चाँद की हल्की सुनहरी रोशनी खिड़की के पर्दों से छनकर कमरे में फैल चुकी थी, लेकिन सुहानी की नींद तो मानो रात की किसी करवट में ही खो गई थी। बिस्तर पर करवट बदलते-बदलते ना जाने कितनी बार उसने नींद को पुकारा था, पर हर बार जवाब में बस वही खालीपन, वही उदासी और वही अनकहे सवाल मिले थे, जिनका उत्तर अब तक वो खुद से भी नहीं मांग सकी थी।
आखिर में थक हारकर वह बिस्तर से उठी। उसके हर कदम में थकान थी, लेकिन चेहरा संयमित था। वह धीरे-धीरे बाथरूम की ओर बढ़ी। दरवाज़ा खोलते ही ठंडी संगमरमर की दीवारों से टकराकर एक पुरानी याद फिर से दिल में दस्तक देने लगी। यह वही आलीशान बाथरूम था, जहां उसने न जाने कितनी रातें चुपचाप आंसुओं के साथ बिताई थीं—बिना किसी आवाज़ के, बिना किसी शिकायत के।
यह वो जगह थी, जहां उसकी चुप्पी उसकी सबसे बड़ी साथी बन गई थी। जहाँ उसने दीवारों से लिपटकर अपने टूटे हुए दिल के टुकड़े समेटने की कोशिश की थी। जब-जब आरव की बेरुखी और तिरस्कार उसकी आत्मा को घायल करते, वह यहीं आकर खुद को समेटती थी। उसे यकीन था कि आरव उससे नफरत करता है। और शायद, वह भी खुद से नफरत करने लगी थी…एक अजीब सी दूरी, एक अदृश्य दीवार उन दोनों के बीच खड़ी हो चुकी थी।
एक ही छत के नीचे दो टूटे हुए दिल, जो एक-दूसरे से नफरत करते हुए एक ही कमरे में रह रहे थे। इस रिश्ते का बोझ, उस पर हर दिन थोड़ा और भारी होता जा रहा था।
आईने के सामने खड़ी सुहानी ने खुद को देखा—वही चेहरा, वही आँखें, लेकिन उनमें अब वो मासूम चमक नहीं थी, जो कभी आरव की नजरों में उसे खास बनाती थी। उसकी आँखों में अब थकान थी, पश्चाताप था, और एक अंतहीन बेचैनी।
“काश,” उसने खुद से कहा, “काश अगर हम पहले कभी, किसी और परिस्थिति में मिले होते, तो शायद कहानी कुछ और होती।”
उसने एक गहरी सांस ली, पर हर सांस के साथ दर्द और अफसोस की परछाइयाँ गहरी होती चली गईं।
“मगर,” उसने सोचते हुए आईने में अपनी आंखों को गौर से देखा, “बार-बार ये सोचकर कि पहले क्या करने से या ना करने से आज क्या अलग होता, मैं बस खुद को ही परेशान कर रही हूँ… और कुछ नहीं।”
दरअसल, बात केवल आरव की बेरुखी या सुहानी की तकलीफ तक सीमित नहीं थी। बात अब दिल के उस कोने तक पहुंच चुकी थी, जहाँ पछतावा, अपराधबोध और एक असहनीय चुप्पी ने डेरा जमा लिया था।
असल में, कहीं ना कहीं सुहानी अब आरव की हालत के लिए खुद को भी दोषी मानने लगी थी।
उसने हल्की आवाज़ में खुद से कहा, “अगर…अगर मैं आरव पर भरोसा कर लेती…अगर मैं उसके इरादों को समझने की कोशिश करती… तो शायद आज उसकी ये हालत न होती…अगर मैं हर बार उससे न लड़ती…अगर उसके प्यार पर मुझे यकीन होता…तो शायद हम दोनों इतने अकेले न होते…”
उसके शब्द जैसे बाथरूम की दीवारों से टकराकर उसके दिल में उतरते चले गए, उसका गला रुंधने लगा….लेकिन उसने खुद को संभाला। उसने पल भर को आँखें मूंदी, और फिर जैसे खुद पर ही झुंझलाते हुए कहा, “नहीं! मैं ये सब खुद के साथ नहीं कर सकती…मैं अब कमज़ोर नहीं पड़ सकती…मैं टूट नहीं सकती… नहीं!”
