20 मिनट बाद
क्लॉक की सुई जैसे ही 09:40 PM पर पहुँचती है, पूरे ऑफिस की फिज़ा में एक अनदेखा तनाव घुलने लगता है। दिग्विजय राठौर, अपनी गाड़ी से उतरते ही, गार्ड्स और मैनेजमेंट के चेहरों पर डर की लकीरें खींचता है। हर कदम पर उसका रौब साफ झलक रहा होता है — जैसे वो अब भी खुद को इस साम्राज्य का इकलौता सम्राट समझता हो।
तेज़ और भारी कदमों से वो सीधे ऊपरी फ्लोर की तरफ बढ़ता है — बिना किसी के बीच में आये, बिना किसी से पूछे।
‘थक-थक-थक…’
हर कदम जैसे फर्श पर चोट कर रहा हो — और माहौल में सन्नाटा पिघलने लगा हो।
ग्लास डोर खुलता है — एक झटके से।
और दिग्विजय राठौर पूरे रौब के साथ सुहानी के केबिन में दाखिल होता है।
पर दृश्य... जो उसके सामने होता है, वो उसकी उम्मीदों के बिल्कुल खिलाफ होता है।
सुहानी आराम से अपनी चेयर पर बैठी होती है — कुर्सी को थोड़ा पीछे झुकाकर, एक पैर कुर्सी की सीट पर मोड़े हुए और दूसरा नीचे टिकाए हुए। हाथ में एक फाइल है, जिसे वो गौर से पढ़ रही होती है। कानों में ब्लूटूथ ईयरबड्स होते हैं, जिससे वो किसी क्लाइंट के साथ कोई मीटिंग ले रही होती है शायद। उसके चेहरे पर कोई घबराहट नहीं, कोई हैरानी नहीं — जैसे दिग्विजय का वहाँ होना, उसकी दिनचर्या का सामान्य हिस्सा हो।
दिग्विजय का चेहरा एक पल को सिकुड़ जाता है। उसकी आँखों में गुस्से की एक चिंगारी कौंधती है — ये लड़की… इसकी इतनी जुर्रत?
वो चिढ़ कर फनकारता है, “मुझे लगा था, बाप ने कम से कम इतनी तमीज़ तो सिखाई ही होगी कि जब सामने घर के बड़े — ससुरजी खड़े हों, तो कुर्सी पर यूँ पैर चढ़ा कर नहीं बैठते।”
कमरे में एक सेकंड के लिए मौन छा जाता है।
सुहानी धीरे से अपने ईयरबड्स निकालती है, बहुत ही शांतिपूर्वक फाइल को बंद करती है और फिर अपनी कुर्सी को सीधे करती है। मगर वह उठती नहीं — वो वहीं बैठी रहती है, लेकिन अब उसकी आँखें दिग्विजय की आँखों से सीधे भिड़ जाती हैं।
उसकी आवाज़ संयमित है, पर शब्दों में तल्खी की धार साफ़ झलक रही होती है, “अजीब बात है ना, राठौर साहब — जिस इंसान ने किसी की बेटी की बोली लगा दी, उसे व्यापार के सौदे में शामिल किया, जो 'बाप' शब्द को खुद कलंकित करता हो — उसी से तमीज़ की उम्मीद कर रहे हैं आप।”
एक सेकंड का सन्नाटा… और फिर सुहानी की आवाज़ और तीखी होती जाती है, “और जहाँ तक रिश्ते की बात है… जो खुद खून और रिश्तों की दलाली करता हो, वो खुद को 'घर का बड़ा' कहने लायक नहीं होता।”
दिग्विजय की मुट्ठियाँ भींच जाती हैं। चेहरा गुस्से से लाल होता जा रहा है। उसकी आँखों में सुहानी के लिए नफरत की लहरें दौड़ने लगती हैं, पर वहीं सुहानी की नज़र में एक निर्भीक आत्मसम्मान झलक रहा है — एक ऐसी आग, जो अब किसी के डर या सत्ता से नहीं बुझने वाली।
“जैसी माँ, वैसी बेटी।”
दिग्विजय का व्यंग्य अभी हवा में ही तैर रहा होता है, लेकिन सुहानी के चेहरे पर ज़रा भी असर नहीं होता। ना उसकी मुद्रा बदलती है, ना उसकी निगाहें झुकती हैं। वो अब भी उसी ठहराव के साथ उसकी ओर देख रही होती है — जैसे किसी पुराने किरदार को एक नए रंग में देखने की कोशिश कर रही हो।
और फिर—बिलकुल बिना सुगबुगाए, बिना एक भी भाव बदले, वो अपने खास अंदाज़ में जवाब देती है, “मुझे लगा था, कि आप इतने बुज़ुर्ग हो गए हैं… कम से कम दरवाज़ा नॉक करने की तमीज़ तो आप में होगी ही। But clearly… मैं गलत थी।”
