उस तस्वीर को देखते हुए सुहानी की आँखों के सामने धीरे-धीरे धुंधलाए हुए कुछ पुराने पल फिर से जीवित हो उठे। अपने शादी के दिन का वो दृश्य — वो पल जब उसकी ज़िन्दगी हमेशा के लिए बदल गई थी। उस दिन की हल्की धूप, वो गुलाबी रंग की चूड़ियाँ, मेहंदी की भीनी-भीनी खुशबू — सब कुछ उसे एक फिल्म की तरह याद आने लगा।
वो सुहानी, जो शादी से पहले, एक अलग ही इंसान थी — एक चहकती हुई, मुस्कुराती हुई, सपनों से भरी मासूम सी लड़की।
उसके बाउजी अक्सर प्यार से कहा करते थे, “तू बिलकुल उस कली जैसी है बेटा, जो मुस्कुराती है तो जैसे पूरा बगीचा खिल उठता है।”
सुहानी के चेहरे पर तब हर वक्त रोशनी खेला करती थी। उसकी हँसी में जैसे एक जादू था, जो उदासी को भी पल भर में मिटा देती थी। मगर आज…आज वो कली मुरझा चुकी थी। उसके चेहरे पर अब वो पुरानी चमक नहीं थी। उसकी आँखों में वो बेफिक्री नहीं थी, बल्कि अब वहाँ एक अजीब सी स्थायी उदासी घर कर गई थी।
कई दिन, कई महीने बीत गए थे, जब वो दिल से मुस्कुराई थी। अब उसकी मुस्कुराहट सिर्फ एक दिखावा रह गई थी — एक ऐसा नकाब, जो हर पल उसके भीतर के टूटे हुए सपनों को छुपाता था। उसके चेहरे पर समय से पहले उभर आई थीं जिम्मेदारियों के बोझ की पतली, मगर गहरी लकीरें। हर लकीर एक कहानी कहती थी — संघर्ष की, बलिदान की, और उस दर्द की जिसे उसने खामोशी से सहा था।
लेकिन इन लकीरों के बीच एक और चीज़ भी पनप चुकी थी — साहस। वो अब नाजुक फूल नहीं रही थी जो हर आंधी में बिखर जाता है। अब वो एक शेरनी बन चुकी थी — एक ऐसी शेरनी, जिसे हर रोज़ दरिंदों से भरे जंगल में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी होती है। उसे मालूम था कि अब मासूमियत से काम नहीं चलेगा।
यहाँ, इस क्रूर दुनिया में, उसे अपने भीतर एक ऐसी आग जलानी होगी, जो उसे जलाए नहीं, बल्कि उसे जिंदा रखे। अब उसके पास रुकने का, टूटने का, हार मानने का कोई विकल्प नहीं था।
उसने धीरे से अपनी आँखें बंद कर लीं, और एक गहरी साँस ली — एक नई जिद, एक नई कसम के साथ — "मैं लड़ूंगी। अपने लिए, आरव के लिए, और उन सारे सपनों के लिए जो अभी अधूरे हैं।"
उस रात कमरे में पसरे हुए सन्नाटे के बीच, सुहानी की आँखों में आँसू भर आए थे, आज उसे अपने बाउजी और भाई की याद कुछ ज़्यादा ही सता रही थी। उन दोनों की मौजूदगी उसकी सबसे बड़ी ताकत थी। जब भी जिंदगी के तूफान उस पर बरसते थे, तो बाउजी और उसका भाई उसकी ढाल बन कर खड़े हो जाते थे। कभी भी उसे कमज़ोर पड़ने नहीं देते थे। लेकिन आज, जब वो सबसे ज़्यादा टूटी हुई थी, वो दोनों उससे बहुत दूर थे — मजबूरी में बंधे हुए, लाचार।
सुहानी ने गहरी साँस ली, और दीवार से सिर टिका दिया। उसका दिल कचोट उठा "काश..."
