स्टूडियो में खड़ी नीना अपने किए हुए काम को सराह ही रही थी कि उसे अपने पीछे से फुसफुसाहट सुनाई दी।
नीना की भौंहें तन गईं। उसे लगा कि कोई है जो कुछ कह रहा है, लेकिन यह कौन है?
वह जानती थी कि अगर वह पलटी, तो पीछे कोई नहीं दिखाई देगा, क्योंकि यह खेल तो उसके साथ कल से खेला जा रहा है। इस बार उसने पलटने की गलती नहीं की और आवाज़ पर गौर किया।
पीछे से एक महिला की आवाज़ आई, “तुमी के?” (मतलब कौन हो तुम?)'
नीना ने धीरे से हकलाते हुए पूछा, 'क… कौन?'
लेकिन पीछे से कोई जवाब नहीं आया। जो कुछ भी नीना के साथ हो रहा था, वह किसी और के साथ होता तो वह बेहोश हो जाता। पता नहीं कैसे, नीना अब तक होश संभाले हुई थी, हालांकि वह काफ़ी डरी हुई थी। उसकी धड़कनें तेज़ हो चुकी थीं। लेकिन फिर भी, उसने उंगलियाँ क्रॉस करके पलटकर देखा, लेकिन पीछे कोई नहीं था। उसने गहरी साँस ली, अपने सीने पर हाथ रखकर मन में “अरे चाचू, ऑल इज़ वेल” की धुन बजाई और दोबारा कांपती हुई पेंटिंग करने लगी।
लेकिन उसके हाथों में पकड़ा ब्रश भी कांपने लगा।
उसका सिर चकराने लगा। उसे लगने लगा जैसे छायादार आकृतियाँ उसे सामने से गुजर रही हैं। उसकी आँखों की पुतलियाँ दाएँ-बाएँ घूमने लगीं। वह उन आकृतियों को अपनी आँखों से ठीक से देख नहीं पा रही थी। उसे लग रहा था मानो कोई लगातार उसके इर्द-गिर्द घूम रहा है। कुछ देर बाद उसे लगने लगा मानो स्टूडियो की छत पर से एक काली परछाई उस पर नज़रें जमाए उसे देख रही है। वह इन परछाइयों को अपनी आँखों से ठीक से नहीं देख पा रही थी, वह बस उन्हें महसूस कर सकती थी। इस बार उसने हिम्मत करके कहा,
नीना: “क… कौन है? अगर मुझसे कुछ कहना है, तो सामने आकर कहिए।”
लेकिन सवाल के जवाब में ख़ामोशी ही मिली। वह आकृतियाँ अपना खेल खेलती रहीं। नीना ने अपनी आँखें ज़ोर से भिंचीं, अपने होंठ दांतों में दबाए, एक लंबी साँस ली और फुर्ती से स्टूडियो के बाहर आ गई। बाहर आकर उसने दोबारा पलटकर स्टूडियो के अंदर देखा, उसे अभी भी वहाँ वह आकृतियाँ अठखेलियाँ करते दिखीं।
वह वहाँ से बरामदे में आई और खड़ी होकर पीछे बने तालाब को देखने लगी। उसके मन में आया कि उसे यहाँ से वापस दिल्ली चले जाना चाहिए, लेकिन यह ख्याल आते ही उसके हाथों में अजीब सी सरसराहट हुई, मानो त्वचा के नीचे नसों में तेज़ गर्म खून का बहाव हो।
“आह, ये क्या है?” कहती वह उन्हें झटकने लगी ताकि यह एहसास कम किया जा सके।
“लेकिन ये पोट्रेट पूरा किए बिना कैसे जा सकती हूँ?” इतना सोचते ही उसकी सरसराहट कम हो गई।
नीना ने नोट किया कि जब-जब वह वापस जाने का खयाल भी मन में लाती, उसके हाथों में कुछ अजीब सी सरसराहट का एहसास होने लगता। क्या उसके लिए इस पोट्रेट को पूरे किए बिना घर जाना संभव होगा? अभी यही एक सवाल उसके जेहन में गूंज रहा था।
उसका फोन बजा। उसने देखा, सतीश का कॉल है। इस कन्फ़्यूज़िंग हवेली में बस एक ही चीज़ थी जो उसे रिलैक्स कर सकती थी और वो थी सतीश का कॉल। उसने कॉल लिया।
सतीश: “हाँ जी, रानी साहिबा, आपकी सल्तनत में सब ठीक चल रहा है या अभी भी कुछ दिखाई दे रहा है?”