इस बार उसकी आवाज़ में कुछ दृढ़ता थी। जैसे किसी लंबे अंधेरे से निकलने की कोशिश कर रही हो।
उसने झटपट नल खोला और ठंडे पानी के तेज़ छींटे अपने चेहरे पर मारने लगी। हर छींटा जैसे उस भावनात्मक बोझ को धो रहा हो, जो उसके कंधों पर दिनों से जमा था।
चेहरा पोंछकर वह बाथरूम से बाहर आई, और सीधे अलमारी की ओर बढ़ी। उसने एक सादा, हल्का सूट निकाला, बालों को कसकर बांधा और कपड़े बदल लिए। अब मुख्य कमरे में और रुकना ठीक नहीं था। रात को यहाँ सोना किसी खतरे से खाली नहीं। कोई भी कभी भी दरवाज़ा खोल सकता था।
आरव के कमरे से सटा हुआ ऑफिस उसे सबसे सुरक्षित जगह लगा। वहां का छोटा सोफ़ा था, कम से कम थोड़ी नींद और चैन देने वाला था। उसने अलमारी से एक पतला सा ब्लैंकेट और एक छोटा कुशन निकाला।
अभी वह अलमारी का दरवाज़ा बंद ही कर रही थी कि तभी…बाहर से किसी की आहट सुनाई दी। हल्के कदमों की आवाज़ धीरे-धीरे कमरे की ओर बढ़ रही थी।
सुहानी का दिल एक पल को धड़कना भूल गया। बिना कुछ सोचे-समझे वह फुर्ती से अलमारी के पास लगे भारी परदों के पीछे छुप गई। सांस रोक ली…जैसे हवा से भी डर लग रहा हो कि कहीं वह उसकी मौजूदगी न बयां कर दे।
कमरे का दरवाज़ा धीमे से खुला। उसके बाद भीतर कुछ ठहरे हुए धीमे बढ़ते कदमों की गूंज सुनाई दी। परदे के पीछे से सुहानी ने थोड़ी सी दरार बनाकर झाँका…वो मीरा थी।
वही मीरा, जिसने उन्हें हवेली से निकलने में मदद की थी, मगर अभी भी सुहानी को उस पर भरोसा नहीं था। आखिर वो पहले राठौर से मिली हुयी थी।
कमरे में जैसे एक रहस्यमयी सन्नाटा छा गया था। सुहानी अब भी भारी पर्दे के पीछे छुपी हुई थी, उसकी साँसें धीरे-धीरे चल रही थीं, मगर उसकी धड़कनें बेकाबू थीं। उसके सामने मीरा थी—आरव की करीबी, और सुहानी के लिए एक पहेली।
मीरा ने कमरे के भीतर इधर-उधर देखा। उसकी निगाहें फर्श से लेकर दीवारों तक घूमीं, जैसे किसी को तलाश रही हो…या शायद किसी चीज़ की पुष्टि कर रही हो।
फिर उसने धीमी आवाज़ में, लगभग फुसफुसाकर कहा, “सुहानी…क्या तुम यहाँ अंदर हो?”
सुहानी ने चौंककर अपनी भौंहें सिकोड़ लीं। उसके चेहरे पर कंफ्यूज़न साफ झलक रहा था।
“मीरा मुझे क्यों ढूंढ़ रही है? और वो भी ऐसे चुपचाप?”
उसने परदे से बाहर थोड़ा झांककर मीरा को गौर से देखा। मीरा की आँखों में कोई घबराहट नहीं थी, मगर उसकी आवाज़ में एक अजीब सी बेचैनी थी, “अगर यहां हो, तो बाहर आ जाओ, मुझे तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।”
मीरा की आवाज़ अब थोड़ी नरम, मगर दृढ़ हो चुकी थी….सुहानी अब और छुपी नहीं रह सकी। दिल में कई सवालों के बोझ लिए, वो धीरे से परदे के पीछे से बाहर निकली। उसके चेहरे पर सतर्कता थी, और आँखों में अविश्वास। मीरा ने आहट सुनी तो वह तुरंत पलटी। सुहानी को सामने देखकर उसके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान उभरी, लेकिन उसी क्षण वो मुस्कान उदासी में बदल गई।
मीरा की आँखे बहुत कुछ कहना चाहती थी, जैसे कोई बोझ था जिसे वो उतारना चाहती हो। बिना कुछ कहे, वो सुहानी की ओर बढ़ी…और उसे धीरे से गले से लगा लिया।
मीरा का यूँ गले लगना अचानक और असमंजस से भरा था। सुहानी को कुछ समझ नहीं आ रहा था — ये वही मीरा है जिसने उसे बार-बार नीचा दिखाया, अपमानित किया…फिर आज अचानक उसका यह व्यवहार?
