नीना पेंटिंग के सामने जमी हुई थी। आस-पास सन्नाटा पसरा था, स्टूडिओ में पेंट के स्ट्रोक की आवाज़ साफ़ साफ़ सुनी जा सकती थी। उसकी साँसे तेज थीं और वसुंधरा की आँख की डीटेलिंग पूरे जोरों-शोरों पर।

उसने देखा दाहिनी आँख का आइरिस का पूरा हिस्सा उसे घूर रहा था।
नीना अब पेंट लेने थोड़ा दाहिनी तरफ़ गई, तो उसने नोट किया कि वसुंधरा की आँख का हिस्सा उसे देखने के लिए दाहिनी तरफ़ घूम गया है। अपना भ्रम दूर करने के लिए जब वह वहाँ से दूसरी तरफ़ गई, तो वह हिस्सा दूसरी तरफ़ आकर उसे देखने लगा। वसुंधरा की आँख उसकी हर गतिविधि पर नज़र रखे हुए थी।

वह सहम सी गई। लेकिन उसे याद आया कि आज कैसे शंभू दादा उसे देख कर डर गए थे। हो सकता है वह भी इन सब चीजों से डर रही हो; ये मानसिक या साइकोलॉजिकल भी हो सकता है। 

“बिलकुल मानो मैंने सोच लिया कि ये मुझे डरा रहे हैं और मैं डर रही हूँ। अब मैं इतनी अच्छी आर्टिस्ट हूँ और यहाँ काम भी कुछ ज्यादा ही अच्छा हो रहा है। वैसे, मेरे किए काम की तारीफ़ काफ़ी हुई है, लेकिन इस पोट्रेट को तो इनाम मिलना चाहिए, और मुझे लगता है मिलेगा भी...” सोचते हुए वह आँख को पूरा कर रही थी।
ज़िंदगी में कई बार हमारे खुद के लिए फ़ैसले ही हमें आँख दिखाते, हमारे सामने खड़े होते हैं और हमें कह रहे होते हैं, "देखो, इसमें हमारी कोई गलती नहीं, आपने ही हमें चुना है, अब अपना खुद ही देख लो।"

 

ऐसा नीना के साथ हो रहा था। यहाँ आने का फ़ैसला उसका अपना था; उस पर कोई ज़ोर-जबरदस्ती नहीं की गई थी। लेकिन अब उसका यही फ़ैसला उस पर दिन-ब-दिन भारी पड़ता जा रहा था। फिर भी, नीना अपने फ़ैसले के साथ अडिग थी। वह अपना पोट्रेट पूरा करना चाहती थी और इसी में लगी हुई थी। 

ज़िंदगी में पैसा और नाम, दोनों ही बेहद ज़रूरी होते हैं और ये दोनों उसे एक साथ यहाँ हासिल करने थे। वह मेहनत कर रही थी क्योंकि इससे अच्छा अवसर उसे कहीं और नहीं मिल सकता था।
 

वह अपने काम में तल्लीन थी; पेंटिंग का हर स्ट्रोक उससे कुछ न कुछ कहकर जाता और हर पूरा हुआ भाग मानो अपने आप में संपूर्ण था। अभी तक उसने माथे, बाल, और दाहिनी आँख को पूरा कर लिया था; पेंटिंग मानो इतने हिस्से में जीवित हो उठी थी।

वह हाथ में कलर पैलेट पकड़े वहीं स्टूडियो में खड़ी थी। ब्रश के पिछले हिस्से को अपने दाँतों में दबाए, पेंटिंग को देख रही थी। फोन ऐप्रन के बने पॉकेट में रखा था। अचानक आए नोटिफिकेशन से जैसे उसका ध्यान टूटा। उसने फोन निकालने के लिए पैलेट टेबल पर रखना चाहा, लेकिन अचानक उसका हाथ लगा और पानी का ग्लास नीचे गिरकर टूट गया।

"ओह..." कहते हुए वह जैसे ही नीचे झुकी, वसुंधरा की आँख भी नीचे हो गई। नीना ने नीचे बैठे हुए उसे देखा; वह उसे देख रही थी। यह सब सच में डरा देने वाला था। उस आँख का दाएँ-बाएँ खुद को देखते हुए फ़ील होना किसी एंगल की वजह से हो सकता है , लेकिन उसका यूँ नीचे भी देखना बेहद डरावना था। वह उठी और पास ही टेबल पर रखे सिल्क के कपड़े से अब तक का पूरा किया हुआ भाग ढक दिया।

