“फिर मैंने सोचा...” दिग्विजय की आवाज़ में अब डरावनी सहजता थी, “जब हमारे पास इतने बच्चे और मरीज़ पहले से ही हैं, तो क्यों न दवाइयों का भी एक्सपेरिमेंट कर ही लिया जाए इन पर? आखिर कोई तो फायदा निकले इस पागलपन से। इन मासूमों पर खर्च हुआ पैसा कुछ तो लौटे...”
वो जैसे कोई बिज़नेस डील समझा रहा हो। कोई अपराधबोध नहीं, कोई पछतावा नहीं। जैसे ही वो सिर उठाता है, उसकी नज़र सुहानी पर पड़ती है।
सुहानी वहीं खड़ी है... अपने मुंह पर हाथ रखे हुए... आँसू रोकने की पूरी कोशिश में। उसकी आँखें नम हैं, होंठ काँप रहे हैं।पर आँसू…आँसू उसे धोखा दे देते हैं। एक बूँद गाल पर ढुलक ही जाती है। एक पल के लिए, वो पीछे मुड़ जाती है। अपने अंदर उमड़ते तूफान को सँभालने के लिए।
“तुमने इन्हें इंसान नहीं समझा... सिर्फ प्रोडक्ट्स, सिर्फ मुनाफा…क्या तुम्हारे अंदर ज़रा भी इंसानियत बची है?”
दिग्विजय चुप रहता है। पहली बार उसकी आँखों में हल्की सी घबराहट तैरती है — शायद सुहानी के आँसुओं से, या शायद अपने ही कर्मों के शब्दों से, लेकिन फिर उसके अंदर का राक्षस जीत जाता है, क्योंकि अगले ही पल उसके चेहरे पर एक हंसी होती है। कोई भी पछतावा ना होने की हंसी।
दिग्विजय ने कड़क आवाज़ में कहा, “अरे, रोना बंद करो! ये सारे मासूम बच्चे... उनकी ज़िंदगी? ऐसी ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी हैं? सड़क पर भटकते रहना, गाड़ियों के नीचे आकर मर जाना... ये सब कुछ ज़िंदगी नहीं, मौत का इंतज़ार है।”
दिग्विजय ने अपने आप को सही ठहराने की कोशिश की, “इससे बेहतर है कि ये किसी काम में आ जाएं।”
सुहानी का गुस्सा चरम पर पहुंच चुका था। उसका दिल टूट रहा था, पर उसकी आवाज़ में सख्ती और जज़्बा था, "ऑट!" उसने ठंडे अंदाज़ में कहा।
"क्या?" दिग्विजय ने अपनी नज़रों से उसे सवाल करते हुए पूछा।
सुहानी अब पूरी ताक़त से चीखी, "Get out! यहाँ से निकल जाओ!" उसकी आवाज़ में दर्द, घृणा और ताक़त का मेल था। वह अब किसी भी कीमत पर उस ज़हर को सहन करने को तैयार नहीं थी।
दिग्विजय अब तक संयम बनाए हुए था, मगर अब जैसे उसकी सहनशक्ति जवाब दे गई हो। “तुमने कहा था... अगर मैंने तुम्हारा कहा मान लिया, और सब कुछ बता दिया... तो तुम मुझे उनके बारे में बताओगी। अब ये क्या बकवास है कि वो मुझसे दूर भाग गए? क्या मतलब है इसका?”
