आँखों में एक अजीब सी उदासी और बेचैनी घर कर चुकी थी। ऐसा लगता था जैसे वह अपने ही भीतर कहीं खो गई हो। उसे अब अकेले रहना रास आने लगा था।

शायद यह पोट्रेट ही था जो उसे उसको वास्तविक ज़िंदगी से दूर खींच रहा था, या फिर हवेली के रहस्यों ने उसे जकड़ लिया था। नीना के भीतर कुछ ऐसा था जो उसे लगातार बदल रहा था, और यह बदलाव सिर्फ़  बाहरी नहीं था, यह उसकी आत्मा को भी प्रभावित कर रहा था।

वो पोट्रेट को देख ही रही थी कि इस सन्नाटे में उसे गानों की मद्धम आवाज़ सुनाई दी। 

 

आवाज़ सुनकर नीना ने सभी सामान वापस जगह पर रख दिए और आवाज़ की तरफ़ रुख किया। ये आवाज़ लाइब्रेरी से आ रही थी। आज सत्यजीत हवेली में ही थे, और हवेली में उनकी पसंदीदा जगह थी लाइब्रेरी। 

नीना आवाज़ का पीछा करते हुए लाइब्रेरी में पहुँच गई। उसने देखा कि सत्यजीत सोफ़े पर बैठे थे, उनके पैर सामने रखे छोटे ओटोमैन पर थे। किताब खुली हुई उनके सीने पर रखी हुई थी और पास ही ग्रामोफ़ोन बज रहा था।

नीना ने उन्हें देखा और बुदबुदाई, “हम्म्म, इतना रोमांटिक गाना... इन्हें देखकर तो लगता नहीं कि इनकी पसंद ऐसी होगी।

उसे लगा कि मिस्टर चौधरी को इस वक्त अकेले रहना होगा, उन्हें इस वक्त डिस्टर्ब करना सही नहीं होगा। ये सोचकर वह वहाँ से जाने लगी कि उन्होंने आँखें खोलीं।

“ओह्ह…. आइए नीना...” सत्यजीत की आवाज़ से वह चौंकी। 
नीना: “सॉरी, मैंने आपको डिस्टर्ब किया। आप सो गए थे...”

सत्यजीत: "वसु के जाने के बाद से कभी ठीक से नींद आई ही नहीं।"
नीना को सत्यजीत के लिए बुरा लग रहा था। कोमल दिल के लोग ऐसे ही होते हैं। सबकी परेशानी उन्हें अपनी ही लगती है। इस घर में वसुंधरा जी के बिना इनका दिल नहीं लगता। क्या गुज़रती होगी इन पर? इसीलिए ये अक्सर बाहर ही रहते हैं। उसे उनकी हालत देखकर लगा कि कितना पैसा है उनके पास, लेकिन तन्हाई का वक्त तो अकेले ही गुजरना पड़ता है।

नीना: "आपको अकेले नहीं रहना चाहिए, नहीं तो आपकी उदासी और बढ़ेगी।"
सत्यजीत: "नीना, इस वक्त आप गलत हैं, मैं अकेला रहना चाहता था, इसलिए मैं अकेला हूँ। और हाँ, ये उदासी नहीं, वसु की यादें हैं; इसे उदासी का नाम न दें।"
नीना उसके पास वाले सोफे पर बैठ गई और धीरे से पूछ बैठी।
नीना: "आपसे एक सवाल पूछूं?"
सत्यजीत: "पर्मिशन ग्रांटेड."

नीना: "वसुंधरा जी को क्या सच में कोई मानसिक बीमारी थी?"
सत्यजीत: "शुरू से नहीं, लेकिन बाद में वो काफ़ी बीमार हो गई थीं। आपको वसु की कहानी शुरू से सुनाता हूँ। सुनेंगी?"
नीना: "मैं तो कब से यही चाहती थी!"
सत्यजीत: "तो सुनिए..."

