मीरा की आंखों में सवाल थे और चेहरे पर संशय…तभी सुहानी ने एक गहरी सांस ली और धीरे से कहना शुरू किया, “मुझे तुम्हें कुछ बताना है, जो सब मैंने आज देखा, उसके बारे में। आज जब मैं आरव से मिलने आयी थी…उससे ठीक पहले…कुछ अजीब हुआ।”
मीरा चौंकी, “अजीब मतलब क्या? किसी ने तुम्हें देखा तो नहीं था ना?”
“नहीं, नहीं…कोई मुझे देखता उससे पहले ही मैं छुप गई थी। आरव को बस एक बार देखना चाहती थी, इस चक्कर में होश ही नहीं था, कि कोई सामने से आ भी सकता है। मगर समय रहते मैं छुप गई थी।” सुहानी की आवाज़ में हल्की झिझक थी।
“मगर मैं तुम्हें जो बात बताना चाहती हूँ, वो इसी से जुड़ी हुई है, मीरा। वो जिस कमरे में भर्ती था, मैं चुपचाप वहीं जा रही थी। पर तभी मैंने देखा कि कॉरिडोर के छोर से रणवीर मेरी ओर बढ़ रहा है।”
मीरा की आंखें चौड़ी हो गईं, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा।
सुहानी बोलती रही, “उसकी नज़र मुझ पर पड़ती, उससे पहले ही मैं घबरा के पास वाले कमरे में घुस गई। बिना देखे, बिना सोचे, बस दरवाज़ा खोला और अंदर चली गई।”
कुछ क्षणों का मौन हुआ, फिर सुहानी ने धीमी आवाज़ में कहा, “अंदर अंधेरा सा था, सिर्फ खिड़की की पतली दरार से आती रोशनी कमरे की चीज़ों पर हल्की छाया बना रही थी। कुछ पल लगे मुझे समझने में कि मैं किस कमरे में आ गई हूँ…लेकिन जैसे ही मेरी नज़र सामने की दीवार पर टंगे फैमिली पोट्रेट पर गई, मैं पहचान गई—वो गौरवी का कमरा था।”
मीरा की सांस थम सी गई।
“मैं पीछे हटना चाहती थी,” सुहानी ने आगे कहा, “पर बाहर रणवीर था। उसकी आहटें अब भी पास आ रही थीं और उस समय, डर घबराहट में मैं बस खड़ी रही…खुद को कोसती रही।”
उसने आगे बताया, “मैंने छुपने के लिए कमरे में एक कोना चुना जहाँ भारी परदे थे। मैं उसके पीछे जाकर खड़ी हो गई, बिल्कुल सन्न। पर तभी मेरी नज़र बेड के बगल वाली साइड टेबल पर पड़ गई…वहाँ एक छोटा सा लॉकेट रखा हुआ था - बहुत मामूली सा। ना कोई जड़ा हुआ हीरा, ना महंगी चेन…बस एक सिंपल सा गोल्डन लॉकेट।”
“किसी आम इंसान की चीज़ लगती है, वो गौरवी के कमरे में क्या कर रही थी?” मीरा फुसफुसाई।
सुहानी ने सिर हिलाया, “हां, मगर जाने क्यों…मैं खिंचती चली गई उस लॉकेट की ओर, शायद जिज्ञासा थी…या उस कमरे का अजीब सा सन्नाटा, जिसने मेरी सोच को भी शक्की बना दिया था।”
“मैंने लॉकेट को उठाया, ऐसा लग रहा था जैसे किसी की कोई पुरानी याद को छूने जा रही हूँ। हाथों में उसे महसूस करते ही मुझे समझ में आ गया था कि वो किसी अमीर खानदान की शोभा नहीं, बल्कि किसी की निजी, गहराई से जुड़ी हुई वस्तु है। वो हल्का सा था, लेकिन उसके स्पर्श में एक दबी हुई संवेदना थी।
जैसे ही मैं उस लॉकेट को वापस रखने लगी, मेरी उंगलियों ने कुछ महसूस किया—लॉकेट पर एक महीन सी दरार। मैंने उसे हल्के से दबाया, और लॉकेट की एक छोटी सी झिलमिलाती सी क्लिक के साथ वह खुल गया।
और जब मैंने उसे खोला...” वो कुछ क्षण के लिए चुप हो गई।
