अगले दिन की शाम ढलते ही हवेली में एक हलचल-सी मच गई। जैसे ही यह खबर फैली कि आरव को होश आ गया है, हवेली के कोने-कोने में मानो कोई तूफान सा दौड़ गया। नौकर-चाकर एक-दूसरे से काना फूसी करने लगे, बुज़ुर्ग महिलाएं भगवान का नाम लेकर माथे पर हाथ रखती नज़र आईं, और युवा सदस्य तुरंत आरव की खैरियत जानने के लिए उसके कमरे की ओर दौड़ पड़े। यह खबर हवा की तरह पूरे महल में फैल गई — तेज़, अप्रत्याशित और असरदार।
उस शोरगुल, अफरा-तफरी और बेचैनी के बीच, हवेली के एक कमरे में सुहानी अपने दिल की धड़कनों को काबू में रखने की नाकाम कोशिश कर रही थी। उसकी आंखों से खुशी के आंसू छलकने को तैयार थे, लेकिन दिल किसी अनजाने डर से जकड़ा हुआ था। उस पल अगर उसके बस में होता, तो वह सारी हदें तोड़कर, दुनिया की परवाह किए बिना दौड़कर आरव के पास पहुंच जाती। उसके सीने से लगकर बस एक बार महसूस करना चाहती थी कि उसका आरव अब ठीक है, जिंदा है।
मगर सच इतना आसान नहीं था।
बेचैनी की हालत में उसने तुरंत शमशेर को फोन लगाया — वही शमशेर जो आरव का पिता था, और अब सुहानी के जीवन में भी एक पिता जैसा स्थान रखता था, और जो हमेशा उसे सही-गलत का फर्क समझाता गया। उस की आवाज़ कांप रही थी, जैसे कोई छोटा बच्चा अभी अपने किसी को खोने से बचा है और उसे वापस पाने की गुहार लगा रहा है।
"शमशेर अंकल, आरव को होश आ गया है…मैं उससे मिलना चाहती हूं, प्लीज़," उसने भावनाओं से भरी आवाज़ में कहा।
पर शमशेर की आवाज़ में जो कठोरता थी, उसने सुहानी के उत्साह को जैसे बर्फ बना दिया।
"नहीं सुहानी," शमशेर ने गहरी आवाज़ में आदेश दिया, “तुम अभी उससे नहीं मिल सकती। परिस्थिति तुम्हारी भावनाओं से कहीं ज़्यादा नाज़ुक है। तुम्हारा वहां जाना अब कई मुश्किलें खड़ी कर देगा, और हम अभी किसी भी नई मुसीबत का जोखिम नहीं उठा सकते।”
उसके शब्दों में नर्मी थी, पर फैसले में कोई ढील नहीं।
सुहानी चुप हो गई, फोन उसके हाथ से फिसलते-फिसलते बचा। उसकी आंखें लगातार दरवाज़े की ओर ताकती रहीं, जैसे उम्मीद हो कि अगले ही पल कोई आकर उससे कहेगा — “चलो, आरव तुम्हें बुला रहा है।”
मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ….वह वहीं अपने कमरे में बैठी रही — टूटी उम्मीदों के साथ। उसके सामने दीवार पर वही तस्वीर थी, जो उसकी और आरव की शादी के दिन ली गई थी।
तस्वीर में दोनों मुस्कुरा रहे थे, जैसे सब कुछ परफेक्ट हो। सुहानी ने उस तस्वीर को अपने मन में बसा लिया था। फिर उसने आंखें बंद कर लीं और एक गहरी सांस ली, मानो आरव की मौजूदगी को महसूस करना चाहती हो।
वो एक पल के लिए सब कुछ भूल जाना चाहती थी— साजिशें, झूठ, नफरत— सिर्फ आरव को महसूस करना चाहती थी….पर हर बीतता पल उसकी बेचैनी को और बढ़ाता गया।
सुहानी कमरे में एक कोने में सिमटी हुई बैठी थी। दीवार की ओर पीठ टिकाए, वह अपने भीतर मची हलचल को दबाने की कोशिश कर रही थी। उसकी आँखों में एक अजीब-सी थकावट थी — भावनाओं की थकावट, उम्मीद और डर के बीच झूलते मन की थकावट। उसकी उंगलियाँ कांपते हुए उसके फ़ोन को थामे हुई थीं, आरव की खबर पाने को बेताब।
