घने और ऊँचे पेड़ों के बीच, चाँदनी की हल्की सी रोशनी ज़मीन पर झलक रही थी। ठंडी हवा में सूखे पत्तों की सरसराहट किसी रहस्य की फुसफुसाहट जैसी लग रही थी। ऐसे ही एक पेड़ के पीछे दुबकी खड़ी थी सुहानी—डरी हुई, मगर उम्मीद से भरी। उसकी साँसें तेज़ थीं, धड़कनें बेकाबू। बहुत वक़्त बाद अपने भाई को देखने की उत्सुकता और उस तक पहुँचने का डर…दोनों ने उसे अंदर से झकझोर रखा था।
धीरे-धीरे उसने कांपते कदमों से पेड़ के पीछे से बाहर झाँका। सामने खड़े विशाल की छवि जैसे बीते कई दिनों की दूरी को एक पल में मिटा गई। उसकी आँखों में जो स्नेह और चिंता थी, वो किसी भी बहन के लिए सबसे बड़ी ढाल होती है।
सुहानी की आँखें भर आईं। वो कुछ पल वहीं ठिठकी रही, मानो यक़ीन ही ना हो रहा हो कि उसका भाई उसके सामने खड़ा है। लेकिन फिर दिल के किसी कोने से उठती पुकार ने उसके कदमों को गति दी। वह धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगी।
विशाल ने भी जैसे ही अपनी बहन को देखा, उसकी आँखों में चमक आ गई। एक लंबे समय से दबा प्यार और बेचैनी एक ही पल में उसकी आँखों से छलक पड़ा। बिना कुछ कहे, दोनों ने एक-दूसरे की ओर दौड़ लगाई, और पास आकर एक दूसरे को कस कर गले से लगा लिया।
उनके कदमों के नीचे सूखे पत्ते चरमरा उठे, मानो वो भी इस पुनर्मिलन का स्वागत कर रहे हों। हवा जैसे कुछ पल के लिए थम गई हो। वक्त ठहर गया हो।
“भाई…” सुहानी की आवाज़ बहुत धीमी थी, मगर उसमें वो सब कुछ था जो शब्द नहीं कह पा रहे थे—विरह, पीड़ा, उम्मीद और प्रेम।
विशाल ने उसे और कसकर गले लगा लिया और फिर धीरे से उसका चेहरा थामते हुए, भरी हुई आवाज़ में बोला, “सुहानी, कैसी है तू? तुझसे बात करने की कितनी कोशिश की, लेकिन… मेरा फोन तक वो लोग हैक कर के बैठे हैं। हर कदम पर निगरानी रखी जा रही है। इसलिए मैंने तुझे उस दिन मना किया था कि मुझे कॉल या मैसेज मत करना। मैं नहीं चाहता था कि तुझे कोई और मुसीबत आ जाए… लेकिन तुझसे बिना बात किए, एक-एक दिन काटना कितना मुश्किल था, मेरी गुड़िया।”
उसकी आवाज़ कांप रही थी। उसकी आंखों में सिर्फ़ अपनी बहन के लिए प्यार ही नहीं, अपराधबोध भी था—जैसे वो अपनी बहन को अकेला छोड़ने का पछतावा कर रहा हो। सुहानी ने उसके कंधे पर सिर रख दिया, और उसकी आँखों से बहते आँसू विशाल के सीने को भिगोते रहे।
उस पल में, दोनों भाई-बहन ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उनके दिलों ने एक-दूसरे से बहुत कुछ कह डाला।
सुहानी ने अपने भाई को जकड़े हुए अपनी आँखें मूंद लीं। बीते कई दिनों से जमा हो रखी पीड़ा, घुटन और अकेलापन अब आँसुओं के ज़रिए बाहर आ रहा था। उसके अंदर जो तूफान था, वो शब्दों में ढलने की कोशिश कर रहा था। उसका गला रुंधा हुआ था, लेकिन भावनाएँ इतनी तीव्र थीं कि वो खुद को रोक नहीं सकी।
“भाई…” उसने धीरे से कहा, और उसकी आवाज़ काँप रही थी, “मैंने भी आपको बहुत मिस किया। आप तो जानते हैं न…उन लोगों ने माँ को किडनैप कर लिया है। उसी का डर दिखा कर उन्होंने आपको धमकाया…और बाउजी के खिलाफ गवाही देने पर मजबूर किया। वो गवाही… जिसने सब कुछ तोड़ कर रख दिया। माँ नहीं हैं…बाउजी जेल में हैं… और आप भी…”