काश, बाउजी ने वक़्त रहते उसे सब कुछ सच-सच बता दिया होता।
काश, कोई उसे समय पर आगाह कर देता, तो शायद आज बात कुछ और होती।
शायद आज वो ऐसी जंग अकेली न लड़ रही होती।
अब बाउजी जेल की सलाखों के पीछे हैं,
माँ — रणवीर की कैद में बेबस,
और भाई... भाई का तो उसने सोचना ही छोड़ दिया था।
“अगर उसे सच्चाई पता चली, तो वो टूट जाएगा...” ये ख्याल अब सुहानी के दिल में दिन-रात कांटे की तरह चुभता रहता था।
अब सबसे ज़रूरी काम था —
उस पेन ड्राइव को ढूँढ़ निकालना।
वो पेन ड्राइव जिसमें उन दरिंदों के सारे राज़ छुपे थे।
वो पेन ड्राइव जो उसके परिवार को बचा सकती थी।
जो भाई के टूटे सपनों को शायद संभाल सकती थी।
"यहाँ तो वो पेन ड्राइव नहीं है। तो फिर आरव ने उसे कहाँ छुपाया होगा?
थोड़ी देर चुपचाप सोचने के बाद, सुहानी ने धीरे से अपना फ़ोन उठाया। उंगलियाँ काँप रही थीं, लेकिन दिल में एक नई दृढ़ता थी। उसने शमशेर का नंबर डायल किया….पहली ही रिंग पर कॉल उठ गया।
फोन के दूसरी तरफ से शमशेर की आवाज़ बेचैन और घबराई हुई थी —
“हेलो! सुहानी? बेटा वहाँ सब ठीक है ना? तुम ठीक हो ना? आरव ठीक है ना? वो…ज़िंदा तो है ना?”
इन शब्दों में, इस चिंता में, उसे एक बाप की छवि दिखाई दी — एक ऐसा इंसान, जो लाख तूफ़ानों के बावजूद आज भी दूसरों की फिक्र करना नहीं भूला।
आरव के लिए इतनी सच्ची परवाह देखकर, सुहानी की आँखों में हल्की सी नमी उतर आई। कम से कम आरव के लिए कोई तो ऐसा था जो सच्चे दिल से उसकी सलामती चाहता था।
सुहानी ने गहरी साँस ली और खुद को संयमित रखते हुए कहा — "जी अंकल, वो ठीक हैं…बस अभी बेहोशी की हालत में हैं। उम्मीद है कि उन्हें जल्द ही होश आ जाएगा।"
फोन के उस पार से कुछ राहत भरी खामोशी आई। फिर तुरंत ही शमशेर की आवाज़ दोबारा गूंज उठी, इस बार एक पिता की बेचैनी में चिंता घुली हुई थी — “और तुम? बेटा, तुम कहाँ हो? वहाँ से सही-सलामत बाहर निकल गई ना?”
सुहानी ने एक पल के लिए अपनी आँखें बंद कर लीं। वो जानती थी कि उसे अब अपने मन की उलझनों को शब्दों में पिरोना ही होगा। धीमे लेकिन ठहरे हुए स्वर में उसने कहा — “यही बात बताने के लिए आपको कॉल किया था, अंकल।”
“मैंने इस कमरे के हर कोने को छान मारा है। हर दराज, हर अलमारी... सब देख लिया। यहाँ पेन ड्राइव का कोई निशान नहीं मिला। यहाँ तक कि आरव के लैपटॉप पर भी चेक किया, पर वहाँ भी कोई बैकअप फाइल नहीं मिली।"
कुछ पल के लिए सुहानी चुप हो गई, जैसे खुद को सज़ा दे रही हो उस असफलता के लिए। “अब या तो अंकल, वो बैकअप उनके हाथ लग चुका है, या फिर वो पेन ड्राइव ही गायब हो गई है।” उसके शब्द टूटते हुए निकले।
“मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूँ कि अब क्या करूं…वो पेन ड्राइव मिलना बहुत जरूरी है। बहुत जरूरी...” उसके स्वर में एक अजीब सी बेबसी और हार की झलक थी, जैसे उसके कंधों पर बसी सारी दुनिया का बोझ उसे झुका रहा हो।
फोन के उस तरफ भी कुछ पल के लिए खामोशी छा गई थी — एक बोझिल, भारी खामोशी, जिसमें दोनों अपनी-अपनी असहायता में डूबे हुए थे।
फोन के दूसरी तरफ से शमशेर की आवाज़ बेहद नर्म हो गई थी, उसके लहजे में एक पिता की चिंता साफ झलक रही थी — "कोई बात नहीं बेटे, तुम अब वहाँ से बाहर निकलो। तुमने बहुत कुछ कर लिया, अब और नहीं। बच्चे, अगर तुम उनके हाथ लग गई तो हालात और बिगड़ सकते हैं। प्लीज़... अब सुरक्षित वहां से निकल आओ।"