मगर नज़रें अभी भी उस तस्वीर पर ही थीं।
तस्वीर में आरव की मुस्कान इतनी सजीव थी कि सुहानी को पलभर को ऐसा लगा जैसे वो तस्वीर से निकलकर उसके सामने आ जाएगा, उसकी ओर हाथ बढ़ाएगा, उसे अपने सीने से लगाकर कहेगा — “मैं ठीक हूँ सुहानी…अब सब ठीक है।”
लेकिन हकीकत उस तस्वीर से बिल्कुल उलटी थी, ठीक उस हंसती हुई तस्वीर के पीछे की कड़वी सच्चाई की तरह। चारों ओर खामोशी थी, एक भारी सन्नाटा, जो उसकी बेचैनी को कम करने में कोई मदद नहीं कर पा रहा था।
हर घड़ी, हर सेकंड उसके लिए एक युग के बराबर लग रही थी। वो चाहकर भी कुछ और नहीं सोच पा रही थी, उसका मन बार-बार आरव के कमरे की ओर भागता। क्या वो होश में होगा? क्या उसने कुछ कहा होगा? क्या उसे मेरी याद आई होगी?
इन्हीं सवालों के बीच उसका फोन वाइब्रेट हुआ।
मीरा का मैसेज आया था….उसने जल्दी से मैसेज खोल कर देखा, जैसे किसी डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो।
"आरव को थोड़ी देर के लिए होश आया था," मीरा ने लिखा था, “लेकिन उसने किसी को भी पहचानने से साफ इनकार कर दिया।”
सुहानी की सांस जैसे थम सी गईं।
“उसने इधर-उधर बहुत ध्यान से देखा, जैसे उसकी आँखें किसी खास को ढूंढ़ रही हों। उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी, और फिर उसने अपनी नसों में लगी ड्रिप्स को ज़बरदस्ती हटाना शुरू कर दिया।”
पढ़ते-पढ़ते सुहानी का दिल बैठने लगा। उसे साफ दिख रहा था कि आरव कितना परेशान हो रहा होगा…कितना टूटा हुआ।
"डॉक्टरों को उसे दोबारा बेहोश करने के लिए इंजेक्शन देना पड़ा, लेकिन अब वो खतरे से बाहर है।"
मीरा ने अंत में ये सूचना दी थी…..संदेश पढ़ने के बाद सुहानी की आँखों में नमी उतर आई। उसे थोड़ी राहत तो मिली कि आरव अब सुरक्षित है, मगर दिल का तूफान थमा नहीं। बल्कि वो और ज़्यादा उग्र हो गया था। अब उसकी बेचैनी में एक नई भावना जुड़ गई थी — गुस्सा….हालात पर, खुद पर, और उन सभी पर जिन्होंने उसे आरव से दूर रखा। उसका धैर्य अब टूटने की कगार पर था।
मीरा का मैसेज पढ़ने के बाद सुहानी की सांसों को कुछ पल का आराम जरूर मिला था, लेकिन दिल की बेचैनी अब भी उसी शिद्दत से ज़िंदा थी। बस रूप बदल चुका था — वो घबराहट अब एक बग़ावत में बदल रही थी, एक तूफान बनकर उसके सीने में उठ रही थी। अब वो सिर्फ परेशान नहीं थी, अब वो desperate हो चुकी थी... अब वो परेशान हालातों में नहीं थीं, बल्कि बग़ावती हो चुकी थी।
उसका दिमाग बार-बार यही कह रहा था — “बस बहुत हो गया, अब और नहीं सहा जाएगा…अब जल्द ही इन हालातों से निकलना होगा।”
रात के दस बजते ही उसने वही नीला कुर्ता निकाला जो उसने खासतौर पर इस मौके के लिए छुपा कर रखा था। उसमें बड़ी सावधानी से उसने पेपर स्प्रे, एक छोटी सी धारदार छुरी और कुछ ज़रूरी चीजें छुपा रखी थीं — जैसे वो जानती थी कि एक वक़्त ऐसा आएगा, जब उसे अकेले ही अपना रास्ता बनाने के लिए इन सब का इस्तेमाल करना पड़ेगा।
उसने धीमे-धीमे अपने बाल बांधे, और दरवाज़े की ओर बढ़ी।
लेकिन बाहर निकलने से पहले उसने एक और ज़रूरी कदम उठाया — उसने मीरा को मैसेज किया:
“रास्ता साफ है?”