“उसमें एक…पुरानी सी तस्वीर थी…एक छोटी सी बच्ची की, मासूम सी, घने बालों से गुथी चोटियां, माथे पर एक छोटी सी बिंदी, और आंखों में एक ऐसा भाव—जैसे कुछ कहना चाहती हो, पर कह न पा रही हो। तस्वीर में वो बच्ची न तो मुस्कुरा रही थी, वो बस देख रही थी…खालीपन से भरी निगाहों से।
पहले मुझे लगा…शायद ये गौरवी की कोई छुपी हुई संतान है…कोई अतीत का राज, कोई नाजायज़ रिश्ता। इस घर में रहते-रहते, अब ये सब अजीब नहीं लगता, मगर फिर, मैंने ध्यान से देखा…बच्ची की आँखों का आकार…वो तीखी नाक…होंठों की हल्की सी बनावट…ये सब जाने-पहचाने लगने लगे। और तभी वो तस्वीर मेरे ज़ेहन में पूरी होने लगी। वो बच्ची कोई और नहीं, खुद गौरवी ही थी…वो उसके ही बचपन की तस्वीर थी।
मीरा अब स्तब्ध थी।
“मैं हैरान रह गई। उस ठंडी, सख्त और छल से भरी गौरवी का ऐसा मासूम रूप…कुछ समझ नहीं आ रहा था मुझे। मैंने लॉकेट वहीं रख दिया, और जैसे ही बाहर निकलने के लिए पलटी...किसी ने मुझे पीछे से खींचकर पर्दे के पीछे छुपा दिया।”
“क-कौन?” मीरा की आवाज़ थरथराई।
“विक्रम” सुहानी ने जवाब दिया, “अब मैं ये तो नहीं जानती, मीरा, कि विक्रम वहाँ क्या कर रहा था…मगर उसकी आँखों में घबराहट भी थी और बेचैनी भी। ऐसा लग रहा था जैसे वो भी वहाँ कुछ ढूंढने आया हो—चुपके से। जब अगली बार वो मिलेगा, तो मैं ये ज़रूर पता लगाऊँगी कि वो वहाँ क्यों था, और क्या छिपा रहा था?
और फिर.. कमरे का दरवाज़ा खुला। मैं और विक्रम, दोनों ही कुछ क्षणों के लिए सन्न रह गए थे। धीमे-धीमे साड़ियों की सरसराहट के साथ, कमरे में गौरवी आ चुकी थी।
“उसने आते ही उस लॉकेट को ढूंढा, लॉकेट को साइड टेबल पर यूँ ही रखा हुआ देख कर वो लगभग उदास हो गयी थी। उस लॉकेट को हाथ में लेकर वो बिस्तर पर बैठ गयी और…और उससे बात करने लगी। जैसे वो तस्वीर वाली बच्ची उसके सामने ही बैठी हो। उसकी आंखों में आंसू थे, पर आवाज़ में गुस्सा भी। जैसे वो उस बच्ची से शिकायत कर रही हो, और माफी भी मांग रही हो। मीरा…गौरवी खुद से बात कर रही थी, अपने अतीत से, उस छोटी सी अकेली बच्ची से, जिसे शायद कभी किसी ने प्यार नहीं दिया।”
मीरा के होंठों से कोई शब्द नहीं निकला, कमरे में एक सन्नाटा पसर गया और सुहानी की आँखों के सामने बीते हुए वक़्त के उस डरावने मगर करुण दृश्य की छाया अब भी तैर रही थी। मीरा अब भी उसी जगह बैठी थी, मानो किसी गहरे कुएं में झाँक रही हो।
“क्या हम…क्या हम इस बारे में किसी से बात करें?” उसने धीमे से पूछा।
सुहानी ने सिर हिलाया, “नहीं अभी नहीं। जब तक हमें पूरी सच्चाई का पता नहीं चल जाता, हमें चुप ही रहना होगा। अगर गौरवी अपने अतीत को इतने सालों तक छुपा सकती है…तो वो कुछ भी कर सकती है, मीरा।”
“और विक्रम?” मीरा ने पूछा।
“उससे बात करनी होगी, वो भी कुछ ज़रूर जानता है…शायद हम अकेले नहीं हैं जो उस कमरे में छिपे राज़ को जानना चाहते हैं,” सुहानी की आँखों में अब संकोच नहीं था, बल्कि एक जिज्ञासा थी।
तभी सुहानी का फोन वाइब्रेट करने लगा। उसने एक पल को हिचकिचाते हुए मोबाइल स्क्रीन की ओर देखा। यह विक्रम का मैसेज था—
“मुझे तुमसे एक ज़रूरी बात करनी है, सुहानी। तुमसे जल्दी मुलाक़ात कब हो सकती है?”
