विक्रम, कुछ दूरी पर खड़ा, भाई-बहन के उस मिलाप को देख रहा था, जो कई दिनों बाद उन्हें एक-दूसरे के इतने करीब लाया था। सुहानी और विशाल के चेहरे पर आंसुओं की लकीरें बह रही थीं, और उनकी आँखों में वो सारे ग़म, वो सारे सवाल तैर रहे थे, जो वर्षों तक अनकहे रह गए थे।

विक्रम के मन में एक अजीब सी हलचल थी—सहानुभूति और हल्के से हास्य की मिली-जुली भावना। कुछ पलों तक वो इस मिलन को चुपचाप देखता रहा, जैसे कोई पुरानी अधूरी तस्वीर अब जाकर पूरी हुई हो। लेकिन फिर, अपनी आदत के मुताबिक माहौल को हल्का करने की मंशा से, उसने एक चुटीली टिप्पणी की।

“तुम दोनों भाई-बहनों का मेल-मिलाप हो गया हो तो अब आगे बढ़ें?” उसने मजाकिया अंदाज़ में कहा, “इतने आँसू बहा लिए हैं कि लगता है यहाँ बाढ़ ही आ जाएगी।”

उसके शब्दों ने एक क्षण के लिए वह भावनात्मक माहौल तोड़ दिया। सुहानी और विशाल ने एक साथ सिर घुमाकर उसकी ओर देखा और लगभग एक ही स्वर में कहा, “Shut up, विक्रम!”

 

उसके बाद, दोनों थोड़ा पीछे हट गए, जैसे अपने जज़्बातों पर फिर से काबू पा लिया। विशाल ने एक लंबी सांस ली और उस पुराने दरवाज़े की ओर बढ़ गया, जिस पर अब तक ताला जड़ा था। उसने फिर से उस पिन की मदद से ताला खोलने की प्रक्रिया शुरू कर दी।

चारों ओर सन्नाटा था, बस पिन के घुमाव और धातु के हल्के से रगड़ की आवाज़ सुनाई दे रही थी। कुछ ही सेकंड्स में एक स्पष्ट ‘क्लिक’ की आवाज़ आई, और ताला खुल गया।

विशाल ने विक्रम और सुहानी की ओर देखा, उसकी आँखों में एक हल्का-सा गर्व और तसल्ली की चमक थी। उसने धीरे से, आत्मविश्वास से भरे हाथों से दरवाज़े को धक्का दिया। पुराना दरवाज़ा चरमराता हुआ खुला और सामने अंधेरे में डूबा एक छोटा-सा स्टोर रूम नज़र आया, जो किचन के बगल में था।

तीनों भीतर घुस गए, दीवारों पर जमी धूल और मकड़ी के जाल इस बात के गवाह थे कि इस जगह को वर्षों से किसी ने छुआ भी नहीं था। तभी अचानक, सुहानी के फोन में एक हल्की-सी बीप की आवाज़ गूंजी। उसने झट से फोन निकाला…स्क्रीन पर एक नोटिफिकेशन चमक रहा था—मीरा का मैसेज।

 

उसने तुरंत मैसेज खोलकर पढ़ा:

“कितना और वक्त लगेगा? मैं बस कुछ ही देर कैमरा सिस्टम के साथ छेड़छाड़ कर सकती हूँ, इसके बाद अगर किसी को शक हो गया तो सब बर्बाद हो सकता है। जल्दी करो, सुहानी।”

सुहानी का चेहरा गंभीर हो गया। उसकी आँखों में हल्की चिंता उभरी। उसने फोन का स्क्रीन दोनों लड़कों की ओर घुमाई और धीमे स्वर में कहा, “मीरा का मैसेज है…वो पूछ रही है कि मुझे अपने कमरे में लौटने में और कितना वक्त लगेगा। उसका कहना है कि वो कैमरा फुटेज के साथ अब ज़्यादा देर तक छेड़खानी नहीं कर सकती। अगर किसी को शक हो गया, तो सब गड़बड़ हो सकता है।”

ये सुनते ही विक्रम ने चौंककर उसकी ओर देखा। उसके चेहरे की मस्ती अचानक गायब हो गई, आँखें थोड़ी बड़ी हो गईं और माथे पर हल्की सिलवटें उभर आईं।

"मीरा?" उसने नाम दोहराया, जैसे यकीन न हो रहा हो कि सुहानी, उसी मीरा की बात कर रही है।