उसके शब्द न शोर करते हैं, न चीखते हैं — लेकिन उनमें तंज की धार और कंट्रोल का जादू ऐसा होता है कि दिग्विजय जैसे आदमी को भी एक पल के लिए चुप करा देता है।
वो फिर अपनी ठुड्डी को हल्का सा उठाती है, और अपनी उँगलियों से सामने खड़े दिग्विजय की ओर इशारा करती है, “अब आ ही गए हैं, तो बैठ भी जाइये।”
फिर उसके लहजे में एक बेहद महीन पर तीखा कटाक्ष आता है — वो थोड़ा आगे झुकती है, जैसे कोई राज़ बताने वाली हो, और धीरे से कहती है, “अपना ही ऑफिस समझिए।”
फिर वो बिल्कुल सहजता से सीट की बैक पर टिक जाती है, उसकी कमर सीधी, कंधे पीछे तने हुए, और चेहरे पर एक चौड़ी, जानबूझकर मुस्कान उभरती है — वो मुस्कान जिसमें सम्मान का भ्रम, तिरस्कार की मिठास, और बिलकुल नपा-तुला आत्मविश्वास छिपा होता है।
कमरे में कुछ देर के लिए हवा भी चुप हो जाती है।
दिग्विजय का चेहरा बदलने लगता है — उसकी आँखों की नसें हल्की उभर आती हैं, और उसके जबड़े की रेखाएं सख्त होती जा रही हैं। वो अपनी जगह पर स्थिर खड़ा होता है, लेकिन अब पहली बार ऐसा लगता है कि इस केबिन के पॉवर डायनामिक्स बदल चुके हैं। और ये बदलाव दिग्विजय को सबसे ज़्यादा खलता है।
सुहानी की मुस्कान अब भी हवा में तैर रही थी — धैर्य और तिरस्कार का वो मेल, जो किसी तलवार से कम नहीं था।
दिग्विजय राठौर, जिसने शायद ही कभी किसी महिला को इस अंदाज़ में बोलते सुना हो, अब सुहानी को देखकर जल-भुन कर राख हो गया था। उसकी नाक के पास की रेखाएं तन चुकी थीं, माथे पर बल और साँसों की गति बता रही थी कि उसके भीतर कितना लावा उबल रहा है। उसकी नज़रें बार-बार सुहानी पर टिक रही थीं, फिर उसके खुले अंदाज़ में टिकी टांगों पर, फिर उस मुस्कान पर — और हर चीज़ उसे और अधिक परेशान कर रही थी।
“दुश्मन की बेटी… यही है वो… जिसकी औकात हम तय करते रहे… आज उसी के सामने बैठने की नौबत आ गई है?” — शायद उसके भीतर यही आवाज़ गूंज रही थी।
उसने गुस्से से अपने दाएँ हाथ की उंगलियों को मरोड़ा, जैसे किसी अनदेखे गुस्से पर काबू पा रहा हो। उसके लिए यह किसी हार से कम नहीं था — अपने ही ऑफिस में, अपनी कुर्सी के ठीक सामने, उस लड़की को देखना, जिसे वह सालों से कमज़ोर समझता आया था।
मगर तभी, जैसे भीतर कोई अलार्म बजा हो — उसे याद आया कि वो यहाँ सिर्फ अहंकार तृप्त करने नहीं, बल्कि एक बेहद जरूरी काम से आया है।उसकी साँसें और तेज़ चलने लगीं। उसने दो बार लंबी साँस खींचीं, फिर उन्हें रोक कर वापस छोड़ा — स्वयं को काबू में लाने की कोशिश की। फिर अपनी चाल में थोड़ी संजीदगी और गरिमा लाते हुए, वो बिना कुछ बोले, सामने रखी कुर्सी की ओर बढ़ा। कुर्सी खींची, और धीरे से बैठ गया।
लेकिन उसकी आँखों में अब भी आग थी — एक ऐसी आग, जिसे वक़्त और औकात ने काबू कर तो लिया था, मगर बुझाया नहीं था। कमरे में फिर से एक अजीब सी ख़ामोशी छा गई थी— तकरार शांत थी, लेकिन अब वो शब्दों से नहीं, नज़रों से खेली जा रही थी।
दिग्विजय अब कुर्सी पर बैठ चुका था, पर उसकी नज़रें अब भी सुहानी के चेहरे को टटोल रही थीं — जैसे वो हर मुस्कान के पीछे छुपे इरादों को पढ़ने की कोशिश कर रहा हो।
सुहानी चुपचाप उसे देखती रही। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं, पर आँखें चौकस थीं।
मन ही मन वह सोच रही थी — “इस आदमी के दिमाग में चल क्या रहा है? ये आया किस लिए है यहाँ? सिर्फ अपमान करने के लिए? या... कुछ और?”
