हवेली के सन्नाटे में अंधेरे की चादर लिपटी हुई थी। रात गहराती जा रही थी और हवाओं में एक रहस्यमयी सनसनी घुली हुई थी। विक्रम, सुहानी और विशाल को लेकर गेस्ट हाउस के पीछे बने पुराने स्टोर रूम की ओर बढ़ रहा था। दीवारों पर जालों की महीन परतें और फर्श पर बिछी धूल की चादर इस हिस्से के लंबे समय से बंद पड़े होने की गवाही दे रही थी।

"यही है वो रास्ता," विक्रम ने धीमी आवाज में कहा, अपनी टॉर्च की रोशनी सामने डालते हुए। स्टोर रूम की एक दीवार के कोने में लगी लकड़ी की अलमारी को हटाते ही एक संकरा-सा रास्ता उभर आया। यह वही पुराना सीक्रेट कॉरिडोर था जो हवेली के किचन के स्टोर रूम तक जाता था—कभी घर के स्टाफ द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला शॉर्टकट।

तीनों उस पतले रास्ते में एक-एक कर के दाखिल हुए। रास्ता संकरा और दमघोंटू था, छत नीची और दीवारें नमी से सीलन भरी थीं। उनकी साँसें गूंजती आवाज़ों की तरह दीवारों से टकरा रही थीं। कुछ दूरी तय करने के बाद, अंततः वे किचन के स्टोर रूम के पास पहुंचे। लेकिन जैसे ही विक्रम ने दरवाज़ा खोलने की कोशिश की, वह अटका हुआ मिला।

 

"दरवाज़ा लॉक है," उसने चिंतित स्वर में कहा….क्षणभर को सन्नाटा पसरा, फिर कुछ ऐसा हुआ जो अजीब भी था, और दिल को छू लेने वाला भी।

विशाल ने अपनी जेब से वॉलेट निकाला और बड़ी सहजता से उसमें से एक हेयरपिन निकाली। ठीक उसी वक़्त, सुहानी ने अपने बालों में खोंसी हुई पिन को निकाला और दरवाज़े की ओर एक आत्मविश्वासी चाल से बढ़ी। दोनों जैसे ही दरवाज़े के पास पहुंचे, उन्हें एहसास हुआ कि वे एक ही वक़्त में एक ही काम करने जा रहे हैं। उनके कदम एक साथ रुके, दोनों के हाथों में पिन थी—एक ही इरादा, एक ही तरीका।

कुछ पलों तक बस खामोशी रही—ना कोई शब्द, ना कोई हरकत। सिर्फ़ दो लोगों के बीच एक अनकहा जुड़ाव, जैसे सालों की यादों को एक पल ने फिर से ज़िंदा कर दिया। जैसे बचपन की कोई स्मृति, कोई पुराना खेल, अचानक सामने आ गया हो।

विशाल की आँखों में एक चमक उभरी और फिर उसकी हँसी फूट पड़ी—मासूम, साफ़, और सच्ची।

 

"तू भी न..." उसने हँसते हुए कहा।

सुहानी भी मुस्कुराने लगी…उसकी मुस्कान में राहत थी, अपनापन था। जैसे दिनों बाद कोई टूटा रिश्ता फिर से जुड़ने की कोशिश कर रहा हो। हवा की ठंडक में भी उस पल की गर्माहट महसूस हो रही थी।

"चलो," विशाल ने अपनी हँसी रोकते हुए कहा, "इस दरवाज़े को हमारी टीमवर्क की ज़रूरत है।"

"टीमवर्क?" सुहानी ने मुस्कराते हुए पूछा।

"हाँ, तू लॉक घुमा, मैं सुनूँगा क्लिक की आवाज़," वह बोला।

"जैसा हम बचपन में करते थे?" सुहानी की आवाज़ में nostalgia झलक रहा था।

"बिलकुल वैसे ही," विशाल ने मुस्कुरा कर जवाब दिया। और फिर दोनों झुककर दरवाज़े की कुंडी के पास बैठ गए….अपने-अपने तरीके से, लेकिन एक ही मकसद के साथ।

 

दोनों भाई-बहन उस दरवाज़े की ओर झुके, जैसे बरसों पहले झुका करते थे—बचपन की उन शरारतों में, जब हवेली के बड़े-बुज़ुर्गों की नज़रों से छुपकर वो अपनी दुनिया बसाया करते थे। वही पुरानी ट्रिक, वही हेयरपिन, वही अंदाज़। और हैरानी की बात यह थी कि इतने सालों बाद भी दोनों को वो तरकीब बिल्कुल अच्छे से याद थी। जैसे वक़्त ने बहुत कुछ छीना हो, लेकिन ये एक चीज़ अब भी उनके अंदर जिंदा थी…उन्हें जोड़े हुए थी।

सुहानी ने उसकी ओर देखा—आँखों में हल्की नमी, लेकिन होठों पर फिर वही पुरानी मुस्कान और तभी विक्रम ने भी बातचीत में कूदते हुए कहा, “और लगता है, आजकल ये ट्रिक काफी इस्तेमाल में भी लाई जा रही है, सुहानी?”