नीना आराम से बैठ गई।
सत्यजीत: "ये ज़रूरी नहीं कि प्यार सिर्फ़ लव मैरिज में ही होता है, अरेंज्ड मैरिजेज़ में भी प्यार होता है। मुझे अच्छे से याद है जब हमारे घर वालों ने हमें एक-दूसरे के लिए चुना था। फिर भाग्य से कुंडली मिलाने पर सभी गुण मिल गए। वसु को मैंने ‘पाका-देखा’ में पहली बार देखा। उसने साड़ी पहनी थी और मैंने धोती-कुर्ता।” 

कहते हैं वो उन हसीन पलों को याद करके मुस्कुराने लगे, 

सत्यजीत : “और दूसरी बार “शुभो दृष्टि” में देखा और बस प्यार हो गया।'
नीना: "ये ‘पाका-देखा’ और ‘शुभो दृष्टि’ क्या होता है?"

सत्यजीत: “अब आपको बांग्ला भी सीखाना होगा। ‘पाका-देखा’ शादी की बात जब पक्की हो जाए, उसको कहते हैं। और 'शुभो दृष्टि' जब लड़का और लड़की अपनी शादी के दिन पहली बार एक-दूसरे को देखते हैं। दुल्हन अपना चेहरा पान के पत्तों से ढक कर रखती है।उसके बाद सात फेरे होते हैं। मैंने तब पहली बार वसु को शादी के जोड़े में देखा था। कितना बेचैन था में उसको देखने के लिए..."

नीना को उनकी बातों में बहुत दिलचस्पी आ रही थी।
सत्यजीत: "वसु बेहद आकर्षक थी और ज्ञान का भंडार भी। लोगों की मदद करना उसे बेहद पसंद था।"
सत्यजीत बता ही रहे थे कि उनके स्टाफ के एक सदस्य ने आकर उन्हें याद दिलाते कि उनके दवाई लेने का वक़्त हो गया है। 
सत्यजीत उठे और नीना से कहा, "आगे की बातें बाद में होंगी, मुझे मेडिसिन लेकर सोना होगा। कल कुछ अरजेंट मीटिंग्स भी हैं।"
नीना: "मुझे वसुंधरा जी के बारे में सब कुछ जानना है।"
सत्यजीत: "बिल्कुल।"


सत्यजीत वहाँ से चले गए और नीना दोबारा स्टूडियो में पहुँच गई। उसे इन दिनों नींद नहीं आती थी; वह अपने कमरे और स्टूडियो के बीच भटकती रहती थी।
उसने जाकर देखा कि पेंटिंग का सामान तो उसने समेट लिया था, फिर यह बिखरा हुआ क्यों है?
उसे वहाँ खड़े हुए एहसास हुआ, मानो कमरे की दीवारें उसके करीब आ रही हैं और वह उनके बीच फंसकर रह जाएगी। वह बिना वक्त गंवाए वहाँ से बाहर की तरफ़ भागी और सीधा गेस्ट रूम में जाकर रुकी। यह कैसा खेल चल रहा है? कोई कहता है, पोट्रेट जल्दी पूरा करो, तो कोई उसे पूरा करने नहीं देता।’
उसने देखा कि सतीश और अंजली के कॉल्स आए हुए थे और मैसेजिज़ भी। उसने अपने व्हाट्सऐप्प मैसेजिज़ पढ़े थे। उसने उन्हें अनदेखा कर दिया और उन्हें जवाब देना जरूरी नहीं समझा।
नीना की भूख, प्यास, नींद, दोस्त—सब कुछ हवेली के छुपे राज और पोट्रेट की भेंट चढ़ते जा रहे थे। 

नीना को नींद नहीं आ रही थी। वह ऊपर छत की ओर लगातार देख रही थी, उसे लगा मानो सामने पर्दे पर एक फ़िल्म शुरू हो गई हो। 

उसने देखा कि  वसुंधरा ने लाल बॉर्डर वाली सफेद साड़ी पहनी हुई है। सामने दुर्गा माँ की प्रतिमा सजी है, और वसुंधरा बालों में फूल लगाए, धुनुची हाथ में पकड़े नाच रही थी। शायद अपनी भी धुनुची देखे हो - बड़े से मिट्टी के दिए में नारियल के खोपरे को सुगन्धि के साथ जलाया जाता है। उनके चारों ओर खुशबूदार धुआं फैला हुआ था, जिसकी खुशबू नीना भी महसूस कर सकती थी। उन्हें यूँ देख कर नीना के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। "ये कितनी प्यारी और संजीदा है, यार..." उसके मन में एक आवाज़ आई।