सुहानी का माथा तनाव से तन गया। उसकी उंगलियाँ तुरंत जवाब टाइप करने लगीं—
“तुम पर मुझे भरोसा नहीं है…”
उसके मन में अभी तक विक्रम को लेकर कई सवाल थे। जिस वक़्त से उसने विक्रम को गौरवी के कमरे में देखा था, उस घटना ने सब कुछ उलझा कर रख दिया था। वह यह मानने को तैयार नहीं थी कि विक्रम सिर्फ़ यूं ही वहां गया था। पूछने पर शायद वो बता भी देता, मगर वो सच ही होता, ये ज़रूरी नहीं था।
कुछ ही क्षणों में विक्रम का अगला मैसेज आया—
“सुहानी प्लीज़…तुम्हारा ये जानना बहुत ज़रूरी है और वैसे भी अब तुम्हारे पास मेरा भी एक राज़ है। अगर तुम्हें कभी भी ऐसा लगे कि मैं तुम्हें धोखा दे रहा हूँ या कोई चाल चल रहा हूँ… तो तुम उन लोगों को बता सकती हो कि मैं भी उस रात गौरवी के कमरे में छुप के वहां कुछ ढूंढ रहा था।”
सुहानी की उंगलियाँ थम गईं। उसने फोन को हाथ में कसकर पकड़ लिया। उसकी दिल की धड़कनें तेज़ हो चुकी थीं। विक्रम की बातों में डर भी था और बेबसी भी। क्या सच में वह उसे किसी साज़िश से बचाना चाह रहा था, या फिर यह सब भी उसी खेल का कोई हिस्सा था जिसमें वह पहले से फंसी हुई थी?
कमरे की खामोशी अचानक भारी लगने लगी थी।
सुहानी का दिल एक पल को जैसे थम सा गया। हाथ में पकड़ा फोन थोड़ी देर तक उसकी हथेलियों में कांपता रहा। उस क्षण उसकी आंखों में कई अधूरे सवाल तैरने लगे—क्या विक्रम सच में मदद करना चाहता है, या यह सब एक और चाल है?
मीरा जो पास ही बैठी थी, उस ने सुहानी की ओर गौर से देखा।
"क्या हुआ?" मीरा ने चिंतित स्वर में पूछा।
सुहानी ने धीरे-धीरे फोन स्क्रीन उसकी तरफ बढ़ाया, जैसे कोई राज़ बाँटते हुए भी वो डर रही हो।
"विक्रम," उसने धीमी आवाज़ में कहा, “शायद वो मुझे कुछ बताना चाहता है…या फिर…फिर से किसी नए जाल में फँसाना चाहता है, मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूँ।”
मीरा ने संदेश पढ़ा, फिर एक लम्बी और गहरी साँस लेते हुए उसने सुहानी की ओर देखा। उसकी आँखों में भी आशंका थी, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। कुछ देर सोचने के बाद, सुहानी ने गहरी साँस ली, जैसे कोई बड़ा फैसला ले रही हो। उसकी उंगलियाँ तेजी से स्क्रीन पर चलने लगीं। उसने विक्रम को एक स्पष्ट, और कठोर जवाब भेजा—
“ठीक है, कल दिन ढलने के बाद मैं तुमसे मिलूंगी—गेस्ट हाउस के पास वाले पुराने बगीचे में, जहां अब कोई नहीं आता….रात ठीक 10 बजे। लेकिन याद रखना, विक्रम—अगर तुमने ज़रा सी भी चाल चलने की कोशिश की, तो मुझे किसी को कुछ बताने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। मैं अकेले ही तुम्हें ऐसा सबक सिखाऊंगी कि तुम्हें अपनी हर चाल खुद महंगी पड़ जाएगी।”
सेंड बटन दबाते ही सुहानी ने फोन को एक तरफ रख दिया और बिस्तर के कोने पर जाकर बैठ गई। उस रात चांदनी में भी अजीब-सी बेचैनी घुली हुई थी। कुछ था जो हवा में तैर रहा था—साज़िश, रहस्य…और एक अनकहा डर।
फोन पर एक और नोटिफिकेशन चमका।
“ठीक है, तुम मुझ पर भरोसा कर सकती हो।”
