दिग्विजय की आँखों में अब गुस्से की जगह कुछ और था — एक बेजान सी थकान, एक हार मानता हुआ पिता। सुहानी के सख्त लहजे ने उसे झकझोर तो दिया था, लेकिन अब वो खुद को संभालने की कोशिश कर रहा था।
वो कुछ पल सुहानी की ओर देखता रहा... फिर गहरी साँस भर कर अपनी गरिमा को समेटते हुए धीमी आवाज़ में बोला, “प्लीज़... अगर तुम्हें मंदिरा और मेरे बेटे के बारे में कुछ भी मालूम है, तो मुझे बता दो।”
उसकी आवाज़ में पहली बार कोई खौफ नहीं था, न ही गुरूर... सिर्फ़ एक पिता की बेबसी थी।
“तुम जो कहोगी, मैं करूँगा। बस... बस बता दो की वो कहाँ हैं।”
सुहानी, जो अब तक अपनी कुर्सी के पीछे आराम से खड़ी थी, थोड़ा आगे झुकी। उसकी एक भौं हल्के से ऊपर उठी — जैसे किसी शिकारी को शिकार खुद जाल में फँसता दिख रहा हो।
“तो आपने आखिरकार घुटने टेक ही दिए?”
वो मन ही मन मुस्कराई — ‘ये तो मेरे काम को और भी आसान बना देगा।’
फिर वो धीमे से बोली, “ठीक है।”
एक शब्द — लेकिन कमरे में गूंज उठा। दिग्विजय की आँखों में अचानक चमक दौड़ गई — जैसे किसी ने बुझते चिराग़ में फिर से तेल डाल दिया हो।
“ठीक है? यानी... यानी तुम कुछ जानती हो? तुम जानती हो कि वो कहाँ हैं?”
उसने अधीरता से कुर्सी के आगे झुक कर पूछा, आवाज़ में एक बार फिर तड़प और उम्मीद उभर आई। “बताओ मुझे... प्लीज़, सुहानी...” अब उसकी आवाज़ में वो रौब नहीं था, जो दिग्विजय राठौर की पहचान थी — अब वहाँ एक ऐसा बाप खड़ा था, जो अपनी खोई हुई दुनिया ढूँढ रहा था।
सुहानी की आँखें अब और तेज़ चमक रही थीं — जैसे वो खेल अब उसके हाथ में हो, और मोहरे उसकी उँगलियों पर नाच रहे हों।
“अरे अरे... इतनी भी क्या जल्दी है ताऊजी?” सुहानी ने उसकी उतावली को रोकते हुए बड़े ही शातिर अंदाज़ में कहा।
“आपने ही तो कहा था, कि जो मैं कहूँगी, आप करेंगे... है न?” उसकी आवाज़ में मीठी मुस्कान के नीचे गहरा व्यंग्य छिपा था।
वो उसकी आँखों में झाँकते हुए बोली, “तो फिर मेरी बातें ध्यान से सुनिए... ताउ जी”
दिग्विजय अपनी उंगलियाँ बेचैनी से अपने घुटनों पर रगड़ने लगा। उसके चेहरे पर हावी हो रही थी घबराहट और अधीरता। मगर फिर उसने अपनी आँखें बंद कीं — जैसे गुस्से की उठती लहर को अपने भीतर ही रोक रहा हो।
कुछ पल की खामोशी के बाद उसने धीरे से कहा, “बोलो... तुम्हें क्या चाहिए? पैसे? ताकत? अधिकार? जो माँगो, दूँगा। मैंने ज़िंदगी भर बहुत पैसा कमाया है। जितना बोलोगी, उतना मिलेगा।”
उसकी आवाज़ में अब गिड़गिड़ाने की नरमी थी। लेकिन सुहानी ने उसकी बात पर एक तेज़ ठहाका लगाया — वो ठहाका जो सुनने वाले के आत्मसम्मान को चीर देता है।
“अरे ताऊजी... पैसों का लालच?” उसने आंखें नचाते हुए कहा, “वो तो मुझे कभी रहा ही नहीं। लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि आरव को जो झूठ आप इतने दिनों से सुना रहे हैं... उसी झूठ पर अब खुद भी यकीन कर बैठे हैं आप?”
वो अब उसकी ओर झुक कर बोली, “यही कि मैं इस घर में पैसे और प्रॉपर्टी के लिए आई थी? कि मैं लालची हूं? कि मैं किसी की चाल का मोहरा हूं?”
फिर सुहानी ने सीधा उसकी आँखों में देखते हुए तंज कसा, “अब सच का सामना करने का वक्त है ताऊजी — और इस बार मोहरे आप हैं... और चाल मेरी।”
दिग्विजय अब खुद को रोक नहीं पा रहा था। उसकी आवाज़ में अधीरता और बेचैनी छलक रही थी — “तो क्या चाहिए तुम्हें? साफ-साफ बोलो!”