लेकिन आँख के आस-पास का हिस्सा फटकर अलग हो गया और कपड़े में छेद बन गया, जिससे वसुंधरा की आँख नीना को देख सकती थी। अब नीना के लिए एक पल भी स्टूडियो में टिकना भारी हो गया। उसने ब्रश वहीं पटका और वहाँ से बाहर हो गई। बाहर आकर उसने झाँककर देखा; वह आँख अभी भी उसे अपनी तरफ़ देखती हुई नज़र आई। वसुंधरा की आँख में कठोरता देखी जा सकती थी, मानो वह किसी चीज़ से बेहद नाराज़ हो।

वह डरते हुए जैसे ही पलटी, शंभू उसके पीछे मोबाइल और चाय ले कर आ रहा था। उसके अचानक पलटने से शंभू और नीना दोनों ही बुरी तरह से डर गए और एक साथ चीख पड़े।

और शंभू के हाथ से दोबारा चाय गिर गई।
सॉरी, दादा, मैं डर गई थी...’ नीना नीचे झुकते हुए बोली

शंभू ने उसे रोकते हुए मोबाइल दिया और बताया कि बड़े बाबू कॉल पर हैं, बात करना चाहते हैं।
नीना ने कॉल पर बात करना शुरू किया, शंभू उसकी ओर नजरें टिकाए देखे जा रहा था , यह सोचते हुए कि आज इन्हें हो क्या गया है। वह नीचे पड़ी हुई चाय साफ़ करने लगा।

आज तो बेचारे का दिन ही खराब था। सुबह से चाय के बर्तन ही टूट-फूट रहे थे। और वो भी खास चीनी-मिट्टी वाले। 

नीना ने अपना गला साफ़ किया और बोली,
नीना: "हेलो"
सत्यजीत ने नीना और शंभू की चीखने की आवाज सुन ली थी, उन्होंने पूछ ही लिया।
सत्यजीत: ये कैसी आवाज़ ? अभी मुझे लगा कोई चीखा।

नीना: जी, शंभू दादा और मैं दोनों ही डर गए थे। ऐक्चुअली, हम टकरा गए थे।
नीना उन्हें बताने लगी।
सत्यजीत ने इतना सुनकर अपने ऑफिस के कैबिन में बैठे हुए अपनी शर्ट की बाह ऊँची करके अपने हाथ पर बने नाखूनों के निशान को देखा। ये गहरे तीखे निशान उन्हें उनके अतीत की याद दिला रहे थे। क्या सत्यजीत का भी किसी खतरनाक अतीत से सामना हो चुका था? क्यों वे उन निशानों की वजह से असहज दिखाई दे रहे थे?

नीना : हेलो, मिस्टर चौधरी, ऐम आई ऑडिबल टू यू?

सत्यजीत: हां, नीना। सॉरी, मैं कामों में उलझ जाता हूँ…” 

वे बहाना बनाते हुए बोले। नीना ख़ामोश थी।
सत्यजीत ने आगे पूछा: “अच्छा, आपका काम कैसा चल रहा है? कहाँ तक पहुँची पेंटिंग?”
नीना: “जी, ठीक चल रहा है।” नीना इतना ही कह पायी ।
सत्यजीत: “ग्रेट ! आपसे दो दिनों से मुलाकात नहीं हो पाई और ना ही बात हो पाई, तो सोचा पूछ लूँ…”
नीना: “मिस्टर चौधरी, आप यहाँ कब तक आएंगे?”
सत्यजीत: “सून, जल्द ही वापस आऊँगा।

नीना: “मुझे आपसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं।“
सत्यजीत: “हाँ, बिल्कुल। मैं लौटकर आपसे मिलता हूँ... तब तक आप मेरी वसुंधरा को पूरा कीजिए।”
नीना: “जी।”

उसने बात करके कॉल डिस्कनेक्ट करके मोबाइल शंभू को पकड़ाया और वहाँ से गेस्ट रूम की तरफ़ जा ही रही थी कि उसका फोन रिंग हुआ। उसने देखा सतीश का कॉल था।

सतीश कॉल उठाते ही गुस्से में बोला

सतीश : "तुझे कितनी बार कहा है, जैसे ही मैसेज करूँ, रिप्लाई कर दिया कर।"

नीना को याद आया उसके फोन पर नोटिफिकेशन तो आया था, लेकिन जैसे ही वो देखने लगी, पानी का ग्लास टूट गया और फिर वो पोट्रेट की घूरती आँख से बुरी तरह डर गई।

नीना: "यार, मुझे यहाँ अच्छा नहीं लग रहा है।"

सतीश: "कुछ हुआ है क्या?"

