सुबह हो चुकी थी। सूरज की किरणें खिड़कियों के कांच से छनकर नीना के चेहरे पर पड़ीं, तो उसकी नींद खुली। उसने अपने हाथों से अपने चेहरे पर बिखरे बालों को कान के पीछे किया और अपनी आँखें मसलते हुए उठने को हुई, तभी उसकी गर्दन अकड़ गई।


"आह, मेरी गर्दन..." उसके हाथ उसकी गर्दन पर चले गए।
उसने आँखें खोलकर देखा, तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है? उसने आस-पास नज़रें घुमाईं, अपने गाल पर एक चपत लगाई, फिर उसे समझ आया कि वह होश में ही है और कल रात वह पेंटिंग के सामने ही कुर्सी पर सो गई थी। 

उसके हाथ अभी भी रंग से सने हुए थे, और पोट्रेट की दाहिनी आँख उस पर नज़रें गड़ाए थी। वह डरकर उस पेंटिंग से दूर हटी और हड़बड़ाहट में ज़मीन पर गिर पड़ी।
वह तो इस पोट्रेट में बनी आँख से बहुत डर रही थी, तो इसके सामने सो कैसे सकती थी? उसे खुद पर यकीन नहीं हो रहा था। उसने डरते हुए उस आँख की तरफ़ देखा। सूरज की रोशनी में वह चमक रही थी, और बराबर उस पर नज़र गड़ाए थी।

नीना वहाँ से उस वक़्त निकलने ही वाली थी कि अचानक उसे कुछ हुआ और वह रुककर उस दाहिनी आँख को देखने लगी, जैसे वह उस आँख से मोहित हो गई हो। यह पहली बार था जब नीना वसुंधरा की आँख को इतनी देर तक निहार रही थी। वह उसकी आँख से पूरी तरह से ऑबसेस्ड नज़र आ रही थी।
उसने सामने की दीवार की ओर देखा, उसे ऐसा लगा मानो सामने पर्दे पर कोई फ़िल्म चल रही हो। उस फ़िल्म में वहीं आलीशान पार्टी नज़र आई जो कल शाम उसने सपने में देखी थी। वही भव्य माहौल, रोशनी की झिलमिलाहट और मधुर संगीत की धीमी आवाज़.. 

नीना की निगाहें मानों वसुंधरा पर टिक सी गईं। वसुंधरा काले रंग की साड़ी में बेशकीमती मोतियों के  हार के साथ किसी महारानी से कम नहीं लग रही थी।

उसकी आँखों में वही अजीब सी चमक, जिसे नीना ने अपने पोट्रेट में भी देखा था। 

नीना के होंठ सूखने लगे। उसने देखा वसुंधरा सबसे छुपते हुए एक शांत कोने की तरफ़ जा रही थी वहाँ कुछ लोग पहले से मौजूद थे । लेकिन वो किसी को भी देख नहीं पा रही थी। वसुंधरा उनसे बातचीत करने लगी, वसुंधरा के चेहरे के भाव से पता लग रहा था कि वो टेंशन में है। 

“आखिर ये बात क्या कर रहे हैं?” नीना ने मन में सोचा।

उनकी आवाज़ें धीरे-धीरे नीना तक पहुंच रही थीं, लेकिन शब्द कभी साफ़ होते तो कभी सिर्फ़ फुसफुसाहट सी सुनाई दे रही थी।

वसुंधरा वहाँ से एक कमरे की तरफ़ जाती दिखाई दे  रही है।  

नीना ने बस पलकें झपकाईं ही थी, कि उसने वसुंधरा को एक बंद कमरे में देखा। 

उसकी आँखों के सामने एक बहुत बड़ा सा अंधेरे में डूबा कमरा था, जो एक लैंप की मद्धम रोशनी से सरोबार था । कमरे में कोई और मौजूद था लेकिन वो दिख नहीं रहा था।  

उसे वसुंधरा की आवाज़ सुनाई दी, उसकी आवाज़ गुस्से से कांप रही थी। वह हवा में किसी से बहस कर रही थी, जिसकी उपस्थिति या प्रेज़ेंस को नीना महसूस कर सकती थी। वह व्यक्ति कहीं से नजर नहीं आ रहा था, लेकिन उसकी उपस्थिति से माहौल में तनाव का भारीपन था। वसुंधरा की आवाज़ तेज होती जा रही थी, उसके शब्दों में नफ़रत झलक रही थी।