सुहानी ने उसकी हड़बड़ाहट का भरपूर आनंद लेते हुए अपनी ठुड्डी पर एक ऊँगली रख ली। फिर आँखें ऊपर की ओर घुमाकर सोचने का नाटक करते हुए बोली — “हम्म… क्या चाहिए मुझे? क्या… चाहिए मुझे?”
वो अब नाटकीय अंदाज़ में अपनी कुर्सी पर थोड़ा झूलने लगी — जैसे किसी कॉमेडी शो की मंच-संयोजिका हो जो दर्शकों को और भी लटका कर उनके धैर्य की परीक्षा ले रही हो।
“सोचने दीजिए ना ताऊजी… इतनी भी क्या जल्दी है?”
उसने जानबूझ कर शब्दों को खींचते हुए कहा। फिर अचानक उसने एक चुटकी बजाई — जैसे किसी खजाने की जगह उसे याद आ गई हो।
"याद आया!" वह मुस्कराई…मगर उसकी मुस्कान में शरारत नहीं, शिकार पर पकड़ बनाने की खुशी थी।
“मुझे चाहिए... एक छोटा सा काम, बड़ा ही मामूली-सा।”
उसने अपनी उँगलियों से 'छोटा' का इशारा करते हुए कहा, मगर दिग्विजय की साँसें पहले ही तेज़ चलने लगी थीं। उसका दिल समझ गया था कि — ये ‘मामूली’ काम ही उसकी नींदें उड़ाने वाला होगा। सुहानी ने अब अपने चेहरे को एकदम गंभीर बनाकर उसकी ओर झुकते हुए कहा, “लेकिन जो माँगने जा रही हूँ, वो आपकी दौलत के तराजू में नहीं तौला जा सकता।”
सुहानी की मुस्कुराहट अब गायब हो चुकी थी। उसकी आँखों में अब एक अलग ही दृढ़ता थी — जैसे वो अब कोई खेल नहीं, बल्कि न्याय की लड़ाई लड़ रही हो। वो अपनी कुर्सी से तनिक आगे झुकी, और मेज़ से एक सादा पेपर उठाया। फिर एक काले रंग का पेन उसकी सतह पर रखा और बिना पलक झपकाए उसे दिग्विजय की ओर सरका दिया।
"चलिए..." उसने गहरी साँस ली, “आपके पास पाँच मिनट हैं, बड़े राठौर साहब। इस कागज़ पर जल्दी-जल्दी उन सारे ठिकानों के नाम लिखिए, जहाँ आप अपने ये अवैध काले धंधे चलाते हैं।”
उसने एक निगाह अपनी घड़ी पर डाली, और फिर सख्त लहज़े में जोड़ा, “टाइम इज़ रनिंग…मैं कहीं अपना इरादा ना बदल लूं।”
दिग्विजय उसकी तरफ इस तरह देखता रहा, जैसे वो उसके साथ कोई बचकाना मज़ाक कर रही हो। उसकी आँखों में अविश्वास, नाराज़गी और डर की एक जमी हुई परत तैरने लगी।
“त...तू मज़ाक कर रही है?” उसने हकला कर पूछा।
लेकिन सुहानी का चेहरा अब संगमरमर की तरह कठोर था। उसने एक ऊँगली से घड़ी की स्क्रीन पर टैप करते हुए कहा, “चार मिनट बचे हैं।”
फिर कुर्सी से थोड़ी पीछे होकर उसने दोनों हाथ सीने पर बाँध लिए।
“ताऊजी... मैं आपको एक मौका दे रही हूँ। सब कुछ खोने से पहले कम से कम एक गुनाह का प्रायश्चित कर लीजिए। वरना मैं जानती हूँ, ये सब भी मैं किसी और तरीके से निकलवा सकती हूँ। बस... तरीका थोड़ा ‘कम शालीन’ होगा।”
अब दिग्विजय का चेहरा तमतमा उठा था। उसके माथे पर पसीने की एक बूँद लुढ़कती हुई गाल तक पहुँच चुकी थी। उसकी साँसें भारी होने लगी थीं। एक तरफ उसका घमंड था — तो दूसरी तरफ उसका डर कि कहीं ये लड़की सच में वो सब कुछ जानती हो, जिसे वो अब तक छुपाता आया है।
सुहानी अब भी शांत, मगर सख्त स्वर में दोहराती है — “तीन मिनट।”