सुहानी ने होंठ भींच लिए। उसके भीतर कुछ घुट रहा था — एक ऐसी जिद, जो तसल्ली से ज्यादा सच्चाई चाहती थी।
वो चुपचाप अपनी उंगलियाँ फोन के कोने पर फेरती रही, फिर धीमे और डरे हुए स्वर में बोली — "अंकल... मैं यहाँ कुछ दिन और रुकूंगी।"
शमशेर के स्वर में तुरंत घबराहट तैर गई — “क्या मतलब? सुहानी, तुम्हें अंदाज़ा भी है कि अगर वो लोग तुम्हें पकड़ लेते हैं तो क्या होगा?” उनकी आवाज में भय और चेतावनी दोनों गूंज रहे थे।
"Trust me अंकल…मुझे पता है," उसने थकी हुई आवाज में कहा। “और मैं आपको ये बताने के लिए ही कॉल कर रही थी।” उसकी आवाज़ अब काँपने लगी थी, लेकिन उसने खुद को संभाला।
उसके भीतर सालों से दबे हुए जज़्बात अब शब्द बन कर बाहर आने लगे — "मेरे बाउजी ने मुझे कभी सच नहीं बताया। कभी ये नहीं बताया कि हमारा अतीत इतना ज़हरीला भी हो सकता है। मुझे मेरी माँ के बारे में कभी किसी ने कुछ भी नहीं बताया। आरव का हाल भी कुछ मेरी तरह ही है…वो भी पूरी ज़िंदगी अंधेरे में भटकता रहा।"
सुहानी का गला रुंधने लगा था, फिर भी उसने अपनी बात पूरी की।
"आज…आज हम सब इस हालत में हैं, क्योंकि किसी ने भी वक़्त रहते हमें सच बताना ज़रूरी नहीं समझा। किसी ने भी हमें तैयार नहीं किया उन आँधियों के लिए जो हमारी ओर बढ़ रही थीं। अगर हम जानते…अगर हमें सच मालूम होता, तो शायद हम लड़ पाते…या शायद ये दिन…कभी आता ही नहीं।"
फोन के दोनों ओर खामोशी छा गई थी — एक भारी, कसकती हुई खामोशी, जिसमें दो टूटे हुए दिल, एक अधूरी दुनिया को बचाने के लिए जूझ रहे थे।
सुहानी ने गहरी सांस ली, जैसे अपने भीतर की सारी तकलीफ़, सारी नाराज़गी को लफ्ज़ों की धार दे दी हो। उसकी आवाज में अब एक अद्भुत दृढ़ता थी, जिसे कोई झुठला नहीं सकता था। "खैर, हमें कुछ ना बताने का फैसला आप लोगों का था, और अब मेरा फैसला ये है — मैं अपने पति को इस हालत में छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी।"
उसके शब्दों में एक शांत, मगर अडिग जिद थी…."चिंता मत करिए, मैं इन लोगों की नजरों से छुपकर यहीं रहूंगी। और जिस दिन इनके हाथ लगूंगी…पूरी तैयारी के साथ लगूंगी।"
इतना कहकर सुहानी कुछ क्षणों के लिए चुप हो गई। उसके भीतर उठता तूफान जैसे बाहर निकल कर शांति में बदल गया था। दिल थोड़ा हल्का हुआ था।
फोन के दूसरी तरफ अचानक शमशेर के मुंह से हल्की सी हंसी फिसल पड़ी। वो हंसी जैसे दर्द और गर्व का अजीब सा संगम थी — जैसे उन्हें सुहानी की इस जिद पर फक्र हो रहा हो।
"पता है सुहानी," शमशेर ने बेहद नर्म आवाज में कहा, "तुम्हारी माँ, काजल, और मैं अक्सर ये बात किया करते थे…कि जब हम दोनों के बच्चे बड़े होंगे, तो उनकी शादी करवा दी जाएगी।"
उनकी आवाज़ में पुरानी यादों की मिट्टी महकने लगी थी। "इस बात पर तुम्हारी माँ बहुत चिढ़ा करती थी। वो कहती थी, ‘तुम्हारे बाउजी जिंदा होते तो मैं उनसे खुद लड़ने जाती।’ वो हमेशा कहती थी, 'मैं अपनी बेटी को इस दलदल में फंसने नहीं दूंगी।'"
शमशेर कुछ देर को रुके, जैसे शब्दों के भार से खुद भी लड़ रहे हों…."पूर्वी के जाने के बाद, काजल ने कई बार कोशिश की थी कि आरव को भी इस गंदगी से दूर कर ले जाए। वो चाहती थी कि आरव को भी इस साजिशों भरी दुनिया से बचा ले। लेकिन...