नीना क्या कहती, वह खामोश थी। वह इस सल्तनत में फँस चुकी थी, जो उसकी थी भी नहीं। आखिर वह ही क्यों?
“आखिर मैं ही क्यों?” यह सवाल तो राष्ट्रीय दुविधा का सवाल घोषित कर देना चाहिए, क्योंकि यह सवाल तो हम सबके मन में आता है जब हम किसी दुविधा में फँस जाते हैं।
सतीश उसकी खामोशी समझ सकता था। उसने आगे कहा,
सतीश: “अच्छा सुन, मैंने तेरे राजा साहब और उनकी धर्मपत्नी के बारे में कुछ पढ़ा है।”
नीना(जल्दी में): “क्या पढ़ा?”
सतीश: "घबरा मत, जो भी पढ़ा है, अच्छा ही है।"
नीना(मासूमियत से): "मैं घबरा नहीं रही।"
सतीश: "हाँ, तेरी घबराहट, तेरी झल्ली जैसी शक्ल और झल्ले सवाल, मैं तुझे बिना देखे भी समझ सकता हूँ।"
नीना: "हो गया तेरा?। अब बता ना, क्या पढ़ा तूने?"
सतीश: "हाँ, तो सुन, मैंने सत्यजीत और उनकी पत्नि वसुंधरा पर लिखे कुछ आर्टिकल्स निकाले। उन दोनों का कोई भी स्कैंडल या मिस्ट्री नहीं है। सत्यजीत चौधरी एक कला प्रेमी बिज़नेसमैन है और उनकी पत्नि वसुंधरा चौधरी एक आर्टिस्ट थीं।"
नीना: "ओके, तो वो भी पेंट करती थी?"
सतीश: "हाँ, और आगे सुन, उसे दान-पुण्य का भी बहुत शौक था। मतलब, बहुत कुछ डोनेट करती थी।"
नीना: "हाँ, वो तो मिस्टर चौधरी भी करते हैं। कल ही उन्होंने वसुंधरा ट्रस्ट के हेड के साथ मीटिंग की।"
सतीश: "तुझे उसकी मीटिंग्स के बारे में कुछ ज्यादा पता नहीं है? दूर रह उससे। मैंने उसकी तारीफ कर दी, इसका मतलब ये नहीं कि वो अच्छा होगा। हो सकता है, ना हो।"
नीना: "1560 किलोमीटर दूर से भी मुझे कुछ जलने की बू आ रही है..."
सतीश: "तुझे इतनी परेशानियों के बीच भी ये सब सूझ रहा है?"
नीना: "हाँ, मैं तो ऐसी ही हूँ ना?"
सतीश: "हाँ, है तो सही।"
नीना: "अच्छा सुन, थैंक्स!"
सतीश: "हाँ, इतना ज़लील करने की जरूरत भी नहीं है।"
(नीना हँसने लगी)
सतीश: "लेकिन मैं ये कह सकता हूँ कि मैंने कई आर्टिकल्स पढ़े, लेकिन किसी भी आर्टिकल में कुछ भी ऐसा नहीं है। तू निश्चिंत होकर अपनी पेंटिंग पूरी कर और वापस आ जा..."
नीना: "हाँ, पक्का।"
दोनों ने कॉल काट दी ।
काफ़ी रात हो चुकी थी। वो वहाँ से गेस्ट रूम में गई और सोने ही वाली थी कि उसे अंजली का video call आया। नीना ने रिसीव किया और बोली:
नीना: “हे हाउ आर यू? कल ठीक से बात नहीं हो पाई।”
अंजली: “अरे, तुझे तो पता है ज़िंदगी की उलझनें, और कामकाजी शिकवे-गिले…”
नीना: क्या बात है? शायरी करने लगी हो? लगता है तेरे नए बॉस ने तुझे कोई नया असाइनमेंट पकड़ा दिया है, है ना?