मीरा की बाँहों में थोड़ी देर तक जकड़ी रही सुहानी, उसकी धड़कनों की गति तेज़ हो रही थी।
“क्या ये कोई नई चाल है? या वाकई मीरा को अपने किए का पछतावा है?”
मीरा के गले लगते ही कमरे की हवा थोड़ी भारी हो गई थी और सुहानी को यह एहसास हो रहा था — या तो आज कोई बड़ा राज़ खुलेगा…या फिर कोई नई साज़िश जन्म ले रही है।
मीरा अब भी सुहानी को हल्के से गले लगाए खड़ी थी। उसके स्पर्श में अजीब सी नरमी थी, पर सुहानी को उस पर अब भी विश्वास नहीं हो रहा था। मीरा कुछ कहना चाह रही थी — ये बात उसके हल्के-हल्के काँपते होंठ और तेज़ सांसें बता रही थीं। फिर कुछ पल बाद मीरा खुद को थोड़ा पीछे हटाते हुए, सीधा सुहानी की आँखों में देखती है।
उसकी आवाज़ में अब एक गंभीरता थी, जो पहले कभी नहीं थी, “मैं जानती थी कि तुम यहीं हो, सुहानी…”
उसने गंभीर आवाज़ में कहा, मानो किसी बोझ को उतार रही हो।
“आज जब मैंने सीसीटीवी फुटेज देखा, तो पता चला कि तुम उस कमरे में गई थीं—वही रूम जहाँ किसी को जाने की इजाज़त नहीं है।”
मीरा का लहजा अब और भी रहस्यमयी होता जा रहा था।
“मैं भूल गई थी कि उस कमरे में भी एक कैमरा है।”
उसने थोड़ी देर के लिए रुक कर सुहानी का चेहरा देखा।
“थैंक गॉड…किसी और ने वो फुटेज नहीं देखा।”
सुहानी की साँसें जैसे रुक गई थीं। उसके होठों से कोई शब्द नहीं निकल पा रहे थे। वो चुपचाप मीरा की बातों को ध्यान से सुन रही थी।
मीरा आगे बोली — “मैंने तुरंत उस फुटेज को कवर अप कर दिया। डिलीट नहीं किया…बस छुपा दिया, ताकि कोई शक न करे।”
“फिर मैंने हवेली के बाकी कैमरों का फुटेज भी चेक किया…पर तुम्हारे आने-जाने का कोई सबूत नहीं मिला। तुम जैसे हवा में गायब हो गई थी।”
मीरा की बातों में अब डर नहीं था, बल्कि किसी सच्चाई को बताने की बेचैनी थी।
“बस एक चीज़ दिखी — एक गाड़ी…वही गाड़ी जो सुबह हवेली के पीछे खड़ी थी। उसमें एक आदमी बैठा था। मैं समझ गई कि वो तुम्हारा आदमी था।”
उसने सुहानी की ओर झुकते हुए कहा, “सुबह तुम उसके साथ गई थी…लेकिन दोपहर के बाद वो अकेले लौटा और जब शाम को फिर आया, तो घंटों वहाँ खड़ा रहा — इंतज़ार करता रहा… तुम्हारा।”
सुहानी की आँखें मीरा के हर शब्द को जैसे समझने की कोशिश कर रही थी। उसके शब्दों के पीछे कोई चाल तो नहीं। वो कुछ कहना चाहती थी, मगर शब्दों का भार उसकी जुबां पर भारी पड़ रहा था।
“फिर उसे एक कॉल आया…और वो गाड़ी लेकर चला गया…अकेला।”
कमरे में कुछ पल के लिए एक गूंजता हुआ सन्नाटा छा गया। मीरा अब शांत खड़ी थी, पर उसकी आँखों में सवाल थे। और सुहानी…वो अब भी उसी सवाल में उलझी थी — “क्या मीरा मेरी मदद कर रही है…या सिर्फ मुझ पर नजर रख रही है?”