दिग्विजय एक पल को सुन्न बैठा रहा। लेकिन सुहानी की घड़ी की टिक-टिक उसके भीतर डर की सुइयाँ चुभो रही थी। जैसे किसी ने उसकी रगों में बहता घमंड छीन लिया हो। धीरे से, जैसे उसके हाथों में जान ही न बची हो, वो पेन उठाता है। उसकी उँगलियाँ काँप रही थीं — मगर अब शायद वो समझ चुका था कि उसके पास कोई और रास्ता नहीं बचा है।
फिर उसने सिर झुका लिया…और एक के बाद एक, नाम, पते, शहर, ठिकाने... सब इस सफेद कागज़ पर काले अक्षरों में उतरते चले गए। कमरे में सन्नाटा छा गया था — बस उसकी कलम की खड़खड़ाहट थी, और सुहानी की तेज़ होती साँसें।
दो मिनट... एक मिनट... तीस सेकंड…
जैसे ही दिग्विजय ने आखिरी लाइन लिखकर कागज़ पलटा — सुहानी की नज़र उस पर गई, और उसकी साँसें थम गईं।
पूरा पन्ना... नहीं, पन्ने के पीछे भी…इतने सारे नाम, इतने सारे ठिकाने। हर एक नाम एक गुनाह की कहानी था। हर एक ठिकाना — एक चीख़, एक टूटी हुई माँ की गोद, एक उजड़ा हुआ बचपन।
सुहानी का चेहरा फक पड़ गया। उसकी उंगलियाँ काँपने लगी। एक अजीब सी सिहरन उसकी रीढ़ की हड्डी में दौड़ गई। वो चाहकर भी अपनी आँखों को नम होने से नहीं रोक पाई। उसकी पलकों के कोनों से एक-एक आँसू ढुलक पड़े।
मगर जैसे ही दिग्विजय ने सिर उठा कर उसकी ओर देखा…सुहानी ने फौरन अपने आँसू पोंछ लिए। उसे कमज़ोर नहीं दिखना था।
“अब खेल शुरू होगा...” उसने खुद को मन ही मन कहा, और अपनी पुरानी आत्मविश्वास से भरी मुस्कान ओढ़ ली।
कितना वक़्त बीता? सुहानी को अब इसका कोई होश नहीं था। घड़ी की सुइयाँ घूमती रहीं, कमरे में वक़्त बहता रहा — मगर सुहानी की निगाहें अब बस एक ही जगह टिक गई थीं… दिग्विजय के चेहरे पर। वो देख रही थी — एक घमंडी, निर्दयी राक्षस कैसे एक लाचार इंसान में तब्दील हो चुका था। अगला पन्ना भी भर गया।
दिग्विजय ने थकी हुई साँस के साथ पेन नीचे रखा और फिर अपने कांपते होंठों से कहा, “अब बताओ… कहाँ हैं वो लोग?”
सुहानी ने उसकी आँखों में झाँका — फिर एक ठंडी, तल्ख मुस्कान के साथ कहा, “तुम जैसे हैवान से बहुत दूर।”
वो काग़ज़ बिना एक पल गंवाए उठा लेती है — जैसे किसी युद्ध में कोई सेनापति जीत का ध्वज उठाता है। फिर उसने मोबाइल निकाला, कैमरा ऑन किया, काग़ज़ की तस्वीर खींची, और सीधे उस एन्क्रिप्टेड ग्रुप में भेज दी जहाँ उसके अपने लोग — वो लोग जो सच्चाई की लड़ाई में उसके साथ थे…इंतज़ार कर रहे थे।
“Done,” उसने एक शब्द के साथ मैसेज भेजा।
उसकी आँखों में अब न आंसू थे, न डर — अब वहाँ थी सिर्फ़ आग। वो आग जो अब पूरे राठौर साम्राज्य को जलाने वाली थी।
सुहानी ग्रुप में मैसेज टाइप करती है — “हमें पूरी फोर्स चाहिए होगी इन ठिकानों के लिए। हर जगह छापा पड़ना चाहिए, अब कोई मासूम नहीं मरना चाहिए।”
सेंड।
अभी उसने मैसेज भेजा ही था कि दिग्विजय गुस्से से अपनी कुर्सी से खड़ा हो गया।
“तुम इस तरह से अपनी बात से मुकर नहीं सकती!” उसकी आवाज़ कांप रही थी — गुस्से से या डर से, अब उसे खुद भी नहीं पता था।
“तुमने कहा था — अगर मैं उन सारे ठिकानों का नाम बता दूँ, तो तुम मुझे मंदिरा और मेरे बेटे का पता बताओगी!”