वो दोनों उसकी टांग खींच रहे थे, जैसे पुराने दिन फिर से लौट आए हों….सुहानी फिर मुस्कुराई। पर इस बार उसकी मुस्कान में एक हल्की सी उदासी की छाया थी—जैसे कोई खुशी जो पूरी तरह महसूस नहीं की जा सकती। फिर भी, वो मुस्कराई…क्योंकि उन दो चेहरों में वो अपनापन था, जो ज़िन्दगी के सबसे अंधेरे दौर में भी एक चिंगारी जैसा जलता है।

"Let me do it!" विशाल ने कहकर धीरे से सुहानी के हाथ से पिन ले ली और दरवाज़े की ओर बढ़ गया। वो झुका, दरवाज़े के पुराने लॉक को उसी सफाई से खोलने लगा जैसे बचपन में करता था—उसकी उंगलियों की चाल में आज भी वैसी ही निपुणता थी।

सुहानी थोड़ी पीछे होकर खड़ी हो गई, पर उसकी नज़र विशाल की झुकी हुई पीठ पर टिकी थी। वही विशाल…जो हमेशा उसका रक्षक रहा था। जिसने बचपन में उसकी हर गलती को अपनी हँसी में छुपा लिया था। अब इतने बरसों बाद, जब वो इतने करीब थे, तो भी एक दूरी उनके बीच चुपचाप खड़ी थी—वक़्त की, हालातों की, और हाल ही की जुदाई की।

 

उसने धीमी आवाज़ में पूछा, जैसे कोई नाजुक धागा खींच रही हो—"भाई... हम फिर कब मिल सकेंगे? मुझे आपकी बहुत याद आती है।"

विशाल का हाथ वहीं रुक गया, पर उसकी उंगलियाँ अब भी लॉक पर थीं। उसने धीरे से अपना सिर उठाया और सुहानी की आँखों में देखा। उन नज़रों में केवल दर्द नहीं था, एक अटूट अपनापन भी था—वो भरोसा जो केवल अपने खून पर होता है।

"जब तू चाहेगी" उसने सधे हुए लहजे में कहा।

फिर एक पल रुक कर उसने अपनी बात दोहराई, इस बार थोड़े और दृढ़ शब्दों में, जैसे हर अनकहे डर को मिटाना चाहता हो—"जब भी तू चाहेगी।"

उसके स्वर में ऐसा यकीन था, जो वक़्त और हालात से परे था। सुहानी के लिए वो शब्द सिर्फ दिलासा नहीं थे, वो एक वादा था—कि चाहे दुनिया उसके खिलाफ हो, उसका भाई हमेशा उसके साथ रहेगा।

सुहानी की आँखें नम होने लगीं, पर होंठों पर एक हल्की सी मुस्कान आ गई। एक ऐसी मुस्कान जो सिर्फ अपनों के भरोसे से आती है।

 

“और अगर कभी आपको ऐसा कुछ पता चले...” सुहानी की आवाज़ थरथरा रही थी, “...जिससे हमारे इस भाई-बहन के रिश्ते के सारे मायने बदल जाएं…आप तब भी मुझे अकेला नहीं छोड़ेंगे ना, भाई?”

सुहानी के दिल में उस अनकहे सच का बोझ था—उसकी माँ की वो सच्चाई, जो शायद विशाल को सुहानी से दूर कर दे। विशाल अब भी दरवाज़े की कुंडी पर झुका था, पर उसकी उंगलियाँ थोड़ी थम सी गईं। उसने हल्की सांस छोड़ी और कहा— “जैसे कि ये…कि हमारा खून का रिश्ता नहीं है?”