देखते ही देखते उनकी बहस ने अचानक हिंसक रूप ले लिया। वह आदमी एक कुर्सी पर लात मारकर उसे ज़मीन पर गिरा चुका था, और डर की वजह से वसुंधरा की साँसें तेज़ होने लगीं।

"तुमने मुझसे झूठ कहा," वसुंधरा चीखते हुए कह रही थी, नीना उसकी आवाज़ में दर्द और धोखे का भाव महसूस कर सकती थी। लेकिन नीना जवाब नहीं सुन पाइ, क्योंकि वह व्यक्ति दिखाई ही नहीं दे रहा था।

नीना को महसूस हुआ कि वसुंधरा के जीवन में कुछ बहुत गहरे रहस्य छिपे हैं जो उस की समझ से परे हैं।

उसके जीवन में बहुत कुछ ऐसा हो रहा था जिसे वह दूसरों से छिपा रही थी। शायद वह जिस शख्स से बहस कर रही थी, वही इन सबकी वजह होगा। वह मात्र अनुमान ही लगा सकती थी। असलियत का तो यहाँ नामों-निशान नहीं था।

नीना को लगा मानो वह आँख उसे ये सब देखने को मजबूर कर रही थी। 

अचानक आए नोटिफिकेशन से उसका ध्यान हटा और पलक झपकते ही सब कुछ गायब हो गया। 

उसने आस-पास देखा, कहीं कुछ दिखाई नहीं दिया। उसने फोन देखा, सतीश का मैसेज था। नीना ने कोई जवाब नहीं दिया। यह पहली बार था जब नीना ने सतीश के  मैसेज को अनदेखा कर दिया था। नीना थोड़ी बदली हुई नजर आ रही थी।

सतीश ने कोई जवाब न पाकर उसे कॉल किया, लेकिन नीना ने कॉल काट दिया। सतीश भी कहाँ रुकने वाला था, उसने दोबारा कॉल किया और उसे ज़ोर से डांटते हुए कहा: 

सतीश:” कितनी बार कहा है, वक़्त पर जवाब दिया करो।” 

नीना (गुस्से से): “मुझे भी काम होते हैं, यहाँ पिकनिक पर नहीं आई हूँ।” 

सतीश: “ऐसे क्यों बात कर रही है?”

नीना: “तूने भी तो बार-बार मैसेज करके मेरा जीना हराम कर रखा है। यहाँ काम करूँ या तुम्हारे सवालों के जवाब देती रहूँ?” 

सतीश ख़ामोश हो गया और उसने कॉल काट दिया। सतीश के लिए ये सब परेशान करने वाला था, लेकिन उसे लगा कि कहीं उसने उसे ज़्यादा तंग करना तो शुरू नहीं कर दिया। हो सकता है कि वो उसकी ज़िंदगी में ज़्यादा इंटरफियर करने लगा हो और नीना को ये सब अच्छा न लग रहा हो।

नीना बिन कुछ सोचे वहाँ से निकलकर आगे बढ़ गई। वो बेसुध-सी ना जाने कहाँ जा रही थी कि अचानक से कमरे का दरवाज़ा खुला और उसके अंदर एक साया दिखाई दिया। अब वो रुकने वाली नहीं थी उसने उस कमरे का पूरा दरवाज़ा खोलकर देखा अंदर से धूल का झोंका आया और वो खाँसने लगी। उसने नज़र घूमा कर देखा ये बंद कमरा बहुत-सी पुरानी फ़ाइलों से भरा हुआ था। 

**

उधर सत्यजीत ट्रिप से एक ब्लैक कलर की चमचमाती मर्सडीज़ से वापस लौटे। कार बागान-बाड़ी में एंटर हुई और वहाँ मौजूद स्टाफ ने कार का दरवाज़ा खोला। सत्यजीत अपने सूट के बटन ठीक करते हुए बाहर निकले। उनके साथ उनके मैनेजर, सेक्रेटरी और दो लोग और थे, जो उनके पीछे चले आ रहे थे। घर आकर उन्होंने चैन की साँस ली। शंभू दौड़कर आया और उनका ब्लेज़र निकालकर उनके कमरे में भिजवाया। सत्यजीत सामने लगे बड़े से सोफ़े पर बैठ गए। उनके सेक्रेटरी ने उन्हें टेबलेट थमाया और वह उसे देखते हुए शंभू से पूछ बैठे: 

सत्यजीत: “क्या चल रहा है, शंभु?” कहते हुए उनकी उँगलियाँ टैबलेट पर और आँखें स्क्रीन पर थीं।

शंभू ने कहा अपने बड़े बाबू से कि सब ठीक है।

सत्यजीत: “नीना को कोई तकलीफ तो नहीं हुई?” 