नीना: "मैं जब भी पेंट करती हूँ, तो अजीब सा भारीपन और डर महसूस होता है। आज जब वसुंधरा की आँख पूरी की, तो ऐसा लगा जैसे वो मुझे ही घूर रही है, हर जगह मेरा पीछा कर रही है। ऐसा लग रहा है कहीं वो उड़कर मेरे पीछे ही ना आ जाए...

सतीश: "मुझे एक बात बता, जब तूने पोट्रेट के लिए हामी भरी थी, तब कोई टाइम लाइन दी थी? मतलब इतने दिनों में कर दूँगी?"

नीना: "नहीं, कोई टाइमलाइन नहीं थी।"

सतीश: "तो एक काम कर, तू वापस आ जा। तूने बहुत ज़्यादा स्ट्रेस ले लिया है। कुछ दिन यहाँ रहकर जाएगी तो अच्छा फील होगा। इतने दिन घर से दूर, वहाँ हवेली में रहना शायद तुझे रास नहीं आ रहा।

नीना (गहरी आवाज में): "मैं इस बागान बाड़ी से इस पोट्रेट को पूरा किए बिना नहीं आने वाली..."

सतीश को नीना की आवाज़ में कुछ तो अलग महसूस हुआ, जैसे ये शब्द उसके अपने नहीं थे। उसने चुपचाप उसकी बातें सुनीं, नीना ने फिर कहा:

नीना: "नहीं आ सकती... असल में मिस्टर चौधरी भी एक-दो दिन में बिज़नेस ट्रिप से वापस आ रहे हैं, तो उनसे भी कुछ बात करनी है... और सच कहूँ तो यहाँ से एक जुड़ाव सा महसूस हो रहा है।"

सतीश अब और भी परेशान हो गया। नीना की आवाज़ में उसे एक अजीब सी जकड़न महसूस हो रही थीं, जो पहले कभी नहीं थी। 

लेकिन वो माहौल को हल्का करते बोला 

सतीश: "हाँ, सक्सेसफुल बिज़नेसमैन, वंस मैरिड, नेवर रीमैरिड…. पोटेंशियल तो काफ़ी है… ?"

नीना: "तू सुधर जा, हर जगह ऐसी-वैसी बातें नहीं होतीं। अभी रखती हूँ, थोड़ा रेस्ट करती हूँ।"

सतीश: "अच्छा ठीक है, अगली बार मैसेज आने पर रिप्लाई करना, नहीं तो मैं भी वहाँ आ टपकूंगा और तेरी बातचीत भी बंद करवा दूंगा।

नीना (हँसते हुए): "शट अप, चल बाय!"

वो कमरे में पहुँची और लेट गई। आज उसका लंच करने का मन नहीं हो रहा था। बिस्तर पर लेटे हुए, वो ऊपर लगे लैम्प को देख रही थी। उस लैम्प के बीचों-बीच वाला भाग उसे वसुंधरा की आँख की याद दिला रहा था। 

"कितना अजीब है यार, मेरा सर दर्द से फट जाएगा," कहते हुए उसने अपने मुंह पर चादर डाल लिया। उसने सोचा, "मैं कुछ नहीं देख पाऊँगी तो कोई मुझे कैसे देख पाएगा?" लेकिन क्या सच में अपनी आँखें मूँद लेने से सामने वाले की आँखें भी बंद हो जाती हैं?

उसके फोन में दोबारा नोटिफिकेशन आया। "इस सतीश के बच्चे ने तो दिन भर मैसेज करके तंग कर दिया," सोचते हुए उसने फोन देखा। सामने अंजली का मैसेज था।

उसने खोलकर पढ़ना शुरू किया:

हे बेब्स,
जैसा कि मैंने वादा किया था, तुम्हें जानकारी देती रहूँगी। तो सुन, वसुंधरा के साथ कुछ ऐसा हुआ था कि वह अचानक से कला की दुनिया से गायब हो गई। उसके साथ क्या हुआ था, ये घर वालों ने छिपा लिया है। उनकी मौत तो किसी मानसिक बीमारी के चलते ही हुई थी, ये मैंने कन्फर्म किया है। इसी वजह से उन्होंने बतौर आर्टिस्ट  काम करना भी बंद कर दिया था।

 