सुहानी उसकी बात पर हँस पड़ी — मगर वो हँसी… कोई आम हँसी नहीं थी। उसमें करुणा थी… घृणा भी… और एक अनकहा दर्द।
"मैं चाहूँ तो तुम्हें कुछ भी ना बताऊँ, दिग्विजय राठौर," उसने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा, “क्योंकि तुम्हारी इन्हीं हरकतों की वजह से वो तुमसे दूर भाग गए थे।”
“क्या मतलब 'दूर भाग गए थे'?” दिग्विजय की आवाज़ अचानक धीमी हो गई — जैसे दिल में कोई गहरी दरार पड़ गई हो।
सुहानी कुछ कदम उसके करीब आई…उसका चेहरा अब पूरी तरह शांत था, मगर उसकी आँखों में ज्वाला जल रही थी। “मैं कैसे मान लूँ कि ये सारे ठिकाने सही हैं? या फिर इतने ही हैं?” सुहानी की आवाज़ में शंका के साथ-साथ चेतावनी भी होती है।
"देखो," दिग्विजय झल्ला कर बोलता है, “मैंने इस कागज़ पर सारे ठिकानों के नाम लिख दिए हैं। और अब एक भी बाकी नहीं है। और वैसे भी... ये सब मेरा प्लान नहीं था। ये सब उस सनकी औरत का किया-धरा है!”
सुहानी की आंखें सिकुड़ जाती हैं — “सनकी औरत?”
दिग्विजय एक कड़वी हँसी हँसता है, फिर थूक निगल कर कहता है, “गौरवी…उसकी आंखों में बस एक ही ख्वाब था — अपना खोया हुआ बचपन वापस पाना, पागल हो चुकी है वो।”
अब सुहानी पूरी तरह चौकन्नी हो जाती है।
“कहती है, 'मैं फिर से जीऊंगी अपना बचपन।' इसलिए इतने सारे बच्चों पर एक्सपेरिमेंट्स कराए गए। उसके लिए ये सब बच्चे सिर्फ एक 'प्रोजेक्ट' थे — एक ऐसी तकनीक तैयार करना, जो उसकी सनक को पूरा कर सके। वो चाहती है एक ऐसी तकनीक, जो उसे उसके बचपन में वापस भेज सके। टाइम ट्रैवल, माइंड ट्रांसफर, genes modifier, मैं खुद नहीं जानता वो क्या बकवास कर रही थी। पर वो किसी भी हद तक अपना बचपन वापस पाने को तैयार थी।”
सुहानी का चेहरा सख्त हो जाता है।
“तो ये सिर्फ अपराध नहीं, एक पागलपन की इंतेहा है। बच्चों का जीवन बर्बाद कर देना, सिर्फ इसलिए कि कोई औरत अपना गुज़रा हुआ वक़्त फिर से जीना चाहती है?”
दिग्विजय धीरे से सिर हिलाता है।
“वो कहती थी — 'दुनिया से जो मेरा छीना गया, मैं उसे वापस लाऊंगी... चाहे पूरी दुनिया क्यों न जलानी पड़े।'”
सुहानी अब गहराई से सांस लेती है, उसके सामने अब सिर्फ एक भ्रष्ट इंसान नहीं, एक बीमार, लेकिन बेहद ख़तरनाक दिमाग़ वाली औरत का साथ देने वाला आदमी खड़ा है, जिनकी सनक मासूम ज़िंदगियों की क़ीमत पर फल-फूल रही थी।
“उसे सिर्फ जवान नहीं बनना...” दिग्विजय रुक कर सुहानी की आँखों में देखता है, “वो वापस... एक बच्ची बनना चाहती है।”
सुहानी अवाक रह जाती है।
“इसलिए जिन ठिकानों पर छापे पड़ेंगे, वहाँ तुम्हें ज़्यादातर बच्चे मिलेंगे…बड़े लोग कम। पहले उन बच्चों पर एक्सपेरिमेंट किए जाते हैं... और अगर कोई टेस्ट 'सफल' हो गया, तो उसी टेक्नोलॉजी को बड़ों पर लागू करने की कोशिश होती है। आज तक कभी सफलता नहीं मिली।”
वो हँसता है — एक थकी हुई, खोखली हँसी।
“ना जाने कितने पैसे उड़ा दिए हैं उसने इस पागलपन पर। करोड़ों... बस अपने बचपन को फिर से जीने के लिए।”
अब सुहानी का चेहरा सख्त हो जाता है, जैसे अंदर ही अंदर कुछ उबल रहा हो।
“तुम लोगों ने मासूम बच्चों को सिर्फ एक एक्सपेरिमेंट की तरह ट्रीट किया? सिर्फ इसलिए कि एक औरत को अपना खोया हुआ बचपन चाहिए था?”
"उसका कहना था," दिग्विजय फिर बुदबुदाता है, “मैं फिर से गुड़ियों से खेलूंगी, मैं फिर से अपने पापा की गोद में बैठूंगी, फिर से वो कहानियाँ सुनूंगी जो मुझे कभी नहीं सुनाई गईं...'”
“पर उसके इस 'ख्वाब' ने ना जाने कितने मासूमों के असली बचपन छीन लिए।” सुहानी का स्वर काँपता है, पर उसकी आँखों में नफरत की लौ जल रही होती है।
आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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