शंभू क्या कहता, नीना को तो नहीं, पर उसकी वजह से वह ज़रूर डर गया था। 

वह बोला कि अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश है की ऐसा न हो। बाक़ी, आप उनसे भी पूछ लीजिएगा।

सत्यजीत: “कहाँ है वो अभी?” 

शंभू ने ऊपर देखते हुए बताया, वही रंग वाले कमरे में होगी। वह अक्सर वहीं रहती है।

सत्यजीत: ठीक है। आप बरामदे में चाय और स्नैक्स लगवा दीजिएगा और उन्हें बुलवा लीजिए।

यह कहते हुए सत्यजीत अपने कमरे की तरफ़ चले गए। नीना उस फ़ाइलों से भरे कमरे में खड़ी थी। वह यह सोचकर परेशान थी, कि वह यहाँ क्या कर रही है... वह सोच ही रही थी कि शंभू उसके करीब आया और उसने उसे बताया, 'बड़े बाबू उससे मिलना चाहते हैं।' 

नीना ने न चाहते हुए भी पूछ लिया, 'दादा, ये इतनी फ़ाइलें यहाँ?

शंभू का तो कभी इन फ़ाइलों से पाला पड़ा ही नहीं था। वह बोला कि यह सब चौधरी साहब की पुश्तैनी फ़ाइलें होंगी या फिर उनके काम की। ये नीना के रंग में काम नहीं आएगी, ऐसा कहते हुए शंभु नीना को वहां से लिवा लाया। ' 

“अच्छा..” कहते हुए नीना वहाँ से निकल गई। 

आज नीना थोड़ी बदली-बदली नज़र आ रही थी। इसकी वजह थी वो आँख .. जिसे नीना ने जी भर कर देखा था। आगे उसके साथ क्या होने वाला था ये तो कोई नहीं जानता था।

कुछ देर में वो बरामदे में पहुँच चुकी थी और बरामदे में टेबल के सामने लगी कुर्सी पर बैठ कर  सत्यजीत का इंतज़ार करने लगी। वे आते ही बोले: 

सत्यजीत: “लगता है, मैंने आपको काफ़ी इंतज़ार करवा दिया।”

नीना: “नहीं... शायद मैं ही जल्दी आ गई।” 

सत्यजीत: “हाज़िर जवाब.. हम्म्म, आई लाइक इट”

नीना अपनी तारीफ़ सुन कर मुस्कुरा दी।

सत्यजीत: “तो कैसी हैं आप?"
नीना: “ठीक हूँ।”
सत्यजीत: “आपको अब यहाँ कैसा लग रहा है?”
नीना: “जी, अच्छा महसूस कर रही हूँ।”

सत्यजीत: “ग्रेट”

सत्यजीत सीधे मुद्दे पर आते बोले: “अच्छा, बताइए पोट्रेट का काम कितना हुआ है?” 

नीना: जी, एक हिस्से की आँख, बाल और माथे का काम हो चुका है। 

सत्यजीत: ग्रेट, आप उसे जल्दी से पूरा कीजिए। इस पोट्रेट का जल्द पूरा होना बहुत ज़रूरी है।


 

नीना के कानों में सत्यजीत के शब्द 'उस पोट्रेट का पूरा होना बेहद ज़रूरी है' गूंजने लगे। उसने सत्यजीत की गहरी आँखों को देखा, मानो कुछ तो है जो इस पेंटिंग के पूरे होने पर होने वाला है, लेकिन क्या?