वो एक पल को रुकी, उसकी साँसें तेज़ हो गईं। आँसू अब एक के बाद एक बहते जा रहे थे, उसने विशाल को और कसकर पकड़ लिया।
“और जब आपने मुझे वो मैसेज भेजा… जिसमें आपने कहा था कि आप मुझसे कुछ दिन बात नहीं कर पाएँगे…मुझे आपको कोई कॉल या मैसेज नहीं करना चाहिए…तो भाई, मैं सच में बिल्कुल अकेली पड़ गई थी। मुझे लगा जैसे मेरी दुनिया ही खत्म हो गई हो। जैसे मैं किसी अंधेरे कुएँ में गिर गई हूँ, जहाँ से बाहर निकलने की कोई उम्मीद नहीं है।”
उसकी आवाज़ टूट रही थी, लेकिन हर शब्द दिल से निकल रहा था। विशाल ने उसकी पीठ सहलाई, और उसकी आँखें नम हो गईं।
“माफ़ कर दे मेरी गुड़िया,” विशाल ने खुद को संभालते हुए कहा, “अगर मेरे हाथ यूँ बँधे ना होते…अगर वो लोग माँ की जान को खतरे में ना डालते…तो क्या मैं तुझसे ऐसे दूर रह सकता था? मेरी तो हर सांस में तू ही थी…हर दिन बस ये सोचता रहा कि तू कैसी होगी, तुझ पर क्या बीत रही होगी…लेकिन मैं मजबूर था, गुड़िया… बेबस था…”
सुहानी ने अपना चेहरा उठाया, उसके आँसू अब भी रुके नहीं थे, लेकिन उसके होठों पर एक हल्की, सच्ची मुस्कान आ गई। उसने अपने भाई की आँखों में देखा और धीमे से कहा, “मैं जानती हूँ, भाई….मैं सब जानती हूँ।”
उस एक पल में, सिर्फ़ एक बहन का विश्वास और एक भाई की मजबूरी—और उनके बीच का वो रिश्ता—जो हालातों की जंजीरों से भी टूट नहीं सकता था। गले से लग कर भाई के कंधों पर सुकून पा रही सुहानी की नज़र अचानक सामने गई। सामने कुछ दूरी पर एक पेड़ के सहारे कोई खड़ा था—बिलकुल स्थिर, जैसे किसी गहरे सोच में डूबा हो। उसकी बाहें सीने पर क्रॉस थीं और चेहरा हल्की रोशनी में साफ़ दिखाई दे रहा था….वो विक्रम था।
सुहानी ने पल भर को अपनी पलकें झपकाईं। उसके मन में हलचल होने लगी, वो हर बार जब इस शख्स को देखती थी….उसे धोखा, चालाकी और साज़िश नज़र आती थी। लेकिन आज… आज कुछ अलग था।
वो फिर से उसे गौर से देखने लगी। विक्रम की आँखें…हाँ, वो चमक नहीं रही थीं। उनमें कोई नर्मी थी, कोई चुप सी टीस…और शायद—आँसू। सुहानी के ज़हन में एक ही सवाल कौंधा—"क्या मैंने सही देखा?"
“नहीं… नहीं, ये मुमकिन नहीं। अँधेरा है… शायद मेरी आँखों को धोखा हुआ है,” उसने खुद से कहा, और नज़रें फेर लीं, पर दिल मानने को तैयार नहीं था।
“वो क्यों रो रहा होगा मेरे लिए?” उसने मन ही मन खुद से पूछा।
“क्या ये वही विक्रम है जो रणवीर जैसे इंसान से मिला हुआ है? जिसने मुझे इस चक्रव्यूह में फसाया? जो एक बार पहले भी मुझे धोखा दे चुका है? क्या आज उसकी आँखों में वाकई मेरे लिए पछतावा था…या बस कोई नई चाल?”
विचारों की इस तेज़ आँधी में फँसी सुहानी का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। भरोसा और अविश्वास के बीच झूलती उसकी आँखें फिर से विक्रम की ओर उठीं—लेकिन इस बार भावनाओं की जगह संदेह गहरा था।
सुहानी की भौंहें सिकुड़ गईं, उसकी आँखों में अचानक तीव्र गुस्सा उभर आया। वो धीरे-धीरे विशाल से दो कदम पीछे हटी, उसकी निगाहें अब सीधे विक्रम पर टिकी थीं, जो अब भी शांत खड़ा था, जैसे उसके शब्दों का इंतज़ार कर रहा हो।
“भाई... आप यहाँ क्या कर रहे हैं?”