मैंने कभी उसे ऐसा करने नहीं दिया। मैं कहता था — 'नहीं, उसका बाप अभी जिंदा है। वो मेरा बेटा है।' "
शमशेर की आवाज धीमी हो गई थी, जैसे पछतावे की चुप्पी फोन के ज़रिये गूंजने लगी हो। पछतावा, जो वक्त के साथ और गहरा हो गया था — और अब, सुहानी के सामने नंगे सच की तरह खड़ा था। फोन के उस पार एक गहरी चुप्पी छा गई थी।
शमशेर की सांसें तक भारी सुनाई दे रही थीं — जैसे बीते सालों का पछतावा उनके कंधों पर बैठकर उन्हें दबा रहा हो।
"कभी-कभी सोचता हूँ," शमशेर की आवाज टूटी हुई सुनाई दी, “अगर उस दिन मैंने काजल की बात मान ली होती, अगर उसे आरव को अपने साथ ले जाने दिया होता…तो शायद आज न तुम्हे ये सब सहना पड़ता, न आरव को।”
उनकी आवाज में इतना पछतावा था कि सुहानी का दिल भी पसीजने लगा।
लेकिन सुहानी अब कमजोर नहीं पड़ने वाली थी। वो जानती थी कि बीते फैसलों का मातम मनाने से आज की लड़ाई नहीं जीती जा सकती।
उसने फोन को थोड़ा और कसकर पकड़ा। और बेहद शांत मगर मजबूत आवाज में कहा — "अंकल, गलती किसी एक की नहीं थी। हमें ये विरासत में मिली हैं — चुप्पियाँ, अधूरे सच, और टूटी जिम्मेदारियाँ। अब इन्हें खत्म करने का वक्त आ गया है।"
एक पल को शमशेर कुछ नहीं बोले। जैसे उनके दिल के किसी कोने में सुहानी की बात ने एक नयी उम्मीद की लौ जला दी हो।
"तुम सही कहती हो, बेटा," उन्होंने धीरे से कहा, "अब वक्त है कि अधूरे सच पर से पर्दा हटे। तुम अपना ख्याल रखना, सुहानी। और अगर कभी भी जरूरत पड़ी…तो इस बार मैं तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा, किसी भी हालत में।"
सुहानी की आँखें भर आईं, लेकिन उसने खुद को संभाला। अब आंसुओं के लिए वक़्त नहीं था….लड़ाई का वक्त था।
उसने फोन काटने से पहले बस इतना कहा — "मैं वादा करती हूँ, अंकल…मैं सब कुछ ठीक कर दूंगी। अपने लिए, आरव के लिए... और उन अधूरी कहानियों के लिए भी, जो अब तक दर्द में सिसक रही हैं।"
फोन कट गया…..और कमरे में एक बार फिर सन्नाटा पसर गया।
सुहानी को जहाँ एक तरफ डर सता रहा था कि वो कहीं पकड़ी न जाये वहीं दूसरी तरफ वो ये सोच रही थी कि आरव थोड़ी देर के लिए ही सही होश में आया तो था, मगर उसने फिर सुहानी का गाला दबाने की कोशिश क्यों की? क्या उसे सुहानी, उनका रिश्ता, प्यार और संघर्ष कुछ याद नहीं? इन सब के बाद भी वो आरव के लिए वहां रुकना चाहती है और अपने परिवार के लिए रणवीर जैसे राक्षस का सामना करने की ठान चुकी है।
कैसे छुपी रहेगी सुहानी?
आखिर पेन ड्राइव कहाँ है?
आरव को होश कब आएगा, क्या वो सुहानी को भूल चुका है?
रणवीर का अगला दांव क्या होगा?
जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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