उसका चेहरा लाल था, आँखें गुस्से और अपमान के मिले-जुले भाव से सुलग रही थीं। मगर उसके स्वर में एक बेबसी भी थी — शायद एक पिता की जो अपने ही कर्मों से अपने सबसे कीमती रिश्ते खो चुका था।
सुहानी ने उसकी ओर देखा — लंबी, ठंडी नज़रों से। फिर वो एक गहरी साँस लेती है, जैसे अंदर उबलती नफरत और दुख को शब्दों में ढालने के लिए खुद को स्थिर कर रही हो।
“मतलब ये...” उसका स्वर बेहद शांत, मगर उसमें ज्वालामुखी सी तपिश थी।
"...कि मंदिरा ने तुम्हारे काले, घिनौने कारनामों से खुद को और अपने बेटे को अलग करने का फैसला लिया। उसे लगा, कि एक राक्षस की परछाई में पलना, अपने बेटे की मासूमियत को मार डालने जैसा होगा। उसे लगा कि अगर वो रुकी, तो तुम्हारे गुनाह उसके बच्चे की रूह तक को खा जाएंगे।"
दिग्विजय की पलकों में हलचल होती है। सुहानी आगे बढ़ती है, अब उसकी आँखें दिग्विजय की आँखों में सीधे उतर रही थीं।
"मंदिरा भागी नहीं थी... तुमसे बचने के लिए दूर जा रही थी। अपने बच्चे को बचाने के लिए... खुद को बचाने के लिए…ताकि तुम्हारी ज़हरीली दुनिया का एक कतरा भी उनके जीवन को छू न सके। तुम्हारे बेटे ने तुम्हारी उस झूठी, क्रूर छवि से नफ़रत करना शुरू कर दिया था — हर बार जब वो तुम्हारे बारे में कुछ सुनता, उसे घिन आती थी। हर बार जब वो तुम्हें याद करता, उसे शर्म आती थी कि उसका कोई रिश्ता है तुमसे।"
दिग्विजय जैसे कुछ बोलना चाहता था, पर शब्द उसका साथ छोड़ देते हैं। उसकी मुठ्ठियाँ भींच जाती हैं, मगर वो सुहानी की आँखों की आग से नज़र नहीं चुरा पाता।
सुहानी अब आखिरी वार करती है — "वो दोनों... तब सिर्फ़ तुमसे दूर नहीं गए थे। बल्कि आज़ाद हुए थे— तुम्हारी इस दुनिया से, तुम्हारे झूठ से, तुम्हारे गुनाहों से, और सबसे ज़्यादा... तुमसे।"
उसके हर लफ़्ज़ में नफरत झलक रही थी, लेकिन साथ ही एक करुणा भी — उन रिश्तों के लिए जो एक आदमी के लालच और पागलपन की बलि चढ़ गए।
दिग्विजय का चेहरा अब पत्थर जैसा निर्विकार हो गया था। उसके अंदर कुछ टूट रहा था — शायद वो झूठ जिसे उसने सालों से पकड़े रखा था। और अब, उस सन्नाटे में केवल सुहानी की आवाज़ गूंज रही थी... जो उसके अंतर्मन में हथौड़े की तरह बज रही थी।
दिग्विजय कुछ पल तक सुहानी की बात को समझ ही नहीं पाया। उसके चेहरे से जैसे खून उतर गया हो, फिर अचानक वो लड़खड़ाते क़दमों से दो क़दम पीछे हट गया — जैसे किसी ने उसके सीने पर गहरी चोट मार दी हो।
उसकी आवाज़ काँप रही थी, जब उसने मुश्किल से शब्द निकाले — “मतलब... वो... वो मुझसे... ख़ुद अपनी मर्ज़ी से... दूर चले गए?”
उसका गला सूख गया था। आँखों में अविश्वास की परछाईं तैरने लगी थी, “और मैं... मैं यहाँ बैठा ये सोचता रहा कि किसी ने... उन्हें किडनैप कर लिया है।”
सुहानी के चेहरे पर एक पल को करुणा की परछाईं उभरी, मगर तुरंत उसके भीतर की आग भड़क उठी। वो तेज़ी से दिग्विजय की ओर बढ़ी — उसकी चाल में दृढ़ता थी, आँखों में ज्वाला और होठों पर एक ज़हरीली मुस्कान।
“ओह... किडनैपिंग तो ज़रूर हुई थी उनकी,”
उसने हर शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा, “मगर जब तुम ये सुनोगे की किसने ये किया था — तो तुम्हारे पैरों तले से ज़मीन खिसक जाएगी, दिग्विजय राठौर।”
दिग्विजय की साँसें तेज़ हो गईं। उसने जैसे खुद को संभालने की कोशिश की, पर अब तक उसका संयम टूट चुका था। उसकी आँखें सुर्ख़ हो गईं, और आवाज़ लावा बनकर फूटी — "कौन था वो?! किसने मेरे बेटे पर हाथ डालने की हिम्मत की? बताओ मुझे!!!”