और फिर…दिग्विजय की नज़रें सीधे सुहानी की आँखों में धँसती हैं, कुछ पल की चुप्पी के बाद, उसने सीधा वार किया — “तुम क्या जानती हो… मेरे बेटे और मंदिरा के बारे में?”
कमरे में सन्नाटा छा जाता है। सुहानी की पलकें कुछ पल को थमीं। जैसे किसी ने उसके भीतर की सोच को अचानक उजागर कर दिया हो। फिर उसकी नज़रें थोड़ी सी झुकती हैं, और होंठों पर एक धीमी, मगर शातिर मुस्कान आ जाती है।
उसके भीतर की आवाज़ गूंजती है — “तो ये बात है… इसलिए जनाब यहाँ तशरीफ लाए हैं… उस दिन जो मैंने एक हलका सा दांव फेका था, वो इनकी नींद उड़ा गया। यानी मेरे फेंके हुए जाल में ये बखूबी फँस गए हैं।”
उसने अपनी मुस्कान को दबाया, फिर बड़ी शांत और संयमित आवाज़ में, कुर्सी पर थोड़ी सी और टिकते हुए, दिग्विजय की आँखों में झाँकते हुए पूछा — “आपको क्या लगता है... मुझे क्या पता है?”
उसका स्वर न तो घबराया हुआ था, न ही उत्तेजित। बल्कि ऐसा जैसे कोई शिकारी अपने शिकार को जाल में उलझा देख कर, उसे और उलझने देना चाहता हो।
अब ये सिर्फ सवाल-जवाब नहीं था…ये एक सायकोलॉजिकल चेस गेम था, जहाँ दोनों चालाक थे। दिग्विजय का चेहरा थोड़ी देर तक शांत दिखाई दिया, पर उसकी आँखों में एक अलग बेचैनी थी। वो कुछ सोचता रहा, जैसे कोई पुराना ज़ख्म फिर से ताज़ा हो गया हो। फिर उसने गहरी साँस ली, और एक थके हुए पिता जैसी आवाज़ में बोला —
“तुमने उस दिन कहा था ना… कि मंदिरा और अपने बेटे को मैं आज भी ढूंढ रहा हूं या नहीं। तुमने बिल्कुल सही कहा था, मैंने आज तक उन्हें ढूंढना नहीं छोड़ा…”
उसकी आवाज़ भारी हो गई थी। “मेरी जान बसती थी उनमें, मेरे बेटे में...”
उसकी आँखों में एक पल के लिए नमी सी चमकी, पर चेहरा अब भी कठोर बना रहा।
सुहानी के चेहरे पर घृणा की लहर दौड़ गई।उसने अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं, चेहरा गुस्से से तमतमा गया। वो ज़ोर से चीखी — "और ये बात वो कह रहा है…जिसने ना जाने कितनी माओं से उनकी संतानें छीन लीं?"