फिर उसकी आवाज़ में संदेह और गुस्से की मिली-जुली लहर उभर आई।

“आर यू श्योर, सुहानी?” उसने तीखे लहजे में पूछा, “क्या तुम्हें सच में भरोसा है उस पर कि वो वाकई में बदल चुकी है और तुम्हारी मदद करना चाहती है? तुम कहीं ये तो नहीं भूल गई कि उसने तुम्हारे साथ क्या किया था?” विक्रम ने तीखे स्वर में सवाल किया।

“मैं कुछ नहीं भूली, विक्रम,” उसने ठंडे लेकिन स्पष्ट स्वर में कहा, “मैं जानती हूँ कि मीरा ने क्या किया था…कैसे उसने मुझे अपमानित किया, और मेरी मजबूरी का मज़ाक उड़ाया। मैं सब याद रखती हूँ।”

उसने धीरे लेकिन दृढ़ स्वर में कहा, मानो विक्रम को उसके ही पुराने धोखे की याद दिला रही हो। फिर वो एक पल रुकी, मानो खुद से भी कुछ कह रही हो, और बोली,

“लेकिन कभी-कभी, दुश्मनों से लड़ने के लिए हमें उन्हीं के हथियारों की ज़रूरत पड़ती है। मीरा की नीयत पर अभी भी पूरी तरह यकीन नहीं है मुझे…लेकिन अगर उसे मौका देकर हम ये सच्चाई हासिल कर सकते हैं, जो इतने सालों से हमसे छिपाई गई है, तो मैं वो रिस्क लेने को तैयार हूँ।”

विक्रम उसकी बातों को ध्यान से सुन रहा था। लेकिन उसके चेहरे पर अब भी संदेह की लकीरें थीं, उसने गहरी सांस ली और कहा, “मैं तुम्हारी बहादुरी की कद्र करता हूँ, सुहानी। लेकिन ये मत भूलना कि इस खेल में हर मोहरा दोहरा खेल सकता है और मीरा हमेशा से चालाक खिलाड़ी रही है”

सुहानी ने गहरी सांस ली, और फिर बिना हिचकिचाहट, तीखे लेकिन संयमित स्वर में कहा:

“मैं कुछ भी नहीं भूलती, विक्रम… किसने, कब, कैसे, और क्यों धोखा दिया—सब याद है मुझे।”

वो सीधे विक्रम की आँखों में देख रही थी, मानो वो सिर्फ मीरा की बात नहीं कर रही हो—बल्कि उन पुराने दिनों की भी बात कर रही हो, जब विक्रम ने भी उसे अकेला छोड़ दिया था, उसे धोखा दिया था।

विक्रम का चेहरा कुछ पल के लिए ढीला पड़ गया। जैसे किसी ने उसका नाम लेकर उसका पुराना अपराध उसे दोबारा गिनवा दिया हो। उसकी आँखों में पछतावा साफ झलक रहा था।

“हाँ… हाँ, मैं समझ गया,” उसने नज़रें चुराते हुए कहा, पर उसकी आवाज़ में शर्म और दर्द का अजीब-सा मेल था….कुछ पल चुप्पी छाई रही। उस चुप्पी में वो सब अनकहे सवाल और अधूरे जवाब तैर रहे थे, जो समय की परतों के नीचे दबे थे।

 

फिर अचानक, विक्रम ने कदम आगे बढ़ाया….उसकी आवाज़ अब पहले से ज़्यादा नरम, पर सच्ची लग रही थी।

“सुहानी,” उसने धीमे स्वर में कहा, “एक बात बताना चाहता हूँ तुम्हें… मैं तुम्हें कभी धोखा नहीं देना चाहता था। यकीन मानो, मैंने जो भी किया—वो तुम्हें इस राठौर परिवार के चंगुल से बचाने के लिए किया। हर मोड़ पर, हर फैसले में मैं यही चाहता था कि तुम इन लोगों की साज़िशों से दूर रहो… आज़ाद रहो।”

उसकी आवाज़ में अब अफसोस का बोझ था। वो सच बोल रहा था, लेकिन बहुत देर हो चुकी थी। सुहानी की आँखें नमी से भर आईं, पर वो अब भी स्थिर खड़ी थी। उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी खामोशी ही उसका जवाब थी—शब्दों से ज़्यादा तीखी, और भावनाओं से ज़्यादा गूंजती हुई।

“हाँ, क्यों नहीं?”