कुछ ही पलों में मीरा का जवाब आ गया।
"हाँ, रास्ता साफ है। कमरे के बाहर जो गार्ड था, उसे मैंने चाय लाने का बहाना देकर कुछ देर के लिए भेज दिया है। और सीसीटीवी का फुटेज भी मैंने ओवरराइड के लिए तैयार कर लिया है। कोई शक नहीं करेगा। तुम पुराने गेस्ट हाउस के बागीचे में जा सकती हो।
लेकिन याद रखना, तुम्हारे पास सिर्फ पंद्रह मिनट हैं। इससे ज़्यादा मैं किसी का ध्यान भटका नहीं पाऊँगी।"
ये पढ़कर सुहानी की आँखों में एक दृढ़ता आ गई — वो वाली जो तब आती है जब डर के आगे सिर्फ हिम्मत साथ देती है।
उसने बिना देर किए कुर्ते की जेबों में सब कुछ ठीक से छुपा कर रखा, और नर्म कदमों से अपने कमरे का दरवाज़ा खोला। एक पल के लिए उसने पीछे मुड़कर देखा — जैसे खुद से वादा कर रही हो कि जो राज़ छिपे हैं, वो आज की रात सामने आकर रहेंगे।
और फिर वो बिना आवाज़ किए बाहर निकल गई — हवेली की अंधेरी गलियों से होते हुए उस रहस्य की ओर जिसे जानना अब ज़रूरी था।
जैसे ही मीरा से आगे का रास्ता भी साफ होने की पुष्टि मिली, सुहानी ने एक गहरी सांस ली। उसकी धड़कनों की रफ्तार अब तेज़ थी, लेकिन उसके क़दमों में एक अलग ही ठहराव था — जैसे वो जानती हो कि अब पीछे मुड़ने का कोई रास्ता नहीं है।
धीरे से उसने नीचे हॉल का दरवाज़ा खोला। रात की खामोशी में दरवाज़े की मामूली सी चरमराहट भी किसी चुभते राज़ की तरह सुनाई दे रही थी, लेकिन सुहानी बिना रुके, बग़ैर आवाज़ किए, दबे पाँव बाहर निकल आई।
हवेली की दीवारों से सटकर, सावधानी से हर मोड़ पर नज़र डालती हुई, वो आगे बढ़ी। सीढ़ियों से लेकर गलियारों तक, हर कोना उसे देखता हुआ महसूस हो रहा था — जैसे हवेली की आत्मा भी जानती थी कि उसकी गोद में कोई बड़ा राज़ पनप रहा है।
बाहर निकलते ही ठंडी हवा ने उसके चेहरे को छुआ, मानो कोई पुरानी याद उसे रोकने आई हो, लेकिन आज उसकी आंखों में जो दृढ़ता थी, वो किसी भी याद को धुंधला कर सकती थी।
उसने अपने चारों ओर नज़र दौड़ाई — सन्नाटा पसरा हुआ था। हवेली की बत्तियाँ दूर से धुंधली सी टिमटिमा रही थीं। अब वो तेज़ी से मगर सतर्कता से पुराने गेस्ट हाउस की ओर बढ़ने लगी, जो हवेली की मुख्य इमारत से थोड़ा दूर, बगीचे के पीछे स्थित था।
हर कदम के साथ ज़मीन पर सूखे पत्ते चटकते, मगर उसकी चाल में न कोई डर था, न कोई झिझक। जैसे ही वो पुराने गेस्ट हाउस के पास पहुँची, उसने दूर-दूर तक नज़र दौड़ाई — लेकिन वहाँ कोई नहीं था। चारों ओर पेड़ों की झुरमुट और हल्का सा कोहरा पसरा हुआ था।
उसने घड़ी देखी — "विक्रम को यहाँ अभी तक पहुँच जाना चाहिए था," उसने मन में सोचा।
हल्की सी मुस्कान उसके होंठों पर आई, मगर वो मुस्कान कटाक्ष से भरी थी।
“सो पंक्चुअल…विक्रम मल्होत्रा।”