नीना ने गहराई से सोचा। वसुंधरा की कहानी में कितनी परतें थीं। क्या ये सब सच में मानसिक बीमारी के चलते हुआ था, या कुछ और ही छिपा हुआ था? नीना की चिंताएँ और भी बढ़ गईं।

मैसेज पढ़ते हुए नीना नींद के आगोश में आ गई।


***

यह एक बहुत ही शानदार पार्टी थी। नीना इस पार्टी में इनवाइटेड नहीं थी, फिर भी वो अंदर की तरफ़ गई। उसने देखा, अंदर सुनहरे रंग से लिखे 'कॉन्ग्रैचुलेशन्स' और 'सेलिब्रेट योर सक्सेस' के बैनर लगे हुए थे। लोगों ने काले रंग के कपड़े पहने हुए थे। देखकर लग रहा था कि पार्टी की थीम सुनहरे और काले रंगों में रखी गई थी। नीना ने अपने कपड़ों को देखा; उसने भी तो काले रंग का मनमोहक सा गाउन पहन रखा था।
हल्की रोशनी और चमकदार लाइट्स बहुत खूबसूरती से लगाई गई थीं। सामने दीवारों पर झिलमिलाते सितारे जगमगा रहे थे। मेज़ पर सफ़ेद मेज़पोश पर सुनहरे रंग के प्लेट्स और ग्लास रखे गए थे। खूबसूरत कॉकटेल बार और डांस फ्लोर भी था, जिस पर रंगीन लाइट्स और स्पीकर सेट लगे थे। उस पार्टी में क्या कुछ नहीं था!

उसकी नज़र सामने दीवारों पर लगे फ़ोटोज़ और मेमोरीज़ पर गई। इनमें वसुंधरा की खूबसूरत कला और उसके तथा सत्यजीत के कई फ़ोटो लगे थे। ये सब उसकी सफलता के साक्षी रहे होंगे। अचानक, किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। वह घबराकर पलटी...

पीछे वसुंधरा खड़ी थी, किसी महारानी से कम नहीं लग रही थी। काले रंग की साड़ी में उनकी खूबसूरती क़यामत ढा रही थी। गले में हैदराबादी मोतियों का हार। वसुंधरा ने उससे सवाल किया, “आमी तोमाके चिनते पारीनी” याने के मैं आपको पहचान नहीं पाई।  

नीना उससे कहना चाहती थी कि वह क्या कह रही है, उसे समझ नहीं आया। लेकिन उसकी आवाज़ दब सी गई थी, मानो किसी ने उसका गाला पकड़ लिया हो और उसे बोलने से रोक दिया हो।
 

अचानक दरवाजा बजा, जिससे वह नींद से जाग गई। सामने शंभू था,वह सुबह से दो बार चाय गिराने के बाद तीसरी बार संभालते हुए उसके लिए चाय ले कर आया था। इस बार अदरक वाली चाय। उसे देखकर नीना को इस तनावपूर्ण माहौल में भी हँसी आ गई। उसने देखा कि आज दिन में वह काफ़ी समय तक सोई रही थी; शायद सतीश सही कह रहा था कि वह बहुत तनाव ले रही है। दिनभर वह वसुंधरा और सत्यजीत के बारे में सोचती रहती है, और सपने भी उन्हीं के आते हैं। उसने चाय पी और दोबारा स्टूडियो की तरफ़ चली गई। 

नीना स्टूडियो में पहुँची और उसने देखा कि वह दाहिनी आँख फिर से उस पर तिरछी हो गई है। वह आगे बढ़ना चाहती थी, लेकिन उस आँख की वजह से वह बहुत असहज महसूस कर रही थी; वह पेंटिंग को छूने से भी डर रही थी

वह सोच ही रही थी कि इसे आगे कैसे बढ़ाया जाए कि अचानक उसे अपने पीछे किसी की आहट सुनाई दी। एक हल्की सी फुसफुसाहट थी, जिससे उसे लगा मानो कोई उसका नाम पुकार रहा हो।

फिर उसे आवाज आई — “तुमि के?”  'तुम कौन हो? वह आंख पहली बार उसे नहीं देख कर उसके पीछे देख रही थी। नीना को यकीन हुआ कि पीछे कोई है। वो ऊपर वाले का नाम ले कर पीछे मुड़ी। स्टूडियो की हल्की रोशनी में उसे कोने में एक साया दिखाई दिया... जो पहली बार स्थिर था, उसके साथ कोई खेल नहीं खेल रहा था...

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