वह चाय और स्नैक्स खत्म करके स्टूडियो में आकर पेंट करने की कोशिश करने लगी, लेकिन आज वह कोई काम नहीं कर पा रही थी। कलर उसके पैलेट में पड़े पड़े अपनी बारी का इंतज़ार करते-करते सूख गए। वो सिर्फ़ उस आँख को निहार रही थी। 

आज उसके हाथ उसका साथ नहीं दे रहे थे। उसे अपने हाथ काफ़ी भारी महसूस हो रहे थे। मानो किसी ने चमड़ी के नीचे 5-10 किलो का वजन भर दिया हो और वो अपने हाथ उठाने में असमर्थ हो।

***

अचानक उसका मोबाइल बाजा, उसका ध्यान अपने हाथों से हटा। उसने देखा, अंजली का कॉल था; उसने रिसीव किया।
अंजली: ”हाँ जी, मैडम, कैसी हैं आप?
नीना (सुस्त सी): ठीक।
अंजली: इतनी ढीली क्यों लग रही है?
नीना: काम कर रही हूँ।
अंजली: ओके, मैडम। अच्छा, तूने वसुंधरा के बारे में पता किया?
नीना: दिन भर उसके बारे में पता करने के अलावा और भी काम होते हैं, और मैं यहाँ पोट्रेट बनाने आई हूँ, न कि उसकी जीवनी लिखने।
अंजली: लगता है, मैडम का दिमाग गरम है। चल, फिर बात करती हूँ।"

अंजली को नीना से बात करके अच्छा नहीं लगा। नीना ने तुरंत कॉल डिस्कनेक्ट कर दिया। अंजली यही सोचती रही, हो सकता है पोट्रेट पूरा करने का प्रेशर उस पर सवार हो और बात नहीं कर पा रही हो।
नीना तो आज पुरानी वाली नीना लग ही नहीं रही थी। आखिर वह इतनी बदल कैसे गई?

आज काफ़ी जद्दोजहद के बाद भी नीना का काम आगे नहीं बढ़ पाया। वह हताश होकर, पेंट रखकर अपने कमरे में चली गईं और उसे देखते ही देखते नींद लग गईं। नीना आज भी बिना खाए-पीये ही सो गई।

***

नीना अनजाने गलियों में भटक रही थी, उसके चारों ओर अंधेरा छाया हुआ था। हवा में एक ठंडापन महसूस किया जा सकता था, जो कि नीना के रोंगटे खड़े कर रहा था। चारों ओर सिर्फ़ सन्नाटा। अचानक, उस खामोशी को तोड़ते हुए नीना को एक चीख सुनाई दी—वसुंधरा की चीख।

नीना को वसुंधरा का चेहरा दिखायी दिया। उसका चेहरा खून से ढका हुआ था, जैसे उसे कोई चोट लगी हो या उसके साथ कुछ खतरनाक हादसा हुआ हो। उसकी आंखों के आसपास खून बहे जा रहा था, और चेहरा पीला और थका हुआ था। उसे देख कर उसके दर्द और पीड़ा को अनुभव किया जा सकता था । 

नीना इस दृश्य से अवाक रह गईं, उसके पैर जमीन से चिपक चुके थे, और वह कुछ भी करने में असमर्थ थी। वसुंधरा धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगी। उसकी चाल धीमी थी, लेकिन उसकी मौजूदगी डरा देने वाली थी। उसकी एक आँख चोट की वजह से पूरी तरह से बंद हो चुकी थी, मानो वह घायल हो या उसे कोई भीषण दर्द हो रहा हो। लेकिन उसकी दाहिनी आँख पूरी तरह खुली थी और अंधेरे में चमक रही थी। यह आँख नीना की आत्मा की गहराइयों में सीधे देख रही है, मानो नीना के हर छिपे हुए डर, उसके हर कमजोर पहलू को वो पहचान रही हो।

वसुंधरा के चेहरे पर खून के बहने के बावजूद, उसकी दाहिनी आँख की चमक तेज़ होती जा रही थी। जो नीना को अंदर तक झकझोर रही थी। जैसे ही वसुंधरा उसके और करीब आई, नीना की साँसें तेज़ हो गईं। उसकी आँखों में डर साफ झलक रहा था और वह हिलने-डुलने में असमर्थ थी।


 

उसे लगा कि ये वसुंधरा की कहानी का सिर्फ़ एक टुकड़ा है, कहानी तो अभी और बाकि है मेरे दोस्त।

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