धीमी आवाज़ में खुद से कहते हुए वो एक बड़े पेड़ के पीछे जाकर छिप गई — पेड़ जिसकी मोटी जड़ों ने ज़मीन को जकड़ रखा था, ठीक वैसे ही जैसे हवेली ने अपने रहस्यों को जकड़ रखा था। जैसे ही वो पेड़ से चिपकी, अचानक उसके कानों ने कुछ महसूस किया — सूखे पत्तों पर कदमों की आवाज़।
वो एकदम सतर्क हो गई, उसकी सांसें थम सी गईं। लेकिन ये आवाज़ किसी एक शख्स की नहीं थी। एक साथ दो अलग-अलग चालें उसकी ओर बढ़ रही थीं।
उसने पेड़ से हल्के से झाँककर देखा — दूर से एक आकृति दिखाई दी... वो विक्रम था। लेकिन उसके साथ कोई और भी था।
जैसे-जैसे वो परछाइयाँ नज़दीक आने लगीं, चाँद की मद्धम रोशनी में दूसरा चेहरा भी साफ़ हो गया — और उसे देखते ही सुहानी की आंखें हैरानी से फैल गईं। वो और कोई नहीं, बल्कि उसका अपना भाई— विशाल था।
वो भाई, जिसे वो अपनी ज़िंदगी का सबसे करीबी साथी समझती थी। जिसके लिए उसने बचपन में न जाने कितनी लड़ाइयाँ लड़ी थीं, जो उसके हर दर्द का गवाह और हर खुशी का हिस्सा रहा था।
वही विशाल... जिसके बारे में उसे हाल ही में ये सच पता चला था कि वो दरअसल दिग्विजय राठौर की नाजायज़ औलाद है और जिसका खून का रिश्ता सुहानी से कभी था ही नहीं।
उस दिन जैसे किसी ने उसके दिल को चीर कर रख दिया था। लेकिन तब भी उसने खुद को संभाल लिया था। ये सोचकर कि भले ही रिश्ता खून का नहीं है, पर भावनाओं का तो है। बचपन का, विश्वास का, भाई-बहन के उस नाज़ुक रिश्ते का।
उस पल सुहानी के भीतर बहुत कुछ टूट गया था, मगर उसकी आँखों में अब सवालों की एक नई आग जल उठी। मगर आज उसे वहाँ देखकर — विक्रम के साथ — एक रहस्य की तरह छुपते हुए, उसकी पीठ में जैसे किसी ने खंजर घोंप दिया हो।
“वो यहाँ क्या कर रहा है?”
“वो विक्रम से छुपकर क्यों मिल रहा है?”
“क्या वो भी इस साज़िश का हिस्सा है?”
इन सवालों ने एक ही पल में उसके ज़हन में कोहराम मचा दिया।
उसके होंठ सूखने लगे, दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं, आँखें फटी की फटी रह गईं।
एक तरफ़ विश्वास था — टूटता हुआ, और दूसरी तरफ़ सच्चाई थी — सामने आती हुई।
सुहानी ने खुद को पेड़ की ओट से और पीछे खींच लिया। उसकी सांसें तेज़ थीं, और आँखों में पानी भर आया था। वो कुछ समझ नहीं पा रही थी कि उसके सामने खड़ा ये सच ज़्यादा दर्दनाक है या उसके पीछे छुपी वो साज़िश, जो अब धीरे-धीरे उसके चारों ओर अपना शिकंजा कस रही थी।
आख़िर विशाल वहां विक्रम के साथ क्यों आया था?
ऐसा कौन सा राज़ विक्रम सुहानी को बताने वाला था जिसका हिस्सा खुद विशाल भी है?
क्या विशाल जानता है कि वो दिग्विजय की नाजायज़ औलाद है?
जानने के लिए पढ़ते रहिए… 'रिश्तों का क़र्ज़'!
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