अंजली: नहीं, अभी तो वो खूंखार शेर शांत बैठा है, लेकिन लगता है जल्द ही वो मुझे बंदूक देकर कश्मीर भेज देगा। जर्नलिज़म की डगर आसान नहीं है, दोस्त।
नीना: सो तो है.. लेकिन काम तो कोई भी हो, कुछ न कुछ तो परेशान कर ही जाता है। अब मुझे ही देख ले।
अंजली: अरे हाँ!! मैं तो बातों में भूल ही गई। तुम्हारे सत्यजीत चौधरी और उनके बीवी पर काफ़ी कुछ रिसर्च किया मैंने। यहां-वहाँ से छान मारा पर कुछ ससपिशियस मिला नहीं। कुछ भी नहीं?
नीना: अच्छा.... अभी सतीश का भी कॉल आया था। वो भी बता रहा था कि वसुंधरा जी बहुत अच्छी आर्टिस्ट थी।
अंजली: हाँ यार, बहुत नाम था उसका। और बहुत से आर्टिस्ट के कामों को इंटरनेशनल पहचान भी दिलवाई।
नीना: हम्म, चैरिटी एंड ऑल दैट?
अंजली: हां, लेकिन एक चीज़ मुझे खटकी।
नीना: वो क्या?
अंजली: मतलब पहले तो वो बहुत पॉपुलर आर्टिस्ट थी, लेकिन अचानक उनका नाम कला जगत से गायब हो गया। मतलब कोई शिखर पर पहुँचकर एकदम काम करना बंद कर दे, ये शॉकिंग ही है।”
नीना: और इसकी वजह?
अंजली: “ऐज़ सच, पता नहीं चला… फिर एक दिन मिस्टर चौधरी ने उनके निधन की खबर दी…”
नीना: अचानक?
अंजली: हाँ, शायद उनकी मेंटल हेल्थ बिगड़ने लगी थी।
नीना को याद आया की शंभु दादा ने ऐसा ही कुछ कहा था। हवेली में पसरे सन्नाटे के बीच नीना गेस्ट रूम में अंजली से बातें कर रही थी, इसी सन्नाटे और रहस्य की वजह जानने में लगी थी। लेकिन वजह क्या है, यह वह अब तक नहीं जान पाई थी।
बातें करते-करते नीना और अंजली दोनों को ही नींद आने लगी। हवेली का सन्नाटा मानो नीना को धीमे-धीमे लोरी सुना रहा था। उसके फोन की स्क्रीन अब भी जल रही थी, लेकिन उसकी आंखें धीरे-धीरे भारी होती गईं, और बातचीत वहीं थम गई। रहस्य, जिसे वे सुलझाने की कोशिश कर रही थीं, अब भी अनसुलझा था, और उसकी थकी हुई सोच उस सन्नाटे में खो गई।
**
अगली सुबह नीना जागी। फिलहाल, उसके चेहरे पर मुस्कुराहट फैली हुई थी, लेकिन आगे आने वाला दिन नीना के लिए कौन से नए संघर्ष और चुनौतियाँ लेकर आने वाला था, ये तो कोई नहीं जानता था। काश! हम अपना भविष्य जान पाते, तो जीना कितना आसान हो जाता। है न?? आपको भी यही लगता होगा… लेकिन ‘काश’ यह शब्द ही अधूरी ख्वाइशों के लिए बना है; क्या खाक पूरा होगा।
नीना आज एक नई ऊर्जा के साथ उठी, क्योंकि उसे पोट्रेट का काम आगे बढ़ाना था। उसने शंभू दादा से रिक्वेस्ट की, कि उसकी चाय और नाश्ते में सिर्फ़ सेब काटकर स्टूडियो में भेज दिए जाएं।
अब नीना अपने काम में लग गई। उसे वसुंधरा के माथे के नीचे का आँख वाला हिस्सा बनाना था। उसने दाहिनी आँख से शुरू करने का सोचा। उसने वसुंधरा की फोटो को गौर से देखा। उसमें उनकी आँखों का रंग हल्का भूरा था। उसने रंगों का परीक्षण करके पैलेट में रंग और पिग्मेंट मिलाए और बारीक ब्रिसल वाले ब्रश को ढूँढने लगी।
आँख की डीटेलिंग क लिए उसे बारीक ब्रिसल वाले ब्रश का इस्तेमाल करना था।
वो सामान खोजते-बुदबुदाई, "अरे, ज़ीरो, डबल ज़ीरो और ट्रिपल ज़ीरो, फाइन टिप पेंट ब्रश कहाँ चले गए?"
