“जानती हो,” मीरा की आवाज़ कांपी, “आरव हमेशा मुझे एक अच्छा और सच्चा इंसान समझता रहा। उसकी आँखों में मेरे लिए जो इज़्ज़त थी…जो भरोसा था, मैं उसके लायक कभी थी ही नहीं। उसकी नज़रों में जो मीरा थी और असल ज़िन्दगी की, मीरा—दो बिल्कुल अलग इंसान थे। और ये फर्क…मुझे हर दिन अंदर से खोखला बनाता जा रहा था।”

अब मीरा की आँखों से आंसू टपकने लगे थे। उसने उन्हें पोंछा नहीं। वो शायद खुद को सज़ा दे रही थी—हर उस याद के लिए जो उसने नकली भावनाओं और अरमानों के बलबूते बनाई थी।

“और फिर…जब उसकी शादी तुमसे हुई…” उसने एक लंबी सांस ली।

“जिस शादी के लिए…मैंने ही उसे गौरवी के कहने पर मनाया था। हाँ, मैंने ही उसे तुमसे शादी करने के लिए कहा था—सोचा था कि ये भी एक चाल होगी…या एक समझौता…बस। लेकिन जब मैंने उस दिन तुम्हें देखा— एक दुल्हन के जोड़े में, उसकी दुल्हन बनकर, इस हवेली के दरवाज़े से भीतर आते हुए… मुझे जैसे किसी ने आईना दिखा दिया।”

मीरा की आवाज़ अब टूटी हुई थी, जैसे वो खुद से लड़ रही हो—बीते वक़्त के हर उस पल से जिसमें उसने ज़हर बोया था।

“मुझे एहसास हुआ…कि मैंने क्या खो दिया है। मैं तुमसे जलने लगी, तुम्हारी मासूमियत से, तुम्हारी सच्चाई से  और उस प्रेम से जो आरव की आँखों में सिर्फ तुम्हारे लिए था। मैंने आरव को तुम्हारे खिलाफ भड़काया…बार-बार…लेकिन मैं भूल गई थी कि असल में, मैंने आरव को उसी दिन खो दिया था, जिस दिन मैंने उसे इस शादी के लिए मनाया था।”

वो एक क्षण रुकी, फिर जैसे अतीत की धूल में एक चित्र साफ़ होता गया—मीरा ने उसे शब्दों में ढाल दिया।

“और जिस दिन…उसने पहली बार तुम्हें चंडीगढ़ के उस मेले में देखा था…उसी दिन उसके दिल में तुम्हारी लिए एक हल्की सी जगह बन गई थी, जो मेरी कभी नहीं थी। मैं उसे कभी छू भी नहीं पाई।”

अब कमरे की हवा पूरी तरह बोझिल हो चुकी थी। सुहानी का दिल जैसे किसी गुप्त तूफ़ान से गुज़र रहा था। मीरा की बातों ने न सिर्फ कई राज़ खोले थे, बल्कि कई ज़ख़्म भी ताज़ा कर दिए थे। लेकिन सबसे अहम बात ये थी—मीरा अब सच बोल रही थी….कड़वा, जलता हुआ सच। जो सबको अब उस आग में झुलसा चुका था।

“मेले में? तुम क्या बोल रही हो, मीरा?” सुहानी का चेहरा आश्चर्य और उलझन से भर गया। उसके होठों पर अधूरी बातें ठिठक गईं। वो उस पल को टटोलने लगी, जो अब अचानक उसकी ज़िंदगी का एक अनजाना अध्याय बनकर सामने आ रहा था।

मीरा ने धीरे से गर्दन झुकाई और एक थकी हुई मुस्कान के साथ कहा— “हाँ… चंडीगढ़ का वही मेला…जहाँ तुम अपनी सहेलियों के साथ गई थी, अपना जन्मदिन मनाने। वो दिन, जब तुम बेफिक्र, मुस्कुराती, खिलखिलाती फिर रही थी…आरव वहीं था— और मैं भी।”

उसने एक पल के लिए आँखें बंद कर लीं, मानो वो दृश्य अब भी उसकी यादों में कैद हो।

“तुम दोनों एक-दूसरे से अनजान थे, मगर मुझे सब दिखाई दे रहा था। आरव की निगाहें जैसे बस तुम्हें ढूंढ़ रही थीं…तुम्हारे हँसने, बात करने, झूले पर चढ़ने तक को वो ऐसे देख रहा था…जैसे किसी तस्वीर को जी रहा हो। उस दिन मैंने उसकी आँखों में वो सब कुछ देखा, जो मैंने अपने लिए कभी नहीं देखा था।”

 