सुहानी ने विक्रम की सफाई पर एक कड़वाहट से हँसते हुए कहा। उसका हँसना न खुशी का संकेत था और न ही माफ़ी का—बल्कि वो हँसी थी एक ऐसे इंसान की, जो बहुत कुछ सह चुका हो और अब किसी भी सफाई या बहाने पर भरोसा नहीं करता।

उसके चेहरे पर कटाक्ष साफ़ झलक रहा था। “कितनी आसानी से कह देते हो कि तुमने मेरा भला चाहा, जबकि तुम्हारे एक फैसले ने मुझे बरसों की तकलीफ दी,” उसकी आँखें जल रही थीं—गुस्से से, दुख से और टूटी हुई उम्मीदों से।

उसने विक्रम की तरफ तीखी नज़र डाली, जैसे उसकी आत्मा में उतर कर वो सारे जवाब निकाल लेना चाहती हो, जिनका हक़ कभी सुहानी का था।

मगर इस बार, विक्रम ने न नज़रें चुराईं, न पीछे हटने की कोशिश की। वो भी उतनी ही गहराई से सुहानी की आँखों में देखता रहा, जैसे अब वो हर कटाक्ष, हर तंज, और हर सवाल का सामना करने को तैयार हो।

तभी विशाल ने बीच में बोलते हुए कहा, “सच कह रहा है वो, सुहानी। वो तो कभी सपने में भी तुम्हें चोट पहुँचाने के बारे में नहीं सोच सकता, सुहानी विक्रम कभी तुम्हें चोट नहीं पहुँचा सकता था। लेकिन उसे क्या पता था कि जिससे उसने सारी ज़िंदगी प्यार किया, वही लड़की इस खेल का सबसे बड़ा मोहरा बन जाएगी।”

वो थोड़ा रुका, फिर धीमे स्वर में बोला, “तुम्हें याद है ना, तुम नाराज़ थी कि मैंने तुम्हारी शादी में हिस्सा क्यों नहीं लिया? मैं कहाँ चला गया था उस नकली शादी के दिनों में? मैं दिल्ली आया था, विक्रम से मिलने। हम दोनों इस खेल को समझने की कोशिश कर रहे थे। बाऊजी हार मान चुके थे, और हम लड़ाई का रास्ता ढूँढ रहे थे। हम बेबस थे, सुहानी। सच जानने की कोशिश में हम दोनों ने बहुत कुछ खो दिया। हम दोनों ही तुम्हें उस आग से बचाना चाहते थे, लेकिन जब तक समझ आया… बहुत देर हो चुकी थी।”

सुहानी स्तब्ध सी खड़ी रह गई। उसकी समझ से बाहर था कि ये सब बातें उसे अब क्यों बताई जा रही हैं।

“आप ये सब क्या बोल रहे हैं भैया?” सुहानी का गला भर आया था। उसकी आँखों में उलझन थी, चेहरा सफेद पड़ गया था। विशाल की बातों ने उसके दिल में तूफ़ान ला दिया था, और अब विक्रम की ओर से आया ये नया खुलासा उसके पैरों तले ज़मीन खिसकाने जैसा था।

“उस दिन तुमने कहा था ना, कि किसी के लिए मर्डर कैसे सही हो सकता है, तुमने मुझसे पूछा था कि मुझे ये रास्ता सही कैसे लगा सकता है, जबकि मेरी माँ ने खुद मेरे पापा का मर्डर किया था... उस सवाल का जवाब आज मैं तुम्हें देना चाहूंगा।”

 

विक्रम का चेहरा एक अजीब कशमकश से भरा था। उसकी आँखों में आँसू नहीं थे, लेकिन उसमें सालों से दबा हुआ दर्द साफ़ झलक रहा था।

“तुमने पूछा था, और मैं चुप रह गया था। क्योंकि उस वक़्त सच बोलने की हिम्मत नहीं थी मुझमें। लेकिन अब…अब जब सब कुछ दांव पर लगा है, तो तुम्हें पूरी सच्चाई जाननी होगी।”

सुहानी अब सीधे विक्रम की आँखों में देख रही थी। वहाँ कोई घमंड, कोई छल नहीं था—सिर्फ़ टूटे हुए सच का बोझ और एक अधूरा रिश्ता। विक्रम ने एक पल को साँस भरी, जैसे एक पत्थर सीने से हटाना हो, और फिर कहा:

“जो कहानी तुमने सुनी थी… वो अधूरी थी, अधूरी ही नहीं, झूठ थी। मेरी माँ ने मर्डर नहीं किया था, उसे ऐसा करने पर मजबूर किया गया था और इस खेल के पीछे भी राठौर ही थे… वही लोग, जिन्होंने तुम्हें मोहरा बनाया… और मुझे गुनहगार।”

सुहानी अब भी कुछ नहीं बोली पर उसकी आँखों में एक हलचल थी। शायद पहली बार, उसे विक्रम की खामोशी की गहराई समझ आ रही थी।

 

बाहर की दुनिया कुछ पल के लिए दूर हो गई थी। उसे अब लगने लगा था कि वो जिस ग़लतफहमी के जंगल में अकेली भटक रही थी, वहां उसके अपने भी कहीं न कहीं साथ थे—छिपे हुए, छटपटाते हुए।

उसकी आंखों में एक बार फिर नमी तैरने लगी, पर इस बार वो आंसू शिकायत या ग़ुस्से के नहीं थे। ये आंसू थे राहत के, कड़वे सच को स्वीकारने के, और उस बोझ को थोड़ा हल्का करने के जो वर्षों से उसने अपने भीतर सँभाल रखा था।

सुहानी ने धीरे से विशाल की ओर देखा, फिर विक्रम की ओर—दोनों की आंखों में सच्चाई, पछतावा और एक नया संकल्प चमक रहा था। उस पल में तीनों के बीच कुछ बदल चुका था। बहुत कुछ टूटा भी था, लेकिन उन टुकड़ों में से भरोसे की एक नई नींव उभर रही थी।

उसने एक गहरी सांस ली और कहा, “शायद… शायद मुझे ही ये समझने में देर लगी कि इस खेल में हर कोई शिकार था, कोई भी पूरी तरह से दोषी नहीं था। तुम दोनों ने जो किया, वो अपने-अपने तरीके से मुझे बचाने की कोशिश थी… लेकिन मैं बस... अकेला महसूस करती रही।”

“अब नहीं,” विशाल ने उसका हाथ थामते हुए कहा “अब तुम अकेली नहीं हो।”

विक्रम ने भी आगे बढ़कर धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा, “इस बार हम सब साथ हैं। इस साज़िश का अंत अब एक नई शुरुआत होगी… सच के साथ।”

 

तीनों ने एक दूसरे की ओर देखा, और फिर उस पुराने स्टोर रूम के दरवाज़े की ओर मुड़ गए। उनकी आंखों में अब डर नहीं, बल्कि एक ठोस इरादा था और तभी उनकी नज़र….कमरे में पड़ी पुरानी फाइलें, बंद बक्से और कुछ धूलभरे दस्तावेज पर पड़ी। 

विशाल ने झुक कर एक बक्सा खोला, जिसमें कुछ जले हुए काग़ज़, एक पुराना कैमरा और एक अजीब सी सील लगी फाइल मिली।

“ये सब क्या है, और ये सब यहाँ क्या कर रहा है?” सुहानी ने फाइल को उठाते हुए कहा।

विक्रम ने तुरंत दरवाज़े की ओर नज़र डाली, “हमें जल्दी करना होगा…मीरा ने जो रिस्क लिया है, उसका फायदा उठाना होगा।”

तीनों ने जल्दी-जल्दी जरूरी दस्तावेज, कैमरा समेटा और स्टोर रूम से बाहर निकलने लगे। लेकिन उस आखिरी पल में, जब सुहानी ने कमरे को एक बार और देखा, तो उसे एहसास हुआ जैसे अब कायनात भी उसकी मदद करने की कोशिश कर रही है।

जैसे ही दरवाज़ा बंद हुआ, एक परछाई दूर खड़ी देख रही थी—शायद राठौर हवेली की कोई और रूह, जो अभी भी इस कहानी का अंत लिखने को तैयार बैठी थी। और तभी... हवेली के एक कोने में धीमे से कोई दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ आई।

खेल अभी बाकी था।

 

आखिर किसकी थी वो परछाई? 

क्या है स्टोर रूम में मिले दस्तावेज़ और कैमरा का सच? 

सुहानी सही सलामत वापस पहुँच पायेगी?

जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।

 

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