विक्रम का मैसेज आया था—सादा, पर उसके भीतर कई अनकहे शब्द छिपे थे। सुहानी के चेहरे पर एक फीकी मुस्कान उभरी—कटाक्ष भरी, अविश्वास से भरी। उसने फ़ोन उठाया और धीरे से अपनी अंगुलियां चलाईं और जवाब टाइप किया—
“हाँ, क्यों नहीं…तुम पर तो आँख बंद कर के भरोसा कर लेना चाहिए।”
संदेश में उसका ताना साफ झलक रहा था, और उसने सेंड बटन दबाते ही एक गहरी सांस छोड़ी।
फिर वह धीरे से उठी और खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई। बाहर अंधेरे में लिपटी हवाएं पेड़ों को चुपचाप झुला रही थीं। उस सन्नाटे में सुहानी की आंखों में एक ठंडी दृढ़ता झलक रही थी।
"देखते हैं अब, विक्रम…कौन सा वो सच है जिस पर से तुम पर्दा हटाने वाला है," वह बुदबुदाई, उसकी नजरें गहराई से अंधेरे को चीरती चली गईं, जैसे वो भविष्य को पढ़ने की कोशिश कर रही हो। पीछे से मीरा धीरे से उसके पास आई। उसकी आवाज़ में चिंता छिपी थी, पर आत्मीयता भी थी।
"अपना ध्यान रखना, सुहानी," मीरा ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “और याद रखना…अगर किसी भी तरह की मदद की जरूरत पड़े, तो बेझिझक एक मैसेज कर देना। मैं तुम्हारे साथ हूँ।”
सुहानी ने धीमे से सिर हिलाया। उस एक पल में, दो स्त्रियाँ—एक रहस्य से घिरी हुई और दूसरी उसके सहारे के लिए तैयार—एक अनकही लड़ाई की तैयारी कर रही थीं।
रात गहराती जा रही थी, लेकिन सुहानी की पलकों पर नींद का नामोनिशान नहीं था। कमरे की बत्तियाँ बंद थीं, सिर्फ खिड़की से आती चांदनी में उसका चेहरा उजागर हो रहा था। मन में हज़ार सवाल थे—क्या विक्रम सच में कुछ ऐसा जानता है जो सब कुछ बदल सकता है? या फिर ये सब भी उसी खेल का हिस्सा है जिसमें वह पहले दिन से फंसी हुई है?
मीरा उसके लिए चुपचाप एक कप गर्म दूध रख गई थी, लेकिन सुहानी की आँखें कप की ओर नहीं, उस बंद दरवाज़े की ओर टिकी थीं जो उसे अगली रात गेस्ट हाउस तक ले जाएगा।
उसने अलमारी खोली और एक सिंपल डार्क ब्लू कुर्ता निकालकर पास रख दिया—कहीं भीड़ में खो जाने जैसा लिबास। फिर एक छोटी जेब में पेपर स्प्रे, एक पॉकेट चाकू और फोन छुपाकर रख दिया। सुहानी अब किसी पर आँख बंद कर भरोसा नहीं कर सकती थी। इस खेल में हर मुस्कान के पीछे एक साज़िश थी, और हर रिश्ते के पीछे एक राज़।
उसने धीरे से बुदबुदाया, “कल की रात सिर्फ जवाब नहीं, बल्कि मेरे हौसले की भी परीक्षा होगी…विक्रम का सच मुझे इस कसौटी में आगे ले जायेगा या फिर मैं एक और रहस्य का हिस्सा बन जाउंगी। एक तरफ विक्रम पुराना दोस्त और दूसरी तरफ आरव...क्या वो मुझे भूल चुका है, उसे अपनी सुहानी क्या याद नहीं? उसका और मेरा करीब आना...साथ में इस जंग को लड़ना, एक दूजे का साथ देना और उसने मुझे मेले में देखा, पसंद किया था...ये बात कभी उसने मुझे बताई क्यों नहीं?
कितने सवाल हैं और जवाब सिर्फ ये दोनों ही दे सकते हैं, पर क्या तब मैं उन दोनों पर यकीन कर पाऊँगी?
विक्रम क्यों था गौरवी के कमरे में?
क्या सुहानी रणवीर से बचकर विक्रम से मिल पायेगी?
मीरा कहीं अपना बनकर धोखा तो नहीं देगी?
आगे क्या होता है जानने के लिए, पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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