मीरा अब कमरे के उस कोने की ओर बढ़ी, जहाँ खिड़की पर हल्की चाँदनी पड़ी थी। उसने परदे को हल्के से हटाया, और बाहर आसमान में झांकने लगी। उसकी आँखें अब चाँद को नहीं, खुद को ढूंढ़ रही थीं।

“वो सुहानी… हँसती-खेलती, चुलबुली, ज़िंदगी से भरी हुई…आरव की आँखों में बस गई थी। और मैं…मैं जान गई थी कि मैंने आरव को हमेशा के लिए खो दिया है। शायद मैं कभी उसकी थी ही नहीं। वो तुम्हें कभी हर्ट नहीं करना चाहता था। मगर उसके पास कोई ऑप्शन नहीं छोड़े गए। हर तरफ़ से दबाव था…और सबसे ज़्यादा मुझसे। जब की मैंने ही उसे मनाया था, इस शादी के लिए।”

अब मीरा की आँखों में पछतावे की लहरें साफ़ झलक रही थीं।

“और फिर धीरे-धीरे…मैंने उसे तुम में खोते हुए देखा। हर दिन, हर पल, वो तुमसे लड़ने की कोशिश करता था, तुम्हें नापसंद करने का बहाना ढूंढ़ता था…मगर रोज़ थोड़ा और तुम्हारी तरफ़ झुकता जाता। जैसे किसी अंदरूनी जंग में उलझा हुआ हो, तुमसे नफ़रत करने की कोशिश में…वो तुमसे प्यार करने लगा था।”

अब दोनो के बीच खामोशी छा गई थी। कमरे की हवा भारी हो चुकी थी। सुहानी कुछ नहीं बोली—बस खड़ी रही—जैसे मीरा की हर बात उसे आरव के और क़रीब ले जा रही हो।

उस चाँदनी में अब सिर्फ़ मीरा का पछतावा नहीं था…बल्कि एक अधूरा प्रेम… एक टूटा रिश्ता… और एक नर्म सा पनपता हुआ एहसास भी था—जिसका नाम शायद "माफ़ी" था।

 

मीरा के भीतर तूफान मच चुका था। उसकी आँखों के सामने बार-बार आरव की वो तस्वीर उभर आती, जो अस्पताल के बिस्तर पर बेसुध पड़ा था। उसके चेहरे की उदासी, उसकी सांसों की लड़खड़ाहट और मशीनों की बीप, जैसे मीरा के भीतर चुभ रहे थे। अब तक की गई हर गलती उसकी आंखों के सामने चलचित्र की तरह घूम रही थी। वो साजिशें, वो जलन, वो अधिकार की लड़ाई—आज सब व्यर्थ लग रहा था।

मीरा काँपती आवाज़ में सुहानी की ओर मुड़ी, जो कमरे के कोने में खामोशी से खड़ी थी।

“सुहानी…” उसकी आवाज़ डूबी हुई थी, “मुझे प्रायश्चित करने का एक मौका दो। आज आरव को इस हाल में देख कर…मैं खुद को माफ़ नहीं कर पा रही। मेरा मन करता है कि काश वक़्त में पीछे जाकर सब ठीक कर दूं। तुम्हारे साथ जो भी किया…आरव को जिस अंधेरे में धकेला…अगर सब बदल सकती, तो बिना एक पल गंवाए बदल देती।”

मीरा की आंखों से आंसू बह निकले। वह सुहानी के सामने आकर खड़ी हो गई, जैसे अब और कुछ कहने या छिपाने को बाकी न बचा हो। सुहानी ने उसे देखा—वो मीरा जो कभी उसका अपमान करती थी, जिसे देखकर उसकी आत्मा कांप जाती थी, वो आज उसके सामने सर झुकाये खड़ी थी। पर ना जाने क्यों, उस क्षण सुहानी को उससे नफरत नहीं हुई। बस एक फीकी, थकी हुई सी हंसी उसके चेहरे पर उभर आई।

“मीरा,” वह धीमे स्वर में बोली, “कौन नहीं चाहता कि वक़्त में पीछे जाकर सब कुछ बदल दे? अगर ऐसा हो सकता, तो शायद आज हम सबकी ज़िंदगियाँ कुछ और होतीं। पर अफ़सोस, ज़िंदगी हमें वक़्त में दोबारा लौटने का मौका नहीं देती। हाँ, एक रास्ता देती है—आगे बढ़ने का।”

मीरा ने सुहानी की ओर देखा, उसकी आंखों में कोई शिकायत नहीं थी, बस एक दृढ़ निश्चय था।

“हमें इस दलदल से निकलना होगा, मीरा। ना सिर्फ़ आरव के लिए, बल्कि खुद के लिए भी। इतने सालों से लोग नफ़रत में जीते आए हैं। क्या अब समय नहीं आ गया कि सच्चाई के साथ खड़े हों, और जो टूटा है, उसे मिलकर जोड़ें?”