उसकी चीख़ में सिर्फ़ ग़ुस्सा नहीं था, बल्कि एक टूटा हुआ अभिमान और बिखरती हुई सत्ता की छटपटाहट भी थी। मगर सुहानी अब शांत थी — एक तूफ़ान के बाद की शांति। उसने सिर झुकाया, फिर उसकी आँखें फिर से दिग्विजय की आँखों से टकराईं। उसका अगला वाक्य, इस टूटते हुए पिता के लिए सबसे बड़ा वज्रपात होने वाला था।
सुहानी की आँखों में अब डर नहीं, बल्कि एक तीखी चमक थी — जैसे किसी ने वर्षों का दर्द और घृणा उसके भीतर भर दिया हो और अब वो लावा बनकर फूट रहा हो। वो धीरे-धीरे दिग्विजय के सामने आकर खड़ी हो गई, उसकी आँखों में झाँकती हुई, जैसे उसकी आत्मा की तह में उतर जाना चाहती हो।
उसने एक कड़वी मुस्कान के साथ कहा, “यही तो इंटरेस्टिंग बात होती है, तुम जैसे लोगों के साथ। तुम्हारा अपना कोई नहीं होता, दिग्विजय…तुम सोचते हो पैसा ही सब कुछ है। पाप के नाम पर दौलत इकट्ठी कर लेते हो, प्रॉपर्टी खड़ी कर लेते हो, मगर इंसानी रिश्ते? उन्हें तुम कभी कमा ही नहीं पाते।”
वो एक पल को रुकी, फिर थोड़ा आगे झुककर धीमे मगर धारदार शब्दों में बोली — “कोई भी कभी भी उठ कर तुम्हारी पीठ में खंजर घोंप देता है।और तुम हैरान हो जाते हो, लेकिन सच्चाई ये है कि कभी न कभी, तुमने भी उनकी पीठ में खंजर घोंपा होता है। कभी लालच के लिए, कभी सत्ता के लिए, या सिर्फ़ इसलिए कि तुम दिग्विजय राठौर हो — और तुम्हें लगता है कि तुम जो भी करोगे, वो सही ही होगा।”
दिग्विजय के चेहरे पर गुस्से और उलझन का अजीब सा मिश्रण उभर आता है। उसके माथे पर बल गहराने लगते हैं, जैसे कोई पुराना डर फिर से सर उठा रहा हो।
उसकी आवाज़ अब धीमी थी, मगर भीतर से बुरी तरह काँपती हुई — “तुम किसकी बात कर रही हो, सुहानी? किसने... किसने भोंका मेरी पीठ में खंजर?”
सुहानी की नजरें अब दिग्विजय से हट कर दूर किसी अतीत की तरफ चली गईं थीं — वहाँ से अब एक और राज़ निकलने वाला था, एक ऐसा सच जो दिग्विजय के बनाए हुए महल को जड़ से हिला सकता था।
किस-किस का नाम गिनवाऊँ, दिग्विजय राठौर?" सुहानी ने शब्दों को ऐसे उछाला जैसे किसी खेल में चाबियाँ हों — चुभती हुई, मगर जानबूझ कर।
“चलो, एक हिंट देती हूँ आपको...” वो उसके बिल्कुल करीब आ गई।
“ऐसा कौन है, जिसकी जिंदगी से आपने उसका पहला और आखिरी प्यार छीन लिया था? जिसकी शादी से ठीक पहले आपने उसे उसके प्रेमी से जुदा कर दिया था? और अब, उसी नाम से आपकी रूह काँप उठती है? सोचिए, सोचिए, कौन है वो?”
दिग्विजय की साँसें रुकने लगीं। आँखें भटकने लगीं, जैसे कहीं उस नाम को ढूंढ रही हों, जो अतीत के अंधेरे से निकल कर सामने आ खड़ा हुआ हो।
“र... रणवीर...” उसके मुँह से नाम ऐसे निकला जैसे कोई पुराना ज़ख्म फिर से हरा हो गया हो।
“बिलकुल सही जवाब!”
दिग्विजय की आवाज़ अब धीमी, मगर डरी हुई थी — “पर क्यों?”