उसकी आवाज़ में कोई झटका नहीं था, कोई आरोप नहीं... बस एक सुकून था, जैसे उसने वो बोझ पहले ही दिल में उतार लिया हो। उसकी आँखें अब भी ताले पर थीं, लेकिन उसकी हर भावना, हर सोच, अब सुहानी की ओर थी। सुहानी की साँसें अटक गईं, उसकी आँखें चौड़ी हो गईं, जैसे किसी ने उसका सबसे गहरा डर बिना पूछे पढ़ लिया हो।

“आपको... पता था?” उसकी आवाज़ फुसफुसाहट जैसी थी, लेकिन उसमें तूफान था।

विशाल की आँखों में वही अपनापन था, वही ठहराव, जो हमेशा से उसका था। उसने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा—“हमेशा से जानता था, सुहानी…” विशाल की आवाज़ धीमी मगर भारी थी। “मैं कभी नहीं भुला…कि मेरा वजूद क्या है। लेकिन रिश्ते खून से नहीं…दिल से बनते हैं और तू मेरे दिल का हिस्सा है…हमेशा रहेगी।”

 

एक खामोशी उनके बीच छा गई—गहरी, मगर सुकून से भरी। सुहानी की आँखों से आँसू निकल आए, लेकिन उन आँसुओं में डर नहीं, भरोसा था। उसके भाई ने उसे खोने के डर से नहीं, बल्कि उनके उस पवित्र भाई बहन के रिश्ते से भरा था। उसके शब्दों में न कोई शिकायत थी, न ही कोई हीनता…सिर्फ एक शांत acceptance थी, जिसने वर्षों से छिपी एक सच्चाई को उजागर कर दिया। सुहानी की साँसें तेज़ हो गई थीं, जैसे किसी ने अचानक उसकी दुनिया की दीवारें हिला दी हों।

विशाल ने उसकी उखड़ती साँसों की आहट सुनी और धीरे-धीरे दरवाज़े के सामने से उठकर उसकी ओर बढ़ा—जैसे किसी बिखरते रिश्ते के टुकड़ों को फिर से संभालना चाहता हो।

“आपने मुझे कभी बताया क्यों नहीं?” सुहानी की आँखें अब भी shock से चौड़ी थीं, और उसमें ताज्जुब के साथ एक गहरी चोट भी थी। वो चाह रही थी कि ये सब एक झूठ हो, कोई गलतफहमी। लेकिन विशाल की आँखों में जो सच्चाई थी, उसने उस भ्रम की आखिरी दीवार भी तोड़ दी।

विशाल सुहानी के एकदम सामने आकर खड़ा हो गया। उसकी आँखें अतीत में कहीं डूब गई थीं।

“क्योंकि मैं जानता था कि एक दिन तू बड़ी होगी... सवाल पूछेगी। और उस दिन मैं तुझसे झूठ नहीं बोल पाऊँगा।” उसने गहरी साँस ली। “मैं कभी नहीं भूला... वो दिन जब माँ—हमारी माँ—और मुझे जन्म देने वाली, मंदिरा माँ... दोनों मेरे सामने साथ खड़ी थीं। दोनों उस दिन घर से साथ कहीं जा रही थीं, एक वादा लेकर—कि मैं तेरा और अपना हमेशा ध्यान रखूँगा।”

उसकी आवाज़ उन यादों की भावनाओं से भर आईं थी, लेकिन वो थमा नहीं।

“और फिर... जिस दिन वो एक्सीडेंट हुआ... जब उन्होंने हमेशा के लिए हमें छोड़ दिया... उस दिन मैंने अपना सब कुछ खो दिया था। माँ... पहचान... और बचपन का हर सहारा।”

कुछ देर तक सिर्फ खामोशी रही। उस ख़ामोशी में दर्द था, टूटी हुई यादें थीं, और दो दिलों के बीच पनपती एक नई समझ। सुहानी के चेहरे पर आँसू की एक पतली सी लकीर उतर आई थी। लेकिन उसमें सिर्फ दुख नहीं था…उसमें अपनापन भी था। उसने धीरे से विशाल का हाथ थामा—काँपते हुए, लेकिन पूरे यकीन के साथ।

“आपने कभी अपना वादा नहीं तोड़ा, भाई...” उसने कहा, धीमे मगर साफ़ स्वर में। “और मैं भी वादा करती हूँ…चाहे कुछ भी हो जाए…आप कभी अकेले नहीं होंगे।”

“मगर फिर...” विशाल की आँखों में एक पुरानी याद की परछाईं उभर आई। “मगर फिर तूने मेरा हाथ ऐसे ही थाम लिया…और अपनी तोतली जुबान में बोली, ‘भाई, भूख लगी है।’” विशाल की मुस्कान में उस पल की मासूमियत झलक रही थी।