मीरा ने रोते हुए धीरे से सिर हिलाया। उसकी आंखों में पहली बार पश्चाताप के साथ एक आशा भी थी, “हाँ, सुहानी…अगर तुम मुझे एक मौका दोगी, तो मैं इस बार तुम्हारे साथ चलूंगी। चाहे जो भी हो, मैं आरव को और तुम्हें नुकसान नहीं पहुंचने दूंगी।”

सुहानी ने उसका हाथ थाम लिया। यह एक नई शुरुआत थी—बदले की नहीं, बलिदान और पुनर्निर्माण की।

मीरा अब पूरी तरह बदल चुकी थी। उसके चेहरे पर डर नहीं, बल्कि एक दृढ़ संकल्प झलक रहा था। वर्षों की नफ़रत, द्वेष और साजिशों के बाद आज वो पहली बार खुद को हल्का महसूस कर रही थी—शायद इसलिए कि आज वो किसी और के लिए नहीं, बल्कि सच के लिए खड़ी थी।

वो सुहानी के और करीब आई और उसके हाथों को कसकर थाम लिया।

“मैं सब कुछ करने को तैयार हूं, सुहानी। चाहे वो जैसी भी मदद हो, जैसे भी करना हो…मैं करूँगी। इस बार मैं पीछे नहीं हटूंगी….अगर मुझे खुद को खतरे में डालना पड़े, तब भी नहीं। बताओ मुझे, क्या करना होगा? मुझे बस एक इशारा चाहिए।”

सुहानी ने उसकी आंखों में देखा—अब वहां चालाकी नहीं थी, कोई चाल नहीं थी…सिर्फ एक सच्ची कोशिश थी, खुद को सुधारने की, और आरव को बचाने की।

“मीरा…इस घर में जो कुछ भी सामने दिखता है, वो अधूरी तस्वीर है। मुझे बहुत समय तक यही लगता रहा कि गौरवी और दिग्विजय ही इस नफ़रत और दर्द के खेल के सूत्रधार हैं। लेकिन अब…अब सब कुछ बदल गया है।” 

सुहानी ने गहरी सांस ली और फुसफुसाती आवाज़ में कहा, “इस खेल का असली मास्टरमाइंड रणवीर है। जिस पर मैं कभी भरोसा करने लगी थी, उसी ने सबसे बड़ा धोखा दिया। उसने हम सब को—मुझे और आरव को—उल्लू बनाया।”

 

“रणवीर...? लेकिन वो तो हमेशा खुद को इस घर का पराया बताता था... वो तो...”

“हां, यही उसकी सबसे बड़ी चाल थी, मीरा। जो लोग खुद को कमजोर दिखाते हैं, अक्सर सबसे खतरनाक होते हैं” सुहानी की आवाज़ कठोर हो गई।

वो आगे झुकते हुए मीरा से गंभीर स्वर में बोली, “अब हमें मिलकर हर उस परत को हटाना होगा, जो इस परिवार की सच्चाई को ढक कर बैठी है। तुम्हें जो भी जानकारी हो—गौरवी, दिग्विजय, रणवीर…या किसी और के बारे में—सब बताओ। छोटी से छोटी बात भी हमारी मदद कर सकती है इस चक्रव्यूह को समझने और तोड़ने में।”

मीरा कुछ देर खामोश रही। वो बीते वर्षों की घटनाएं याद करने लगी—कई छोटी-छोटी बातें जो तब बेवजह लगती थीं, अब अर्थपूर्ण हो उठीं। उसने सुहानी की ओर देखा और सिर हिलाया, “ठीक है। मैं सब बताऊंगी, हर वो बात जो अब तक सीने में दबा रखी थी। शायद अब वक़्त आ गया है कि सब कुछ उजागर हो।”

 

बीते हुए रहस्यों की परतें…

मीरा थोड़ी देर तक चुप रही, जैसे अपने भीतर के जाले सुलझा रही हो। उसकी आँखों में पछतावे के साथ-साथ एक अनकही बेचैनी थी, जिसे शब्दों में ढालना आसान नहीं था। फिर धीरे से, एक भारी साँस के साथ उसने बोलना शुरू किया।

“रणवीर के बारे में तो, सुहानी, मैं खुद भी बहुत कुछ नहीं जानती। सच कहूं तो…मुझे हमेशा अधूरी कहानियाँ सुनाई गईं। इन लोगों ने मुझे सिर्फ उतना ही बताया, जितना उन्हें लगा कि मेरे जानने से उन्हें कोई खतरा नहीं होगा।”

उसकी आवाज़ में टीस थी, जैसे किसी कठपुतली को ये समझ आने लगा हो कि वो किसके इशारों पर नाच रही थी।