उसका स्वर पहले संयमित था, पर शब्दों में कटाक्ष साफ झलक रहा था।
“और…वो भी इसके साथ?”
उसने ‘इसके’ शब्द पर विशेष ज़ोर दिया, जैसे वो विक्रम को इंसान नहीं, कोई छल की परछाई मान रही हो।
“आप जानते हैं ना कि ये उस रणवीर राठौर से मिला हुआ है? उसी रणवीर राठौर से…जिसने माँ के साथ वो सब किया…जिसने हमारी ज़िंदगी को उलझा कर रख दिया।” उसकी आवाज़ अब काँप रही थी, पर उसमें क्रोध की गर्मी थी।
“इसने मुझे एक बार पहले भी उल्लू बनाने की कोशिश की थी, भाई। और अब... अब शायद आपको भी बना रहा है।”
उसने एक तीखी नज़र विक्रम पर डाली, जो अब भी नज़रे झुकाए खड़ा था—ना कोई सफाई, ना कोई बहाना। बस अपने पैरों से ज़मीन पर पड़े सूखे पत्तों को इधर उधर कर रहा था। उसकी आँखों में उस वक्त विक्रम के लिए सिर्फ़ आक्रोश था—एक ऐसा आक्रोश जो विश्वासघात की पीड़ा से जन्मा था। वो आक्रोश जो छल की हर परछाई को मिटा देना चाहता था।
विक्रम और विशाल दोनों ने सुहानी की आँखों में वो भड़कता ग़ुस्सा देखा, वो दुख, जो धीरे-धीरे ग़लतफहमियों की परतें ओढ़ चुका था। विशाल ने गहरी सांस ली, उसकी बहन की आँखों में उस लड़ाई का अक्स था जो वो अकेले लड़ रही थी। उसने धीरे से उसकी ओर कदम बढ़ाया।
“सुहानी… गुड़िया,” विशाल ने बेहद कोमलता से कहा, जैसे एक टूटी हुई आत्मा को थामने की कोशिश कर रहा हो, “तुझे विक्रम के बारे में कोई ग़लतफहमी हो गई है।”
उसके स्वर में विश्वास था—भाई का, जो सच जानता था; और ममता थी—उस भाई की, जो चाहती थी कि उसकी बहन अब और किसी गलत दिशा में न भटके।
“गुड़िया… उसे इस तरह ग़ुस्से में घूरना बंद करो।”
विशाल ने एक कदम आगे बढ़कर खुद को सुहानी और विक्रम के बीच खड़ा कर दिया। उसके स्वर अब पहले से ज़्यादा दृढ़ था, पर उसमें भाई की चिंता और समझ भी छिपी थी।
सुहानी ने कुछ पल के लिए अपनी तीखी निगाहें हटाकर अपने भाई की आँखों में देखा। अब उसके चेहरे पर ग़ुस्से की जगह उलझन थी—एक गहरी, तकलीफ़देह उलझन। जैसे उसके भीतर सवालों का तूफ़ान उठ खड़ा हुआ हो।
“भाई…” वो धीरे से फुसफुसाई, मगर उसके शब्दों में एक टूटे हुए विश्वास की टीस थी।
“आप…आप इसकी तरफ़दारी कर रहे हैं?” उसकी आवाज़ अब काँपने लगी थी।
“क्या आपको अंदाज़ा भी है कि इसने क्या किया है? इसने...”
उसकी बात अधूरी ही रह गई, जैसे उसे खुद यक़ीन नहीं था कि वो अब आगे क्या कहे। शायद दिल टूट चुका था, या शायद सच और झूठ के बीच की रेखा धुंधली हो गई थी।
“इसने तुझे प्रोटेक्शन देने के अलावा और कुछ भी नहीं किया, सुहानी।”
विशाल की आवाज़ अब सख़्त थी। पहली बार उसने अपनी बहन की बात को बीच में काटा था—लेकिन सिर्फ़ इसलिए कि वो उसे ग़लतफहमी की गहराई में डूबने से बचा सके।
“क्या कहा आपने?” उसने फटी-फटी आँखों से विशाल की ओर देखा…..“प्रोटेक्शन?”