“तेरा वो नन्हा सा चेहरा…बड़ी-बड़ी आँखें…और वो टूटी-फूटी बोली…उस पल ने मेरी दुनिया ही बदल दी थी, सुहानी। मैं रोना भूल गया, डरना भूल गया। पहली बार उस दिन मैं मुस्कुराया था...क्योंकि मुझे समझ आ गया था, कि अब मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे पास मेरी छोटी सी गुड़िया है…मेरी अपनी, प्यारी सी बहन।”

उसने एक पल के लिए सुहानी की आँखों में झाँका—वो आँखें जो इस समय भर आई थीं, मगर उसमें अब एक सुकून भी था।

“आज भी तू वही है, और हमेशा रहेगी। चाहे दुनिया कुछ भी कहे, सच यही है—तू मेरी बहन थी, है…और रहेगी। इस हक़ीक़त को कोई रिश्ता, कोई खून, कोई सच्चाई नहीं बदल सकती।”

 

वो एक कदम आगे बढ़ा और अपना हाथ सुहानी के गाल पर रख दिया। उसका स्पर्श गर्म था, भरोसे से भरा हुआ, “और जहां तक तुझे बताने की बात है…तो ज़रूरत ही नहीं पड़ी, सुहानी क्योंकि तेरा और मेरा रिश्ता किसी सफाई या स्पष्टीकरण का मोहताज नहीं था। तुझे मैं दिल से बहन मानता हूँ, यही मेरी सबसे बड़ी सच्चाई है।”

विशाल की आवाज़ अब और भी दृढ़ हो गई थी। उसकी आँखों में एक दृढ़ नफरत भी झलक रही थी, जो दिग्विजय राठौर के नाम से जुड़ी थी।

“हो सकता है…मेरी रगों में उस दिग्विजय राठौर का खून दौड़ता हो... मगर उससे मेरा कोई रिश्ता नहीं है। न कभी था, न होगा। मैं उसका कुछ भी नहीं…और वो मेरा कुछ भी नहीं। मेरा परिवार तू है, सिर्फ तू…बस तू।”

सुहानी अब फूट पड़ी थी। मगर वो आँसू डर या दुख के नहीं थे—वो उस अनमोल रिश्ते की पुष्टि थे, जो खून से नहीं, दिल से बना था।

सुहानी का दिल जैसे अचानक भर आया, उसकी आँखें नम थीं और उसके अंदर इतने दिनों से छुपा हुआ वो डर अब शब्दों का रूप लेने को मचल रहा था। वो एक झटके में आगे बढ़ी और विशाल से कसकर लिपट गई। उसकी बाँहों में जैसे उसने वो सारी उलझनें, डर, और तकलीफ़ छोड़ दीं, जो वो इतने समय से अपने अंदर दबाए हुए थी।

उसने रोते हुए कहा, “मैं बहुत डर गई थी, भाई…बहुत ज़्यादा। मुझे लगा…अगर आपको ये सच पता चल गया… अगर आपको पता चल गया कि आप... दिग्विजय राठौर की औलाद हैं... तो आप टूट जाएंगे। और मुझसे... मुझसे नफरत करने लगेंगे।” उसकी आवाज़ काँप रही थी, आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।

विशाल एक पल के लिए स्तब्ध रह गया, लेकिन फिर उसने सुहानी को और भी ज़ोर से अपने सीने से लगा लिया। जैसे वो उसे यकीन दिलाना चाहता हो कि अब कुछ भी उसे इस रिश्ते से अलग नहीं कर सकता।

“ऐसा कभी नहीं हो सकता, सुहानी,” विशाल की आवाज़ गहरी थी, मगर उसमें इतनी सच्चाई और अपनापन था कि किसी भी डर को पिघला दे। “कभी भी नहीं, एक पल के लिए भी नहीं।” उसने सुहानी के सिर पर हाथ फेरा, उसकी पीठ थपथपाई और अपने होंठ उसके माथे से लगा दिए।

“हमारा रिश्ता खून से नहीं, प्यार से बना है और प्यार कभी इतना कमजोर नहीं होता कि सच से टूट जाए।”

 

 

क्या विक्रम सच में सुहानी को बचा रहा था? 

कौन कर रहा था उन तीनों का पीछा? 

क्या सुहानी बच कर राठौर मेंशन वापस पहुँच पायेगी?

जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।

 

 

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