उसने देखा कि वसुंधरा कुछ लेने अंदर गई। नीना साफ़  देख सकती थी कि कोई आदमी उनका पीछा कर रहा था। कौन है ये आदमी? नीना के मन में आवाज आई, और यह वसुंधरा जी को क्यों फॉलो कर रहा है? वसुंधरा एक कमरे में गई, और उस आदमी ने उनके पीछे से आकर उनका गला दबाकर धक्का दिया, जिससे वह दीवार से टकरा कर बेहोश हो गईं। नीना जोर से चीखी, "कोई बचाओ! उन्हें चोट लगी है!" और पलक झपकते ही सारा मंजर उसकी आँखों से ओझल हो गया।

नीना को पहले सब कुछ सपने में दिखाई देता था, लेकिन अब यह सब उसे जागती आँखों से दिखने लगा था। वसुंधरा के प्रति उसकी सहानुभूति बढ़ती जा रही थी। ये सब उसे क्यों दिखाई दे रहे थे? क्या इन सबके पीछे कोई मकसद छुपा था? वह वसुंधरा से जुड़ा हुआ महसूस कर रही थी, जैसे वसुंधरा की आत्मा का नीना की आत्मा से मिलन होने लगी हो। अब उसे पेंटिंग जल्दी पूरी करनी थी ताकि वह अतीत की तह तक जा सके।

देर रात को सतीश का कॉल आया, लेकिन नीना ने उसे अनदेखा कर दिया। सतीश ने एक मैसेज भेजा:
सतीश: "ऑल ओके? रिप्लाई क्यों नहीं कर रही?"
नीना ने जवाब दिया: "क्योंकि काम करना है, उसके लिए एकांत की जरूरत है। मुझे काम पर फ़ोकस करना है। प्लीज़ कुछ दिनों के लिए मुझे अकेला छोड़ दो.."
इस तरह का जवाब देखकर सतीश हर्ट हुआ , लेकिन उसने नीना के फैसले का सम्मान करते हुए वो खामोश रहा।

नीना को अपने किए का कोई पछतावा नहीं था, क्योंकि उसकी सोचने-समझने की क्षमता दिन-ब-दिन घटती जा रही थी, और इसका उसे एहसास तक नहीं था। 

वह इस हवेली के बुने मायाजाल में फँस चुकी थी, और यह मायाजाल नीना पर अपना शिकंजा कस रहा था। जो कुछ भी उसे दिखाई दे रहा था, वह उसे सच लग रहा था। लेकिन सच्चाई क्या थी, यह तो सिर्फ़  इस हवेली की दीवारों को पता थी। और दीवारों के कान तो होते हैं, लेकिन ज़बान नहीं होती। तो यह राज़ नीना के सामने कौन खोलेगा?

उसे नींद नहीं आ रही थी, इसलिए उसने पेंटिंग पूरी करने का डिसाइड किया और स्टूडियो में पहुँच गई। उसने अपना ऐप्रन और जुड़ा बांधा और सामान तैयार किया।

नीना ने अब वसुंधरा की दूसरी आँख की बजाय दाहिने कान पर काम शुरू किया। उसने सोचा पहले एक तरफ़ का हिस्सा पूरा किया जाए। उसने कान की आउटलाइन बनानी शुरू की। वसुंधरा की आँख मानो एक तरफ़ हो कर खुद ही अपने कान पर होने वाले काम को देख रही थी।

नीना का काम शुरू हो चुका था, लेकिन उसकी गति पहले से कम थी, जैसे कोई उसे रोक रहा हो। लेकिन उसे अपना काम पूरा करना ही था, यही एक तरीका था वसुंधरा के अतीत के बारे में जानने का।

वो काम कर ही रही थी कि उसे लगा जैसे कोई स्टूडियो के दरवाजे से झाँक रहा हो। वह पलटी, लेकिन पीछे कोई नहीं था।

उसे बाहर कदमों की आवाज सुनाई दी। अब उससे और नहीं रहा गया, वह स्टूडियो के बाहर पहुँची, लेकिन गलियारा तो खाली था। वहाँ कोई नहीं था। नीना को लगा भी था कि उसको कोई दिखेगा नहीं। 

क्या बागान-बाड़ी में कोई नीना पर नज़र रख रहा था?
क्या वह वक्त रहते पोट्रेट को पूरा कर पाएगी?

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