उसकी आवाज़ अब टूटी हुई थी—जैसे किसी ने उसके विश्वास के काँच को एक झंकार के साथ तोड़ डाला हो। उसके भीतर की सारी नाराज़गी, सारा गुस्सा जैसे पल भर को थम गया था। उसकी जगह अब सिर्फ़ एक सवाल रह गया था—क्या मैं वाक़ई सब कुछ ग़लत समझती रही?
सुहानी ने अपने भाई के चेहरे की ओर देखा। वहाँ एक अजीब सी गहराई थी—जैसे वो कोई बहुत बड़ा बोझ उठाए खड़ा हो, जो अभी तक उसने साझा नहीं किया था।
“भाई… आप ये क्या कह रहे हैं?” सुहानी की आवाज़ अब धीमी पड़ चुकी थी, लेकिन उसमें भ्रम साफ़ झलक रहा था। “आपको कैसे यक़ीन है… कि ये बदल गया है? क्या आपने वो सब नहीं देखा, जो इसने किया था?”
विशाल ने एक पल को आँखें बंद कीं। जैसे खुद को संयमित रखने की कोशिश कर रहा हो। फिर उसने धीरे से कहा—
“मैं जानता हूँ कि विक्रम ने बहुत कुछ किया…और बहुत कुछ छुपाया भी। पर हर कहानी के दो पहलू होते हैं, सुहानी….तूने बस वो पहलू देखा, जो तुझे दिखाया गया…लेकिन एक सच्चाई वो भी है, जो छुपा दी गई थी।”
सुहानी ने अविश्वास से विशाल को देखा, “क्या मतलब?”
विशाल ने सुहानी का हाथ थामा और बोला, “गुड़िया…विक्रम वो अकेला इंसान है जिसने उस दिन माँ को बचाने की कोशिश की थी। रणवीर के लोगों ने माँ को जिस जगह रखा था, वहाँ की जानकारी मुझे उसी ने दी थी। लेकिन अगर वो उस वक़्त खुद सामने आता…तो उसका भी अंजाम शायद हमारी तरह ही होता।”
अब तक शांत खड़ा विक्रम धीरे-धीरे आगे आया। उसकी आवाज़ में थरथराहट थी, लेकिन आँखों में सच्चाई थी।
“मैं जानता हूँ, सुहानी, मैंने बहुत कुछ खो दिया है—तुम्हारा भरोसा तो सबसे पहले। और शायद मैं ये दोबारा डिज़र्व भी न करता हूँ… लेकिन सच यही है कि जब मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।”
वो रुक गया, जैसे शब्द उसके गले में अटक गए हों। फिर उसने एक साँस ली और आगे कहा—
“तुम्हें फँसाने का इरादा कभी नहीं था मेरा… लेकिन हाँ, शुरू में मैं रणवीर के साथ था। क्योंकि मैं नहीं जानता था कि जो कहानी उसने मुझे सुनाई, वो अधूरी थी। जब सच्चाई सामने आई… तो मैंने सबसे पहले तुम्हारी माँ को बचाने की कोशिश की। तुम मुझसे नफ़रत कर सकती हो, लेकिन मुझे अब तुम्हारी नज़रों में खुद को सच साबित करना है… बस एक बार मुझे मौका देकर देखो।”
सुहानी चुप रही, उसका दिल उथल-पुथल कर रहा था। मन अभी भी नहीं मान रहा था, पर भाई के शब्द, विक्रम की आँखों में नमी…कुछ तो अलग था, सुहानी आगे कुछ कहती कि तभी…अचानक जंगल में दूर से एक कर्कश आवाज़ गूंजी—किसी की टॉर्च गिरने की आवाज़… फिर कदमों की आहट। विशाल ने चौक कर पीछे देखा।
“हमें अब यहाँ से चलना होगा,” उसने जल्दी से कहा “वो लोग पास आ रहे हैं।”
विक्रम ने तुरंत अपने जैकेट की जेब से एक छोटी सी डिवाइस निकाली और बोला, “इससे उनका ट्रैकिंग सिग्नल कुछ मिनटों के लिए ब्लॉक हो जाएगा…जल्दी चलो, मेरे पास एक गुप्त रास्ता है।”
सुहानी ने एक बार फिर उसे देखा—इस बार उसकी आँखों में संदेह नहीं, बल्कि एक नई जिज्ञासा थी।
क्या वाकई ये वही विक्रम था?
क्या ये उसका नया रूप था या एक और मुखौटा?
कौन कर रहा था उनका पीछे?
जानने के लिए पढ़ते रहिए… 'रिश्तों का क़र्ज़'!
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