“इस खेल में उन्होंने मुझे मोहरे की तरह इस्तेमाल किया। हर बार…हर कदम पर। मगर एक बात जो हमेशा मुझे चुभती रही, वो ये थी कि रणवीर का नाम आते ही ये लोग कांपने क्यों लगते थे। मैंने गौरवी को देखा है—एक ऐसी औरत जो किसी के सामने नहीं झुकती, जो अपनी चालों से बड़े-बड़े लोगों को बर्बाद कर देती है—उसे भी मैंने रणवीर के सामने खामोश होते देखा है। दिग्विजय जैसा ताकतवर आदमी भी उसके सामने आते ही जैसे अपनी ज़ुबान भूल जाता था।”

वो कुछ पल के लिए रुकी, जैसे बीते पलों की कोई स्मृति उसे भीतर से चीर गई हो।

“सबसे अजीब बात…गौरवी का रवैया था। जब भी रणवीर और तुम्हारी माँ, काजल, का नाम एक साथ आता था—गौरवी का चेहरा बदल जाता था। जैसे किसी पुराने ज़ख्म को फिर से कुरेदा गया हो। उसकी आँखों में गुस्सा कम और…जलन ज़्यादा होती थी।”

मीरा अब सुहानी की आंखों में देख रही थी—सीधी, साफ़ नज़रों से।

“मैंने कई बार गौरवी को अकेले में सुना है…बड़बड़ाते हुए... रणवीर के नाम लेकर। कभी-कभी मुझे लगता था कि शायद…शायद आज भी उसके दिल में रणवीर के लिए कुछ बाकी है। कुछ ऐसा जो वो खुद से भी छिपाना चाहती हो।”

अब मीरा की आवाज़ में केवल हैरानी नहीं, बल्कि डर भी था—डर उस सच्चाई का, जो शायद सबकी ज़िन्दगी को बदल सकती थी।

“क्या ये मुमकिन है, सुहानी…कि ये सब कुछ सिर्फ जायदाद, हक़ या बदले की आग नहीं…बल्कि एक अधूरी मोहब्बत, एक टूटा हुआ रिश्ता और एक औरत की जलन से शुरू हुआ हो?”

 

मीरा कुछ पल के लिए चुप हो गई, जैसे कोई पुरानी परतें उसके ज़हन में करवट ले रही हों। उसकी आँखों में बीते पलों की हलचल साफ़ झलक रही थी। फिर उसने धीमी आवाज़ में कहा— “रणवीर जब भी गौरवी को 'अक्की' कहकर पुकारता था, तो मानो किसी ने उसके ज़ख्मों पर नमक छिड़क दिया हो। उसकी आँखें पल भर में लाल हो जाती थीं, चेहरा ऐसा सख़्त हो जाता, जैसे कोई पुराने डर फिर से जी उठे हों।”

मीरा की बात सुनकर सुहानी के मन में एक पुरानी स्मृति कौंधी।

“अक्की…?” उसने जैसे खुद से दोहराया।

“मैंने भी गौर किया है, जब रणवीर ये नाम लेता है, तो गौरवी जैसे सहम जाती है। उसकी चाल, उसकी आवाज़, सब कुछ बदल जाता है।”

मीरा ने सिर हिलाया, जैसे दोनों अब एक ही रहस्य की परतों को उधेड़ने लगे हों।

“पर इस नाम के पीछे कौन सा राज़ छुपा है, मीरा?” सुहानी की आवाज़ में अब बेचैनी थी। “क्या ये गौरवी का कोई पुराना नाम था या ये किसी रिश्ते का निशान है जो वो आज भी छिपा रही है?”

“एक बार मैंने दबी ज़ुबान में दिग्विजय को ये कहते सुना था.. कि अगर 'अक्की' नाम फिर से ज़िन्दगी में लौट आया, तो गौरवी सब कुछ खो देगी।”

सुहानी का दिल एक पल को थम सा गया।

“सब कुछ?” उसने फुसफुसाते हुए पूछा।

मीरा ने उसकी तरफ देखा, “हाँ… शायद रणवीर ही वो दरवाज़ा है, जो अतीत की उस कहानी तक जाता है…जहाँ गौरवी का सच, उसका असली नाम, और शायद उसका टूटा हुआ रिश्ता दफन है।”

अब कमरे में सन्नाटा था—ऐसा सन्नाटा, जो किसी बड़ी सच्चाई से ठीक पहले उतरता है।

 

 

'अक्की' नाम का रहस्य क्या है? 

गौरवी की ज़िन्दगी का कौन सा पहलू है जहाँ सिर्फ रणवीर पहुँच सकता है? 

मीरा ऐसे और कौन से राज़ खोलने वाली है? 

जानने के लिए, पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।

 

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