सुहानी की आँखों में अचानक अविश्वास की चमक उभर आई। मीरा की बातें सुनकर वो एक पल को ठिठकी, फिर धीरे-धीरे कुछ क़दम पीछे हटती गई — उसकी भौहें सिकुड़ी हुई थीं, और नज़रें सवालों से भरी थी।
"ये सब तुम्हें कैसे पता?" सुहानी की आवाज़ में अब डर और संदेह दोनों घुल चुके थे।
“वो पेड़…वो तो हवेली से काफी दूर है। तुम वहाँ कैसे…?”
फिर उसके लहजे में अचानक तीखापन आ गया, “मीरा, तुम…कहीं फिर से मुझे धमकाने तो नहीं आई हो? ये कहीं तुम्हारी कोई नई चाल तो नहीं?”
मीरा जैसे पहले से इस प्रतिक्रिया के लिए तैयार थी, लेकिन फिर भी उसके चेहरे की हल्की सी सिहरन बता रही थी कि सुहानी के शब्दों ने उसे भीतर तक हिला दिया है।
“नहीं, नहीं सुहानी…प्लीज़!”
उसने तुरंत अपने हाथ आगे बढ़ाकर मानो सुहानी को रोकना चाहा — “मैं ऐसा कुछ करने नहीं आई हूँ। ये मेरी कोई चाल नहीं है।”
उसकी आवाज़ में एक अजीब सी काँपती सच्चाई थी। “मैं जानती हूँ…मुझ पर भरोसा करना तुम्हारे लिए आसान नहीं है और शायद होना भी नहीं चाहिए। लेकिन…एक बार…सिर्फ एक बार मेरी बात सुन लो।”
मीरा का चेहरा अब शांति से नहीं, पछतावे की स्याही से रंगा लग रहा था। उसकी आँखों में गहराई तो थी, पर सुहानी को यकान नहीं हो रहा था।
“मैं उस दिन जो कुछ भी देख चुकी हूँ…”
उसकी आवाज़ धीमी हो गई —
"उसके बाद से हर दिन, हर पल…बस एक ही चीज़ मुझे सताती रही — कि मैंने कितनी बड़ी भूल की। मैं जिन पर आंख मूंदकर भरोसा करती रही, उनकी हर बात हर चाल केवल झूठ पर टिकी थी।”
“मुझे उन लोगों पर यक़ीन नहीं करना चाहिए था, जिन्होंने तुम्हारे दर्द को एक खेल समझा…और मेरी वफ़ादारी का इस्तेमाल किया।”
अब मीरा की आँखों से एक आँसू फिसलकर गाल पर गिरा, जिसे रोकने की उसने कोशिश भी नहीं की।
“मैं यहाँ तुम्हें धमकाने नहीं, खुद को साबित करने आई हूँ, सुहानी। ये शायद मेरा प्रायश्चित है — या शायद मेरी आख़िरी कोशिश।”
सुहानी उसे बिना पलकें झपके देख रही थी — उलझन, आशंका और एक दबा हुआ करुणा भाव उसकी नज़र में तैर रहा था। उसने मीरा पर एक गहरी, खामोश नज़र डाली…लेकिन कुछ कहा नहीं।
कमरे की हवा अब बोझिल हो चुकी थी — जहाँ शब्द कम थे, मगर भावनाएँ अनगिनत।
मीरा की आवाज़ अब थरथरा रही थी। उसकी आँखों में आंसू चमक रहे थे, लेकिन वो उन्हें रोकने की कोई कोशिश नहीं कर रही थी। उसकी जुबान जैसे एक भारी बोझ से आज़ाद होने को बेताब थी।
“मैंने जो किया…उसके लिए कोई माफ़ी नहीं है, सुहानी।”
उसने धीरे-से सुहानी की आँखों में झाँका, जैसे भीतर कहीं से साहस बटोर रही हो।
“मैंने आरव जैसे इंसान के साथ वो किया, जो शायद सबसे बड़ा धोखा है—मैंने उसे प्यार के झूठे सपने दिखाए…और वो भी इतने सालों तक। पर अब मैं सब कुछ बदल देना चाहती हूँ, तुम्हारा साथ देना चाहती हूँ।
सुहानी स्तब्ध थी—न तो उसके चेहरे पर गुस्सा था, न सहानुभूति—बस एक गहरी शांति और एक असमंजस।
मीरा को पेड़ के पास खड़े आदमी और सब के बारे में कैसे पता?
क्या वो सच में अपनी गलती मान रही है या फिर ये सब एक नाटक है?
क्या सुहानी यकीन करने की भूल फिर करेगी?
जानने के लिए, पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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