वो उन्हें ढूँढने लगी। तभी उसे कुछ गिरने की आवाज़ आई। उसने मुड़कर देखा, तो डबल ज़ीरो ब्रश ज़मीन पर पड़ा था। वो सोचने लगी ‘अभी तो ये यहाँ नहीं था!’
उसे लगा मानो किसी ने ट्राइपोड के नीचे से वो ब्रश बाहर फेंका हो। लेकिन ये आँखों का धोखा भी हो सकता है, सोचते हुए वो बाकी पेंट ब्रश देखने लगी।
वो ज़मीन पर पड़ा ब्रश उठा कर जैसे ही खड़ी हुई, अचानक सामने खिड़की के कांच में उसने खुद को देखा और डर से सहम गई। फिर उसने संभलते हुए कहा, "अरे, ये तो मैं खुद हूँ!" और वो ज़ीरो ब्रश, जिसे वो ढूंढ रही थी, वो तो उसके जुड़े में लगा हुआ था। जैसे ही उसने ब्रश निकाला, उसके बाल खुलकर हवा में बिखर गए।
अचानक, पीछे से एक ठंडी हवा का झोंका आया और नीना के बाल उसके मुँह पर आ गए। शंभू अब तक उसके लिए चाय और सेब लेकर आ चुका था। उसने दरवाज़ा खटखटाया और नीना अचानक पलट गई। शंभू उसे देखकर बुरी तरह उछलते हुए डर से चीखा, उसके मुँह से 'पिशाचिनी' निकला और चाय हाथ से छूट गई।
वह सरपट नौ दो ग्यारह होने को ही था कि नीना ने अपने बाल पीछे किए और बोली, "अरे शंभू दादा, ये तो मैं हूँ..."
शंभू की तो आवाज़ ही नहीं निकली। उसने नीना से डर कर, उसे टेढ़ी आँखों से देखते हुए थोड़ी दूर बनाकर रखी और कहा कि मैं दोबारा चाय लाता हूँ और वहाँ की सफाई करते हुए चला गया।
अब नीना ने पेंटिंग शुरू की, लेकिन उसकी घबराहट दोबारा शुरू हो गई। हवा में भारीपन बढ़ने लगा और हर ब्रश स्ट्रोक पहले से ज्यादा भारी लगने लगा।
उसने वसुंधरा की दाहिनी आँख के बाहरी हिस्से को बना कर डिटेलिंग करना शुरू किया। शुरुआत उसने उसकी आइरिस और पुतली की डीटेलिंग से की। आइरिस की एक-एक ब्लड वैसेल मानो जीवित हो उठी हो, और कुछ ही वक्त में उनमें खून का संचार शुरू होने को हो।
नीना ने अपना काम पूरा किया और खड़ी होकर देखने लगी। उसे लगा मानो वसुंधरा की आँख का आइरिस और पुतली वाला हिस्सा उसे देख रहा है। उसे देखकर, नीना के शरीर में कंपकंपी मच गई उसे एक अजीब सी ठंडक का एहसास हुआ।
नीना अब पेंट लेने थोड़ा दाहिनी तरफ़ गई, तो उसने नोट किया कि वसुंधरा की आँख का हिस्सा उसे देखने के लिए दाहिनी तरफ़ घूम गया है।
ऐसा सच में हो रहा था या नीना के इमैजिनेशन में?
वसुंधरा की आँख उसे क्यों घूर रही थी?
आखिर ये साया किसका है, जो उसके साथ खेल खेल रहा है?
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