कमरे की हवा जैसे काँप गई। दिग्विजय एकदम हड़बड़ा गया, उसका चेहरा फक पड़ गया। आँखें फैल गईं जैसे किसी ने उसकी कोई सबसे छुपी हुई बात उजागर कर दी हो।
“तुम्हें… तुम्हें ये कैसे मालूम?” उसने लगभग बुदबुदाते हुए पूछा, स्वर में घबराहट थी, और चेहरा अपराधबोध से थरथरा गया था।
सुहानी अब बिल्कुल स्थिर खड़ी थी। उसके चेहरे पर अब डर नहीं था — केवल निर्णय की कठोरता थी। वो जानती थी — अब ये खेल उसके हाथ में है।
दिग्विजय की घबराई निगाहें अब सुहानी के चेहरे पर टिक चुकी थीं, जहाँ क्रोध की लपटें साफ़ दिखाई दे रही थीं। लेकिन सुहानी अब अपने गुस्से को शब्दों में ढाल चुकी थी — उसकी आवाज़ में आग थी, मगर हर शब्द सोच-समझ कर चलाए गए वार की तरह था।
“मतलब आपको नहीं मालूम...” सुहानी की मुस्कान कटाक्ष से भरी थी, और स्वर में चुभन।
“कोई बात नहीं... उड़ती-उड़ती खबर आप तक भी पहुँच जायेगी…वक्त आने पर।”
वो थोड़ी देर के लिए रुकी, फिर धीरे से बोली — “मगर अभी वो ज़रूरी नहीं है...”
अब वो तन कर खड़ी हुई। उसकी आँखों में आंसू नहीं थे, सिर्फ़ आक्रोश और हिम्मत थी। “आप तो मुझे ये बताइए…मैं कैसे मान लूं ये बात कि आपकी जान बसती थी आपके बेटे में? वो इंसान जिसने ना जाने कितनों का जीवन बर्बाद कर दिया। ना जाने कितनी मासूम माओं की गोद सूनी कर दी! आपने अपनी सत्ता के लिए बच्चों को मोहरा समझा, माओं के आँचल सुने कर दिए, बेक़सूरों की चीखें अनसुनी कर दीं...”
अब उसका चेहरा लाल हो चुका था, साँसें तेज़, पर लहज़ा अब भी सीधा और स्पष्ट।
“और अब आप मेरे सामने बैठ कर कह रहे हैं कि 'आपकी जान बसती थी आपके बेटे में?'…शर्म नहीं आती ये कहते हुए?”
कमरे में एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। दिग्विजय की आँखें झुकीं, पर उसका चेहरा अब भी पत्थर बना रहा। मगर सुहानी जानती थी — उसकी बातों ने असर किया है। क्योंकि किसी भी ज़ालिम के लिए सबसे बड़ा आईना वो होता है, जब उसके अपराध उसके ही सामने दोहराए जाएँ।
दिग्विजय राठौर की आँखों में अब गुस्से की लाली थी। उसका चेहरा तमतमाया हुआ था और मुट्ठियाँ भींची हुई थीं। सुहानी के तीखे शब्द जैसे उसके घमंड को चीरते चले गए थे। वो बर्दाश्त नहीं कर सका — उसके अहंकार को चुनौती दी गई थी।
“ऐ लड़की, तमीज़ से बात कर...”
उसकी भारी, गूंजती आवाज़ कमरे में गूंज उठी। चेहरा भयावह हो उठा — जैसे बरसों से दबी आग अब लपट बन कर बाहर आ गई हो।
मगर सुहानी डरी नहीं। उसके चेहरे पर एक विचलित होती मुस्कान उभरी — ऐसी मुस्कान जो किसी योद्धा की होती है, जो युद्ध से पीछे नहीं हटता।
वो कुर्सी से उठ खड़ी हुई, उसकी आँखें अब सीधे दिग्विजय की आँखों पर थीं। और आवाज़... इतनी ठंडी, लेकिन धारदार, जैसे बरफ की तरह चुभने के लिए कहे गए हों।
“दिग्विजय राठौर…आवाज़ नीचे।”
हर शब्द मानो उसके सीने में हथौड़े की तरह बजा।
“वरना एक कॉल पर गार्ड्स को बुलाऊँगी, और धक्के मारकर आपको इस ऑफिस से बाहर निकलवा दूंगी।”
एक पल को सन्नाटा छा गया।
दिग्विजय जैसे अपने ही भीतर सिमटने लगा हो। इतने सालों में पहली बार किसी ने उसे उसकी ही ज़मीन पर इस तरह ललकारा था। कमरे की हवा में अब सिर्फ़ एक ही चीज़ थी — सुहानी की हिम्मत और उसकी आँखों में जमी वो आग, जो दिग्विजय जैसे तूफानों को भी शांत कर दे।
आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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