दिग्विजय के सवाल पर सुहानी के चेहरे पर एक सधा हुआ, मगर भीतर तक चुभता हुआ संतोष झलकता है।
“क्यों?” — सुहानी ने उस एक शब्द को दोहराया, उसकी आवाज़ में अब आग थी — “क्योंकि आपने उससे सब कुछ छीन लिया था, दिग्विजय राठौर।उसका बचपन, उसका प्यार, उसका विश्वास, यहाँ तक कि उसकी इंसानियत भी।”
वो एक कदम और आगे बढ़ती है।
“रणवीर ने आपसे कभी कुछ नहीं माँगा था। वो सिर्फ़ अपने हिस्से की मोहब्बत चाहता था। लेकिन आपने क्या किया? शादी के ठीक पहले, आपने मेरी माँ को उससे दूर कर दिया। झूठ, धमकी और चालों से उसे मजबूर किया कि वो रणवीर को छोड़ दे और उस आदमी से शादी करे जिससे उसका कोई रिश्ता नहीं था — मेरे पिता से।”
दिग्विजय की साँसें अब उखड़ने लगी थीं। वो एक कुर्सी की ओर बढ़ा जैसे उसके पैरों में अब ताकत नहीं रही हो।
“आपने रणवीर की दुनिया उजाड़ दी, इसलिए क्योंकि आपको हमेशा ये डर था — कि अगर काजल रणवीर की हो गई, तो आपके पास कुछ नहीं बचेगा। ना विरासत पर हक, ना सत्ता पर राज।”
सुहानी की आवाज अब और सख़्त हो गई — “आपने रणवीर को तबाह कर दिया, दिग्विजय राठौर। और उसने — आपके सबसे कीमती खज़ाने को छीन कर आपको वही दर्द लौटाया। मंदिरा और आपके बेटे को उसी ने छिपाया।”
अब दिग्विजय की आँखें फटी की फटी रह गईं। वो जैसे अपने कानों पर यकीन नहीं कर पा रहा था।
“रणवीर…? उसने… ऐसा क्यों किया मेरे साथ?”
सुहानी की आँखों में अब सिर्फ़ आक्रोश नहीं, बल्कि इतिहास का बोझ भी झलक रहा था। उसकी आवाज़ में गूंज थी — एक ऐसी गूंज, जो सच्चाई का दरवाज़ा तोड़ने आ रही थी।
“अरे, अभी तो बताया मैंने…”
वो दिग्विजय की तरफ़ झुक कर बोली, “उसका प्यार आपने छीन लिया था उससे… तो उसने भी आपसे आपका प्यार छीन लिया….हिसाब बराबर।”
दिग्विजय की आँखें थरथरा रही थीं — जैसे वो सब कुछ अब पहली बार जान रहा हो। लेकिन सुहानी रुकी नहीं।
“मगर बात यहाँ ख़त्म नहीं हुई थी…एक और दिलचस्प मोड़ आया उस कहानी में। उस वक़्त — मेरी माँ, काजल — रणवीर से मिलने पहुँची थीं। मेरा जन्म हो चुका था… और वो अपने अतीत को हमेशा के लिए पीछे छोड़ना चाहती थीं। वो उन्हें समझाने गई थीं, कि अब वो आगे बढ़ चुकी हैं। अब उनकी दुनिया है — शिव प्रताप, उनका पति, और मैं और मेरा भाई — उनके बच्चे। वो रणवीर को दुख नहीं पहुंचाना चाहती थीं, लेकिन अपने पति से भी बेवफाई नहीं कर सकती थीं।”
सुहानी की आँखें एक पल के लिए भीगीं, मगर वो खुद को संभाल लेती है।
“लेकिन जब वो रणवीर के उस छुपे हुए ठिकाने पर पहुँचीं — तो वहाँ पहले से ही दो मेहमान मौजूद थे…आपकी प्रेमिका मंदिरा, और आपका बेटा — ऋत्विक।”
दिग्विजय का चेहरा ज़र्द पड़ गया। वो कुछ बोलने ही वाला था, पर सुहानी की अगली पंक्तियों ने उसे जड़ कर दिया।
“हाँ…मेरी माँ — जिस औरत को आपने अपनी सियासत और पापों की आग में झोंक दिया था, उसने उस दिन — आपकी प्रेमिका और आपके बेटे को बचाने के लिए अपने पुराने प्रेमी — रणवीर से टक्कर ली थी। सोचो न दिग्विजय राठौर, जिस प्यार से आपने मेरी माँ को छीन लिया, उसी प्यार से वो आपका प्यार बचाने वाली ढाल बन गईं।”
आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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